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असूयाग्रस्त हैं हम सब

मणिपुर! क्या कहूँ मणिपुर के हालात पर!!
बोलूँ —असूयाग्रस्त हैं हम सब!   
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स्तब्ध हूँ। क्या बोलूँ मध्य प्रदेश में हुई दर्दनाक घटना पर! क्या बोलूँ संसद में दी गई गालियों पर! क्या बोलूँ संसद में सुनाई गई कविता पर जीभ खींच लेनेवाले बयान पर! बोलूँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने क्या कहा था, फैज ने क्या कहा था, गालिब नजीर ने क्या कहा था! बोलूँ प्रेमचंद ने क्या कहा था! बोलूँ राहुल ने क्या कहा था! मुक्ति बोध ने क्या कहा था! नागार्जुन ने क्या कहा था! बोलूँ वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी ने क्या कहा था! बोलूँ अनंतमूर्ति ने क्या कहा था! बोलूँ — धूमिल ने क्या कहा था! क्या कहा गया था बोलूँ मँजी हुई जनतंत्र में क्या कहा गया है! बोलूँ, क्या मतलब होता है मँजी हुई जनतंत्र का!  या बोलूँ गाँधी, नेहरु, सुभाष, पटेल, भगतसिंह, आजाद, लेनिन, चे, गैरीबाल्डी, सुकरात, टॉल्सटाय, बेकन, कांट, हेगेल, जॉन स्टुअर्ट मिल, बेंथम, ब्रेख्त और ऐसे ही बहुतेरे लोगों ने क्या कहा था! बोलूँ दुनिया भर के धर्म ग्रंथों नीतियों में क्या कहा गया है! मतदान के बाद न मिटनेवाली स्याही लगी अंगुली दिखाते हुए सेल्फी खिंचवानेवाले हमवतन को बोलूँ!  बोलूँ — मेरे मित्रों ने कब-कब क्या कहा था! किस को बोलूँ! किस-किस को बोलूँ! बोलूँ तो क्या बोलूँ! बोलूँ संसद की बात पर बाहर कचहरी में कोई सुनवाई नहीं होती और बाहर की बात पर संसद कोई चर्चा नहीं करती! बोलूँ मन की बात बोलूँ मतिहारा, मतिमारा मतिहारों, मतिमारों का क्या बोले! क्या-क्या बोले! कंठरोध हो गया है। रुद्ध कंठ बोले भी तो कौन सुनना चाहता है? सुनकर कितनी देर, कितनी देर याद रखने की क्षमता रखता है! बोलूँ असूयाग्रस्त हैं हम सब!   

शहीद भगतसिंह को प्रणाम

शहीद भगतसिंह को प्रणाम

विचार व्यवहार और देश प्रेम को प्रणाम

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शहीद भगतसिंह का आज जन्म दिन है।

शादी के लिए भगतसिंह पर परिवार का, खासकर दादी का दबाव, बढ़ रहा था। भगतसिंह शादी के प्रस्ताव से सहमत नहीं थे। उन्होंने पिता जी को पत्र लिखा

पूज्य पिता जी, नमस्ते।     

मेरी जिन्दगी मकसदे-आला यानी आजादी-ए-हिन्द के असूल के लिए वक्फ हो चुकी है। इसलिए मेरी जिन्दगी में आराम और दुनियावी ख़ाहशात बायसे कशिश नहीं हैं।      आपको याद होगा कि जब मैं छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त एलान किया था कि मुझे खिदमते-वतन के लिए वक्फ दिया गया है। लिहाजा मैं उस वक्त की प्रतिज्ञा पूरी कर रहा हूँ। उम्मीद है आप मुझे माफ फरमायेंगे।

आपका ताबेदार,

भगतसिंह

 

मॉडर्न रिव्यू में “इन्कलाब जिन्दाबाद” को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की गई थी। भगत सिंह और बी. के. दत्त ने इस संदर्भ में संपादक को अपना प्रतिवाद लिखा। पत्र की भाषा और भाव दखने-समझने लायक है। आज के दिन प्रणाम करते हुए स्वतः स्पष्ट  पत्र का प्रारंभिक और अंतिम अंश प्रस्तुत है

“सम्पादक महोदय,     

मॉडर्न रिव्यू।    

आपने अपने सम्मानित पत्र के दिसम्बर, 1929 के अंक में एक टिप्पणी “इन्कलाब जिन्दाबाद” शीर्षक से लिखी है और इस नारे को निरर्थक ठहराने की चेष्टा की है। आप सरीखे परिपक्व विचारक तथा अनुभवी और यशस्वी सम्पादक की रचना में दोष निकालना तथा उसका प्रतिवाद करना, जिसे प्रत्येक भारतीय सम्मान की दृष्टि से देखता है, हमारे लिए एक बड़ी धृष्टता होगी। तो भी इस प्रश्न का उत्तर देना हम अपना कर्त्तव्य समझते हैं कि इस नारे से हमारा क्‍या अभिप्राय है। यह आवश्यक है, क्‍योंकि इस देश में इस समय इस नारे को सब लोगों तक पहुँचाने का कार्य हमारे हिस्से में आया है।

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यह आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदैव न रहे ओर वह नयी व्यवस्था के लिए स्थान रिक्त करती रहे, जिससे कि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके। यह है हमारा वह अभिप्राय जिसको हृदय में रखकर हम “इन्कलाब जिन्दाबाद' का नारा ऊँचा करते हैं।

 

22 दिसम्बर, 1929 भगतसिंह - बी.के. दत्त”

 

(साभार : इन्कलाब जिन्दाबाद क्या है? : भगतसिंह के पत्र और दस्तावेज़)

 

 

 

 

जीवन में सोंदर्य

जीवन में सौंदर्य

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जीवन में सौंदर्य का बहुत महत्त्व है। इसका कारण क्या है? इसका कारण है शक्ति आकर्षण और अनुकूलन की तीव्र शक्ति। सौंदर्य में सत्य और शिव (शुभ) तत्त्व न हो तो सौंदर्य अनिष्टकर होता है दैनिक संदर्भ में, हम जब सुंदर कहते हैं तो अधिकतर मामलों में हमारी मुराद लावण्य होता है।  जीवन के खैंचतान से भिन्न-भिन्न तरह का असंतुलन आता रहता है प्रकृति में संतुलन! प्रकृति का एक अर्थ मनुष्य का स्वभाव भी है स्वाभाविक लगनेवाला मनुष्य का बरताव एवं अन्य अदृश्य कारक सार्वजनीन जीवन में असंतुलन लाता रहता है। हाँ, यह भी कि मनुष्य का  व्यवहार और अदृश्य कारक इसे संतुलित भी करता रहता है असंतुलन-संतुलन की मूल द्वंद्वात्मक प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। मनुष्य इस अदृश्य कारक को महसूस करता है, लेकिन इसकी व्याख्या नहीं कर सकता है इस अदृश्य कारक की अमूर्त्त शक्ति को ईश्वर माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि ईश्वर अपना उपादान और निमित्त दोनों है।

ईसाई धर्म ग्रंथ बाइबिल में THE TRUTH, THE GOOD, THE BEAUTIFUL की त्रिमूर्ति की चर्चा है। प्रसिद्ध आलोचक आइ ए रिचर्ड ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Principles of Literary Criticism में इसे रचना के मूल्यांकन की कसौटी माना ‘In religion we believe that God is Beauty and Life, that God is Truth and Light, that God is Goodness and Love, and that because he is all these hey are all one, and the Trinity in Unity and Unity in Trinity is to be worshipped.

देवेन्द्र नाथ ठाकुर ने THE TRUTH, THE GOOD, THE BEAUTIFUL का संस्कृत अनुवाद “सत्यम शिवम सुंदरम” किया। प्रसंगवश, देवेन्द्र नाथ ठाकुर विश्व कवि रवीन्द्र नाथ के पिता थे। आज “सत्यम शिवम सुंदरम” को वेद वाक्य जैसा दर्जा हासिल है।

जीवन में असंतुलन, नाव में पानी की तरह है। कबीर ने चेताया था पानी बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम। दोनों हाथ उलीचिए यही सयानों काम।।

असंतुलित वैभव के विपत्ति बनते देर नहीं लगती है।

जीवन सुंदर हो इसके लिए जीवन में असंतुलन जरूरी है। पहचान सकते हैं तो, असंतुलन के कारकों को पहचानिये और जीवन के सौंदर्य को बनाये रखने के लिए दोनों हाथ से न सही, कम-से-कम एक हाथ से उलीचते रहिए। क्या!             

क्या हम गुलाम हैं!

     क्या हम गुलाम हैं!

 

 

हमारे मन में बार-बार सवाल उठता है क्या हम गुलाम हैं। दिमाग कहता है नहीं, बिल्कुल नहीं। और दिल! दिल कहता है और नहीं तो क्या? दिल दिमाग आपस में उलझता ही रहता है। सही स्थिति क्या है? कहना मुश्किल है क्योंकि न दिमाग ठीक कहता है, न दिल ठीक कहता है हम कभी आजाद होते हैं, कभी गुलाम! कोई साफ स्थिति नहीं है। सुबह-सुबह एक आदमी इस तरह रास्ते में बुदबुदाता जा रहा था। वह चला गया। लेकिन मेरा दिल-दिमाग दोनों ही एक बार फिर इस सवाल में उलझकर रह गया क्या हम गुलाम हैं?

