बहस नहि, बहस नहि

प्रश्न ओतेक आसान नहि
कने मने काल्पनिक होइतो
नहि छल एकदम अप्रासंगिक
ज नहि रहितथि विप्र कुमार
ओहि ॠचा तक सहजहि जैतथि कि!
मानल जे ओ ॠचा  जनसामान्य क कल्याण कामना क वाहक अछि
ओकर पाठ तक क अधिकार नहि छलै जकरा
निश्चिते ओ ओहि जनसामान्य स भिन्न कोनो आर नामे परिगणित होइत हेत ओ!

भाई तारानन्द वियोगी
ओ अहांक प्रश्न नहि इशारा छल त्रासद परिणति  क

इशारा के बूझल जा सकैत अछि
इशारा स बहस नहि कायल जा सकैत अछि
मुदा उच्चैश्रवा समुदाय इशारा स शास्त्रार्थ करबाक अभिलाषी
जे इशारा नै बुझे से स्वयं स्खलित

दूबि लिअ धान लिअ
तिल लिअ तंडुल लिअ
कांट लिअ कुश लिअ
लिअ बारहखड़ी
बहस नहि बहस नहि
रुदन लिअ चंदन लिअ
बहस नहि बहस नहि


इस अकाल बेला में मुक्तिबोध


इस अकाल बेला में मुक्तिबोध
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इतनी बार मुझसे पूछा गया मुक्तिबोध 
स्पर्श कातर स्वप्न की सीढ़ियों पर
हर गली हर चौराहे पर
हर उस जगह पर
जहां होते थे दो-चार जन
मुझे दिख जाने लगा था
कोई न कोई मुक्तिबोध
तैरती संवेदनाओं की छाया में!

आंख में अंखुआती दूब को देखकर
स्वप्न में तलाशने लगा था मुक्तिबोध
तलाशने नहीं ,
पाने लग गया था
पाने लग गया था मुक्तिबोध

सपना तो सपना होता है
सपनों की सीन बदलते क्या देर लगती है!

पीठ पर खाली जीन लिये लंगड़े घोड़े
अस्तबल की ओर लौट रहे थे
उन्हें मालूम तो रहा होगा
लंगड़े घोड़ों के लिए
कोई जगह नहीं होती है अस्तबल में
बल के अस्त हो जाने पर
अस्तबल मकतल में बदल जाता है

अपने स्वार्थ की संवेदना में जडीभूत मुक्तिबोध की भीड़ में
कैसे बच सकता है कोई मुक्तिबोध
इस अकाल बेला में मुक्तिबोध!

उत्साह से भरे नए दोस्तों के लिए

उत्साह से भरे नए दोस्तों के लिए
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सच्ची कविता लिखने के उत्साह से भरे  नए दोस्त  जब कोई सलाह मांगते हैं तो मैं बहुत विचित्र स्थिति में पड़ जाता हूं! क्या   सलाह दूं? आज का समय बड़ा कठिन है, दोस्त। जिंदगी में, जिधर भी देखो अफरा-तफरी है। फिर कोई मददगार भी तो नहीं। मदद यानी संवेदनात्मक मदद। भावनात्मक मदद। दिल से साथ रोने और हंसने की मदद ! रोने की मदद! जी रोने की भी मदद! मददगार नहीं ऐसी स्थिति में हमें क्या करना चाहिए? क्या नहीं करना चाहिए ? इसका फैसला बहुत आसान नहीं होता है। मेरी जिंदगी का अनुभव यह है कि सच्चा  आदमी अपने किए का फल जरूर भोगता है!इसे अपने ज्ञान से जानता था। इसे मेरे अनुभव ने भी पुष्ट किया है। ऐसी स्थिति में मैं किसी को कोई सलाह कैसे दूं! यह तो उचित नहीं है। अपनी जिंदगी को जब मुड़ कर देखता हूं, तो मुझे बड़ी परेशानी होती है। अरे, यह गलतियां मैंने की! काश कि मुझे पहले से पता होता इन गलतियों का नतीजा ऐसा भी हो सकता है। सच तो यह है कि किसी को मालूम नहीं होता और फिर जब मालूम होता है तब काफी देर हो चुकी होती है। कविता मेरी जिंदगी की कमजोरी रही है। कविता को लेकर मैं बहुत ही आशान्वित रहा। जब कि आम जिंदगी एक दुखद कविता में तब्दील होती चली गई और मुझे इसका एहसास तब हुआ जब वक्त बहुत बीत चुका था। आजकल अक्सर लोग प्रश्न करते हैं अब आप क्यों नहीं लिखते हकीकत यह है कि मैं आज भी लिखता हूं। लेकिन कहीं उसे छपने देने के पहले बहुत संकोच होता है। इसलिए मैं लिखता हूं और रोता हूं! बिलखता हूं। इसके सिवा और मैं कुछ कर नहीं सकता। जो तस्वीर आज बनी है ऐसी तो हमने कभी कल्पना भी नहीं की थी! मामला इतना बिगड़ सकता है सोचा भी न था। जो भी हो आज की स्थिति में मुक्तिबोध याद आते हैं जिंदगी में। मुक्तिबोध यूं ही नहीं भावधारा की बात करते थे, सिर्फ विचारधारा पर्याप्त नहीं होती है यह तो साबित हो गया। लिया बहुत बहुत बहुत बहुत ज्यादा और दिया बहुत बहुत बहुत कम। अरे मर गया देश और बच गए तुम! तुम ,यानी हम, यानी मैं!
यह सच है कि 2, 4 , 10, 20 या 100, 200 पाठकों (अगर हों तो) के लाइक्स के बल पर करोड़ों का समर्थन पानेवालों के सामने डटकर खड़े होने का साहस कविता ही कर सकती है। वह साहस कहाँ गाया कवि? काश कि पुरस्कार के साथ थोड़ा ही सही, साहस भी बटोर लेते तुम! संस्थाओं के भीतर लेखकों के बीच पुरस्कार के बनरबांट में जितनी दिलचस्पी होती है, उसका लाखवां हिस्सा अपने लेखकों के भीतर साहस पैदा करने में भी होती ! बाबा नागार्जुन के मन ने यों ही नहीं सवाल किया होगा कि क्या राजनीति के सामने कविता की हैसियत फटी जूती कि भी नहीं!