अंतरंग
प्रफुल्ल कोलख्यान
‘अंतरंग गोष्ठी में आज मुझे अपनी बात कहनी है। मुझे खुशी है कि पहला मौका मुझे मिला।’
उम्र की सत्तरवीं गाँठ के आस-पास टहल रहे भैरो बाबू ने जब अपनी बात शुरू की तो उनके साथी, यानी उनके अंतरंग के साथी सोच रहे थे कि देखें भैरो बाबू कैसे अपनी बात कहते हैं। कितनी ईमानदारी दिखाते हैं। असल में अंतरंग का प्रस्ताव भी उन्हीं का था। हुआ कुछ इस तरह कि पिछले चार-पाँच साल से पहले जब भैरो बाबू रिटायर्ड होकर इस कॉलोनी में आये तो बिल्कुल अकेले थे। उनका एक मात्र बेटा कमल आईटी से लग गया था। जब वह विदेश जाने की तैयारी कर रहा था, तो उनके मन में भी इच्छा थी कि कम-से-कम एक बार वे भी विदेश हो आयेंगे। बड़ा सुन रखा है विदेश के बारे में। देख आयेंगे अपनी आँखों से सब कुछ। शुरू-शुरू में ऐसा ही तय भी हुआ था। लेकिन यह सुयोग कभी नहीं आया। वे टेलीफोन की घंटी बजने का इंतजार करते रहते थे। धीरे-धीरे यह इंतजार लंबा होने लगा। अक्सर देर एक-डेढ़ से दो-ढाई बजे रात में फोन आता। नींद उचट जाती। फिर फोन के आने का अंतराल बढ़ता ही गया। हद तो तब हुई जब उनकी पत्नी रमा का देहांत हुआ। कितने लाड़ से रमा ने पाला था। कितने सपने सँजोये थे। सपने को रमा ने कभी टूटने नहीं दिया। खुद टूट गई।
भैरो बाबू की आँखें छलछला गई थी। उनकी अंतरंग गोष्ठी के लोग उनकी पिछली जिंदगी के बारे में कुछ नहीं जाते थे। उनकी अंतरंग गोष्ठी में वे तीन लोग ही थे जो उनकी ही तरह पॉश कॉलोनी के इस वृद्धाश्रम ‘परम शांति’ में रहते थे। ‘परम शांति’ में कितने लोग रहते हैं, इसका ठीक-ठीक अंदाजा उनको नहीं है। यहाँ आने के पहले तहकीकात के दौरान व्यवस्थापकों ने यह जरूर बताया था कि एक सौ बावन सूट इसमें है। घरेलू वातावरण मिलेगा। एक अलमारी, एक रीडिंग टेबुल, दो कुर्सियाँ सामान्यतः तीन सूट के लोगों की देख-रेख के लिए एक परिचारिका रखी जाती है। खास परिस्थिति में खास व्यवस्था होती है। सप्ताह में एक दिन मेडिकल चेकअप होता है। जरूरी पड़ने पर डॉक्टर को बुलाया जा सकता है। डाइट डॉक्टर की सलाह पर। विजया दशमी, ईद, बड़ा दिन, पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी को सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। तीस जनवरी को कपड़ों और रोज के इस्तेमाल की चीजें बाँटी जाती है। तीस जनवरी को गेट टुगेदर होता है। मौखिक रूप से यह सब बताने के बाद जो फोल्डर दिया गया था, उसमें यह भी लिखा गया था कि महात्मा गाँधी बूढ़ों के मसीहा थे। तीस जनवरी को बूढ़ों की उस मसीहा की हत्या हो गई थी। दुनिया भर के बूढ़ों को उस दिन जमा होकर अपने मसीहा को याद करना चाहिए।
विकास के साथ ही सामाजिक विभाजन तीखा होता जाता है। विकास का केंद्र शहर होता है। शहरों में जगह के साथ नागरिक सुविधा की भारी किल्लत होती है। जिसके पास आय के नियमित स्रोत न हों, शहर में उनका जीना मुश्किल होता है। पूरी जिंदगी शहर में जीने के बाद गाँव में बुढ़ापा काटना और भी मुश्किल काम है। शहर को बूढ़े पसंद नहीं हैं। शहर में सिर्फ दुधारू गाय-भैंस के लिए जगह होती है। भैरो बाबू यानी भैरव दत्त त्रिपाठी किरानी से नौकरी शुरू कर ऑफिस-सुपरिंटेंडेंट के पद तक पहुँचते-पहुँचते रिटायर्ड कर गये।
यह वह समय था जब भारत में राष्ट्रीयकरण की हवा चल रही थी। भैरो बाबू पढ़े लिखे थे। एक प्राइवेट कोयला खदान के दफ्तर में किरानी लग गये। तनख्वाह तो इतनी ही थी कि तन की ख्वाहिशें किसी तरह पूरी हो जाये। पाँच साल तीन महीने की नौकरी के दौरान कई विपत्तियाँ आई। पहले माँ गई। पीछे से पिता भी चले गये। पिता का श्राद्ध करने के बाद काम पर लौटे थे हाथ बिल्कुल खाली था। ऊपर से कुछ कर्ज भी लद गया था। छ महीने तो कर्ज उतारने में लग गया। अब तक कमल तीन साल का हो चुका था। उसकी पढ़ाई लिखाई की चिंता सताने लगी थी। रमा को तो जैसे और कुछ सूझता ही नहीं था। भैरो बाबू कमल की पढ़ाई लिखाई को लेकर अपनी चिंता से अधिक रमा के उलाहना से परेशान रहते थे। वह अकसर कहती थी कि हम लोग तो खढ़पतार की तरह पल गये जैसे-तैसे। अब कमल की चिंता करो। उसकी पढ़ाई-लिखाई के अलावा जीवन में और कोई साध नहीं है। भैरो बाबू की बड़ी इच्छा थी कि कम-से-कम एक और संतान हो जाये। एक लड़का तो है ही, एक लड़की भी हो जाये तो बेहतर ही होगा। लेकिन रमा किसी तरह इसके लिए तैयार न थी। उसका कहना था कि कमल ही पढ़ लिखकर किसी काम का हो जाये तो बेटा-बेटी दोनों का सुख उसी से मिल जायेगा। बहू को ही बेटी बना लूंगी। ऐसे ही समय में राष्ट्रीयकरण का शोर उठा। अखबारों की कीमत बढ़ गई। उनके पास एक रेडियो थी। कई महीनों से बैट्री के अभाव में धूल-फाँक रही थी। झाड़-पोछकर उसमें बैट्री डाली गई। आस-पास के लोग रोज रात को उनके घर के आस-पास मँडराने लगे। हर कोई समाचार सुनना चाहता था। धीरे-धीरे भैरो बाबू की अहमियत बढ़ गई। तो आखिरकार राष्ट्रीयकरण होकर रहा।
भैरो बाबू सरकारी आदमी हो गये। आमदनी भी कई गुना बढ़ गई। लगा जिंदगी कुछ आसान हो गई है। हुई भी। हाँ, बाजार को भैरो बाबू की आसान जिंदगी रास नहीं आ रही थी। धीरे-धीरे महँगाई भी सिर उठाने लगी। फिर भी अब पहलेवाली बात नहीं रही। कमल को ढंग से पढ़ाने के सपने को साकार करने का भरोसा जीवंत हो उठा। उन्होंने अपनी सारी ऊर्जा लगा दी। कमल पढ़ने लिखने में तो होशियार था ही। उसकी अच्छी खासी नौकरी भी लग गई। भैरो बाबू को पहला झटका तब लगा जब कमल ने सरकारी नौकरी को लात मारकर प्राइवेट नौकरी को गले लगा लिया। भैरो बाबू प्राइवेट नौकरी से सरकारी नौकरी में न आ गये होते तो आज कमल को यह हैसियत हासिल नहीं होती। भैरो बाबू ने समझाने की कोशिश तो की लेकिन हाथ निराशा ही लगी। बहुत दुःखी हुए भैरो बाबू। रमा ने समझाया लड़का पढ़ा लिखा है। समझदार है। जमाना बदल चुका है। वह अपना भला-बुरा समझता है। उन्होंने संतोष कर लिया।
कमल अब नई जिम्मेवारी सम्हालने के लिए दिल्ली चला गया। भैरो बाबू की बड़ी इच्छा थी कि शादी-ब्याह कर घर बसा ले। लेकिन कमल ने कभी उनकी बात पर ध्यान नहीं दिया। कोई जवाब भी नहीं दिया। रमा के कहने पर जरूर कहता था माँ समय बदल गया है। शादी-ब्याह की फुरसत किसे है। एक बार कंपनी के किसी काम से इधर आया तो रमा से मिलने दो दिन के लिए इधर भी आ गया। उस बार रमा के बहुत जोर देने पर उसने कहा माँ दूध पीने के लिए गाय पालना जरूरी नहीं है और न अंडा के लिए मुर्गी पालना। रमा अवाक हो गई। पढ़ी-लिखी नहीं थी, लेकिन बेवकूफ भी नहीं थी रमा। माँ बेटे के बीच की बात का पता भैरो बाबू को उस समय नहीं था। नहीं तो भैरो बाबू वह प्रसंग ही नहीं उठाते। प्रसंग यह कि रिटायर्ड होने के बाद भी सरकारी क्वार्टर में जमे रहना ठीक नहीं है। बार-बार नोटिस भेजते हैं। ग्रेच्युटी का पैसा भी अटका रखा है। सुनते हैं बाद में सूद समेत सारा पैसा भाड़ा के बाबत काट लिया जायेगा। कमल ने बिना किसी दुविधा के कहा कि आपके पैसे में मेरी कोई दिलचस्पी कभी नहीं रही। दिल्ली में एक मकान मैंने लिया है। रजिस्ट्री होने के बाद आप लोग वहाँ रह सकते हैं। यहाँ क्या तकलीफ है। मुफ्त की बिजली पानी है। आराम से रहते हैं। रजिस्ट्री कब होगी के जवाब में उसने कहा कि जब पैसे हो जायेंगे। पुत्र मोह। भैरो बाबू ने कहा कि मेरे पीएफ का कुछ पैसा है, करीब साढ़े चार लाख। क्वार्टर छोड़ देने पर भी कुछ पैसे मिल जायेंगे। बाप बेटे में सुखद संवाद हुआ। जिसका समापन इस प्रस्ताव से हुआ कि पीएफ का पैसा कमल अपने एकाउंट में ले ले। वे लोग फिलहाल सरकारी क्वार्टर में बने रहें। जब असुविधा होगी देखा जायेगा।
कमल के जाने के बाद जब रमा में ने गाय मुर्गी वाला वाकया सुनाया तो भैरो बाबू की आँख पर चढ़ा पुत्र मोह का पर्दा पहली बार हिला। मोह का पर्दा एक बार हिलता है तो फिर हिलता ही रहता है। निर्मोह होना इतना आसान नहीं। बहुत कष्ट होता है, जब मोह का पर्दा बार-बार हिलने लगे। आदमी कोशिश करके मोह के पर्दे को हिलने नहीं देता। अचानक एक दिन कमल का फोन आया। वह अपनी इस नौकरी को छोड़कर विदेश जा रहा है। भैरो बाबू की समझ में यह आया कि नौकरी भी छोड़ रहा है और देश भी। दिल्ली का मकान उसने बेच दिया है। विदेश में पैर जमते ही वह उन्हें भी वहीं बुला लेगा। तब से कई बार उन्होंने अपने मोह के पर्दे को सम्हालना चाहा। लेकिन नहीं सम्हला। सम्हलता भी कैसे धीरे-धीरे फोन का आना भी तो बंद हो गया। रमा जब बीमार पड़ी तो फर्ज समझकर भैरो बाबू ने फोन करने की कोशिश भी की। एक बार बात भी हुई। कमल ने कहा कि डॉक्टर की सलाह लें। यह आखिरी बात थी। उसके बाद पंद्रह दिन तक रमा जिंदा रही। मरते-मरते उसके मुँह में जो आखिरी शब्द बचा था, वह कमल था। इस बीच कमल का न कोई फोन आया और न रमा बच सकी। कमल तो उसकी साँस में ही बचा था। जब साँस ही नहीं बची तो कमल के बारे में सोचने की फुरसत भैरो बाबू को नहीं थी।
दो महीना बीतते न बीतते भैरो बाबू पस्त हो गये। आग को साक्षी रखकर जिस रमा का हाथ पकड़ा था उसी रमा को आग के हवाले करने के बाद भैरो बाबू का पानी सूख गया। यह जगह अब उन्हें काटने को दौड़ता। क्या करें क्या न करें कुछ समझ में नहीं आ रहा था। पीएफ का सारा पैसा बेटा ले उड़ा था। ग्रेच्यूटी का पैसा क्वार्टर छोड़ने के बाद मिल सकता था। लेकिन कितना? अगर साहब ने पैनाल्टी लगाकर भाड़ा वसूल लिया तो पैसा ही कितना बचेगा! सब कुछ साहब के विवेक पर है। जब अपने ही बेटे का विवेक काम न आया तो किसी और के विवेक का क्या भरोसा। नेता लोगों का हाथ पकड़े तो उनको अलग से सलाम करना होगा। फिर क्या पता काम हो भी या नहीं। इसी उधेड़बुन में दिन बीतता जा रहा था।