अब मैं चाय-वाय पीकर इस सवाल के पीछे पड़ गया। मन में आया कि इस तरह के सवाल तो और लोगों के मन में भी यदा-कदा उठते ही रहे होंगे — खासकर सिद्धांतकारों और दार्शनिकों के मन में तो जरूर उठते रहे होंगे। वैसे भी सिद्धांतकारों और दार्शनिकों से कम-से-कम इस तरह के सवाल तो छूटते नहीं हैं! उन्होंने जरूर इस पर कुछ-न-कुछ सोचा होगा, राय बनाई होगी। अब ऐसे सिद्धांतकार और दार्शनिक कहाँ मिलेंगे — सोचके मन मायूस हो गया। फिर ध्यान आया भारत में तो हर दूसरा आदमी दार्शनिक और पहला आदमी दार्शनिक होता है। सिद्धांतकारों और दार्शनिकों से भरी इस पुण्य भूमि पर ऐसे सवालों के सामने मायूस होना असंगत है। वैसे तो पुण्य भूमि के पण्य भूमि में विकसित हो जाने के बाद स्थिति में कुछ बदलाव तो आया है, मगर उतना भी अभी नहीं आया है कि मायूसी छा जाये। गौर से विचार करने या कह लीजिये मन में उथल-पुथल मचने के बाद पाया कि यहाँ सिद्धांतकार और दार्शनिकों का विकास या तो कवि में या महात्मा में हो जाता है — कभी-कभी तो एक ही आदमी कवि और महात्मा दोनों के रूपों को साधे हुए प्रकट होता है। बस अब गुत्थी सुलझने लगी — बचपन में ही मुझे शब्दों को जोड़ने-तोड़ने का कुटेव लग गया था, जोड़ने का कम : तोड़ने का अधिक। दो-चार अपने जैसे मिल गये जिन्होंने इस जोड़-तोड़ को कविता कहके मन को पागल बना दिया। यह तो जल्दी ही समझ में आ गया कि वे चाहते हैं मैं भी उन्हें पागल बनाने के लिए कुछ-न-कुछ करूँ। जिसे मैं जल्दी ही कह रहा हूँ, असल में वह बहुत देर हो चुकने के बाद हुआ। इतनी देर कि लौटने की कोई राह न बची! मैं लौटते-लौटते भी सिद्धांतकार के प्लेटफॉर्म तक ही पहुँच पाया अब तक! आगे बढ़ने की कोशिश करता रहता हूँ — एक दिन कामयाबी मिल जायेगी। विश्वास है, जब यहाँ तक लौट आया हूँ तो एक दिन मनुष्य होने तक भी लौट जा सकता हूँ। मनुष्यतर लौटने में लोगों को आपत्ति हो सकती है, बल्कि है — सो मनुष्य तक ही लौटने की ख्वाहिश में खैर है!

वैसे भी सोचने के अलावा जीवन में किया ही क्या है! जो सोचने का विषय नहीं उस पर भी सोचा बल्कि खूब सोचा — दत्तचित्त होकर सोचा। जब से सोचना अपराध हुआ है, सोचते हुए दिखने से बचने का अभ्यास कर रहा हूँ। घरवालों को भी मेरे सोचते हुए दिखने पर चिंता होती है। अतएव, अब मैं सोचता हुआ दिखे बिना सोच रहा था — पहली गुलामी चाय-वाय के चक्कर में पड़ना है। चाय-वाय की गुलामी के कारण कई बार घर में उलझ चुका हूँ — खासकर भोरुकवा चाय के चक्कर में। खैर, खून, खाँसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान की तरह सोचने को भी छिपाना आसान नहीं है! खैर, खून, खाँसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान से तो पिंड छूट गया है, अब सोचने से भी दूर होना जरूरी है — मगर सोचकर ही दूर हुआ जा सकता है। सोचने पर ही एक दार्शनिक याद  गये। उन्होंने कहा था, डंके की चोट पर कहा था — मैं सोचता हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व है। सोचना बंद करने के लिए मन को मनाना होगा — मेरा अस्तित्व नहीं है, इसलिए मैं नहीं सोचता हूँ।

सवाल फिर धक्का दे गया — क्या हम गुलाम हैं? दिल ने कहा जिस देश में गुलाम वंश का राज चला हो, उस देश में गुलामी के मजा पर सोचना चाहिए। है कि नहीं — हैये है! मजा तो तब न जब मन मान जाये कि हम गुलाम हैं! ओह तो क्या हम गुलाम भी नहीं हैं! अन-अस्तित्वों को आजाद नहीं कहा जा सकता, गुलाम तो बिल्कुल नहीं। अब, सिद्ध सिद्धांतकारों की राय जानना जरूरी है, अतएव निम्नलिखित :

— गुलाम बिका हुआ होता है। उसे अपने को एवं अपने कौशल, क्षमताओं आदि को बेचने का अधिकार नहीं होता है। जब बेचने का ही अधिकार न हो तो कोई अन्य संसाधनों पर स्वामित्व या इस्तेमाल के अधिकार की बात ही खत्म! गुलाम पूरी तरह स्वामी का चरणागत व शरणागत होता है — वह स्वामी के काम आता रहे, इसलिए उसका सारा ख्याल स्वामी रखता है, उसे कुछ सोचने की जरूरत नहीं है। जरूरत है तो, बस निजी सुख, संतोष, निजता के सवाल से परे रहके दिल की दृढ़ता, दिमाग की दक्षता और देह की क्षमता से आज्ञापालन की —बाकी तो मजे ही मजे हैं, कहीं और बौआने की कोई नौबत नहीं। जो सुख गुलामी में है, वह सुख और कहाँ त्रिभुवन में! आजाद अपने को, अपने समय को, अपने कौशल को, अपनी दक्षता आदि को बेचने का अधिकार रखता है, बल्कि बेचने के लिए बेचैन रहता है। आजाद निजी दुख, निजता को सुरक्षित रखने की सफल-विफल चेष्टा में लगा रहता है एक चिथड़ा सुख और निम्नकोटि के संतोष के लिए रात-दिन बौआता रहता है — एक भ्रम से निकलके दूसरे भ्रम में पनाह लेता रहता है। कभी-कभी तो सोचने लगता है — काश! मेरी तकदीर में गुलामी बदी होती!

संतुष्ट सूअर, असंतुष्ट मनुष्य के द्वंद्व में फँसा कुछ सोच रहा था। एक अखबारवाले को सोचता हुआ दिख गया — वह अभी-अभी जिन घरों में अभी भी अखबार की इज्जत या माँग बची हुई है, अखबार फेक कर बीड़ी सुलगा रहा था। पास आके पूछ बैठा :

 — सच-सच बताइये, क्या सोच रहे थे? आजकल लोग सच-सच नहीं बताते हैं — न सुख, न दुख!

— गुलामी अच्छी है या आजादी!

— कल मेरे साथ चलके बड़े साहब के कुत्ते की मिजाजपुर्सी कर आइए, शायद कोई बात सूझ जाये!

मैंने सोचा, मनुष्य को पूर्णता की तलाश रहती है — पूर्ण आजादी संभव नहीं है, गुलामी संभव है! गुलामी के विभिन्न प्रकार और कायदे हैं। जितनी पूर्ण गुलामी उतना ही मजा है! आनंद! हाँ, वह भी।  

अब सवाल बदल गया था — हम गुलाम क्यों नहीं हैं! यह बात यहाँ आके खत्म हुई या शुरू हुई राम जानें!

साहित्य का वर्गीकरण

9/24/2023

11:32 AM

साहित्य का वर्गीकरण

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साहित्य और साहित्य के वर्गीकरण का सवाल किसी-न-किसी आधार पर बार-बार उठता है। हिंदी में यह सवाल अधिक तीखा है। क्या दलित, आदिवासी साहित्य शायद यहाँ मुराद दलित, आदिवासी साहित्यकारों के लिखे साहित्य से है के बाहर या इतर जो भी लिखा गया साहित्य है उसे एक मुश्त ब्राह्मणवादी साहित्य मान लिया जाना चाहिए? यदि हाँ, तो इस सूची में ओबीसी को भी क्यों नहीं जोड़ लिया जाना चाहिए? और स्त्री साहित्य?

कुछ दिन पहले, एक विद्वान ने पुरस्कृत लेखों की सूची निकाली थी जाति के आधार पर। उस सूची में प्रेमचंद और नागार्जुन को उनकी जातियों के खाने में रखा गया था। इस पर एतराज की कोई बात है! प्रेमचंद और नागार्जुन जन्म से उन जातियों के थे ही। क्या इसी आधार पर प्रेमचंद और नागार्जुन के साहित्य को भी उन जातियों का साहित्य मान लिया जाना चाहिए! क्या यह ठीक होगा? साहित्य के अलावा भी जीवन में और बड़े काम होते हैं उन पर भी ध्यान देना जरूरी है। परंपरागत भारतीय समाज की कारीगरी का संबंध जाति से रूढ़ रहा है। यह भी सच है कि जाति व्यवस्था में भेदभाव का भयानक विष रहता है, जिसके बुरे प्रभाव से कोई इनकार नहीं कर सकता है। यह भी सच है कि ब्राह्मणवाद से इन इस विष-प्रभाव को कम करने या खत्म करने या मुकाबला करने के लिए विभिन्न जातियों से जुड़े लोग विभिन्न तरीकों स प्रयास करते रहे हैं इन प्रयासों में से एक तरीका है, साहित्य। अन्य जातियों से जुड़े लेखकों के लिखे ऐसे साहित्य को एक मुश्त ब्राह्मणवाद के खाता में डाल देना क्या उचित है! यहाँ ठहर कर सोचने की कोई जरूरत सूची इस तरह का वर्गीकरण करनेवाले को है? शायद उन्हें ऐसा सोचने की कोई जरूरत नहीं महसूस होगी! क्यों? इस क्यों का जवाब क्या हो सकता है?

ठहर कर, शक्ति और संवेदना की संरचना के संदर्भों पर विचार करने की जरूरत है। शक्ति के स्रोत और आधार वस्तुनिष्ठ अधिक होते हैं, इसलिए उन्हें वस्तुनिष्ठ तरीके से चिह्नित किया जा सकता है। शक्ति के विभिन्न स्रोत हैं —— राजनीतिक गतिविधि, राजकीय प्रक्रिया, आर्थिक प्रकिया और वित्तीय समावेशन, शिक्षा एवं कौशल अर्जन के अवसर। शक्ति का नैतिक परिणाम संवेदना में परिलक्षित होता है। संवेदना को स्रोत और आधार आत्मनिष्ठ अधिक होते हैं, इसलिए उन्हें आत्मनिष्ठ तरीके से ही चिह्नित किया जा सकता है।  अधिक संवेदना का सामाजिक, नैतिक संवेदना के विभिन्न स्रोत हैं —— भेदभाव मुक्त सामाजिक वातावरण, मानवमूल्य की अखंडता, व्यक्ति की गरिमा, स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक निष्ठा, सामाजिक और वैधानिक व्यवस्थाओं का अनुसरण करते हुए पारस्परिक सहमति या असहमति के प्रति सम्मान और आनंद-बोध का बने रहना। शक्ति और संवेदना का मिलन सामाजिक भूमि पर अवस्थित नैतिक संरचना में संभव होता है।

साहित्य शक्ति से अधिक संवेदना से जुड़ा मामला है। शक्ति में वर्गीकरण और वर्गीकरण में विभाजन स्वभावगत होता है, संवेदना में एकीकरण, और एकीकरण में समरसता स्वभावगत होती है। इस वर्गीकरण और एकीकरण में भी कई पेंच हो सकते हैं, या होते हैं। उन पेंचों सब से बड़ा पेंच है नैतिक मूल्यों को अवहेलित करते हुए शक्ति का संवेदना क्षेत्र में पदक्षेप। यह मान भी लें तो भी हिंदी साहित्य के वर्गीकरण को क्या रोक लेंगे! शायद नहीं। नहीं क्यों?

इसलिए नहीं क्योंकि, यह आत्मनिष्ठ मामला है। इसके साथ ही राजनीतिक परिस्थिति में बने मनोभाव के चलते हित साधन में किसी भी समुदाय के बाहर के किसी भी तत्त्व की स्वीकार्यता बनना मुश्किल है। उदाहरण : दलित हित की बात होनी चाहिए, लेकिन वह तभी स्वीकार्य होगा जब दलित समुदाय को कोई ऐसा करे; दलित समुदाय से बाहर का कोई दलित हित की बात करता है तो, वह स्वीकार्य नहीं होगा, बल्कि दखल माना जायेगा।

राजनीति अधिक शक्तिशाली होती है। राजनीति वर्गीकृत लक्ष्य समूह को संबोधित करती है, वहीं से प्राण रस प्राप्त करती है। राजनीति में वर्गीकृत अर्थात संगठित लक्ष्य समूह को वोट बैंक कहते हैं। शक्ति की गुणवत्ता समर्थन में प्राप्त वोट से तय होती है या हुई मानी जाती है। समर्थन में प्राप्त वोट का महत्त्व जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी बढ़ रहा है, साहित्य में भी बढ़ रहा है। क्या साहित्य की उत्कृष्टता समर्थन में प्राप्त वोट तय हो सकती है या मानी जा सकती है? कुछ लोग कहेंगे हाँ, कुछ लोग कहेंगे ना। इस हाँ, ना की स्वीकार्यता भी ‘हाँ’ या ‘ना’ के बीच बहुमत से तय होगी!

है बहुमत से सब तय नहीं होता है, सच है। लेकिन बहुमत से जो तय होता है, अल्पमत उस तयशुदा दायरे से निकल जाये यह मुश्किल ही होता है —— बात मानवीय संकाय की है‘हाँ’ या ‘ना’ कहनेवाले अपनी तरह से सोच सकते हैं चाहें तो, मुझे भी सही कर सकते हैं। न चाहें तो कोई बात नहीं।


  

      

 

   

जे रोऊँ तौ बल घटे, हँसौं तौ राम रिसाइ

जे रोऊँ तौ बल घटै, हसौं तौ राम रिसाइ!

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आलोचना का काम क्या है?

रचना के झूठ से समाज के सच को खोज निकालना!

अमरनाथ गुप्ता, सुनील झा, शेषनाथ प्रसाद की टिप्पणियाँ आई। इतनी टिप्पणी काफी है, मेरी पोस्ट पर। कुल मिलाकर यह कि इस बात को खोले जाने की जरूरत है। प्रसंगवश एक बात कह दूँ कि सल में डर और श्रद्धा के संदर्भ में महेश मिश्रा के प्रश्न पर रचनाओं के संदर्भ में सोचते हुए, यह बात सामने आई डर और श्रद्धा के बीच के, बाबा नागार्जुन के शब्दों में तिकड़म, को कैसे समझा जाये! इस क्रम में यह लगा कि सत्योपरांत के समय में रचना के झूठ से, सच निकालना आलोचना का काम है।

क्या रचना खुद झूठ होती है या रचना में झूठ होता है? मेरी भी मान्यता है कि रचना में झूठ होता है। झूठ होने से रचना त्याज्य नहीं हो जाती है क्योंकि रचना के झूठ में समाज का सच होता है। साहित्य और कविता के बारे में पहले भी बहुत कुछ रहा गया है, इसमें भ्रामक झूठ होता है, इसमें घातक झूठ होता है, देश निकाला की तक की बात भी कही गई, खासकर पाश्चात्य ज्ञान परंपरा और सिद्धांतिकी में। जिसका सत्यापन न हो सके उसे झूठ माना जाना चाहिए। ‘मीनिंग ऑफ मीनिंग’ ढेर सारे संदर्भ हैं, उन सारे संदर्भों तक इस समय न मेरी पहुँच है, न यहाँ इसके लिए अवकाश है, बस कुछ बातें स्मृति में है, जिनका मैं इशारा कर सकता हूँ। एक व्यक्तिगत सफाई कि मैं साहित्य का मूलतः पाठक हूँ, इसी चक्कर में पढ़ते-पढ़ते लिखने लग गया, थोड़ी-बहुत सराहना मिली तो बस रम गया अपने साहित्यकार या कवि-आलोचक होने का भ्रम कुछ दिन के लिए रहा हो इससे इनकार नहीं कर सकता, लेकिन इस समय तो बिल्कुल ही नहीं। अब तो बस नागरिक होने की ही चेतना बची है, वह भी कितने दिन! कह नहीं सकता। रचना में झूठ होता है यह जानते हुए भी रचना में रमा रहा, तो क्यों? किसी के पास इसके कई जवाब हो सकते हैं, या उन्हें इस बात से कोई लेना-देना भी नहीं हो सकता है। खुद के लिए इसका जवाब तलाशना जरूरी है जवाब यही है कि रचना के झूठ में समाज का सच होता है, जिसे खोज निकाला जा सकता है, निकाला जाना चाहिए। कुछ उदाहरण मुनासिब होगा यहाँ :

भीष्म साहनी की कहानी का एक अंश

‘चित्र अपने सामने पाकर बच्चा देर तक उसे ध्यान से देखता रहाफिर तर्जनी उठाकर चित्र पर रखते हुए ऊँची आवाज मे बोला : ‘पिता जी !’

और फिर तर्जनी को कौशल्या के चेहरे पर रखकर उसी तरह चिल्लाकर बोला : ‘माता जी !’

मजिस्ट्रेट ने दूसरा चित्र बच्चे के सामने रख दिया।

बच्चे का चेहरा खिल उठा और वह चहककर बोला : ‘अब्बाजी ! अम्मी !’

शकूर के दिल में उल्लास की लहर-सी दौड़ गई।’ 

(पाली)

इस अंश में जो वर्णित है वह घटना हुई थी, कौन कह सकता है! सत्यापन असंभव है। एक घटना के रूप में यह सत्य नहीं है। झूठ है। इस झूठ में सच छिपा है। अगर इस झूठ में सच पाठ के उपरांत पाठक न निकाले, या उस सच को निकालने में आलोचना मददगार न हो तो मानना चाहिए कि आलोचना अपना काम नहीं कर पा रही है। अध्यापन से जुड़े लोग नाहक घुसपैठ न समझें तो, इस अर्थ में मान सकते हैं कि साहित्य की आलोचना और साहित्य के अध्यापन में बहुत थोड़ा का अंतर होता है क्लास रूम और सामाजिक स्पक्ट्रम (Spectrum) का अंतर होता है। रचना को आस्वाद के पार जाकर आलोचना मदद न करे तो समझा जाना चाहिए कि आलोचना अपना काम नहीं कर रही है! भीष्म साहनी की कहानियों पर ‘आलोचना’ के लिए एक लेख तैयार किया था, भीष्म साहनी से सीखते हुए, उस में लिखा था —— ‘एक कथाकार के रूप में भीष्म साहनी वास्तविकता को गल्प में बदलने की कला जानते हैं और संभवत: यह जानते हैं कि पाठक भी अंतत:कई बार जान बूझकर और कई बार बिना जाने भी गल्प को वास्तविकता में बदलने की प्रक्रिया अपनाता है।

रचना प्रक्रिया और पाठ प्रक्रिया के बीच ‘कोडिंग’ और ‘डिकोडिंग’ रचना-संघर्ष और रचना-आस्वाद की सामाजिक प्रक्रिया है।’

कभी किसी ने किसी से पूछा था बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे! वैसी कोई पंचायत हुई थी, या वैसा कोई पंच परमेश्वर हुआ था? सत्यापन संभव नहीं है। बिगाड़ के डर से ईमान की बात कहने या न कहने की चिरंतन रस्साकशी सामाजिक सच नहीं है? रचना के झूठ से सच को खोज निकालना क्या आलोचना काम नहीं है! वह कौन थी? जो इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के पथ पर पत्थर तोड़ती दिखी थी निराला को! वह कौन थी, उस सर्वनाम का कोई नाम था इसका सत्यापन क्या संभव है? नहीं है। यह झूठ है। इस झूठ के भीतर जो सच छिपा है, उसे खोज निकालना आलोचना का काम है।

तभी कबीर को याद करता हूँ — साँच कहे तो मारन धावे, झूठहि जग पतियाना। सच कहने पर किसी के मार-मार छूटने, झूठ को पतियाने या रोने से बल घटने और हँसने से राम के रिसाने का जो डर कबीर के यहाँ है उसका सत्यापन संभव नहीं है — ‘जे रोऊँ तौ बल घटै, हसौं तौ राम रिसाइ।’  लेकिन कबीर की दुविधा में समाज का जो सच छिपा है, उसे तो खोज निकालना, आलोचना का ही काम है न!

फिर याद दिला दूँ, मैं श्रद्धा और तिकड़म के संबंध को खोजने के क्रम में डर के अंदर श्रद्धा के होने और उसे सकुशल डर के परिसर से बाहर निकालने में आलोचना की भूमिका की तलाश कर रहा था इस बीच यह बात दिमाग में आई कि रचना के झूठ से सच को खोज निकालना आलोचना का काम है। यह बात दिमाग में इसलिए आई कि एक तरफ आज रचना के झूठ से समाज के सच निकालने में आलोचना नाकाम हो रही है, तो दूसरी तरफ रचना के झूठ से रचना से भी बड़ा झूठ निकालकर समाज में फैलाया जा रहा है, डर का आयतन बड़ा हो रहा है और श्रद्धा की व्याप्ति भी फैल रही है; तभी तुलसीदास की पंक्ति साझा की याद आई — झूठइ लेना झूठइ देना। सत्योपरांत रचना के झूठ से समाज के सच को खोज निकालने का प्रयास जारी है ...

 

 

आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव

दूरी बनाना मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला नहीं.

आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव है

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भारत की राजनीति में विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A — के दलों ने कुछ समाचार वाचक और समाचार चर्चाकारों ANCHORs   के कार्यक्रमों में चर्चा के लिए अपने प्रतिनिधियों को नहीं भेजे जाने का निर्णय किया है। इसे कुछ लोग मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला, मीडिया का बहिष्कार बता रहे हैं, कुछ असहयोग कह रहे हैं और इसे उनका हक बता रहे हैं। कुछ लोग इसे आपातकाल में हुए मीडिया पर हमले से भी जोड़के विश्लेषित कर रहे हैं। बहिष्कार या असहयोग की बारीकियाँ अपनी जगह, लेकिन एक स्वतंत्र नागरिक के नाते इस पर सोचना जरूरी है।

पहले आपातकाल में मीडिया पर हुए हमले की बात। उस दौरान पत्रकारों को सच बोलने, छापने से रोकने के लिए किया गया था, यह निश्चित रूप से निंदनीय था। उस दौरान पत्रकारों और संपूर्ण मीडिया पर हमला किन लोगों की तरफ से किया गया था? बेशक, सत्ताधारी दल और उस से जुड़े लोगों और तत्कालीन नौकरशाहों ने किया था। हमला मीडिया को पालतू बनाने के लिए किया गया था, जो पालतू बन गये वे आराम से थे। पालतू बनने के अपने फायदे हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। जिन्होंने पालतू बनने से इनकार किया उन्हें जबर्दस्त हमला झेलना पड़ा, क्षति उठानी पड़ी।

पत्रकारों या मीडिया पर हमला कौन कर सकता है? बेझिझक होके कहा जा सकता है कि यह ताकत, सिर्फ और सिर्फ सत्ताधारी दल, उस से जुड़े लोगों और ‘प्रतिबद्ध नौकरशाह’ के पास ही होती है इतनी ताकत उन्हीं के पास होती है। विपक्ष तो सही तरीके से अपनी बात को उठाने के लिए मीडिया का मुँह जोहता रहता है, मुँहतक्की में लगा रहता है, वह क्या हमला करेगा! कुछ समाचार वाचकों, या चर्चाकारों के कार्यक्रमों में सही तरीके से अपनी बात को नहीं उठाये जाने या ऐसी चर्चाओं में सही तरीके से अपनी बात को रखने का अवसर भी नहीं मिलने के कारण हताश विपक्ष अगर इससे दूरी बना लेने का फैसला करता है, तो यह उन पर या मीडिया पर हमला कैसे हुआ! किसी को लगे कि कोई उसे बुलाकर बार-बार प्रताड़ित, अपमानित करता है और वह ऐसे बुलावे पर नहीं जाने का दुखद फैसला करता है, तो बुलानेवाले के पास नहीं जाना क्या बुलानेवाले पर हमला है? बिल्कुल नहीं। यह हमला नहीं, हमलावर से बचाव का प्रयास है। यह बहुत ही दुखद स्थिति है। मीडिया के प्रतिष्ठित लोगों को इस पर सोचना चाहिए कि क्या किसी भी रूप में इस तरह के पत्रकारों और मीडिया समूहों से दूरी बनाना मीडिया पर हमला है या हमलावर मीडिया  बचाव है ¾ न बोलेंगे अब तो, कब बोलेंगे!

कुछ विख्यात समाचार वाचकों ने अपने श्रोताओं को बार-बार चेताते आये हैं कि भ्रम में डालनेवाले, गैर-जरूरी या कम जरूरी प्रसंगों से  मीडिया को भर देनेवाली मीडिया से दूरी बनाके रखें, यह दिमाग में जहर भर रहा है। भ्रम में डालनेवाले, गैर-जरूरी या कम जरूरी प्रसंग कौन से हैं, इसका फैसला तो श्रोता एवं नागरिक अपने विवेक से ही करता है। उपयोगी, विवेकपूर्ण सही और जरूरी खबर पाना नागरिक का हक है। नागरिकों के इसी हक से और इसी हक को पूरा करने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता महत्त्वपूर्ण है मीडिया की स्वतंत्रता आसमान से नहीं, नागरिकों के हक के इसी परिप्रेक्ष्य से संबंधित है।  मीडिया के द्वारा इस नागरिक हक को जान-बूझके पूरा न करना खुद मीडिया की स्वतंत्रता पर मीडिया का हमला है आत्मघाती हमला। अपने बचाव में, ऐसी मीडिया से दूरी बनाके रखने का हक नागरिकों को है यह मीडिया पर हमला नहीं, आत्मघाती और हमलावर मीडिया से बचाव का रास्ता है, इसमें न कोई संदेह है, न होना चाहिए। वैसे भी साधारण नागरिक का मन बहुत घबड़ाया हुआ है, आज सोशल मीडिया के विभिन्न पटल न होते तो, क्या हाल होता यह सोचके मन और भी घबड़ा जाता है पता नहीं, सोशल मीडिया के विभिन्न पटल कितने दिन  नागरिक पहुँच में बने रहेंगे। स्थिति दुखद है, लेकिन इसी दुख में अपना घर है।


वे आये हैं...

वे आये हैं...

हरिया नी माये, हरिया नी भैणे हरिया तें भागी भरिया है!

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उनके आने की संभावना से ही घर में उथल-पुथल मच जाता है –– जैसे तालाब का पानी धिप जाये, और जल जंतु बेहाल। ऐसे में घर को नये सिरे से सजाने-सँवारने की जरूरत तो ही जाती है –– कुछ को छिपाना, कुछ को अधिक उभारके दिखाना। गृहप्रधान के कंधे पर बहुत बोझ रहता है। इस बोझ का ही प्रभाव यह होता है कि गृहप्रधान ही गृहवासी के लिए अजनबी लगने लगते हैं –– असल में गृहप्रधान तो गृहवासियों के लिए वैसे भी अजनबी ही होते हैं, बस ऐसे मौकों पर अजनबियत कुछ तीखा हो जाता है, कुछ अधिक उभर जाता है। बहुत तरह के मनोविज्ञान पढ़ाये जाते हैं विश्वविद्यालयों में, गृह मनोविज्ञान पढ़ाया जाता है या नहीं, इसकी जानकारी नहीं है मुझे। वैसे भी पठन-पाठन के मामले में पाठा ही हूँ –– साठा पर नहीं, शाठा पर पाठा! 

जब भी वे आते हैं, घर का मुँह खुला-का-खुला रह जाता है। खुला-का-खुला का मतलब –– न खुला, न बंद! मुँह खोलने की इजाजत किसी को नहीं होती। लेकिन उनको लगना नहीं चाहिए कि घर में मुँह खोलने की इजाजत नहीं है! तो फिर तरकीब क्या है कि मुँह खोला भी न जाये और मुँह बंद भी न लगे। बस यह कि परिस्थिति बोले और सब के बदले, सब की ओर से गृहप्रधान बोलें। गृहप्रधान ही बोलें, जब जिसके मुँह से बोलना चाहें, बोलें। बस जिस की ओर से बोलें, उस शख्स को यह भपाना है कि घर का वही सदस्य बोल रहा है, गृहप्रधान तो बस अपना जबड़ा हिला रहे हैं। 

गृहप्रधान का ऐसा बेगाना व्यवहार गृहवासी को गृह-त्याग तक के लिए प्रेरित कर बैठता है। नहीं-नहीं, मैं अभी की किसी घटना के मादे में नहीं कह रहा –– आपको ऐसा लगता है, तो आपकी जिम्मेवारी। मैं तो भीष्म साहनी की कहानी ‘चीफ की दावत’ के मिस्टर शामलाल और उनकी माँ की बात कर रहा हूँ! चीफ के चले जाने के बाद वे कहती हैं ––– ‘‘नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!’’ मिस्टर शाम के लिए ऐसा करना आसान नहीं होता है, माँ का खयाल नहीं, तरक्की का सवाल! बेटे के दबाव में वे पहले ही चीफ को गाके सुना चुकी हैं –– हरिया नी माये, हरिया नी भैणे हरिया तें भागी भरिया है! 

एक बार दबाव में कोई आ जाये तो दबाव बढ़ता ही जाता है, ऊपर से माया मोह भी दबोचे रहे तो क्या कहने। मिस्टर शामलाल को माँ की कोई चिंता नहीं है, चिंता अपनी तरक्की की है, मैं तरक्की की राजनीति की बात नहीं कर रहा, हालाँकि तरक्की की भी राजनीति होती है और खूब होती है। मैं मिस्टर शामलाल की तरक्की वासना की बात कर रहा हूँ। वे माँ से कहते हैं  –– ‘‘तुम चली जाओगी, तो फुलकारी कौन बनाएगा? साहब से तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।’’ माया मोह में फँसना जितना आसान और मनभावन होता है, उस फाँस से बाहर निकलना उतना ही मुश्किल और उच्चाटन भरा होता है। इसलिए, जाना माँ के लिए भी आसान नहीं होता है, बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ तो हमेशा बनी रहती है, ऐसे मौकों पर स्थगित जम्हाई एवं उदग्र अंगड़ाई के सहकार में चार आँखों से जाग उठती हैं ––‘‘तो मैं बना दूँगी, बेटा, जैसा बन पड़ेगा बना दूँगी।’’ कामना और वासना के फर्क पर क्या कहूँ, कहना ही होगा तो बाद में; अभी आप कहना चाहें तो, मदद की कृपा करें। माँ का जाना रुक जाता है, लेकिन गृह-त्याग का मन तो एक बार बन ही जाता हैन!

वे आये हैं, वे जब गये, हो जायेंगे तो क्या होगा! शुभ ही होगा। जब तक माया मोह है, शुभ ही होगा! कोई इस तरह आये कि आके घर के लोगों के मन में छोटा होना भपा जाये तो सवाल तो उठेगा ही न! गृहप्रधान के बेगानेपन का! फिर आप कुछ और न सोचिए। सोचने पर मैंने नहीं, उन्होंने पाबंदी लगाई है। इतना ही नहीं, सुनने में आ रहा है कि अभी और भी लगानेवाले हैं। मैं तो बस मोहन राकेश के नाटक ‘आधे अधूरे’ के एक प्रसंग की याद दिला रहा हूँ ––

“स्त्री : मत कह, नहीं कह सकता तो। पर मैं मिन्नत–खुशामद से लोगों को घर पर बुलाऊँ और तू आने पर उनका मज़ाक उड़ाए, उनके कार्टून बनाए–ऐसी चीज़ें अब मुझे बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं। सुन लिया? बिलकुल–बिलकुल बरदाश्त नहीं हैं। 

लड़का : नहीं बरदाश्त हैं, तो बुलाती क्यों हो ऐसे लोगों को घर पर कि जिनके आने से...? 

स्त्री : हाँ–हाँ...बता, क्या होता है जिनके आने से? 

