प्रेमचंद की कहानी - नशा

हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए। 

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प्रेमचंद की एक कहानी है नशा। नशा का नैरेटर समतामूलक विचार और समाज का पैरोकार है। जमींदार परिवार से आये अपने सहपाठी के सामंती व्यवहार के लिए उसे कोसता रहता है। एक बार वह सहपाठी जमींदार के साथ उसके गांव जाता है। इस शर्त के साथ कि उसे वहां कुछ दिन के लिए जमींदारी परिवेश के अनुरूप आचरण करना होगा। इस शर्त का पालन करने के क्रम में वह सत्ता के नशे में जीने लगता है। लौटते समय रेल सफर में एक हादसा होता है। वह एक ग्रामीण यात्री के साथ अमानवीय आचरण कर बैठता है। उसके बाद, एक सहयात्री ग्रामीण बोला- "दफ्तरन माँ घुसन तो पावत नहीं, उस पर इत्ता मिजाज!

ईश्वरी ने अंग्रेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir! (बीर, तुम कितने मूर्ख हो !) और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।" इस

नशा कहानी की याद आ गई तो मैं ने सिर्फ याद दिलायी है, कहानी के साथ सफर कोई अकेले करे तो बेहतर। 

नवाबराय के नाम से लिखने वाले व्यक्ति धनपतराय श्रीवास्तव ने अकेले प्रेमचंद नामक लेखक का उपार्जन किया था! नहीं इसके पीछे दयानारायण निगम की भूमिका थी। प्रेमचंद और दयानारायण निगम बहुत गहरे मित्र थे। नवाबराय के नाम से लिखनेवाले धनपतराय श्रीवास्तव को प्रेमचंद नाम दयानारायण निगम ने ही सुझाया। 

दयानारायण निगम कानपुर से निकलनेवाली जमाना नाम की उर्दू पत्रिका के संपादक थे। प्रेमचंद की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' पहली बार इसी जमाना में छपी थी। जमाना में ही पहली बार इक़बाल की रचना, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, भी छपी थी। दयाराम निगम के साथ प्रेमचंद का सघन और गहन पत्राचार भी होता था, जिसका अधिकांश अब प्रकाशित है। 

दयानारायण निगम के पीछे भी कोई व्यक्ति, कोई प्रेरणा रही होगी। मूल बात यह कि कोई दयानारायण निगम न हो तो किसी धनपतराय श्रीवास्तव का प्रेमचंद में कल्पातंरण कैसे हो! यों ही नहीं लेखक बनता है। लेखकों की बनक के पीछे झांकिए तो पता चलता है कि इतिहास के गत्तों में गुम हो जाने की शर्त पर भी समाज को गुमराह करनेवाली शक्तियों से बचाने के लिए दयानारायणों की कैसी अदृश्य भूमिका सक्रिय रहती है। अब तो प्रेमचंद की भूमिका भी अदृश्य होती दिख रही है। अचंभा होता है कि जिस हिंदी समाज के पास प्रेमचंद और उन जैसे कई साहित्यकार हैं वह समाज इतना भाव विपन्न कैसे हो सकता है! हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए। 

फिलहाल, कहीं प्रेमचंद की कहानी नशा पढ़ने की कोशिश कीजिए और मुझे भी बताइए। 


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यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत

यों तो अलग रहने के कायदे थे बहुत

ये आलमी जंग तो उनमें शुमार न था

यों पहले बीमारियाँ थी जहां में बहुत

हां तुम्हारा नाम तो उनमें शुमार न था

यों तो जुर्म थे पहले दर्ज खाते में बहुत उन में तेरी करतूत का तो शुमार न था

यों परिंदों पर तो पाबंदी नहीं थी बहुत जमीन पर कोई इंसानी किरदार न था


रोजी रोटी में कोताही थी पहले ही बहुत 

सांसों और ख्वाहिशों का पहरेदार न था


जिंदगी में खुशी और गम के रंग थे बहुत 

हालांकि मरने से तो कभी इन्कार न था

यों तो कशिश थी तेरी अदाओं में बहुत नाक के नीचे अगरचे कोई इसरार न था

पिछले चुनावों में फूल तो बिके थे बहुत हालांकि दिल अवाम का गुलज़ार न था

यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत कह रहा कोई वह शख्स देनदार न था







करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था

करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था

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करोना का प्रकोप दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अधिकृत सरकारी और प्रशासनिक निर्देशों का पालन कड़ाई से करना जरूरी है। इस समय बहुत ही डरावनी स्थिति है। अलग रहना ही सब के साथ होना है। 

सभ्यता का इतिहास जब लिखा जायेगा तब पिछले चालीस साल का एक अलग अध्याय होगा। 1980 से 2020 के बीच दुनिया का चक्का बहुत तेजी से घूमा, इतनी तेजी से घूमा कि इसकी धूरी ही दरक गई। करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी। जाने मेरा मन क्यों ऐसा संकेत दे रहा है! मन यानी 6ठी इंद्रिय। 6ठी इंद्रिय के पास संकेत तो होते हैं, सबूत नहीं होते हैं। 6ठी इंद्रिय पर बात करने के पहले कुछ और शब्दों पर बात कर लेते हैं, जरूरी है। साहित्य तो सभ्यता की अंतर्ध्वनि को शब्दों से ही पकड़ता है, इसलिए शब्द। 

इन दिनों चाणक्य की चर्चा आम जुबान पर रहती है, सूत्र यहीं से सुलझाते हैं। साम, दाम, भय, भेद, दंड, माया, उपेक्षा, इंद्रजाल।। साम यानी प्रशंसा, पुरस्कार। दाम यानी पैसा, वस्तु भी। भय यानी असुरक्षा की आशंका। भेद यानी रहस्य। दंड यानी शक्ति का कोप। माया जो है ही नहीं या जो है उस पर जो नहीं है उसकी प्रतीति। उपेक्षा यानी जो है उसका होना न होने जैसा कर दिया जाये। ये सभी अलग-अलग सूत्र हैं जो अस्ल में नाभिनालबद्ध होकर भीतर से एक ही होते हैं। जब साम, दाम, भय, भेद, दंड, उपेक्षा और माया का इस्तेमाल कर लिया जाता है तब बारी आती है इंद्रजाल की। इंद्रजाल यानी जादू, धोखा का शक्ति का जाल। इंद्र देवताओं के राजा रहे हैं। महा शासक। अब इंद्र से इंद्रजाल का क्या रिश्ता हो सकता है! इस रिश्ते को मिलकर समझना और खोजना होगा। बहर हाल यह कि इंद्रजाल के प्रभाव में आई आबादी की इंद्रियों में दिमाग को सही सूचना देने में शक्ति नहीं रह जाती है। इसलिए ईश्वर को भी इंद्रियातीत, यानी बियांड इंद्रिय, अर्थात इंद्रियों के प्रभाव से पार जाकर ही समझा जा सकता है। ईश्वर यानी सत्य। सत्य जो न होकर भी नहीं होता है और होकर तो होता ही है। इसकी सूचना दिमाग को जिस से मिलती है उसी का नाम 6ठी इंद्रिय है। जी, 6ठी इंद्रिय! 6ठी इंद्रिय, जो न होकर भी होती है और होकर तो होती है। उसी 6ठी इंद्रिय का संकेत मानें तो यही लगता है कि करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी।