पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!
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माँ भी बच्चा को रोने पर दुध पिलाती है! बच्चा के दूध न पीने पर दूध के काटने से माँ का विकल होना गये जमाने, पिछड़े समय की बात है। यह विकास का जमाना है, इसे विचार का जमाना समझने में गफलत है। जो माँ बच्चा की मौत पर जश्न मनाने के लिए विकल हो, वह भला उसके रोने पर क्या पसीजेगी। दूध तो है नहीं, जाहिर है दूध के काटने की विकलता भी नहीं है। सीधी सी बात है, हड़ताल-फड़ताल से जोड़कर इसका पढ़ताल बिगारना ठीक नहीं। और हाँ, बच्चा भी अब बच्चा कहाँ रहा! पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!
कविता मगध से भिन्न नहीं
ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं! कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
मगध और कविता
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ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं! कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
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इस पर गोविंद गुंजन की रायः (फेोसबुक पर) - 'बात तो सही है प्रफुल्ल जी, पर अंतिम पंक्ति में आप एक तरफ मगध को विचार की बजाय प्रचार से परिभाषित
बताते बताते कविता को भी मगध से अभिन्न कह गए, तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
मेरा निवेदन : सवाल छोटा है, जवाब लंबा हो सकता है।
अब आगे : -
निवेदन है कि मैं कुछ कहूँ उसके पहले श्रीकान्त वर्मा की दो कविताओं और आदि कवि बाल्मीकि के श्लोक का स्मरण कर लें।
कोसल में विचारों की कमी है / श्रीकान्त वर्मा (साभार, कविता कोश)
महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।
कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।
सुनो भई घुड़सवार, मगध किधर है
मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है
किधर मुड़ूँ
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?
लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य -
कल ही तो मगध मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन -
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा
न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूँढ़ रहे हो
बंधुओ,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो।
(साभार, विचार संकलन)
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(बाल्मीकि, रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
और अब साभार, भरतमुनिः-
‘न वेद व्यवहारोयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सावणार्णिकम।’
- भरतमुनि: नाट्यशास्त्र, 1.12
कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने को पराजित ने बताया था। पराजित की बात को कवि सुन सकता है। राजसूय यज्ञ के उपरांत बचे कोलाहल के बीच चक्रवर्त्ती सम्राट कहाँ सुन पाता है! कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने के मर्म को समझ कर कवि मगध की तरफ मुड़ जाता है। मगध पहुँचकर निराशा तब और बढ़ जाती है जब पता चलता है, यह वह मगध था जो पूरी तरह गँवाया जा चुका था! कहना न होगा कि ‘कोसल’ और ‘मगध’ भारत की दो मूल सत्ता परंपरा रही है। आगे और इस दिशा में आज के सत्ता परिप्रेक्ष्य को विश्लेषित किया जा सकता है। मैं विश्लेषण करूँ यहाँ तो उस में उलझ-पुलझ कर रह जाने का डर है, और फिर प भी उतने नादान तो नहीं हो सकते हैं। एक बात का संकेत करूँ, भारत की दो मूल सत्ता परंपरा अर्थात, ‘कोसल’ और ‘मगध’ का संबंध हमारी संस्कृति के दो मेगा टेक्स्ट रामायण और महाभारत से बहुत ही घना है। इसे डिकोड किया जा सकता है।
पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा का स्मरण कर लेना जरूरी है। शस्त्रधारी सत्ता को बरजते हुए कवि की वाणी मुखरित हुई और इसी उद्यम में लगी रही, संदर्भ आदि कवि बाल्मीकि का लें। जिन “शूद्रजातिषु” को वेद सुनने तक का अधिकार न रह गया था, उनके लिए ही कवि ने पंचम वेद की संभावनाओं को तलाश लाया, संदर्भ भरतमुनि का लें। पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा में विचलन पैदा हुआ जब ‘कोसल’ हो या ‘मगध’ कवि सत्ता-शस्त्र की मनोनुकूलता में कवि अपने को ढालने लगा। जाहिर है अब पराजितों की बात उसे सुनाई देना बंद होता चला गया। विजेताओं की आकांक्षाएँ उसकी वाणी का वैबव बनने लगी। हाँ, आगे लोक और वेद के बहुस्तरीय और बहुक्रियात्मक अंतस्संघर्ष का मामला आया। संत कवियों की लंबी शृँखला का सूत्रपात हुआ। कबीर आये तो तुलसीदास भी आये। कबीर और तुलसीदास पराजित की बात को अपने-अपने संदर्भ से सुन पाने में सक्षम थे। अपने समय में मिले इनको जो सामाजिक व्यवहार या तिरस्कार मिला उसने इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल को बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की। इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल के बीच से कविता की वह परंपरा आगे बढ़त पाने लगी जिसे हम कवि केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित तिरस्कार को पुरस्कार की संभावनाओं में बदलने की प्रक्रिया से जोड़कर कुछ हद तक ही सही, समझ तो सकते हैं।
आज कवि की हालत क्या है! तर्क वितर्क चाहे जितना कर लें। कवि अंततः नागरिक ही होता है। उसकी भी संसारी जरूरतें होती हैं। संत की आज की जमात में कबीर और तुलसीदास के लिए ही कोई जगह नहीं है। केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित पुरस्कार उसे अपनी चपेट में लेता है। कुछ ‘कवि’ केशवदास की काव्यबोध-परंपरा को खाला का घर समझकर नाचते-गाते खुशी के पारावार के साथ सिंहद्वार से प्रविष्ट कर जाते हैं, अधिकतर पिछले दरवाजे की सुराख में झाँकने के संघर्ष में शामिल रह जाते हैं। होंगे अपवाद भी जो कि अनिवार्यतः होते ही हैं। इस घर देखिये या उस घर, सफल प्रचार वस्तु की तरह स्वीकृत हो जाने में ही आज की बन रही कविता की सार्थकता बची हुई है। ऐसे में, कविता, जिसे कविता का ओहदा हासिल है, प्रचार प्रेरित न लगे तो क्या लगे?
हे भंते, बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए
हे बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए।
लोकतंत्र का लचकमंत्र
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बड़े-बड़े इकॅनोमिस्ट, जर्नलिस्ट भी मंदी-फंदी की बात करते हैं! कॅरपोरेट टैक्स छूट जैसी ऐतिहासिक घटना को डिमांड-सप्लाई साइड पर कस रहे हैं। साइड की बात करते हैं और साइड इफेक्ट को नहीं जानते! लोकतंत्र के लचकमंत्र को नहीं जानते! भाई सामने चुनाव है। न डिमांड समझते हैं, न सप्लाई! बहस किये जा रहे हैं! यह समय देशभक्ति का है, बहस का नहीं! मंदी-फंदी की चकरघिन्नी से बाहर देशभक्ति के मनोरम दृश्य की अशुभ और अशोभनीय उपेक्षा से दुनिया में हमारी छवि पर कैसा विद्रूप असर पड़ेगा, यह भी नहीं सोचते! हे भंते, बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए।
विकल्पहीनता का आनंद
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कुछ लोगों के जेहन में किशन पटनायक की याद होगी। किशन पटनायक सामाजिक राजनीतिक चिंतक थे। वह दौर था जब पूरी दुनिया में टीना (TINA) का कोहराम मचा था। टीना, मतलब कि कोई विकल्प बचा नहीं है। किशन पटनायक तब दोनों हाथ उठाकर पूरी बौद्धिक ताकत के साथ कहते थे, विकल्प है। उनकी बहुत महत्त्वपूर्ण किताब है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। अवसर मिल जाये तो जरूर पढ़ना चाहिए। उनके लेखों का संकलन है जो काफी है भरोसे के लिए। दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती है। यह सच है कि जो विकल्प हमें दिखाया जा रहा था या दिख रहा था वह वह अपनी अंतर्वस्तु में वस्तुतः एक ही था। इस तरह कोई विकल्प था नहीं, बस विकल्प का आभास था। हमने आभास पर यकीन किया। विकल्प सत्ता के पास नहीं हुआ करती है, चाहे वह राजनीतिक सत्ता हो या बाजारनीतिक सत्ता हो। विकल्प हमेशा जनता के पास होता है। इस बात पर भरोसा कर लेना चाहिए। हमने भरोसा किया।
अब यह विडंबना ही है कि गाँधी और गोडसे को एक दूसरे का विकल्प मानने तथा मनवाने का प्रस्ताव किया जा रहा है। बहुत सारे लोग गाँधी को नहीं, गोडसे को बेहतर विकल्प मानने भी लगे हैं। ध्यान में होना ही चाहिए कि गाँधी और गोडसे यहाँ व्यक्ति होने के कारण महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि विचार सरणी के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं।
विकल्प का द्वंद्व
आज की तुरंग गति-मति के समय में विकल्प की तलाश बहुत कठिन काम है। एक तो वास्तविक विकल्प को पहचानना मुश्किल, दूसरे वह पूरी तरह अपरीक्षित होता है। बेहतर नतीजा नहीं भी दे सकता है। विकल्प का द्वंद्व बहुत कष्टकर होता है। जिन्हें नतीजे की बहुत चिंता नहीं होती है वे विकल्प को लेकर मगजमारी नहीं करते हैं। विकल्प तलाश की दुविधा के पार बसता है विकल्पहीनता का आनंद! कहने की जरूरत नहीं है कि आज हम में से बहुत सारे लोग विकल्प तलाश के कष्टकर द्वंद्व से बाहर निकल गये हैं। न सिर्फ बाहर निकल गये हैं बल्कि विकल्पहीनता का आनंद लेने में जीवन की सार्थकता पा रहे हैं।
तो फिर क्या है विकल्प!
है विकल्प है। यह जरूर है कि विकल्प को खोजना आसान नहीं है। आसान इसलिए नहीं है कि यह खोज अकेले का उद्यम नहीं है। इसके लिए संगठित उद्यम चाहिए। मुश्किल इसलिए भी है कि उद्यम संगठित होते ही इस या उस तरह की शक्ति में बदल जाता है। शक्ति के सत्ता में बदल जाने में देर ही कितनी लगती है। हमारा काव्य अनुभव बताता है, जिधर अन्याय होता है, शक्ति उधर ही झुक जाती है। साक्षी निराला हैं। ऐसा है, दुष्चक्र। न्याय, चाहे जिस भी प्रकार का हो, चाहिए तो इस दुष्चक्र को शुभचक्र में बदलना ही होगा। फिलहाल तो मैं Arti Thakur आरती ठाकुर के सवाल (फेसबुक पर) का जवाब ढूढ़ रहा हूँ कि ‘कोसल और मगध से होते हुए कवि और उसकी कविता नागरिक होएंगे ही अंततः सांसारिक जरूरतें उन्हें प्रचारित कवि बनाती है और वैराग्य से जीते/ लिखते उन्हें पलायनवादी...... कवि जो मगध में था अब वो किसी समयकाल में नहीं। शब्दों में जिंदा रहने की क्या शर्त्तें है, कोई बताये तो?’ कोई क्या बतायेगा भला! रघुवीर सहाय को याद करें तो अपने मोर्चे पर मरने की जिद हमें बचा सकता है। अपने मोर्चे पर मरने की जिद भी एक विकल्प है!
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Ramesh Chand Meena (फेसबुक पर) का सवाल गौर तलब है इसलिए इस सवाल को यहाँ रखना और इसके जवाब को प्रस्तावित करना दायित्व है।
सवाल, विकल्पहीनता के दौर में नहीं जी रहे है हम?
जवाब यह कि
भाई, विकल्पहीनता भी एक विकल्प है, अब चयन हमारा जो हो!
मगध और कविता
मगध और कविता
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इस पर गोविंद गुंजन की रायः - 'बात तो सही है प्रफुल्ल जी, पर अंतिम पंक्ति में आप एक तरफ मगध को विचार की बजाय प्रचार से परिभाषित
बताते बताते कविता को भी मगध से अभिन्न कह गए, तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
मेरा निवेदन : सवाल छोटा है, जवाब लंबा हो सकता है।
अब आगे : -
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
कोई कसर न थी ।
न उनके पास अस्त्र थे
उनमें से हरेक अकेला था
राजसूय पूरा हुआ
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है
किधर मुड़ूँ
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?
लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य -
कल ही तो मगध मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन -
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा
न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूँढ़ रहे हो
बंधुओ,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो।
कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने को पराजित ने बताया था। पराजित की बात को कवि सुन सकता है। राजसूय यज्ञ के उपरांत बचे कोलाहल के बीच चक्रवर्त्ती सम्राट कहाँ सुन पाता है! कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने के मर्म को समझ कर कवि मगध की तरफ मुड़ जाता है। मगध पहुँचकर निराशा तब और बढ़ जाती है जब पता चलता है, यह वह मगध था जो पूरी तरह गँवाया जा चुका था! कहना न होगा कि ‘कोसल’ और ‘मगध’ भारत की दो मूल सत्ता परंपरा रही है। आगे और इस दिशा में आज के सत्ता परिप्रेक्ष्य को विश्लेषित किया जा सकता है। मैं विश्लेषण करूँ यहाँ तो उस में उलझ-पुलझ कर रह जाने का डर है, और फिर प भी उतने नादान तो नहीं हो सकते रहैं। क बात का संकेत करूँ, भारत की दो मूल सत्ता परंपरा अर्थात, ‘कोसल’ और ‘मगध’ का संबंध हमारी संस्कृति के दो मेगा टेक्स्ट रामायण और महाभारत से बहुत ही घना है। इसे डिकोड किया जा सकता है।
निस्संदेह
निस्संदेह आपके मन में प्रति जो लगाव है, वह मुझे बल देता है। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि मेरे प्रति अपने लगाव को किसी अन्य पर थोप नहीं सकते। मुझे इसका कुछ तो अनुमान था ही कि देशज के साथियों की ओर से किस तरह की प्रतिक्रिया आ सकती है। यह स्वाभाविक है। दो कारण तो तत्काल समझ में आ सकता है। पहला यह कि मैं कविता के नाम पर जो लिखता हूँ उसे कविता मानने में लोगों को स्वाभाविक संकोच होता है। संकोच मेरे मन भी कम नहीं है। यह अलग बात है कि मैं इसके अलावे और कर कुछ नहीं सकता हं। दूसरा यह कि मैं जब खुद किसी आपसदारी में शामिल नहीं होता हूँ, तो कोई अन्य बेगानी की शादी में अब्दुल्ला क्यों बने भला!
अरुण जी, सच पूछिये तो मेरे अंदर साहित्यकार बनने की योग्यता कभी अर्जित हो ही नहीं पाई, ललक रही होगी जरूर। ललक नहीं थी तो इतने दिन तक जैसे-तैसे इसमें लगा ही कैसे रह गया! अब वह ललक ढलान पर है। बहुत होगा तो क्या होगा! उन तमाम बड़े साहित्यिक लोगों के उदाहरण भरे पड़े हैं कि उनके साथ अंततः क्या सलूक हुआ और हो रहा है। कह सकते हैं कि इन बातों में छद्म आत्मसंतोष ढूढ़ रहा हूँ। जब सच से आंख मिलाने का साहस नहीं बचता है तो छद्म ही सहारा बनता है जीवन का। कहने को बहुत कुछ है, लेकिन अभी इतना ही।
मुझे किसी से इस मुताल्लिक कोई शिकायत नहीं है। मन उन न करें। अपना लगाव बनाये रखें। देशज पर मेरी कविता को रखने के लिए आभार।
कुछ और तरह से पढ़ियेगा, ठीक! कू.....
कुछ और तरह से पढ़ियेगा, ठीक! कू.....
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चीन में कुछ और तरह से कही-सुनी जाती है, आर्यावर्त में किसी और तरह से। रेवा खंड में कुछ और तरह से तो जम्बू द्वीप में कुछ और तरह से। सब तरह में जो बात समायी रहती है मैं उस तरह से सुनाता हूँ। आप अपनी तरह से सुन लीजियेगा, ठीक!
एक आदमी था। वह अंधेरे में बैठा मन-ही-मन रो रहा था। अंधेरा घुप्प था और आदमी चुप्प था। जब कोई राह नही सूझती है, आदमी चुप नहीं चुप्प हो जाता है। ऐसी हालत को चुप्पी कहते हैं। चुप्पी की रुलाई को आदमी नहीं सुनता है, देवदूत सुना करते हैं। देवदूत कहीं आते जाते हैं नहीं, प्रकट होते हैं और प्रच्छन्न होते हैं माने छुप जाते हैं।
तो हुआ यह कि उस आदमी के सामने देवदूत प्रकट हो गये। पूछा क्या हुआ! यह लालटेन लो और आगे बढ़ो। लालटेन की रौशनी में आदमी का ललाट चमक उठा। उसने कमर कसी। अगली यात्रा शुरू की। मगर यह क्या दो-तीन कदम बढ़ाते ही फिर वही अंधेरा! वही अंधेरा और आदमी किंकर्तव्यविमूढ़! देवदूत ने इशारा किया कि लालटेन हाथ में लो और आगे बढ़ो। लालटेन को साथ लेकर आगे बढ़ोगे तो रौशनी साथ रहेगी और राह रौशन।
आदमी मुश्किल में पड़ गया। लालटेन हाथ में उठाये तो पैर न उठा पाये। पैर उठाये तो लालटेन न उठे। यह सब दो-तीन टर्म तो ऐसे ही गुजर गया। टर्म समझते हैं न, जी टर्म। बिहार में बुद्ध ने कहा था अपना दीपक आप बनो। अपना दीपक बनना ही मुश्किल था। अपना लालटेन आदमी अपने बने तो कैसे!
तो दुविधा में आदमी करे तो क्या करे! दुविधा यह कि बिना लालटेन उठाये चलो, तो बस दो-तीन कदम! आदमी को दूर जाने की तमन्ना सताने लगी। उसने तरकीब निकाली। तरकीब कि लालटेन बोलते रहो चलते रहो। पूरा कुनबा चल पड़ा। हर किसी के पास यकीन था कि उनमें से किसी-न-किसी के पास से जरूर निकलेगी कोई-न-कोई लालटेन। हुआ वही जिसका डर था। खाली लालटेन, लालटेन बोलते रहने से कहीं लालटेन का साथ मिलता है! और अब तो हाथ भी हाथ न रहा, तेरा मेरा साथ न रहा की नौबत आ गयी। बात यह है कि मिट्टी हो चुकी देह पास-पास होती भी है तो एक-दूसरे के साथ नहीं होती है। अब और बात आगे बढ़ाने से क्या फायदा! हाँ फिर याद दिलाता हूँ मैंने कहानी एक तरह से कही, आप एक और तरह से सुनें। ध्यान रहे, कहानी कह तो मुर्दा भी सकता है, लेकिन सुन सिर्फ जिंदा ही सकता है! हमारे इलाके में मुर्दा के कान में लोग चिल्लाकर कहते हैं-- कू...! सुना तो जिंदा, नहीं सुना तो राम न सत्त! कू.....