विवेक

ज्ञान और बोध में अंतर है। विवेक ज्ञान को लोकहितकारी परिप्रेक्ष्य में संतुलित और सक्रिय करता है।इस संतुलित और  सक्रिय मति में बोध का जन्म होता है। इसलिए विद्यापति ने कहा था सहज सुमति वर दिअ हे गोसाउनि। ज्ञान को संचालित करनेवाले और भी तत्त्व हैं, उन पर फिर कभी। अभी तो इतना ही विवेकहीन ज्ञान विध्वंस की पटकथा बुनता रहता है। बुद्ध को बोध प्राप्त हुआ था, इसलिए उस जगह को बोध गया कहा जाता है, ज्ञान गया नहीं। पहले विवेक। 

तुलसीदास ने रामचरितमानस में कहा

बिनु सत्संग विवेक न होई। रामकृपा बिनु सुलभ न सोई।

विवेक का जन्म सत्संग से होता है। विवेक से मोह और भ्रम दूर होता है, मोह (अपने पराये की प्रतीति) और भ्रम (राम के नहीं बल्कि खुद के कर्त्ता होने की प्रतीति)। मोह और भ्रम के दूर होने से विवेक प्नराणवंत होता है - 
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा।
हमारे जैसे लोग सदा अपराध बोध से संपीडि रहते हैं। अपराधबोध सुमति के संतुलन को क्षरित करता है। विवेक विहीन ज्ञान विध्वंस की ओर लपकता है। 
साधु की संगति अपराधबोध को कम कर देती है- 

एक घड़ी आधी घड़, आधी की पुनि आध, तुलसी संगत साधु की छमहिं कोटि अपराध।

अपराधबोध के कम होने से शुद्ध बोध का जन्म होता है। जिस व्यवस्था में अपराधबोध को कम करने की गुंजाइश कम या नहीं होती है वह व्यवस्था अपना मानवीय व्यवहार खोने लगता है। अभी इतना ही, शेष फिर कभी... 

ज्ञान की आँधी

जब ज्ञान की आँधी चलती है। प्रेम निकृष्टतम अर्थ में संकुचित हो जाता है। निकृष्ट स्वार्थ शक्ति को अपने व्यवहार के लिए अधीनस्थ कर लेता है। राम की शक्तिपूजा में महाप्राण निराला कहते हैं - है जिधर अन्याय, है उधर शक्ति! पश्चिमी सभ्यता में शक्ति का संबंध ज्ञान से जोड़ा गया कॉनेलज इज पावर। इच्छित परिणाम के हासिल होने का संबंध शक्ति से जोड़ा गया। कॉनेलज पावर और रिजल्ट के चमत्कार से चौंधियाने की तरफ बढ़ता रहा है। प्रसंगतः, आज यूक्रेन में ज्ञान की आँधी चल रही है। 
भारत में मूल्य स्थिति भिन्न रही है! इस भिन्न स्थिति पर फिर कभी। 

उधो, माधो

न उधो का लेना, न माधो का देना प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इस लोकोक्ति का प्रयोग लोग तटस्थता और बेलाग (बाय स्टेंडर एक सिंड्रोम ) स्थिति के लिए करते हैं। इसके मूल संदर्भ को देखने पर प्रसंग का संकेत कुछ अन्य है।
प्रसंग पर गौर किया जाये। माधव यानी कृष्ण के बहुत गहरे मित्र थे उद्धव। उद्धव ज्ञानमार्गी थे। कृष्ण प्रेममार्गी। अक्सर कृष्ण कहा करते थे कि सर्व स्वर्ण की बनी द्वारिका, गोकुल की छवि नाहीं। उद्धव इसे कृष्ण का प्रलाप मानकर ज्ञान देते थे और गोकुल के छूट जाने की आँच को कम करने की कोशिश करते थे। एक दिन कृष्ण ने उद्धव से कहा जाइये और गोपियों को समझाइये। जब उद्धव गोपियों को ज्ञान देने के लिए गोपियों से मिले तो गोपियाँ असमंजस में पड़कर एक दूसरे को सावधान करने लगी कि न उधो का लेना, न माधो का देना! अर्थात प्रेम ज्ञान से विस्थपनीय नहीं है। जब भी ज्ञान प्रैम को विस्थापित करता है, क्षमा, दया, तप त्याग मनोबल आदि को मनोरम बनानेवाली मूल्य शृंखला को तहनहस कर देता है।
कबीरदास ने भिन्न प्रसंग में सावधान किया, साधो चली ज्ञान की आँधी! ज्ञान की आँधी पर फिर कभी। 

सोने पर सोहाग

मेरे मन में जिज्ञासा रही है। थे ढेर सारे धनवान। सुदामा गये सिर्फ कृष्ण के पास! क्या इसलिए कि छात्र जीवन के मित्र थे! यह पर्याप्त नहीं लगता। इसे आध्यात्मिक दृष्टि से देखना चाहिए। बाकी सभी धनवान उन्हें सोना तो दे सकते होंगे। सौभाग्य सिर्फ कृष्ण दे सकते हैं। कृष्ण से सोना और सौभाग्य दोनों मिला। सौभाग्य ही सोहाग या सोहागा के रूप में लोक प्रचलित हुआ। सोने पर सोहागा लोकोक्ति यहीं से निकली और आज तक प्रचलित है। बिना सौभाग्य के सोना शुभ नहीं। सोना मिलने के कई स्रोत हो सकते हैं, सौभाग्य का स्रोत एक ही होता है और वह स्रोत ईश्वर होता है। ध्यान में रखना जरूरी है कि ईश्वर के कई रूप होते हैं। इसी कारण हिंदू लोकमानस सदैव बहुदेववादी रहा है। कथाऔर भी है किंतु अभी इतना ही। शेष फिर कभी।
आप का दिन शुभ हो। 
सादर