लड़का : रहने दो। मैं इसीलिए चला जाना चाहता था पहले ही। 

स्त्री : तू बात पूरी कर अपनी। 

लड़का : जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नज़र में। 

स्त्री : (कुछ स्तब्ध होकर) मतलब?”

ओफ्फ! यह लड़का भी न! चला जाना चाहता था घर से! इसके मन में भी यह खयाल आ गया। अब आप ही उससे कुछ कहिए, उम्मीद है आपकी सुनेगा! हाँ, हाँ यही लड़का।

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(भपाना : आशय, भाँपे जाने का माहौल बनाना; धिप : गर्म; मादे : मद में;  )


दुर्जन की करुणा

दुर्जन की करुणा

जीवन में बहुत तरह के कष्ट हैं। जीवन में कष्ट के प्रवेश के बहुत सारे रास्ते हैं। आदमी किस-किस रास्ते पर पहरा बिठाये! करुणा सहज मानवीय गुण है। आदमी के दुख को करुणा कम करती है। दुखी आदमी करुणा को सहज स्वीकार लेता है। करुणा में दुख से निकलने के रास्ते और तरकीब का आश्वासन होता है। हमारे वैयक्तिक और सार्वजनीन जीवन में भी यदा-कदा करुणाकरों से मुलाकात होती रहती है। कुछ करुणाकर तो पेशेवर हैं –– पेशेवर करुणाकर, यानी वे करुणा को जिन्होंने अपना पेशा ही बना लिया है।

पेशेवर करुणाकर करोना से कम खतरनाक नहीं होते हैं। आजकल ऐसे पेशेवर करुणाकरों के छोटे-बड़े संस्करणों के आधिक्य से हमारा जीवन आक्रांत है। दुख की अवस्था में इनकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है। अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए ये जीवन में दुख बढ़ाने के काम करने से भी नहीं हिचकते ––– जो दुख का विषय नहीं है उसे भी दुख का विषय बनाने में कामयाब हो जाते हैं –– असली दुख को ढक लेनेवाला नकली दुख। नकली दुख का, दुख के डर का ऐसा खाका खींचते हैं कि सहज मति आदमी पेशेवर करुणाकरों के मोह पाश में बंध जाता है। इनके सबसे बड़े संस्करण करुणा निधान के आसन पर लपकके कब्जा करने के जुगत में रहते हैं, बल्कि कर लेते हैं। ऐसा नहीं कि ये पेशेवर करुणाकर आज ही प्रकट हुए हैं –– भले ही गणना में आज इनकी तादाद अधिक है। सहज मति लोग भी इनके फाँस में पड़कर दुर्जन बन जाते हैं। पेशेवर करुणाकर इनके नेता बनकर प्रकट होते हैं –– अंग्रेजी में इन्हें डेमागाग (Demagogue) कहा जाता है। जीवन में दुर्जन की करुणा के बुरे असर को कबीरदास ने भी पहचाना था, तुलसीदास ने भी पहचाना था। पहले कबीर :    

दुर्जन की करुणा बुरी, भलौ सज्जन की त्रास। सूरज जब गरमी करै, तब बरसन की आस।।

मतलब फ है –– दुर्जन की करुणा बुरी, इससे अच्छा सज्जन का कठोर व्यवहार। सूरज अपने रुद्र ताप से जन-जीवन को परेशानियों में प्रथमतः डाल तो देता है, लेकिन अंततः सब के हित में बादल बरखा की संभावना रचता है। इस प्रसंग में एक उदाहरण तुलसीदास से, करुणा से भरी मंथरा कैकेइ से कहती है :

भानु कमल कुल पोषनिहारा। बिनु जल जारि करइ सोइ छारा।।

कैकेइ कहती है ––– जो सूरज कमल को प्रसन्न करता है, कमल का पोषण करता है, वही सूरज पानी के अभाव में उसे जलाकर खाक कर देता है –– जिस सत्ता के बल पर तुम निश्चिंत हो, उस सत्ता के समीकरण के बदल जाने से तुम्हारा क्या हाल होगा! तुम्हें इसकी खबर नहीं! यह दुर्जन की करुणा का उदाहरण है –– आगे की कथा तो मालूम ही है न!

चारों तरफ घूम रहे दुर्जनों की करुणा के फाँस में पड़ने से कैसे बचेंगे? या मन मोहित है, अभी भी! देख लीजिए असली संत तो पहले से चेताते रहे हैं –– हमहिं रहे अचेत; न हुए सचेत और चिड़िया चुग जाये खेत तो असली संतों का क्या दोष! नकली का कह नहीं सकता!  

नाम बदलके रख दूंगा

नाम बदलके रख दूंगा

“हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास।

कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास।”

और यह भी ––

“झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।”

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ओफ्फ! ओ दिन और आज का दिन। बाल-काल था। बाल-कांड के चरम पर एक सहपाठी ने उग्र कंठ-स्वर में कहा –––– नाम बदलके रख दूंगा। तब से लेकर कई बार लोगों को कहते-सुनते पाया –– अगर मैंने ऐसा नहीं कर दिया, तो मेरा नाम बदल देना; नाम बदल दूंगा। ये नाम का बड़ा चक्कर है। जो जितना बड़ा उसके उतने नाम –– सहस्त्रनाम की महिमा से भला कौन भारतवासी अनवगत होगा! यहाँ तक कि दो-चार नाम तो मेरे भी हैं, हालाँकि मैं नाम नहीं कमा सका। मेरे कई परिचितों ने तो खूब नाम कमाया है, सुना है उनके नाम का सिक्का तो नहीं चलता पर ढोल जरूर बजता है। उसका क्या ढोलची को पैसा मिले तो वह किसी का ढोल बजा देता है; पैसा में कोताही तो वही बैंड बजाने लगता है। खैर! मन को तब शांति मिली जब किसी ने विलियम शेक्सपियर का नाम लिये बगैर बताया –– अजी, नाम में क्या रखा है! मैंने सोचा किसी दिन शेक्सपियर ने अपनी अप्रसिद्धि से ऊबके कह दिया होगा कि नाम में क्या रखा है। मेरे मन को बड़ा संतोष मिला। मन का क्या! मन फिर उचट गया। यह सोचके कि यह तो पछाही विचार है, बिल्कुल विदेशी –– इसकी औपनिवेशिक गंध से मन उचट गया। मन स्वदेशी के संधान में लग गया और पाया –– नाम में ही सब गुण छिपा है! हे, प्रभु! प्रभु से बड़ा प्रभु का नाम! दफ्तरों में नाम महिमा का कमाल देखते ही बनता है, आपने भी देखा होगा, न देखा तो आपका भाग। नाम लिखके पानी में डालने से पाहन के पानी में तैरने की बात जरूर सुनी होगी; सुना तो यह भी होगा कि बिना नाम लिखे जब प्रभु ने खुद पाहन को पानी में डाला तो वह डूब गया। प्रभु दुखी हुए। भक्त ने सँभाला –– प्रभु मैंने देखा, जिसे आपने ही छोड़ दिया उसे तो डूबना ही था। भक्तों के ऐसे तर्क प्रभुओं को बहुत पसंद आते हैं, आज भी! तो यह है –– नाम की महिमा। एक नाम न चले तो हजार नाम रख लिया जाये –– दो-चार तो मैं ने भी रख लिये हैं। हालाँकि, एक भी नहीं चला –– फर्श पर गिरी चवन्नी की तरह थोड़ा गुड़कके लुढ़क गया। बड़ा बाबू को जब पता चला तो उन्होंने प्रशासकीय हड़कान से डरा दिया –– दो नाम कैसे हो सकते हैं, आप के? मैंने विनम्रता पूर्वक कहा एक नाम है और दूसरा दैट इज है! मैं डर गया मेरे कहने से दैट इज नहीं चलेगा। हलफ उठाया तो मन को थोड़ी शांति मिली। शांति मिली लेकिन कभी-कभी डर तो दस्तक दे ही जाता है।   

यह जानकर कि मन शुद्ध होना चाहिए तो उलटा नाम भी काम कर जाता है –– उलटा नाम जपते हुए भी ब्रह्म समान हुआ जा सकता है, बस मन शुद्ध होना चाहिए। वही तो दिक्कत है बात के साथ प्रवाह में मन का शुद्ध-अशुद्ध कब निकल गया और पता भी नहीं चला! अब फिर बड़े स्तर पे दैट इज का मामला उखड़ा हुआ है! हद से बड़े स्तर पे! ऐसे में कबीर बहुत सहारा देते हैं माने –– भीतर देय सहार! “हदे छाड़ि बेहदि गया, हुवा निरंतर बास। कवल ज फूल्या फूल बिन, को निरषै निज दास।” कबीरदास को जब भी दुहराता हूँ –– ब्रह्म वक्रता के साथ लौटके तुलसीदास के पास जरूर जाता हूँ! इन सब का अर्थ! कुटिल भरोसा है ––  अर्थ आप निकाल लीजिएगा! ‘झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।’ पूरा प्रसंग सुनना जरूरी है तो यह रहा :-

“सनहु असंतन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ।। तिन्ह कर संग सदा दुखदाई। जिमि कलपहि घालइ हरहाई।। खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर संपति देखी।। जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई।। काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।। बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों।। झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।। बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अति हृदय कठोरा।।”

फिर भी ... समझना तो खुद ही होगा न, कि नाम में क्या रखा है!

 

 

देश का हाल हवाल

सामग्री

देश का हाल हवाल. 1

ध्रुवीकरण का मतलब. 1

ध्रुवीकरण का अर्थात : क्या, कैसे और क्यों.... 1

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण. 3

सांप्रदायिकता : ध्रुवीकरण. 5

 

 

 

देश का हाल हवाल

सामान्यतः, राजनीति पर बात करना पेशेवर राजनेताओं, पत्रकारों का काम है; एक भिन्न स्तर पर नागरिकों का भी काम है। राजनेताओं और पत्रकारों का यह काम नागरिकों के काम का ही विस्तार है। बल्कि कहना चाहिए कि कोई भी काम नागरिक अधिकार की परिधि में ही संभव और संपन्न होता है। नागरिक जमात का व्यक्तिगत या सामूहिक सामाजिक स्तर पर अपने अधिकारों से निरपेक्ष हो जाना नागरिक जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता। हाँ, राजनेताओं, पत्रकारों के मंतव्यों के आयाम और गहनता में अंतर होता है। अधिकार के कई पहलू होते हैं। अधिकार का ही एक अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू कर्तव्य है। नागरिक अधिकार और कर्तव्य के तहत इस पर विचार करना जरूरी है। इस विचार का मूल उद्देश्य आत्म प्रचार, सहमति का संधान न हो कर, आत्म प्रकाश है; बस इतना कि मैं जो सोचता हूँ।

ध्रुवीकरण का मतलब

आजकल यह शब्द बार-बार सुनाई पड़ता है। क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? ध्रुवीकरण अच्छा है? ध्रुवीकरण बुरा है? ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? इन में से या स तरह के सवालों के जवाब हाँ/ना में नहीं दिया जा सकता है। इन पर विचार करना होगा; इन पर बार-बार सोचना होगा। इस सोच में आत्मनिष्ठता, वस्तुनिष्ठता, हीन-निष्ठा और निष्ठा-हीनता के भी तत्त्व हो सकते हैं; इन तत्त्वों की विभिन्न आनुपातिकता भी किये जानेवाले विचार में सन्निहित हो सकते हैं। एक बात की ओर इशारा कर देना यहाँ जरूरी है, इन सवालों के जवाब हर किसी को अपने लिए ढूँढ़ना नहीं, सोचना होगा; ढूँढे हुए विचार रेडीमेड होते हैं, उनमें कतर-ब्यौंत कर काम तो चलाया जा सकता है। काम-चलाऊ से काम चलाने की मजबूरी तो हो सकती है, इस मजबूरी का आदर करते हे भी यह समझना जरूरी है कि काम-चलाऊ तो अंततः काम-चलाऊ ही होता है, न! कहने का आशय है ––– अनायास हासिल होनेवाले जवाब पर आँख-नाक-कान बंद कर भरोसा करना अहितकर होता है, कम-से-कम इस समय तो हितकर नहीं हो सकता है। साफ कहूँ? मैं भी इन सवालों पर सोच रहा हूँ, हो सके तो आप भी सोचिए। मैंने क्या सोच रह हूँ? अभी बताना ठीक नहीं। इससे आपके सोचने पर संक्रामक असर पड़ सकता है। मैं इस से बचना-बचाना चाहता हूँ, इसलिए अभी बताना ठीक नहीं। वह बाद में, उनके लिए जिन्हें रेडीमेड चाहिए, या जिन्हें उसमें कतर-ब्यौंत कर काम-चलाऊ सोच पाने में सुविधा होगी उनके लिए!

ध्रुवीकरण का अर्थात : क्या, कैसे और क्यों

क्या होता है, ध्रुवीकरण! क्या किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना  ध्रुवीकरण है? नहीं किसी संदर्भ में जन या जनमन का संगठित होना ध्रुवीकरण नहीं है। संदर्भ हट जाने के बाद भी उस खास संदर्भ को किसी अन्य संदर्भ या काल्पनिक संदर्भ से जोड़कर जन और जनमन का किसी अप्रकट उद्देश्य से संगठित बना रहना ध्रुवीकरण है।

क्या संगठित होना ही ध्रुव बनना है? नहीं संगठित होना ध्रुव बनाना नहीं है, वह तब तक दल बनाना है, जब तक उसके उद्देश्य, कार्य-पद्धति, उसके स्रोत सुपरिभाषित और सार्वजनिक रूप से घोषित रहते हैं तथा वे इस पर बने रहते हैं। ध्रुवीकरण दल के बाहर साधारण नागरिकों का होता है ; दल के भीतर के लोगों के बीच यह गुटबंदी कहलाता है। दल के भीतर की गुटबंदी समाज में नई-नई गोलबंदियाँ करता रहता है। इन गुटबंदियों या गोलबंदियों को ध्रुवीकरण नहीं कहा जा सकता है –– लोटे में भी पानी है, समुद्र में भी पानी है इस सादृश्यता को सामने रखके न तो लोटा को समुद्र कहा जाता है, न समुद्र को लोटा। ऐसा कहने में दोष है। इस उदाहरण में तो दोष का ज्ञान सहज ही हो जाता है लेकिन, बड़े मामलों में इस सादृश्य-संभ्रम दोष को पहाचनके सचेत व्यवहार करना बहुत मुश्किल होता है ––– ऐसे मामले में माँगे का ज्ञान काम नहीं आता है!

क्या ध्रुवीकरण विचारधारात्मक होता है? नहीं। किसी भी, तर्कसंगत, विवेकपूर्ण मानव-मूल्यों की सापेक्षता में हित-बोध से संपन्न विचारधारा से दल के बाहर के लोगों को जोड़ना आंदोलन कहलाता है। यह अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, हाँ इस आंदोलन के खड़ा करने में ध्रुवीकरण-कारक तत्त्वों के इस्तेमाल के प्रति सदैव सचेत रहना चाहिए।  

क्या ध्रुवीकरण भावधारात्मक होता है? हाँ, मनुष्य की नैसर्गिक भावधाराओं को अपचालित करके ध्रुवीकरण किया जाता है। इसके लिए भयदोहन, और लोकलुभावन (पॉपुलिस्ट) वादों, इरादों, अतीत और कई बार गढ़े हुए इतिहास-हंता अतीत और सुनहरे भविष्य के माया-जाल को विभिन्न तरीके से सजाया एवं फैलाया जाता है। ऐसा करनेवाले लीडर को उत्तेजक और उन्माद-पसंद, समाज और समुदायों के बीच निरंतर युद्धक-परिस्थिति बनाये रखा जाता है –– ये डेमागॉग (Demagogue) कहलाते हैं। इनकी बुद्धि निषेध की होती है ––– सामाजिक शांति, मेल-जोल, समरसता के प्रति निषेध भाव रखते हैं। शांति को सन्नाटा से जोड़कर देखते हैं। उपद्रव को सामाजिक-सामुदायिक सक्रियता के रूप में चिह्नित करते हैं। इनकी निषेध बुद्धि अंततः इनको अनिवार्य जीवन प्रसंगों में भी बुद्धि के निषेध तक ले जाती है। संगठन में एक पद बौद्धिक का रखते हैं, जिनका काम का उद्देश्य अपनी समग्रता में बुद्धि-विनाश का होता है। तर्क संगत बातों, सुचिंतित विचारों की जगह पाखंड और वितंडा को प्रतिष्ठित करते हैं। इनकी हितैषिता विषाक्त होती है। ये जिनके हितों के पैरोकार बनते हैं, उन्हें ही सब से ज्यादा हानि पहुँचाते है –– खासकर स्त्री संदर्भों में इनकी चिंता, इनकी वाणी, इनके व्यवहार पर गौर करने से इनके वैचारिक गुण-सूत्र, संगठनात्मक डीएनए पर गौर करना चाहिए। ये अन्यों के हित समायोजन को तुष्टीकरण बताते नहीं थकते और अंततः दुष्टीकरण की प्रक्रिया पर काम करते रहते हैं। समाज और संस्कृति की बात जिस तरह से जोर देते हैं, जिस तरह से समाज संस्कृति के चिंतन की मुद्रा का सार्वजनिक प्रकाश करते हैं उन सब का समाज और जीवन पर बहुत नकारात्मक असर पड़ता है। साधारण लोग इन धुरफंदियों के कार्य-विस्तार को अपने वास्तविक हित संदर्भों से तंतु-बद्ध करके देखने में बहुत देर कर देते हैं, तब तक साधारण लोगों का मन इनकी चपेट में आ जाता है। इस तरह से इनकी ‘समझ’ अपने प्रभाव विस्तार के क्रम में सज्जनता को दुर्जनता से विस्थापित करने की दिशा में बढ़ते हैं, कामयाब होते हैं ––– कम-से-कम कुछ दिनों तक तो इस कामयाबी की चकाचौंध का वाग्जाल साधारण लोगों को विमोहित किये रहता है। इस तरह से देखें तो, अपचालित भावधाराओं की पेशबंदी विचारधारा के रूप में की जाती है। साधारण नागरिक के सहज जीवनयापन के नजरिये से देखें तो यह सब से अधिक हानिकारक होता है। सब से अधिक हानिकारक यह इसलिए होता है कि इस में राजनीतिक प्रयोजनों को हासिल करने के सिए गैर-राजनीतिक आधारों पर ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया जाता है।

क्या ध्रुवीकरण के लिए विचार को भावना में लपेटकर असरदार बनाया जा जाता है? नहीं। यह नैसर्गिक भावधाराओं के अपचालन से बनी क्षतिकर विचारधारा की चपेट में आने से सही विचारधारा को बचाने के लिए किया जाता है। इस प्रक्रिया में खतरा होता है –– सही विचारधारा भी तात्कालिक रूप से प्रभावी दिखने-बनने के चक्कर में विचारधारा का मूल सूत्र हाथ से छूट जाता है और वह खुद भावधारा के भँवर में फँस जाता है; इस तरह सुचिंतित विचारधारा के हारने और अपचालित भावधारा के जीतने की दुखांत पटकथाएँ सामने आती हैं। इन दुखांत पटकथाओं में कुत्सित हास्य-विनोद के फूहड़, निकृष्ट बिंबों का खुलकर व्यवहार होता है –– साधारण आदमी की मनःस्थिति अपने बहते हुए लहू को आलता की तरह देखता और विभोर होता है।   

क्या ध्रुवीकरण में भावनाओं को विचार के पोशाक में पेश किया जाता है? हाँ। युक्ति-युक्तता, वास्तविकता और बुद्धि-गम्यता से काटकर नैसर्गिक भावनाओं के आधार पर अहितकर विचारधारा की पेशबंदी की जाती है।

ध्रुवीकरण अच्छा है?  अच्छा हो सकता है, यदि ध्रुवीकरण के वास्तविक संदर्भ के हटते ही यह अपने पीछे एक नैतिक चेतावनी और वैधानिक प्रावधानों को सुनिश्चित करके समाप्त हो जाये। ऐसा होना थोड़ा मुश्किल इसलिए भी होता है कि ध्रुवीकरण के पीछे जो सायासता होती है वह सायासता ध्रुवीकरण के विसर्जन में नहीं होती है।

ध्रुवीकरण बुरा है? नहीं। समुचित संदर्भ के बाद दीर्घकाल तक इसका बना रहना, सक्रिय रहना बुरा है। ध्रुवीकरण एक सहज सामाजिक प्रक्रिया है? हाँ। यह प्रक्रिया खतरनाक तब हो जाती है, जब इस सहज सामाजिक प्रक्रिया का पर्यवसान जटिल राजनीतिक प्रक्रिया हो जाता है।  संगठन विहीन ध्रुवीकरण हो सकता है? हो सकता है। नागरिक जमात के दबाव में ऐसा हो सकता है। जमात और संगठन का अंतर ध्यान में रहे तो बात अधिक साफ हो सकती है। भेड़िया धसान है ध्रुवीकरण? नहीं। भेड़िया धसान का आधार मनुष्य की सहज अनुकरण वृत्ति रचती है। सहज अनुकरण वृत्ति ने मनुष्य को मनुष्य बनाने में बड़ा योगदान किया है, इसे सभ्यता के किसी चरण में छोड़ा नहीं जा सकता है, न इसकी निंदा की जा सरकती है। अनुकरण की सहज वृत्ति में अनुकरण के पीछे जब दिमाग अनुपस्थित और चेतना निष्चेष्ट रहती है एवं सारी गति बाह्य कारकों के नियंत्रण में रहती है। ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र है? ध्रुवीकरण का मतलब भीड़तंत्र नहीं है, लेकिन भीड़तंत्र का नतीजा हो सकता है। क्या ध्रुवीकरण बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है? बद्ध पूर्वग्रहों की पुष्टि की बारंबारिता है अपने आप में ध्रुवीकरण नहीं है, यह ध्रुवीकरण की पूर्व शर्त है। आगे और.. जारी....

सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

इस समय भारत में ध्रुवीकरण और रिवर्स पोलोराइजेशन की तीव्र प्रक्रिया जारी है। इन पर बात किया जाना जरूरी है, तकलीफदेह भी। जरूरी है, तो तकलीफ झेलने की मानसिक तैयारी करनी चाहिए। इन में धर्म और जाति के आधार पर जारी प्रक्रिया पर पहले विचार कर लेना प्रासंगिक है।

सांप्रदायिकता के आधार पर होनेवाला ध्रुवीकरण सबसे भयानक और त्रासद होता है। ऐसा इसलिए कि इसकी तेज धार से सामाजिक विभाजन हो जाता है। औपनिवेशिक वातावरण में  अर्थनीतिक, राजनीतिक  हलचलों के बीच आधुनिकता, आजादी का आंदोलन, लोकतंत्र, मानवाधिकार, समाज सुधार, धार्मिक सुधार आदि का संदर्भ जागृत हो गया था। इस प्रकरण में सांप्रदायिकता का सवाल हिंदू-मुस्लिम तक सीमित नहीं था, हिंदु धर्म में जातिगत, भेद-भाव, छुआछूत की सामाजिक कुरीतियों की जड़ वर्ण और पुनर्जन्म एवं उससे जुड़े कर्मफल विचार से पोषित था और है, इसे समर्थन मिलता है उन पुस्तकों से जिन्हें हिंदू धर्म का मूलाधार कहते हैं। समाज के अंदर बहुत सारे समाज (ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज आदि) बने और इन से जुड़े समाज सुधारक, धर्म सुधारक सक्रिय थे। इनके बीच डॉ. आंबेडकर की उपस्थिति से बुनियादी रूप से एक भिन्न वातावरण बन रहा था।

काँग्रेस का गठन मुंबई में हुआ था। गाँधी गुजराती थे। महाराष्ट्र, खासकर मुंबई से उनका गहरा रिश्ता था –– उनकी प्रारंभिक प्रेरणा के महत्त्वपूर्ण स्रोतों की जड़ें यहीं थीं। डॉ. आंबेडकर भी महाराष्ट्र से जुड़े थे। गाँधी जी और डॉ. आंबेडकर दोनों सक्रिय थे। डॉ. आंबेडकर गाँधी जी को जानते पहचानते थे, लेकिन गाँधी जी के पास डॉ. आंबेडकर के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। गाँधी जी आंबेडकर को ब्राह्मण समझते थे। महादेव देसाई को अंबेडकर गांधी से सर्वप्रथम अगस्त 1931 में बंबई में मिले। अपने सेक्रेटरी महादेव देसाई से हुई चर्चा करते हुए गांधी ने स्वीकार किया था कि इंग्लैंड जाने से पहले तक मुझे यह पता नहीं था कि अंबेडकर एक हरिजन हैं। वे डॉ. अंबेडकर को ब्राह्मण मानते थे, ऐसा ब्राह्मण जो हरिजनों के हितों में गहरी रुचि रखते है। और इसीलिए उत्तेजित होकर बातें करते हैं। गाँधी जी से डॉ. अंबेडकर की बात-चीत में एक दूसरे के सामने अपनी बात रखी गाँधी जी डॉ. आंबेडकर को सच्चे आदमी मान रहे थे। गाँधी जी से डॉ. आंबेडकर ने पूछा कि इस वतन को अपना किस आधार पर कहें। उस धर्म को अपना धर्म कैसे माना जाये जिस धर्म में उनके साथ मानवीय सलूक नहीं होता। भावातिरेक और तर्क वितर्क तो बहुत हुआ लेकिन मेल अंततः नहीं बैठा। एक बात स्वीकारनी पड़ेगी कि यह संदर्भ काफी तीखा और प्रखर होने के बावजूद डॉ. आंबेडकर की सूझ-बूझ और गाँधी जी के आश्वासन के आलोक में टल तो गया, लेकिन सुलझ नहीं गया।

हिंदू धर्म से जो शिकायत रही दलितों, पिछड़ों की (यहाँ महिला संदर्भ अंतर्निहित है) उसे दूर करने का गंभीर प्रयास नहीं किया गाया। इसे समय पर छोड़ दिया गया। भारत के दक्षिण भाग, पश्चिम भाग में कम-से-कम यह तो कहा जा सकता है कि वे शिकायतें दूर भले ही नहीं हो गई हों तो भी, वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि को बनाये रखनेवालों या फैलानेवालों का साहस तो जरूर कम हो गया है। भारत के उत्तर मध्य भाग (हिंदी पट्टी समझ लें) में ऐसे लोगों का गर्व बोध और साहस बना हुआ रहा है। अब फिर डॉ. आंबेडकर को याद करें तो, वे गाँधी को, सही अर्थ में काँग्रेस को, अछूतों का सही प्रतिनिधि या वास्तविक हितैषी नहीं मानते थे।

हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता की आँच तेजकर जो ध्रुवीकरण किया गया उसमें हिंदुओं की आंतरिक शिकायत (वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि) को दूर करने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया गया। हालाँकि, इस समय जो सत्ता के शीर्ष पर हैं वे ब्राह्मण तो नहीं हैं, लेकिन उनकी सोच हिंदुओं की आंतरिक शिकायत (वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि) को दूर करने की नहीं है, उलटे अपने पक्ष-पोषण के लिए वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि से ही सामग्री जुटाते हैं। अब इस समय हिंदु-मुस्लिम ध्रुवीकरण में “ब्राह्मणवाद” के घेरे में अपमानित हिंदु समुदायों की भागीदारी टूट रही है, ये स्वाभाविक रूप से इसके खिलाफ हो रहे हैं। अभी-अभी तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के पुत्र और उनकी सरकार में मंत्री, उदय निधि स्टालिन ने जो कहा है, और जो मीडिया में बहस का विषय बना हुआ है पर गौर कीजिये। उदय निधि के इस बयान के विरोध में कौन लोग आगे आ रहे हैं! उदय निधि के इस बयान के पक्ष में कौन लोग हैं! उनकी सामुदायिक सामाजिक पृष्ठभूमि को देखने पर स्थिति की गंभीरता और जटिलता समझ में आ सकती है। उधर महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की माँग से उठी लपट क्या कहती है? मैंने कुछ साल पहले रिवर्स पोलोराइजेशन की प्रक्रिया के संदर्भ में संकेत किया था।

जो बात आजादी के आंदोलन के दौरान टल गई थी, अब वापस आ गई है। उदय निधि के बयान की जितनी निंदा, भर्त्सना की जायेगी हिंदु ध्रुवीकरण की प्रक्रिया उतनी ही क्षतिग्रस्त होती जायेगी। कुछ लोग उदय निधि के विरोध में संविधान की बात उठा रहे हैं, मीडिया में कुछ लोगों के बयान देख-सुनकर तो लगता है, उन्होंने संविधान को देखा तक नहीं है। भारत का संविधान वर्ण विद्वेष/ जातिवादी शोषण/ आदि के किसी भी रूप और प्रकार के विरुद्ध एक जीवंत आश्वासन और समतामूलक समाज एवं सामाजिक लोकतंत्र की मौलिक प्रेरणा है। सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-धार्मिक रूप से उपेक्षित, दलित, पिछड़े अब अपना प्रवक्ता खुद बन रहे हैं ––  वोट दान के अधिकतर मामलों में राजनीति की दलीय मध्यस्थता के बिना। कहना न होगा कि वोट दान के अधिकतर मामलों में राजनीति की दलीय मध्यस्थता ने बहुत छला है। उम्मीद की जानी चाहिए कि वोट की राजनीति के अंदर-बाहर सामाजिक शुभ को सुनिश्चित करने कि दिशा में इस बार रिवर्स पोलोराइजेशन की प्रक्रिया आगे बढ़ेगी। अपनी सामुदायिक पृष्ठभूमि के कारण मन की बेचैनी को समझने की मैं कोशिश कर रहा हूँ।

सांप्रदायिकता : ध्रुवीकरण

आज सुबह एक पुराने और समझदार मित्र से बात हुई। हाल-चाल के बाद चर्चा के बाद बातचीत का रुख देश समाज राजनीति की ओर मुड़ गया। वे बिल्कुल ताजा परिदृश्य से काफी चिंतित थे। उन्होंने उदय निधि के सनातन पर दिये गये बयान का हवाला दिया। मित्र हैं तो मेरी पोस्ट भी उन्होंने देख ली थी। मेरे कुछ मित्र ऐसे हैं जो पोस्ट देखते तो हैं लेकिन देखे जाने का चिह्न कभी-कभार ही छोड़ते हैं, यह उचित भी है, इसके अपने कारण हैं। हो सकता है, ऐसे मित्र आप के भी हों, कम-से-कम अगर मैं आपकी मित्र सूची में हूँ तो मुझे ऐसा ही मित्र समझ सकते हैं। खैर! उन्होंने उदय निधि के सनातन पर दिये गये बयान के संदर्भ पर बात करते हैं। अब चूँकि उदय निधि के पिता तमिलनाडु जैसे राज्य के मुख्यमंत्री हैं, उनकी सरकार में वे भी मंत्री हैं। उनका दल विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. (Indian National Developmental Inclusive Alliance) का एक महत्त्वपूर्ण घटक दल है। चिंता का केंद्रीय बिंदु यह ––– क्या उदय निधि के बयान से I.N.D.I.A. को चुनावी  नुकसान होगा? मेरा मानना है नहीं। ऐसा मानने के पीछे तर्क क्या है? तय हुआ कि अपने तर्क को सार्वजनिक करूँ! कहां कर सकता हूँ? फेसबुक पर। इस परिप्रेक्ष्य में यह पोस्ट लिख रहा हूँ। हमेशा की तरह, आपकी सहमति-असहमति से संबंधित युक्तिसंगत सार्वजनिक या निजी टिप्पणियों का स्वागत है, खामोश या बाद में मुखरित होनेवाली टिप्पणियों का भी!

पहली बात हर प्रसंग को चुनावी राजनीति के जोड़-तोड़ से जोड़कर क्यों देखा जाये? हम राजनीति के लोग नहीं हैं। किसी दल या गठबंधन के जीतने-हारने का फर्क हम पर तभी पड़ता है, जब इनकी नीतियों का असर हमारे जीवनयापन पर पड़ता है। सामान्य लोगों को चुनावी जीत-हार में न उलझना चाहिए, न उलझाना चाहिए। इस उलझन में फँस जाने के कारण समग्र राजनीति अपने निकृष्टतम अर्थ में हमारे जीवन में असर डालने लगती है, सो सावधान! चुनावी नफा-नुकसान को नजरंदाज करते हुए सच कहने का साहस किसी दल को अच्छा या कहें चुने जाने लायक बनाता है। चुनावी नफा-नुकसान को ध्यान में रखके दिया गया गलत ही नहीं, सही बयान भी लोकतंत्र को अंततः हीन ही करता है। जनसंचार माध्यम (Mass Media) में जनहित पर चर्चा नहीं, दलों-गठबंधनों के हित पर चिंताओं, सुझावों की भरमार है –– उनके अपने हित में शायद यही हो! लोग जो देखना चाहते हैं, वही दिखाना व्यावसायिक दृष्टि है –– जो देखना चाहिए वह दिखाने की कोशिश करना जन-हित-दृष्टि है। जो-जो लोग करना चाहते हैं, वह-वह करने की बेधड़क छूट पतन का कारण है, जो करना चाहिए निडर होके वह करने की छूट, उत्थान का कारक है। चूँकि माहौल में चुनावी नफा-नुकसान को लेकर ही गहमागहमी है, इसलिए उस पर भी चर्चा कर ली जाये।

थोड़ा पीछे से शुरू करते हैं –– तभी आगे थोड़ा साफ दिख सकता है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण आजादी के आंदोलन के साथ ही प्रारंभ हो गया था। इसके तीन आयाम उभर कर सामने आये –– हिंदु, मुस्लिम, दलित। ये आयाम अपने को राष्ट्र भी बता रहे थे –– यानी अपने को एक राष्ट्र नहीं मान रहे थे। यह राष्ट्रबोध अपने विस्तार में अपने राज्य की माँग कर रहे थे –– माहौल राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) का था। राष्ट्र राज्य पद में राष्ट्र विशेषण और राज्य विशेष्य। कहना न होगा कि विशेषण से अधिक महत्त्वपूर्ण विशेष्य होता है ––– काला घोड़ा में घोड़ा होना अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि काला होना। ये तीनों आयाम काँग्रेस के अंदर भी थे और बाहर भी थे। दलित को हिंदु में शामिल माना गया तो ध्रुवीकरण का दो आयाम बचा हिंदु और मुसलमान। राष्ट्र राज्य के माहौल ने कमाल दिखाया, ध्रुवीकरण के इस आयाम के कारण एक राष्ट्र दो राज्यों में बँट गया। दलितों, पिछड़ों, और हाशिया के लोगों को हिंदु माना तो गया लेकिन वे उससे सहमत नहीं थे। डॉ. आंबेडकर ने गाँधी जी से पूछा था कि मैं इसे अपना वतन कैसे मानूँ, इसे (हिंदु) अपना धर्म कैसे  मानूँ, इस में हमारे साथ अमानुष जैसा सलूक किया जाता है। गाँधी जी के पास संतोषजनक उत्तर नहीं था। संतोष आत्मनिष्ठ मामला है, लेकिन इसका वस्तुनिष्ठ प्रसंग भी होता है। डॉ. आंबेडकर ने गाँधी की उस समय की राजनीतिक ताकत और ‘महात्मा से राजनेता और फिर राजनेता से महात्मा’ में सहजता से अंतरित (शिफ्ट) हो जाने की जादुई कला के प्रभाव को ठीक से तौला। अपने उपलब्ध जन-समर्थन (डेमोग्राफिक सपोर्ट) का यथार्थपरक आकलन किया। कटुता के बावजूद असंतोष और छल-बोध पर काबू पाते हुए तात्कालिक रूप से मान लिया गया। गाँधी जी डॉ. आंबेडकर को ठीक से जानते नहीं थे –– उन्होंने डॉ. आंबेडकर को कमतर आँका (अंडर इस्टिमेट)। उस बीच, आजादी के आंदोलन के दौरान जो चूक वामपंथियों से हुई तत्काल में उसका रणनीतिक वर्चस्व (स्ट्रेटेजिक डोमिनेशन) काँग्रेस ने उठाया।

गाँधी जी की हत्या के बाद, कैसा राजनीतिक माहौल रहा होगा आज हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। उस माहौल में नेहरु जी के पास स्वाभाविक रूप से समय बहुत कम था। वे इस पचड़े से बाहर निकल गये, सोचा होगा कि औद्योगिक विकास, आधुनिकता और प्रगतिशीलता के माहौल में ये जाति समस्या और अस्मिता के सवाल आप ही हल हो जायेंगे। इस पर गौर नहीं किया जा सका कि वर्ण व्यवस्था के कारण जातिवाद और दलित समस्या सामाजिक संस्तण (सोशल स्ट्रेटिफिकेशन)  का नहीं, पृथक अस्मिता (सेपरेट आइडेंटिटी) का मामला है। इसे ढंग से अभी भी सवर्ण मेधा पढ़ नहीं पा रही है। यह हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता से अधिक खतरनाक सांप्रदायिकता है, क्योंकि यह भीतरी है इसलिए इसमें आत्म-विरोध या आत्म-हंता होने के अलक्षित लक्षण हैं। पाकिस्तान बन जाने के बाद भी स्वाभाविक रूप से मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी भारत में साधिकार बनी रही। हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिकता सदा के लिए खत्म नहीं हो गयी, से जिलाकर रखा गया। इसे जिलाये रखने बनाये-बढ़ाये का एक कारण हिंदु (आंतरिक) सांप्रदायिकता को काबू में रखने के लिये इसे कारगर माना गया। प्राणघाती समस्या का निदान खोजने का कठिन प्रयास करने के बदले ‘विषस्य विषऔषधम’ का पतनशील रास्ता अख्तियार कर लिया गया ––– यह सब चुनावी नफा-नुकसान के लिहाज से हुआ। सारे कोलाहल और कोहराम के बीच नेहरु जी चाचा और गांधी जी राष्ट्रपिता के रूप में लोक-स्वीकृत हुए! आंबेडकर जैसा प्रखर विद्वान, संविधान निर्माता बनने की योग्यता से संपन्न, भारतीय रिज़र्व बैंक की अवधारणा को सामने लाने, इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी बनानेवाले जमीनी राजनीतिज्ञ और जनहितैषी आदमी बस दलितों का नेता बनकर रह गया! मामामौसा माना जाना तो दूर नेहरु मंत्रिमंडल में भी सम्मान और शांति से वे टिक न सके! क्यों? इसका जवाब, बहुत कठिन तो नहीं है न!

उदय निधि और उनके बयान जैसे अन्य बयानों से अस्सी-बीस का चुनावी हिसाब बैठाना कठिन होगा। हिंदु ध्रुवीकरण की कोशिशों पर उलटा असर होगा। हिंदु-मुस्लिम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी निरस्त होगा। सनातन विशेषण है। इसका अर्थ युनिवर्सल बताया जा रहा है। अर्थात जो परिवर्तनशील नहीं है। बुद्ध और विज्ञान से हम जानते हैं, सबकुछ परिवर्तनशील है। सिर्फ परिवर्तनशीलता का नियम अपरिवर्तनशील है। जो समय के साथ परिवर्तित नहीं होता वह जड़ होता है, और अंततः समय से बाहर हो जाता है –– समय से बाहर का मतलब क्रियात्मकता से बाहर।

क्या जनचेतना में सनातन की व्याप्ति और स्वीकृति बहुत है या होती है? पहले जन को ही समझना होगा। जन का प्रभावी हिस्सा उन से बनता है जिनकी हिस्सेदारी की माँग आदरणीय काँशीराम किया करते थे। जनचेतना बहुत उदार है उसकी अलग कथा है। हिंदु विचार साम्यता या धर्म पंथ साम्यता के आधार पर स्वीकार अस्वीकार नहीं करता रहा है। वह सबके प्रति सहिष्णुता और चाक्षुष स्वीकार्यता का भाव रखता है और उसका अंतर्मन इन सबसे निरपेक्ष और पृथक बना रहता है। वर्चस्वशाली चेतना को जनचेतना समझने या बनाने बताने की चालाकियों का दौर अब समाप्त हो रहा है। जन चेतना का अर्थ वर्चस्वशाली चेतना से जुड़ा न होके उसकी व्याप्ति और परिधि से बाहर का मामला बन रहा है अब।

यह सच है कि सभी ब्राह्मण (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) ब्राह्मणवादी नहीं हैं। लेकिन कटु सच है कि ब्राह्मणवाद के विरुद्ध किसी भी लड़ाई में ब्राह्मणवाद विरोधी लोग किसी ब्राह्मण को विश्वसनीय साथी नहीं मानते। नई परिस्थिति में ब्राह्मण (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) अल्पसंख्यक होने जा रहे हैं, शाद मौन-व्रती अल्पसंख्यक। फिर कर तल भिक्षा, तरु तल वासं (संदर्भ भज गोविंदम)!

नई परिस्थिति में अभी के उनके अपने हिंदुत्व के समर्थक ब्राह्मणों (सवर्ण को भी चाहें तो जोड़ लें) से पिंड छुड़ाने में बीजेपी को दो-दो मिनट की तीन बैठकें काफी होंगी! ठीक से कह नहीं सकता।  क्या आरएसएस मुंह ताकता रह जायेगा बीजेपी का? जैसे सर्वोदय मुंह ताकता रह गया कांग्रेस का।

अब बताइए, फिर आगे! किसी को फायदा तो किसी को घाटा होगा। किस को घाटा होगा? नफा-नुकसान की फलित गणना करते रहिए।