चढ्ढा साहब इस इलाके का इंचार्ज होकर आये थे। उनके कारनामों से इलाका दहला हुआ था। चढ्ढा साहब को इलाके को दहलाने में मजा आता था। नेताओं की कमाई पर गाज गिरी थी। उस दिन वे कॉलोनी के दौरे पर आ धमके। क्वार्टरों के मैंटिनेंस का बिल तो लाखों का होता था, लेकिन ठेकेदार और इंजीनियर मिलकर आपस में मैंटिनेंस कर लिया करते थे। सबसे खस्ता हालत में तो वही क्वार्टर था जिसमें भैरो बाबू रहते थे। साहब ने इस खस्ता हालत का कारण जानना चाहा। भैरो बाबू को लगभग घसीटते हुए सिकरोटी ने साहब के सामने ला पटका। आप इस जर्जर क्वार्टर में रहते हैं। कंप्लेन क्यों नहीं की? तभी साथ का अफसर बोल उठा अनअथराइज्ड अकुपाइड किया हुआ है। ये करीब पाँच साल पहले रिटायर्ड हो गये थे। क्वार्टर खाली नहीं करने के कारण इनका ग्रेच्यूटी भी अटकाया हुआ है। साहब ने सर से पाँव तक भैरो बाबू को देखा। भैरो बाबू के छटाँक भर के वजूद को दो सकेंड में तौलकर साहब ने अगले दिन दफ्तर में मिलने का फरमान सुना दिया। रात भर खुद की नजरों में जलील होते रहे भैरो बाबू।
सुबह लगभग लटपटाते हुए साहब के दफ्तर पहुँचे। साहब ने भैरो बाबू के मुँह से भैरो बाबू की पूरी राम कहानी सुनी। साहब का दिल पसीज गया। साहब का विवेक विवेकाधिकार के इस्तेमाल के पक्ष में कभी न रहा। फिर साहब ने पूछा कि किसी नेता-उता की पैरवी जुगाड़ कर सकते हैं। उनके मना करने पर साहब का दिल और पसीज गया। आज के दिन ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है जिसके पीछे कोई नेता-उता न हो।
तय हुआ भैरो बाबू क्वार्टर छोड़ देंगे। उनका पूरा पैसा उनको मिल जायेगा। क्वार्टर जब रहने लायक ही नहीं पाया गया तो भाड़ा किस बात का। रमा अपने पीछे कुछ सोना छोड़ गई थी। सब मिलाकर जो पैसा हुआ उससे साहब ने परम शांति वृद्धाश्रम में भैरो बाबू की व्यवस्था करवा दी।
तीन दिन पहले साहब उन से मिलने आये थे। कह रहे थे कि कमल आया था। किसी ने उससे कहा कि लास्ट में भैरो बाबू चढ्ढा साहब की मदद से क्वार्टर छोड़कर कहीं चले गये। चढ्ढा साहब ने कमल को भैरो बाबू के नये ठिकाने के बारे में कुछ नहीं बताया। कमल अपना फोन नंबर चढ्ढा साहब के पास छोड़ गया था सो उन्होंने भैरो बाबू को दे दिया। चढ्ढा साहब कह रहे थे वह विदेश-उदेश कहीं नहीं गया था। गलत संगत और आदत के कारण खस्ता हाल हो गया।
भैरो बाबू चढ्ढा साहब को बता दिया उसे किसी कमल-उमल से मिलने की इच्छा नहीं है।
अंतरंग में भैरो बाबू के मन के अंतरंग का प्रवाह इस तरह बजता रहा। उन्हें होश नहीं जब भीतर यह कथा चल रही थी तब उनके मुँह से क्या बातें निकल रही थी। मन और मुँह की दूरी कभी-कभी बहुत बढ़ जती है। इतनी कि खुद भी पता नहीं रहता कि जो मन में चल रहा है क्या मुँह भी वही कह रहा है न कि मन में कुछ और चल रहा है और मुँह कुछ और कह रहा है।
इतना कह कर भैरो बाबू बैठ गये कि तेरे विकास ने मुझे कहीं का न छोड़ा कमल! कहीं का नहीं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें