चाइनिज बॉल


चाइनिज बॉल

शनिवार का दिन। आधे दिन के बाद छुट्टी। गर्मी के मौसम में दुपहरिया को बाहर निकलना बड़ा कष्टकर होता है। बीस साल पहले की बात और थी। तब और ही उत्साह था। और ही उमंग थी। न धूप डराती थी। न बरसात ही रोक पाती थी। बाँग्ला या हिंदी का कोई न कोई कार्यक्रम रहता ही था। कार्यक्रम न हो तो राष्ट्रीय पुस्तकालय ही अपना ठिकाना हुआ करता था। वहाँ तब के युवा नूर मुहममद नूर, मनोज दूबे, नरेन, सिराज खान बातिश, अवधेश मोहन गुप्त, लखबीर सिंह निर्दोष, कुशेश्वर, विजय शर्मा, जीतेंद्र धीर, शिवनाथ पांडे, सोमदत्त, आशुतोष सिंह मुन्ना, असीम कुमार आँसू, सुरेंद्र दीप आदि कई मित्र स्थाई रूप से आते थे। राष्ट्रीय पुस्तकालय की सीढ़ियों पर जम जाती थी `सीढ़ी गोष्ठी'। सभी कुछ न कुछ लिखते थे। सभी सुनाते थे। सभी पर बात होती थी। अलखनारायण और शंभुनाथ जी भी बीच-बीच में आ जाया करते थे। अलखनारायण तो अचानक हमारे बीच से उठ ही गये। अलखनारायण राजेंद्र छात्रनिवास में ही रहा करते थे। अलखनरायण के रहते कोलकाता प्रवास के दौरान राजेंद्र छात्रनिवास ही बाबा नागार्जुन का प्रमुख ठिकाना हुआ करता था। उन्होंने अलखनारायण की आलोचना पुस्तक के प्रकाशन के निमित्त शंभुनाथ जी को कुछ राशि भी सौंपी थी। शंभुनाथ जी शुरू से ही काफी सक्रिय भी रहे हैं। राष्ट्रीय पुस्तकालय के हिंदी विभाग को मुख्य भवन से हटाये जाने के विरोध में शंभुनाथ जी ने तो अच्छी खासी मुहिम ही चला दी थी। आखिर वह अस्मिता का सवाल था!

हिंदी प्रदेशों से आये दो-चार शोध छात्र भी सीढ़ी गोष्ठी में शरीक हो लेते थे। शाम को टहलने के लिए निकले कुछ अधवयस लोग भी उस सीढ़ी गोष्ठी में शामिल हो जाते थे। इनमें से अधिकतर उस समय उच्च पदों पर काम कर रहे होते थे और अपने जीवन में कभी न कभी साहित्य की किसी--किसी विधा में हाथ जरूर आजमा चुके होते थे। कुछ अब भी यदा-कदा लिख लाते थे। वे भी सुनाते थे। वहाँ होनेवाली चर्चा बिल्कुल `राष्ट्रीय स्तर' की होती थी! इसमें सती कांड से लेकर मकबूल फिदा हुसैन की पेंटिग्स, नामवर सिंह की आलोचना से लेकर अशोक बाजपेयी के आयोजनों पर जमकर चर्चा होती थी। उस समय की हर बड़ी घटना सीढ़ी गोष्ठी का विषय हुआ करती थी। हम असंतुष्ट, संतुष्ट और आलोड़ित होकर, कई बार उत्तेजित  होकर भी वापस आते थे। कुछ लोग गाते अच्छा थे तो कुछ बजाते अच्छा थे। वहीं बिना नाम के नुक्कड़ नाटक की मंडली भी तैयार हो गई। कई नाटक भी खेले गये। प्रेमचंद, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत जैसे लेखकों के लिखे को आधार बनाकर खेले गये वे नुक्कड़ नाटक हमारी उपलब्धि होती थी! वे दिन और थे। तब तो गुमान भी नहीं था कि ये दिन हवा होनेवाले हैं। वे दिन हवा हो गये। वह उत्साह, वह उमंग अब कहाँ! सब कुछ को बदल देने के प्रयास में वैचारिक रूप से शामिल होने का वह माद्दा अब कहाँ !

24 जून 2006 शनिवार का दिन। अरुणकमल भारतीय भाषा परिषद आनेवाले थे। भरतीय भाषा परिषद ने एक कार्यक्रम भी शाम को रखा था। ढेर सारे अगर-मगर से जूझते हुए वहाँ पहुँचने पर पता चला फ्लाइट की गड़बड़ी के कारण अरुणकमल कार्यक्रम में नहीं पहुँच पायेंगे। बहरहाल कार्यक्रम तो होना ही था। कार्यक्रम हुआ भी। ओड़िया के कवि विष्णु महापात्र ने कई अच्छी कविताएँ सुनाई। विश्व स्तर की! शनिवर की रात होने और फुटबॉल के विश्व कप के टीवी प्रसारण के कारण ट्रेन में कम ही यात्री थे। फेरीवाले अपना सामान लिये डिब्बा में गुहार लगा रहे थे। तभी एक बालक की आवाज आई--- आमि एकटा चाइनिज बॉल। बाँग्ला में कही गई उसकी बात का आशय यह कि वह `चाइनिज बॉल' है। उसके बाद उसने चलती ट्रेन के छोटे से डिब्बे में अपने शरीर को तोड़ने-मरोड़ने के एक से एक करतब दिखाये। ऐसे करतब जिसे देखकर कोई भी अचरज में पड़ जाये। इसी संदर्भ में बुधिया को भी याद किया जा सकता है। यदि ठीक-ठाक परवरिश हो तो बहुत सारी प्रतिभाओं को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। लेकिन यह ठीक से परवरिश ही तो मुश्किल काम है। कुछ लोग सिर्फ सफलता का आनंद लेते हैं। कुछ थोड़े लोग सफलता के लिए अनुकूल परिस्थिति बनाने की भी चिंता करते हैं।

मुड़कर देखता हूँ तो यही लगता है कि 1991 में लागू नई आर्थिक नीति और 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिरा दिये जाने के बाद उठी बहस की आँच हम सम्हाल नहीं पाये। एक बार सीढ़ी गोष्ठी की रीढ़ टूटी तो टूट ही गई, इसे फिर से उठाया नहीं जा सका। राष्ट्रीय पुस्तकालय अब भी आबाद है, अब भी सीढ़ियाँ कायम हैं। सिर्फ हमारी जमघट नहीं है। दिमाग में गुजरे हुए समय की कई यादें उमड़-घुमड़कर आती-जाती रहती है।

भूमंडलीकरण के दौर में `राष्ट्रवाद' के नये सिरे से प्रासंगिक होने के कारण या पता नहीं दिमाग के में जमे किन निष्कर्षों के कारण उस नौजवान का करतब जितना अचरज में डाल गया, उतना ही उसका खुद को चाइनिज बॉल बताना अखर गया। वह खुद को `भारतीय बॉल' या कम-से-कम `बाँग्ला बॉल' ही कह सकता था। लेकिन उसका ही क्या दोष! हम भी तो प्रेमचंद को भारत का गोर्की कहते थे! हम में से भी तो कई गोर्की, काफ्का, कामू , ब्रेख्त और न जाने क्या-क्या होना चाहते थे। आज भी तो हमारे जीवन को प्रभावित करने की क्षमता रखनेवाले लोग हमारे शहर को कभी लंदन, कभी शंघाई तो कभी पेरिस बनाना चाहते हैं। मैं देर तक कल्पना करता रहा कि आज अगर `सीढ़ी गोष्ठी' जिंदा रहती तो चाइनिज बॉल के नजरिये पर कौन किस तरह से अपनी बात रखता। आज सीढ़ी गोष्ठी नहीं है, बस उसकी याद है। यादों के हवाले से कल्पना करने का खुला अधिकार पत्र है। अपनी कल्पना में मैं कई बार इस खतरनाक निष्कर्ष पर पहुँचते-पहुँचते बचा हूँ कि कोई कुछ नहीं बोलता, शायद सभी खामोश रह जाते। कभी-कभी यह भी लगता है कि सीढ़ी गोष्ठी इस निष्कर्ष पर भी पहुँच सकती थी कि हमारे सपनों का चाइनिज बॉल में बदलना समय की सबसे प्रगतिशील और मौजूँ कार्रवाई है। क्या पता!

स्थानीय कवि


स्थानीय कवि

साहित्य का अपने भूगोल से कैसा संबंध होता है-- भूगोल से अर्थात स्थानिकता से। किसी कवि को स्थानीय कहने से उसे असीम दुख होता है। यह दुख क्यों होता है? इस दुख को कैसे समझा जा सकता है? साहित्य के किसी आयोजन में किसी कहानीकार, उपन्यासकार, आलोचक आदि का उल्लेख शायद ही कभी `स्थानीय कहानीकार', `स्थानीय उपन्यासकार', `स्थानीय आलोचक' आदि के रूप में किया जाता हो। समाजशास्त्री, इतिहासकार, वैज्ञानिक का भी उल्लेख `स्थानीय' विशेषण के साथ कभी नहीं होता है! हिंदी का यह `स्थानीय' विशेषण सिर्फ कवियों के साथ लगता है और धड़ल्ले के साथ लगता है। और जिन कवियों के साथ लगता है, वे अपने को दोयम नहीं भी तो बेचारा जरूर मानते हैं। एक बात और, इस विशेषण का कवियों के साथ होनेवाला प्रयोग अचेतन रूप से ही होता है। ध्यान दिलाये जाने पर ऐसा प्रयोग करनेवाले सामयिक रूप से एक प्रकार की भद्र ग्लानि में पड़ जाते हैं। लेकिन यह `भद्र ग्लानि' सामयिक ही होती है। अवसर के बीतते ही इसका कोई नामोनिशान नहीं बचता है।

कविता तो अपने प्रारंभ से ही `विश्व-नीड़' बनाने का सपना देखती रही है--- कवि अपने विश्व नागरिक होने की कामना करता रहा है। आज का समय हर अच्छी-बुरी चीज के वैश्वीकरण का समय है। दुनिया दखल करने की, दुनिया मुट्ठी में करने की होड़ लगी हुई है। स्थानीयता को सम्मान की नजर से कोई नहीं देखता है। स्वाभाविक है कि `स्थानीय' विशेषण कवि को पीड़ा पहुँचाती है और जिनके साथ यह विशेषण नहीं लगता है, उन्हें झूठा-सच्चा संतोष  होता है। कोई `बड़ा कवि' अपने जन्म, कर्म और जीवन-स्थान पर भी स्थानीय नहीं होता है। स्थानीय होने का अर्थ है अपने स्थान की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संभव हो तो राजनीतिक, आर्थिक प्रक्रियाओं की कतिपय विशिष्टताओं से न सिर्फ प्रभावित होना बल्कि उसे अतिरिक्तत: प्रभावित भी करना। आज के समय में शायद ही ऐसा कोई कोई कवि मिले जो इस तरह देखने पर स्थानीय ठहरता हो। मुश्किल यह है कि आज कवि सामाजिक, सांस्कृतिक राजनीतिक, आर्थिक प्रक्रियाओं की कतिपय विशिष्टताओं की तो बात एक तरफ भाषिक विशिष्टताओं को भी प्रभावित करने की स्थिति में नहीं रह गया है। भाषिक विशिष्टताओं को प्रभावित करनेवाले इतने संपन्न और शक्तिशाली माध्यम सक्रिय हैं कि कविता तो बेचारी ताकती ही रह जाती है। कवियों की सामाजिक भूमिका अपने प्रभाव के शून्यांक से आगे बढ़ पाने की स्थिति नहीं बना पा रही है। वैसे तो समझदार लोग यही मानते रहे हैं कि कविता में स्वतंत्र रूप से कोई आंदोलन कभी संभव नहीं होता है, बल्कि कविता के बाहर चल रहे आंदोलनों, खासकर राजनीतिक आंदोलनों की छायाओं को ही आयातित कर कविता उसे अपना आंदोलन बनाती और बताती रही है। आज के समय में दृश्यों की तो कोई कमी नहीं है लेकिन दर्शन का अकाल जरूर है। `नाम बड़े और दर्शन छोटे' जैसी उक्तियाँ ऐसी ही स्थिति के लिए बनी होती हैं! दर्शन का अभाव दृष्टि और दीठि के अभाव को भी सूचित करता है। क्या इस स्थिति से बचा नहीं जा सकता है? हमारे समय की राजनीतिक और सामाजिक हलचलों की कुछ छायाएँ--- जिन्हें हम सम्मानपूर्वक `विमर्श' कहते हैं--- साहित्य की काव्येतर विधाओं में, खासकर आलोचना, कहानी और उपन्यास में, तो मिल जाती हैं लेकिन कविता में! आत्म संतोष के लिए कहा जा सकता है कि कविता तो प्रकाशपुंज है। प्रकाश की छाया ढूढ़नेवाले प्रकाश की प्रवृत्ति और शक्ति से नावाकिफ हैं। हिंदी में तो `छायावाद' एक काव्य युग ही हो गया है। इस युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का स्वर्ण-युग भी बताया जाता रहा है। सोने की थाली में परोसने की सहूलियत भले ही हो, पकाने की सुविधा तो बिल्कुल नहीं होती है।

बांग्ला के ऐसे किसी `बड़े कवि' को जिसकी `जन्म भूमि', `पितृ भूमि', `कर्म भूमि', `निवास भूमि', `पूण्य भूमि', `कल्प भूमि' और `काव्य भूमि' अर्थात `सर्व भूमि' कोलकाता हो तो भी उसे कोलकाता के किसी काव्य-आयोजन में `स्थानीय कवि' नहीं कहा जा सकता है। स्थानीय कहा जाता है उन `छोटे कवियों' को जो समाज में `बाहरी होने' अर्थात, स्थानीय नहीं होने की पीड़ा भोगता रहता है। यह विडंबना ही है कि जिसे समाज स्थानीय नहीं मानता उसे साहित्य का आयोजक और प्रायोजक `स्थानीय' कहता है

सच्ची बात तो यह है कि `स्थानीय कवि' को कवि नहीं माना जाता है, वह सामान्य श्रोता और कवि के बीच की खाली पड़ी हुई जमीन पर कहीं खड़ा होता है। सामान्य श्रोताओं से थोड़ी-सी उन्नत किस्म का श्रोता होता है। इनकी स्थिति बड़ी-बड़ी अटारियों के नातिदूर बसनेवाली अवैध झुग्गी झोपड़ियों की तरह होती है। बीच-बीच में इन झुग्गियों को उजाड़ने का हल्ला मचता रहता है। कभी वैध बनाने और सभ्यता में शामिल करने की भी मुहिम चलती रहती है। कारण वोट बैंक--- हे भगवान, जो न करवाये यह `जनतंत्र' सो ही कम। मन में बार-बार यह सवाल उठता है कि सभी की आँख के सामने बसती रहती हैं झुग्गी, तो उन्हें बसने ही क्यों दिया जाता है। सवाल यह है कि अगर झुग्गियाँ पास में नहीं बसेंगी तो `सस्ता सेवक' कैसे मिलेगा। मुश्किल तब शुरू होती है जब ये `सस्ता सेवक' नागरिक अधिकार और नागरिक सुविधा माँगने लगते हैं और उन्हें हासिल करने के लिए `वोट बैंक' में बदलने लगते हैं! ये `स्थानीय कवि' असल में `झुग्गी कवि' होते हैं। भाषा-विज्ञानियों और अर्थ-मर्मज्ञों का शातिर इशारा `गोष्ठी' के `गो' की तरफ हो सकता है। मुश्किल यह कि झुग्गी कवि न हों तो दिनोदिन बीरान होती `गोष्ठियों' में `गो' कहाँ से आएँ और `गो' ही न आएँ तो `गोष्ठी' कैसे हो

सार्त्र ने रीडर और पब्लिक का भेद समझते हुए रीडर के होने के बाबजूद पब्लिक के न होने का दुख प्रकट किया था। आज जब साहित्य के, कम से कम देवनागरी हिंदी साहित्य के, पाठकों का ही भारी टोटा हो गया है, ये `स्थानीय कवि' कविता के `पबिल्क' होने का कितना बड़ा आश्वासन रचते हैं, इसे हर `बड़ा कवि' जानता है। कविता में `स्थानीय कवि' की यही रचनात्मकता है और यह कम नहीं है। `स्थानीय कवि', अर्थात कविता का `पब्लिक'`स्थानीय' होना क्या सचमुच छोटा होना है! नागार्जुन के शब्दों को याद करें तो इस तरह के `खद्योत कवि' को `बेचारे' कहना ठीक नहीं है, अजी यह `स्थानीय कवि' तो `ज्योति-कीट' हैं, जो जान भर रहे हैं जंगल में!

रवींद्रनाथ ठाकुर को याद करने का मतलब


रवींद्रनाथ ठाकुर को याद करने का मतलब

रवींद्रनाथ ठाकुर का जन्म 1861 में हुआ था। उस समय तक भारत का शासन इस्ट इंडिया कंपनी के हाथ से निकलकर ब्रिटिश संसद के हाथ में आ गया था। `कंपनी' और `संसद' के चरित्र का अंतर उनके शासन-व्यवहार के अंतर अंतर को दर्शाता है। `कंपनी के शासन' का अंत करनेवाले भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक सौ पचास वर्ष पूरा हो चुका है। 1857 के कारण और प्रभाव को नये-नये तथ्यों के आलोक में समझने का प्रयास किया जा रहा है। आज उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण के दौर में राष्ट्र प्रत्याहार सन्निपात से ग्रस्त है और कारपोरेट घराने नागरिक मामलों का उत्तरदायित्व लेने को मचल रहे हैं। भारत का ऐतिहासिक अनुभव काम आ सकता है। संसदीय शासन के अंतर्गत आ जाने के कारण भारत में भी राजनीति की संसदीय प्रक्रिया का आरंभ हुआ और जनमत के लिए जगह बननी शुरू हुई। इस दौर के भारतीय समाज के प्रबुद्ध और प्रभावी लोगों में ब्रिटिश शासन और संस्कृति को लेकर स्वीकार-अस्वीकार का द्बंद्ब तीव्र था। इस दौर में अधिकतर लोगों की दृष्टि बिटिश शासन की औपनिवेशिक-संस्कृति पर ही अटक जाती थी। कुछ लोगों की दृष्टि शासन के पार ब्रिटेन की जन-संस्कृति तक पहुँचती थी। शासन के आर और पार जानेवाली इन दृष्टियों के कोण में भी अंतर था। इसलिए अट्ठारह सौ सत्तावन के प्रति समाज के प्रबुद्ध और प्रभावी लोगों के रवैये का कोई एक ही स्तर नहीं था। अट्ठारह सौ सत्तावन के बाद भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में गुणात्मक परिवर्तन हुआ। कंपनी शासन के दौरान आरंभ हुए नवजागरण के एजेंडे के अंतर्गत सामाजिक सुधार की प्रक्रिया की त्वरा में भी गुणात्मक परिवर्तन हुआ। नये-पुराने मूल्यों के संघर्ष में राजनीतिक तत्त्वों का सन्निवेश हुआ और समाज सुधार की प्रक्रिया में नई अर्थवत्ता के लिए जगह बननी शुरू हुई। नये-पुराने मूल्यों के इस संघर्ष में भक्तियुगीन मूल्यों की शिथिलता आधुनिकता के आघात से नई सक्रियता में बदल गई। नये-पुराने मूल्यों के ऐसे ही संघर्ष के दौर में रवींद्रनाथ ठाकुर का आविर्भाव हुआ। रवींद्रनाथ के प्रसिद्ध उपन्यास `गोरा' में इस संघर्ष का सृजन पक्ष अपने उभार के साथ उपलब्ध है।

1857 के सारांश को समझें तो इसके पीछे के आर्थिक कारणों को साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। शासक समझ रहे थे कि आर्थिक अधिकारों की चेतना और धर्म-संप्रदाय निरपेक्ष सांस्कृतिक भावना का समावेश उभरते हुए भारतीय राष्ट्रवाद को  आंतरिक रूप से इतना शिक्तशाली बना देगा कि इसे उपनिवेश बनाये रखना असंभव हो जायेगा। ऊपर से देखने पर यह प्रतीत होता है कि राजनीतिक कार्रवाई के रूप में अट्ठारह सौ सत्तावन का संघर्ष बिखरकर शिथिल हो गया लेकिन गहराई में जाकर देखने पर यह साफ होता है कि सांस्कृतिक स्तर पर सामाजिक कार्रवाई में अपेक्षाकृत अधिक प्रौढ़ता और परिपक्वता आई। भारत दुर्दशा भारतीय साहित्य केंद्र में आ गया। 1867 के आस-पास रवींद्रनाथ ठाकुर के परिवार के समर्थन से नवगोपाल मित्र द्बारा आयोजित `हिंदू मेला' के लिए लिखे गये साहित्य में भारत दुर्दशा का चित्र मिलता है। नील की खेती करनेवालों की दशा का चित्रण दीनबंधु मित्र के नाटक नीलदर्पण  (1860) में मिलता है। `नील देवी' और `अंधेर नगरी' के अतिरिक्त भारतेंदु हरिश्चंद्र का एक नाटक `भारत दुर्दशा' नाम से ही आया। नाटकों के बढ़ते हुए प्रभाव और दबाव के कारण लिटन को 1876 में ड्रामेटिक परफार्मेंसेज एक्ट लाना पड़ा। कहना न होगा कि उस दौर में सांस्कृतिक स्तर पर हुए राजनीतिक प्रहार के प्रभाव को पूरी तरह पढ़ना अभी बाकी है।

आर्थिक अधिकार की समझ अधिक ठोस होती है और उस पर पड़नेवाली चोट से भीषण कोलाहल पैदा होता है। धर्म-संप्रदाय निरपेक्ष सांस्कृतिक भावना को तोड़ना अधिक आसान होता है। ब्रिटिश शासकों ने इस आसान रास्ता को अपनाया। नवजागरण के एजेंडे के समाज सुधार आंदोलन के समांतर पुनरुत्थानवाद की धारा भी चल रही थी। ब्रह्मसमाज, प्रार्थनासमाज, तरुण बंगाल, विद्यासागर के आंदोलन स्वभावत: और अंतत: एक हिंदू निर्मिति थी। शासकों का शह पाकर हिंदू और मुस्लिम अस्मिता अपने सह-अस्तित्व की बनती एवं बलवती होती हुई संभावनाओं को नकारकर हुई द्बिराष्ट्रीयता की ओर बढ़ने लगी। इसकी झलक बंकिमचंद्र के उपन्यास `आनंदमठ' में है।

इसी पृष्ठभूमि में रवींद्रनाथ ठाकुर का साहित्य में आविर्भाव हुआ। पचास से अधिक कहानी संग्रहों, बारह उपन्यासों, तीस से अधिक नाटकों, दो सौ से ज्यादा निबंधों, दो हजार से अधिक कविताओं, चित्रांकनों सहित विभिन्न कला माध्यमों से विभिन्न अवसरों पर व्यक्त किये गये उनके विचार प्रेरणादायक हैं। बुद्ध विचार की विलक्षणताओं और भक्ति आंदोलन की मानव चेतना के साथ ही रवींद्रनाथ ठाकुर के दृष्टिकोण के निर्माण में बंकिमचंद्र की इतिहास-संस्कृति दृष्टि, ब्रह्मसमाज की समाज-दृष्टि, राष्ट्रीय आंदोलन की भविष्य-दृष्टि का भी योगदान था। रवींद्रनाथ ने इन्हें आत्मसात किया और फिर आवश्यकतानुसार इनका आत्मातिक्रमण भी किया। आत्मसात कर आत्मातिक्रमण महान प्रतिभाओं की पद्धति है। रवींद्रनाथ ने शास्त्र की परंपरा को नहीं, लोक की परंपरा को आगे बढ़ाया। उनकी समस्त चिंताओं के केंद्र में मनुष्य था। मनुष्य पर विश्वास खोना उनके लिए सब से बड़ा पाप था; मानवता से असंबद्ध सत्य उनके लिए निरर्थक था। उनका मानव धर्म बाउल एवं निर्गुनियों के जीवनानुभव से संपोषित है। महत्त्वपूर्ण प्रतिभाएँ परंपरा को पखार कर उसे नये ओज से भर देती हैं। `मानव धर्म' में उन्होंने प्रेरक और पोषक परंपरा के रूप में रामानंद के साथ ही रज्जब जी, कबीर, नाभा, रविदास आदि की न सिर्फ चर्चा की बल्कि उनकी सामजिक-सांस्कृतिक विष्णुप्रभता और प्रासंगिकता को आधुनिकता के प्राणवायु से जोड़ दिया। अकारण नहीं है कि `मानव धर्म' का ईश्वर `मानव' है और  धर्म `प्रेम' है।

विश्व संस्कृति की एकत्व चेतना, भक्ति साहित्य की सामाजिक चेतना और आधुनिक समय की राजनीतिक चेतना के समन्वित तत्त्व से रवींद्रनाथ ठाकुर के अद्भुत व्यक्तित्व का गठन हुआ। रवींद्रनाथ के साहित्य में पूर्व-पश्चिम, प्राचीन-आधुनिक, धर्म-विज्ञान, घर-बाहर जैसे विरोधी समझे जानेवाले युग्मों के बीच अद्भुत सामंजस्य और संतुलन है। आधुनिक भारतीय राष्ट्र के मिजाज को रवींद्र-साहित्य से समझा जा सकता है। जवाहरलाल नेहरू ने `भारत की खोज' में रवींद्रनाथ के बारे में कहा--- `अन्य किसी भी भारतीय से अधिक उन्होंने पूर्व और पश्चिम के आदर्शों में सामंजस्य स्थापित करने में सहायता की है और भारतीय रष्ट्रीयता के आधार को व्यापक बनाया है। वह भारत के श्रेष्ठतम अंतर्राष्ट्रीयतावादी रहे हैं, जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में न केवल विश्वास किया है, बरन उसे बढ़ाने का प्रयत्न किया है, भारत के संदेश को दूसरे देशों में पहुँचाया है और इन देशों के संदेश को हमारी जनता तक लाया है।' रवींद्रनाथ ठाकुर को याद करने का मतलब राष्ट्र, धर्म, जाति, आस्था, रंग, नस्ल, लिंग की घेरेबंदी के बाहर निर्विशिष्ट मनुष्य की संश्लिष्ट विरासत की आधुनिक निर्मिति को याद करना है। रवींद्र साहित्य मानव संस्कृति की सामासिक एकता को समझने और आदर देने की दृष्टि से मूल्यवान प्रेरणा-स्रोत है।

भाषा में भ्रांति



हमारा संसार विलक्षणताओं और विचित्रताओं से भरा हुआ है। एक-से-एक वनस्पति, एक-से-एक सुंदर दृश्य, पहाड़, नदियाँ, झील, वन-प्रांतर और प्राणी। इन सब की अपनी कोई-न-कोई भाषा भी होती है। एक हद तक मनुष्य उनकी भाषा को समझता भी है, लेकिन समझता अपनी ही भाषा में है। क्योंकि सिर्फ मनुष्य ही ऐसा विलक्षण प्राणी है जिसके पास अपनी विकिसत भाषाएँ और विकसित सामाजिकताएँ हैं। मनुष्य प्रत्येक स्थिति को अपनी इसी भाषा में डी-कोड कर कुछ हद तक समझ लेता है, समझ ही नहीं लेता बल्कि कई बार अपनी इस भाषिक क्षमता के बल पर वह सफलतापूर्वक भाषा के पार चले जाने की आकांक्षा को भी संभव कर लेता है। क्या हम ऐसे किसी प्राणी की कल्पना कर सकते हैं जिसके पास विकसित सामाजिकता तो हो किंतु, विकसित भाषा नहीं हो? बिल्कुल नहीं। इसके उलट ऐसे किसी प्राणी की भी कल्पना नहीं की जा सकती है जिसके पास विकसित भाषा तो हो लेकिन विकसित सामजिकता न हो। पहले कौन के विवाद में पड़े बिना यह मानना ही उचित है कि वस्तुत: सामाजिकता और भाषा का विकास साथ-साथ और एक ही प्रक्रिया के अंतर्गत होता है। भाषा को बरतनेवाले लोग इस बात को जानते हैं कि सभ्यता-संघर्ष के हर दौर में भाषा अपनी नई-नई भंगिमाओं के साथ उपस्थित होती है। इन भंगिमाओं के कारण भाषा के ढाँचे में निहित अंतर्वस्तुओं के चरित्र में नई स्फूर्त्ति, नई ऊर्जा का संचार होता है। सभ्यता संघर्ष का नया दौर हमारे समय में भी जारी है। यह बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि यह नया दौर पिछले हर दौर से न सिर्फ अलग है, बल्कि चारित्रिकता एवं तात्त्विकता के गूढ़ अर्थों में भिन्न भी है।

भाषा को लेकर शोध करनेवाले लोग इस बात को लेकर काफी चिंतित हैं कि संसार की बहुत सारी भाषाएँ व्यवहार-च्युत हो रही हैं, वानस्पतिक और जैव-विविधताएँ नष्ट होती जा रही है। सामाजिकताओं और भाषाओं के विलोपीकरण की प्रक्रिया एक ही होती है। क्या भाषाओं और सामाजिकताओं की शरणस्थली गालियाँही होंगी? प्रेम रंजन अनिमेष सावधान करते हैं कि भाषाविज्ञानी नहीं मैं/ लेकिन जाने क्यों लगता है/ किसी जुबान की धार के लिए/ लौटना होगा अपनी गालियों के पास// और हालाँकि समाजशास्त्र उतना ही/ जानता हूँ जितना पेड़ की जड़ें/ मगर यह भी लगता है/ जब कहीं नहीं रहेंगे/ तो गालियों में ही बचे रहेंगे रिश्ते। भाषाओं और सामाजिकताओं के विलोपीकरण के सामजिक फलितार्थ और उसके समाजशास्त्र को मिलाकर देखने पर वृहत्तर समन्वयात्मक मानवीय सभ्यता के खतरनाक चेहरे की भी हल्की-सी झलकी मिल सकती है। समन्वय जरूरी है लेकिन सभ्यताओं का इतिहास साक्षी है कि समन्वय में अंतर्मिलन से अधिक बड़ी भूमिका अतिक्रमण अदा करती रही है। भाषा की मृत्यु कविता में रघुवीर सहाय भाषा को शक्ति देने की प्रार्थना करके सामाजिकता के बचे रहने का वरदान माँगते हैं। भाषा को शक्ति देने की प्रार्थना कर सामाजिकता के बचे रहने का वरदान पा लेने के कवि के विश्वास के मर्म को समझा जा सकता है। रधुवीर सहाय प्रार्थना घर के विज्ञापनी मिजाज को भी जानते हैं, इसलिए मानते हैं कि प्रार्थनाओं के भरोसे चुप नहीं बैठा जा सकता है। संघर्ष के पथ की तलाश और कौशल का अर्जन करना होता है। भाषा के लिए वही संघर्ष कर सकता है जो सिर्फ अपनी भाषा में बोलता है--- मालिक की भाषा का एक शब्द भी नहीं। वह शास्त्रार्थ न करके शास्रार्थ को जीतता है, वह जानता है कि कैसे और किस शास्त्रार्थ के निषेध से शास्त्रार्थ को जीता जा सकता है। वस्तुत:, जिनके जीवन-शास्त्र अलग-अलग होते हैं उनके बीच शास्त्रार्थ, विमर्श के वस्तु की सामाजिक संवेदना को अर्थहीन बनाने, भटकाने के लिए एक प्रकार का बौद्धिक छल ही निर्मित करता है। संपन्न लोगों के विकसित जीवन-शास्त्र के बौद्धिक छल का शिकार बनता है विपन्न लोगों का विकासशील जीवन-शास्त्र। यह ठीक उसी तरह होता है जैसे विकसित देशों के अर्थशास्त्र का शिकार बनता है विकासशील देशों का अर्थशास्त्र। इस शास्त्रार्थ को शास्त्रार्थ के निषेध से ही जीता जा सकता है। यहाँ भाषाअपने व्यापक अर्थ में वृहत्तर समन्वयात्मक मानवीय सभ्यता के अंतर्गत अपनी सामाजिकता के संदर्भों को भी प्रतिभासित करती है। हरिचरना और श्री हरिचरण के बीच बनती एवं बढ़ती हुई विषमता की भयावहता को संवेदना के स्तर पर समझना ही होगा। अंग्रेजी, हिंदी आदि भाषाओंको संदर्भित करते हुए उससे अलग भी हरिचरना और श्री हरिचरण की भाषाअर्थात बचे रहने के समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के भी अलग होने को ध्वनित करती है। स्वाभाविक है कि भाषा का युद्ध अपनी अर्थवाचकता में सामाजिक संघर्ष के व्यापक परिप्रेक्ष्य को भी शामिल करता है।

उदारीकरण के दौर में भ्रांतियों की फसल के लहराने का तो जैसे मौसम ही आ गया है! चारों तरफ भ्रांतियों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। भ्रांतियाँ ऐसी कि एक तरफ से देखने पर जो विचारधारा, अवधारणा या क्रिया अपने रचाव में अद्भुत और जनहितकारी संभावनाओं से लबालब लगती है तो दूसरी तरफ से देखने पर भयावह और प्राणांतक नजर आती है। इसलिए प्रमुख सवाल तो यही उठता है कि हम कहाँ से देख रहे हैं, अर्थात हमारा अपना अवस्थान (Positionalities) क्या है। ऊपर से देखने पर उदारीकरण जितना ही सम्मोहक लगता है नीचे से देखने पर उतना ही खतरनाक लगता है। आलम यह है कि इस खतरनाक लगने में भी थोड़ी बहुत भ्रांति की गुंजाइश बराबर बनी हुई है। मनुष्य की संघर्षशील चेतना पर विश्वास कम होने से यह भ्रांति और गाढ़ी हो जाती है। शायरों और कवियों ने सूरज के निकलने से कोहरे के आप ही छँट जाने और रोशनी की छोटी-सी रेखा के द्वारा गहन अंधकार के सीने के चाक हो जाने एवं घने-से-घने अंधकार में भी रोशनी की रेखा को बुझा नहीं पाने की क्षमता की बात को अनेक प्रकार से और अनेक बार अभिव्यक्त किया है। यह सूरज, यह रोशनी ही तो है मनुष्य की संघर्षशील चेतना। इस बात पर हमारी पूर्ण आस्था है कि सूरज एक दिन कोहरे का छाँट देगाभ्रांतियों का निराकरण कर देगा। इतिहास से इसके प्रमाण मिलते हैं कि जब कभी आकाश सिकुड़ता है, सबसे पहले सूरज की हत्या होती है; लेकिन धरती ऊर्बरा है वह नये आकाश को आकार देती है हर बार और उछाल देती है एक नया सूरज। फ़ैज को याद करें तो ये: रातें जब अट जायेंगी/ सौ रास्ते इन से फूटेंगे/ तुम दिल को सँभालो जिसमें अभी/ सौ तरह के नश्तर टूटेंगे

आधुनिकता की अवधारणा दिनानुदिन जटिलतर होती गई है। आधुनिकता की कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के अधूरे रह जाने के कारण भी आधुनिकता की अवधारणा अधिक जटिल और चोटिल होती चली गई है। इसकी जटिलताएँ जीवन और यथार्थ में बढ़ती हुई कुहेलिकाओं के प्रभाव से प्राणरस पाती हैं। इधर विकास के नये मुहावरे के कारण जो अर्थाभास जीवन में रच-बस गया है इससे भी आधुनिकता के भावबोध में उलझाव पैदा हुआ है। उत्तर-आधुनिकता के नाना उद्घोषों के कारण विमर्श के वातावरण, भाषा और शब्दों के अर्थाचरण तथा अर्थान्विति में गुणात्मक परिवर्तन के घटित होने से भी आधुनिकता की जटिलताएँ बढ़ी हैं। समस्या सिर्फ भाषिक संरचनाओं के लोप से ही जुड़ी हुई नहीं हैं, बल्कि एक गहरे अर्थ में भाषा की अर्थवाचकताओं, उसकी वास्तविक अंतर्वस्तुओं के लोप के व्याकरण को भी समझना होगा। एक ही प्रक्रिया के परिणमस्वरूप एक ओर भाषिक संरचनाएँ लुप्त रही हैं तो दूसरी ओर भाषा की अर्थवाचकताओं, उसकी वास्तविक अंतर्वस्तुओं में भी भारी टकराव और बदलाव हो रहे हैं। कविता भाषा का सबसे संवेदनशील आचरण होती है। इसलिए कविता में अर्थ बहुलताओं और वैविध्यों की भरपूर गुंजाइश भी होती है। कविता का वैशिष्ट्य अर्थ बहुलताओं की संभावनाओं से संपोषित होता है; जल में कुंभ, कुंभ में जल की तरह कविता में भाषा और भाषा में कविता होती है। भाषा में होकर भी कविता भाषा से सीमित नहीं होती है। भाषा के आर-पार देखने और दिखलाने में सक्षम होने के कारण ही कविता की इतनी महिमा है। इसी महिमा के बल पर कविता अर्थ के पार संवेदना तक की यात्रा गुपचुप करती रहती है। यह सच है कि भाषा का इकहरी होना शुभ नहीं है। हमारे समय की बिडंबना यह है कि भाषा का बहुअर्थी होना उसे इकहरेपन की चपेट में आने से बचा नहीं पा रहा है। असल में भाषा के इकहरेपन का संबंध उसकी ध्वनन क्षमता के छीजने से है। भाषा में कोलाहल बहुत है। कोलाहल से उसके अंदर भ्रांति का भारी कोहराम मचा हुआ है। भाषा में कोहराम के बसाव की प्रक्रिया हमें भाषा की सामाजिकता को समझने का उत्साह और उसकी राजनीति को समझने की चुनौती देती है।

अकेलेपन की विडंबना के आकार ग्रहण करने में जन  को अवहेलित कर चलनेवाली राजनीति का अपना योगदान होता है। साथ ही, जन के संवेदनात्मक सरोकार के बदले निर्लिप्त एवं निस्संग किस्म के पर्यवेक्षणात्मक एवं सैद्धांतिक निष्कर्षों को साधकर सृजन-प्रेरित होने की प्रवृत्ति से भी साहित्य के सरोकारहीनता में और भाषा के भ्रांति के दलदल में फँसते चले जाने का दुश्चक्र विकसित होता है। इसलिए, साहित्य में सरोकारहीनता के बढ़ते प्रभाव में समाज में सरोकारहीनता के बढ़ते प्रभाव को भी लक्षित किया जाना चाहिए। संदेह, संदेह की तर्कशील जाँच, गहन तार्किकता, हर प्रकार की संभव समानता, जाति-नस्ल-रंग-लिंग-धर्म आदि से निरपेक्ष मानवाधिकारों के प्रति विशेष आग्रह एवं अनुराग, व्यापक अर्थ की वैज्ञानिक एवं बुद्धिवादी सोच आधुनिकता के प्राणाधार हैं। इन प्रणाधारों के सहमेल और सातत्य को बनाये और बचाये रखने में राजनीतिक और उससे भी अधिक सामाजिक संघर्ष और संवाद की प्रक्रिया का अपना महत्त्व है, इस पर विभिन्न तरीकों से घात किया जा रहा है, इनकी सार्थकता को ही प्रश्नांकित किया जा रहा है। संशय को पहचानना और उन्हें समंजित करना स्वाभाविक प्रक्रिया है। अस्वाभाविक है संशय को पहचानकर समंजित करने के बदले संशय को अर्थ और अभिप्राय से संयोजित करना ---संशयोजित (संशय+संयोजित) करना।

असल में भाषा ज्ञान-प्रसार, भाव-प्रसार, संवेदना-विस्तार, प्रचार, अभिव्यक्ति और मनोरंजन का साधन मात्र न होकर सामाजिक रचाव का औजार होती है। इसका कोई विकल्प नहीं होता है। भाषा की समग्र भूमिका को ध्यान में रखा जाये तो भाषा के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा मानवशास्त्र में श्रम-पूँजी और धन-पूँजी से लेकर मेधा-पूँजी तक के समावेश को भी हम सहज ही लक्षित कर सकते हैं। भाषा सामाजिकता और सभ्यता का पोशाक नहीं त्वचा है। भाषा समाज और सभ्यता के एक बिंदु पर होनेवाली हलचल की सूचना और संवेदना सामाजिकता और सभ्यता के बौद्धिक-संकाय तक पहुँचाती है। भाषा सामाजिकता की जीवनी शक्ति और सौंदर्य-शक्ति को भी सुगठित और संरक्षित करती है। लक्षित किया जा सकता है कि कैसे एक भाषा के गर्भ में पलती हुई दूसरी भाषा उससे बाहर निकलकर एक नये भाषिक प्रस्थान की संभावना रचती है और कैसे एक सामाजिकता के गर्भ में संपोषित होकर दूसरी सामाजिकता नये सामाजिक परिगठन का प्रारंभ करती है। सामाजिकता और सभ्यता के विलगाव के साथ ही भाषा का विलगाव भी होता है। भाषा का लोप या प्रयोग-च्युत होना किसी-न-किसी सभ्यता और सामाजिकता के निजत्व के स्थगित, लुप्त और प्रयोगबाह्य हो जाने की भी सूचना करता है। त्वचाहीन शरीर न तो सुरक्षित रहता है, न सुगठित और न बहुत देर तक जीवित ही रह पाता है। सभ्यता और सामाजिकता की विकासधारा और भाषा की विकासधारा का ऐतिहासिक प्रवाह साथ-साथ ही गतिमान रहता है और दोनों को एक दूसरे केपरिप्रेक्ष्य एवं संदर्भ में ही समझा जा सकता है। भाषा का उद्देश्य प्रकाशन होता है। विडंबना ही है कि भाषा का उपयोग गोपन के लिए भी कम नहीं होता है। भाषा के अंदर भ्रांति के लिए बड़ी जगह बनना एक खतरनाक संकेत है। इस खतरा से बचाव में सामाजिक एवं सामूहिक सांस्कृतिक प्रयास मददगार है। क्या हमारा साहित्य हमारी भाषा की ध्वनन क्षमता को बचा पायेगा! या फिर दूसरे शब्दों में विनोद कुमार शुक्ल की बात-- कविता -  मैंने आप से कहा।/ जो सुनाई देती है वह प्रतिध्वनि है/ जिसे मैंने आप से कहा’--- को याद करते हुए अपनी ध्वनि की ही प्रतिध्वनि सुनता रहेगा!  तुलसीदास के सिर धुनि गिरा लागि पछिताना के हाहाकार में ही पड़ा रहेगा! उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारा साहित्य संवेदनाओं के औपनिवेशीकरण से लड़ते हुए हमारी भाषा की ध्वनन क्षमता को अंतत: अवश्य ही बचा लेगा।

इनकार का हक और हक का इनकार


इनकार का हक और हक का इनकार
जब तक मनुष्य जीवन से दुख को मुक्त करने का एक उपाय करता है तब तक दुख जीवन में हजार वेष धरकर आ जाता है। मानव सभ्यता में दुख का दखल बढ़ता ही गया है। आज दुख इसलिए भी दुस्सह होता जा रहा है कि दुख अकेले कटता नहीं और साथ रहने की प्रवृत्ति मनुष्य में कम हो रही है। प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास `गोदान' की एक पात्र पुन्नी कहती है--- `सुख के दिन आयँ, तो लड़ लेना; दुख तो साथ रोने ही से कटता है।' वर्षों पहले प्रकाशित कवि भगवत रावत के काव्य संग्रह `सच पूछो तो' में  `पाँचवीं कक्षा के लिए समाज विज्ञान का एक पाठ' उपशीर्षक से एक कविता है `सभ्यता और संस्कृति' और पंक्ति है---  `सभ्य आदमी समूह में मिलकर नहीं गाते/ समूह में मिलकर नहीं नाचते/ समूह में मिलकर समय नहीं गँवाते/ सभ्य आदमी अकेले रहना पसंद करते हैं/ सभ्य आदमी समूहों में नहीं पाये जाते हैं'। इधर जितने तरह के संकेत उभरकर सामने आ रहे हैं उन से तो यही लगता है कि समृद्धि में चाहे जितनी भी वृद्धि हो आदमी का दुख कमने नहीं जा रहा है। कहने-सुनने में जितना भी अविश्वसनीय लगे मगर सचाई यही है कि दुख आज समृद्धि का समानुपाती बनकर प्रकट हो रहा है। संयुक्त परिवार टूटा, एकल परिवार भी तेजी से टूट रहा है। बच्चों के सामने `माता और पिता' के प्यार का अवसर `माता या पिता' के प्यार का विकल्प बनकर हाजिर हुआ, फिर यह भी नाकाफी हो गया अब तो मोटे तौर पर बच्चों के सामने `माता-पिता' के प्यार के बिना ही बड़ा होने का विकल्प बचा है। कहना न होगा कि सभ्यता के मूल में परिवार होता है। परिवार में बच्चे ही नहीं पलते हैं, सभ्यता भी पलती है।

आज घरेलू हिंसा का दायरा बहुत अधिक बढ़ गया है। साधारण मार-पीट या डाँट-डपट की बात पुरानी पड़ चुकी है; अब घरेलू हिंसा के दायरे में दैहिक, मानसिक अत्याचार के साथ ही यौन दुर्व्यवहार का बहुतायत भी शामिल है। अत्याचार और दुर्व्यवहार में होनेवाली यह मात्रात्मक और गुणात्मक वृद्धि भारी चिंता का विषय है। अभी भारत में इसका भयावह रूप पूरी तरह से सामने नहीं आया है, अभी तो संकट का सिर्फ पाँव ही दिख रहा है। अब पति-पत्नी के बीच एक विस्तर पर सोने की ललक तो दूर की कौड़ी, एक कमरे में रात बिताना भी भारी पड़ रहा है। इस मानसिक-विच्छिन्नता के पीछे सिर्फ `दुष्ट कारणों' को खोजना ठीक नहीं है। कुछ वास्तविक और व्यावहारिक कारण भी हो ही सकते हैं। इन वास्तविक और व्यावहारिक कारणों को ध्यान में रखते हुए भी इतना तो साफ ही रहता है कि सभ्यता में आभासी--- पुरानी शब्दावली का इस्तेमाल करें तो माया--- तत्त्वों का आकर्षण बहुत बढ़ गया है। एक की भौतिक उपस्थिति दूसरे के माया व्यवहार के अवसर को क्षतिग्रस्त करता है। जब साथ ही नहीं रहना चाहते हैं तो दुख बँटेगा कैसे! दुख बँटेगा नहीं तो कटेगा कैसे! घर बसाने की ईहा कम हुई है। तलाक की घटना की संख्या में चिंतनीय वृद्धि हुई है। इन्हें जीवन-यापन में स्थायित्व के अवसरों की कमी से भी जोड़कर देखा जा सकता है।

संबंधों में पारस्परिक समझ, सामंजस्य एवं प्रतिपूरकता के भाव में छीजन आई है और कठ-अहं, असमंजस एवं क्रूरता में वृद्धि हो रही है। परिवार खतरे में है; विवाह संस्था खतरे में है। यह ठीक है कि विवाह यौन-संबंधों का सामाजिक, नैतिक, धार्मिक और वैधानिक अघिकार प्रदान करता है, लेकिन विवाह को मात्र यौन-संबंधों से सीमित करके देखना ठीक नहीं है। विवाह को यौन-संबंध बनाने के अवसरों से सीमित करना मनुष्य के यौनाचरण को उसकी जैविक जरूरत में लघुमित कर देना है। विवाह से संपत्ति, उत्तरदायित्व, उत्तराधिकार, परंपरा, संस्कृति का भी गहरा संबंध है। किसी भी सामाजिक संबंध के मूल में किसी--किसी सीमा तक व्यक्तित्व समर्पण की भी जरूरत होती है। व्यक्तित्व समर्पण ही प्रेम-भाव का आधार रचता है। सामाजिक संबंध के रूप में विवाह के मूल में एक-अपर के प्रति सिर्फ दैहिक समर्पण ही नहीं व्यक्तित्व समर्पण होता है। आत्म-केंद्रिकता के बढ़ते हुए दबाव के कारण एक ओर व्यक्तित्व समर्पण की गुंजाइश खत्म हो जाती है तो दूसरी ओर व्यक्तित्व हरण की आशंकाएँ बढ़ जाती है। कहना न होगा कि हरण किसी भी हाल में समर्पण नहीं हो सकता है। व्यक्तित्व समर्पण का मूल उत्पाद प्रेम होता है और व्यक्तित्व हरण का मूल उत्पाद हिंसा होती है। हम जानते हैं कि प्रेम के भी नाना रूप हैं तो हिंसा के भी नाना रूप हैं। प्रेम के `ना' में `हाँ' भी छुपा होता है जबकि हिंसा के `हाँ' में `ना' का ही सदावास होता है।

जहाँ परिवार पर छाये संकट का असर गहरा रहा है वहाँ परिवार बचाने के लिए किया जानेवाला सामाजिक आंदोलन भी धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है। विवाह संस्था की सार्थकताओं को बचाने के लिए उसमें यौन संबंधों की अंतर्वस्तु की तुलना में संपत्ति, उत्तरदायित्व, उत्तराधिकार, परंपरा, संस्कृति से संबंधित अंतर्वस्तुओं के सन्निवेश की संभावनाओं को टटोलना अधिक जरूरी है। जाहिर है कि पुरुष-वर्चस्व की अधीनता में विकसित सामजिक परंपरा की नैतिक सरणियों के अनुसार यौन-शुचिता का सारा सामाजिक दाय स्त्रियों का ही माना जाता है। नैतिक रूप से यौन-शुचिता का भाव कोई बहुत अर्थवान कभी नहीं रहा है, आज भी नहीं है। सभ्यता को इस समय यौन-मुक्त नई-नैतिकता की जरूरत है।

यह सच है कि स्त्रियों की सामाजिक दुर्दशा देह पर अत्याचार से जुड़ी हैं। लेकिन, स्त्री के अस्तित्व को शयनकक्ष की जरूरतों से सीमित नहीं किया जा सकता है। पुरुषों की ही तरह स्त्री को भी वे सारे काम करने पड़ते हैं जिन्हें अर्थशास्त्र और अर्थव्यवस्था रोजगारमूलक मानती है। इसलिए `किसी की पत्नी' के रूप में ही स्त्री की पहचान  एक त्रासद स्थिति है। स्त्री सिर्फ सहवास-संगी नहीं होती है, बल्कि समग्र सामाजिक प्रक्रिया में विकास-संगी. भी होती है। शिक्षा और उत्पादकता से प्रभावी ढंग से जुड़े होने के बाद भी उनके शोषण की महागाथा का कोई अंत नहीं है। समाज में उनकी हैसियत दोयम दर्जे पर है। अधिकतर मामलों में पुरुष की ही चलती है। स्त्रियों को तो बस मान ही जाना पड़ता है! `स्त्री' इस सभ्यता का प्रथम उपनिवेश है, शायद अंतिम भी। स्त्री के अन-उपनिवेशन के संघर्ष को अन-उपनिवेशन की समग्र संघर्ष प्रक्रिया के साथ ही समझा सकता है।

किसी एक मामले में स्थिति भिन्न हो सकती है। उस पर फैसला भी भिन्न हो सकता है। फैसला का होना और न्याय का होना और बात है। कानून सामान्य होता है और उस कानून के अंतर्गत सुनवाई विशिष्ट का होता है। सभ्यता में विशेष के सामान्यीकरण और सामान्य के विशेषीकरण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है। भारत में अदालतों के फैसलों का नागरिक आदर बचा हुआ है। लंबित, विलंबित, उबाऊ, व्यय-साध्य और कई बार निरर्थक प्रतीत होनेवाली न्याय-प्रक्रिया की कतिपय अप्रिय स्थितियों के बावजूद न्यायालय के प्रति सर्वोच्च आशा और सम्मान बचा हुआ है। कहना न होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का नागरिक मन पर दीर्घस्थाई असर होता है। इधर कई मामलों में कुछ ऐसे फैसले आये हैं जिन से नागरिक चिंता बढ़ी है। चाहे कम उम्र में विवाह को न्यायिक स्वीकृति का मामला हो या पत्नी का संभोग से इनकार को मानसिक क्रूरता के खाता में डालने का मामला हो---  सर्वोच्च न्यायालय का फैसला चिंता बढ़ानेवाला है। यह फैसला स्वाभाविक रूप से स्वीकार्य इनकार का हक देने से इनकार करता है। यह फैसला यह सोचने का भी अवकाश बहुत कम कर देता है कि किस प्रकार की और किस मात्रा में शारीरिक-मानसिक क्रूरता के दौर से गुजरने के बाद कोई स्त्री इनकार के हक का इस्तेमाल करती है; ध्यान में होना ही चाहिए कि ऐसे मामले में इनकार असल में आत्म-निषेध का ही एक प्रकार होता है। इतिहास साक्षी है कि महान व्यक्तित्वों ने स्थाई तौर पर अपने इनकार के हक का इस्तेमाल किया है। पत्नी का इनकार पति के प्रति किये जानेवाला मानसिक क्रूरता है तो, यह भी अवश्य ही विचारणीय होना चाहिए कि किस प्रकार की मानसिक यातना से गुजरने के बाद कोई पत्नी हक के इनकार के लिए इनकार के हक का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य होती है। विचार या कम-से-कम अनुमान तो यह भी किया ही जाना चाहिए कि व्यावहारिक रूप से कितने मामलों में पत्नी का इनकार, वास्तव में इनकार रह पाता है। विडंबना यह कि पुरुष के `ना' को हाँ में बदलना स्त्री के लिए न तो शारीरिक स्तर पर संभव होता है और न सामाजिक स्तर पर जबकि स्त्री के `ना' को हाँ में बदल देना पुरुष के लिए शारीरिक और सामाजिक दोनों ही स्तर पर संभव होता है। अब तो माननीय न्यायालय की मंशा के अनुसार इन संभावनाओं को वैधानिक भित्ति भी मिल गई प्रतीत होती है; जबकि होना तो उलटा ही चाहिए था। विशुद्ध वैयक्तिक और भावावेग से संबंधित निर्णय के मामलों में कानून का इस तरह के दखल की जरूरत क्या सभ्यता के लिए शुभ संकेत है? कानून की भाषा में इसका चाहे जो भी जबाव हो सामाजिकता और नैतिकता की भाषा में इस तरह के सवालों का जवाब सभ्यता को बार-बार हासिल करना होगा: हक के इनकार और इनकार के हक में संतुलन सभ्यता में संतुलन की अनिवार्य शर्त्त है।

कृपया, निम्नलिंक भी देखें--

1.ढलती उम्र में मन की उठान.pdf
2.इनकार का हक और हक का इनकार.pdf
3.प्रेम जो हाट बिकाय.pdf

अभिप्राय और अर्थ




जीवन भर शब्द को बरतने के बावजूद कहे हुए का दूसरा ही अर्थ निकल जाना संभव हो ही जाता है। रिश्तों की बुनियाद हिल जाती है। मन खट्टा हो जाता है। अगली मुलाकात तक मन में ऐसा प्रसंग बार-बार अपने को दुहराता है। हम आगे से सतर्क होने का संकल्प लेते हैं। शब्दों को बरतते हुए हमारा पूरा ध्यान अर्थ पर होता है, अभिप्राय पर नहीं। अभिप्राय की उपेक्षा कर अर्थ पर ध्यान केंद्रित रहने के कारण ही ऐसा अनर्थ होता है।

समय के साथ शब्दों के अर्थ बहुत तेजी के साथ बदलते हैं। जितनी तेज रफ्तार समय की होती है उतनी ही तेजी से जीवन के अर्थ भी बदलते हैं। जीवन के ही अर्थ बदल जाते हैं, शब्दों का क्या! मेरे एक मित्र हैं विजय शर्मा। उद्योगपति हैं। कितने बड़े हैं ठीक-ठीक नहीं जानता। हमारे मित्रों में ऐसा कोई है नहीं इसलिए हमारे संदर्भ में बड़े उद्योगी हैं। कहानी भी लिखते हैं। अच्छी कहानियाँ लिख सकते हैं। किस्सा गोई उनके स्वभाव में है। लिखते कम हैं, क्योंकि लिखने को बाएँ हाथ का काम मानते हैं। बाएँ हाथ का काम उन्हें कम ही रास  आता है! हालाँकि, एक कथा संग्रह उनके खाते में है। बीस साल पहले जब हम मिलते थे तो अपने-अपने नजरिये पर काफी जमकर बात करते थे। कहना न होगा कि हमारे नजरिये में समानाता के तत्त्व थे तो असमानता के भी थे। जीवन के बुनियादी दृष्टिकोण में भी भिन्नता के बीज थे। समय के साथ-साथ भिन्नता के बीज वृक्ष बनते गये और समानता के तत्त्वों पर छा गये। अब कभी-कभार किसी कुंभ, किसी शोक, किसी विमोचन आदि के अवसर पर ही मुलाकात होती है। ऐसे अवसरों पर हमारी मुलाकात अब प्रेमचंद के शब्दों में कहें तो तलवार और ढाल की तरह होती है। यह अलग बात है कि अब न तलवार में जोर रह गया है और न ढाल ही बहुत काम का रह गया है। विचार भिन्नता के ऐसे मैदान में हम आ गये हैं जहाँ भिन्नता का रिवाज, असहमति का आदर कोई मायने नहीं रखता। वक्त ने वह तमाशा दिखाया कि हमारे बुनियादी मुद्दे ही बेमानी हो गये। कम-से-कम उन मुद्दों पर अब कोई-कोई ही गंभीरता से बात करता है। अब मतभेद या विरोध का शब्दार्थ चाहे बीस साल पहले की ही मुद्रा में खड़े हों लेकिन सचाई यह है कि इनके अभिप्रेयार्थ में बदलाव आ गये हैं। अब मतभेद या विरोध का  तात्पर्य बदल देना नहीं, बल्कि बदलते हुए में अपने लिए अधिक सुविधाजनक स्थिति की व्यवस्था करना है। जीवन में बह रही बयार ने अभिधेयार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ को शक्तिहीन कर दिया है। अब सिर्फ सुविधार्थ ही काम के काबिल रह गया है।

अभिप्राय के तेजी से बदलने के कारण शब्दों के अर्थ में बदलाव हो रहा है। जनतंत्र से लेकर आतंकवाद तक, धर्मनिरपेक्षता से लेकर सांप्रदायिकता तक, दोस्त से लेकर दुश्मन तक, जीवन से लेकर मरण तक, उदारता से लेकर कट्टरता तक, वैश्विकता से लेकर स्थानिक राष्ट्रवाद तक, शिक्षा से लेकर निरक्षरता तक सभी के अर्थ तेजी से बदल रहे हैं। उस दिन कमलेश सेन के निधन पर आयोजित स्मृति सभा में जाना हुआ था। कमलेश सेन बांग्ला के महत्त्वपूर्ण कवियों में तो शुमार हैं ही, हिंदी से बांग्ला में उन्होंने काफी अनुवाद किया है। स्थापित के ही नहीं, अपने समय के नवोदितों के भी। बांग्ला साहित्य के दिग्गज लोगों में से भी कई हिंदी साहित्य के दिग्गजों का नाम तक नहीं जानते हैं। इतना ही नहीं, कुछ को तो यह जानने की उत्सुकता भी रहती है कि प्रेमचंद इन दिनों क्या लिख रहे हैं! ऐसे में कमलेश सेन को देखकर संतोष होता था। वे `तृतीय दुनियार साहित्य' नाम से पत्रिका भी निकालते थे। मुक्तिबोध की तरह कमलेश सेन भी लेखकों के `वीआइपी' बनने या बनने की होड़ में शामिल होने को अशुभ मानते थे। बांग्ला की एक सुप्रसिद्ध लेखिका के वीआइपी बन जाने पर उनका असंतोष न चाहते हुए भी झलक जाता था। अंतिम बार इसी बारह जून को  उनके कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला था। एक उत्साही बंग-बाला की बंगलिपि में उर्दू `शायरी' की पुस्तक का लोकार्पण होना था। लिपि को लेकर उर्दू की संवेदनशीलता को देखते हुए इस दिशा में कवियत्री को प्रोत्साहित करना साहस का काम तो था ही!  ऐसे कमलेश सेन  अचानक उठ गये।

गीतेश शर्मा के `जन संसार' में आयेजित कमलेश सेन की स्मृति सभा के बाद साथ बिताये गये दिनों में निकाले गये कुछ निष्कर्षों, लिये गये स्टेंडों में बदलाव को लेकर विजय शर्मा से तकरार का स्वाभाविक अवसर आया। जल्दी होने के बावजूद तकरार में उलझकर और देर हो जाने की भी परवाह नहीं रही। वक्त बदल गया है! अब दोस्ती में तकरार के लिए कोई जगह नहीं रह गई है। अब पूर्ण सहमति और नि:शर्त्त समर्पण ही संबंधों का आधार हो सकता है।

दूसरे दिन काम पर जाते समय दिमाग में बीस साल पुरानी बातों का कोलाहल था। लोकल ट्रेन की भीड़ में नित्य यात्रियों के दल रात में देखे फुटबॉल विश्वकप को लेकर अपनी पसंद की टीम के पक्ष में और दुश्मन टीम के खिलाफत में जी जान से लगे हुए थे। जुनून यह कि वे अपनी-अपनी पसंद की टीम के देश की भाषाओं के शब्दों के उच्चारण की नकल पर गढ़े शब्दों का प्रयोग कर रहे थे। ऐसे शब्दों में कोई अर्थ नहीं था। अभिप्राय अवश्य था। अर्थ से रिक्त और अभिप्राय से पूर्ण शब्दों के ऐसे सफल प्रयोग से एक बात समझ में आई। बात यह कि जैसे सामान समाप्त हो जाने पर उसमें नया सामान भर दिया जाता है। डिब्बे के ऊपर की इबारत चाहे जो बताये गृहस्थ जानता है कि किस डिब्बे में चीनी है किस में नमक!

क्षण-क्षण रीतते हुए शब्दों में गृहस्थी के काम लायक अर्थ सँजोने की चिंता करनी ही होगी। आजकल सामान का व्यवहार कर डिब्बों को फेक दिये जाने का ही चलन है। ऐसे लावारिस और अर्थ खो चुके शब्दों को अभिप्राय से ही बचाया जा सकता है। सभ्यता ने अभिप्राय से अर्थ की यात्रा की है। आज के कोलाहल से भरे समय में अर्थ से अभिप्राय तय करने की प्रवृत्ति से होनेवाले अनर्थ पर समर्थ लोगों में छाई चुप्पी का न तो अर्थ समझना मुश्किल है और न अभिप्राय समझना।  
(कृपया, 'भाषा में भ्रांति' भी देखें। लिंक नीचे है।)
https://ia601605.us.archive.org/35/items/PrafullaKolkhyanFormatBhashaMeBhranti_201302/Prafulla%20KolkhyanFormat%20Bhasha%20me%20Bhranti.pdf

दुविधा में नीलू




नीलू एक साधारण बिजली मिस्त्री है। ठीकेदार का आदमी है। घर का एक मात्र कमाऊ सदस्य। बेटा पढ़ने लिखने में उतना होशियार नहीं है। बेटी के बारे में उसे कोई खास जानकारी नहीं थी। बेटी ने माध्यमिक की परीक्षा दी थी। जिस दिन नेट पर माध्यमिक परिणाम आया नीलू ने दफ्तर के किसी रहम दिल को डरते-डरते अपनी बेटी का रोल नंबर देते हुए परिणाम जानने की गुजारिश की। परिणाम अच्छा था। बच्ची प्रथम श्रेणी में अच्छे अंकों से पास थी। स्वाभाविक था कि दफ्तर के संवेदनशील लोगों ने इस बात की नोटिस ली। नीलू को सलाह दी गई कि बच्ची को आगे पढ़ाने के काम में किसी तरह की कोताही नहीं होनी चाहिए। खर्च को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। खर्च की व्यवस्था हो जायेगी। किताब-कॉपी और आगे नाम लिखाने के खर्च की व्यवस्था भी कर दी जायेगी। नीलू इस सहयोगी रुख से गदगद था। लेकिन उसकी खुशी बहुत दिन तक कायम नहीं रह सकी। वह जल्दी ही दुविधा में फँस गया। क्या करे, क्या न करे। रातों की नींद हराम। और एक दिन नीलू मेरे कान में धीरे-धीरे अपनी दुविधा रख रहा था। पहले तो मैं समझ ही नहीं पाया कि वह कहना क्या चाहता है। उसकी परेशानी क्या है। वह कह रहा था कि वह जल्दी ही लोगों के सामने यह बात साफ कर देना चाहता है कि वह बच्ची को आगे पढ़ाने की स्थिति में नहीं है। देर हो जाने से लोग किताब-पोथी का इंतजाम कर लेंगे। लोगों का इंतजाम बेकार चला जायेगा। यह शर्मनाक स्थिति होगी। वह चाहता था कि मैं उसकी मदद करूँ। उसके शुभचिंतकों को समझाऊँ कि बच्ची को आगे नहीं पढ़ा पाने का लोग बुरा नहीं मानें। अब दुविधा में पड़ने की बारी मेरी थी। सबसे पहली जरूरत थी कि उसकी समस्या जानूँ।  समस्या यह समझ में आई कि वह लड़की की शादी की बात चला रहा था। बात लगभग पक्की हो चली थी। बाधा यह कि लड़केवाले लड़की को आगे पढ़ाने के पक्ष में नहीं थे। नीलू लड़की को आगे पढ़ाये तो ऐसा `गुनी  वर' और ऐसा `संपन्न घर' हाथ से निकल जायेगा। बाद में उसके लिए बाप के `दायित्व' से मुक्त होना मुश्किल हो जायेगा। मैंने अपने मुताबिक उसका हौसला बढ़ाना चाहा। न वह मेरी बातों से संतुष्ट हो पाया और न मैं उसकी मदद करने का साहस जुटा पाया। आगे उस बच्ची का चाहे जो हो लेकिन यह सच है कि बहुत सारी बच्चियों का भविष्य `बाप के दायित्व' के बोझ के तले दबकर दम तोड़ देता है। इससे संबंधित तमाम आँकड़े मेरे दिमाग में तैर रहे थे। आँकड़ों का सच जब जीवन में प्रकट होता है तो आँकड़ों का अर्थ संख्याओं तक सीमित नहीं रह जाता है।

इस तरह की एक और घटना की याद मेरे मन में तुरंत ताजा हो गई। उन दिनों जाने-माने चित्रकार अशोक भौमिक एक दवा कंपनी में काम कर रहे थे और उसके  कोलकाता स्थित कार्यालय में तैनात थे। हालाँकि दो-तीन बार ही उनके दफ्तर में मेरा जाना हुआ था। लेकिन जिस दिन पहली बार जाना हुआ था शायद उसी दिन वह घटना हुई थी। उस दिन भी माध्यमिक का परिणाम आया था। दफ्तर में दबे पाँव मिठाई बँट रही थी। माहौल का भारीपन सहज ही समझ में आ सकता था। मिठाई मुझे भी मिली थी। मेरी मुख-मुद्रा देखकर अशोक भौमिक ने खुद ही राज खोला। राज यह कि उस दफ्तर के प्रधान का लड़का माध्यमिक में `अच्छा प्रदर्शन' नहीं कर पाया था जबकि उनके चपरासी की लड़की का परिणाम बहुत अच्छा आया था। बड़े साहब `अपसेट' थे और दफ्तर में मिठाई बँट रही थी! उस लड़की का बाद में क्या हुआ पता नहीं।

इन दो घटनाओं के बीच में इस तरह की और बहुत सारी घटनाएँ स्मृति-पटल पर छा गई। बात इतनी जरूर समझ में आ रही है कि गरीब के घर में खुशियाँ आती भी है तो दबे पाँव ही आती है। गरीब के घर की दीवारें कच्ची होती है। दीवारों के किसी कमजोर हिस्से को धराशायी करती हुई खुशियाँ निकल भी जाती है। यह नहीं कि हर बार ऐसा ही होता है, लेकिन अधिकतर बार ऐसा ही होता है। ऐसा है यह दुश्चक्र---- लोग गरीब क्यों हैं, क्योंकि अपढ़ हैं; लोग अपढ़ क्यों हैं, क्योंकि गरीब हैं। इस दुश्चक्र को भेदना बहुत मुश्किल होता है। इस दुश्चक्र को भेदने में समाज और शासन के सकारात्मक पक्षपात की जरूरत होती है। ऐसा नहीं है कि इस दुश्चक्र में सिर्फ किसी जाति के सारे लोग हैं अथवा किसी जाति के सारे सदस्य इस दुश्चक्र की परिधि से बाहर हैं। इसके बावजूद यह तो मानना ही पड़ेगा कि कुछ जातियों का बड़ा हिस्सा ओर कुछ जातियों का छोटा हिस्सा इस दुश्चक्र में फँसा हुआ है। भारत में सकारात्मक पक्षपात की इस जरूरत को आरक्षण के माध्यम से पूरा किये जाने की व्यवस्था है। इस व्यवस्था को संवैधानिक समर्थन और राजनीतिक पोषण चाहे जितना मिले समाज के अगड़े हिस्से का संवेदनात्मक सहयोग लगभग न के बराबर है। आजादी के इतने दिनों के बाद भी हमारी सामाजिक विडंबना यह है कि जो सामाजिक ताकत सकारात्मक पक्षापात का विरोध करती है वही ताकत जाति पर आधारित नकरात्मक पक्षपात का विरोध करने के नाम पर पक्षाघात का शिकार हो जाती है। इतने संवेदनशील मामले में सिर्फ अपनी स्थिति के आधार पर निर्णय करना घोर असंवेदनशीलता है। प्रतीक में सोचें तो जो गोहाना में हुआ वह कहीं नहीं होना चाहिए। लेकिन बाभन-ठाकुर के टोले-मुहल्ले में वैसी घटना के होने का असर क्या उतना ही अल्पायु होता!

थोड़ी प्रतिभा और ज्यादा पैसा के बल पर उच्च शिक्षा में शामिल होने का तो कोई विरोध नहीं करता! किसी को कोई दुविधा नहीं होती। कोलकाता के मेरे युवा मित्र पहले मिठाई लाल के नाम से कविता लिखते थे। एक गोष्ठी में अशोक बाजपेयी को उनकी कविता पसंद आई, नाम पसंद नहीं आया। मिठाई लाल निशांत हो गये। असली नाम कुछ और है। एक दिन फोन पर कहा कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाखिला के लिए हुई परीक्षा का रिजल्ट नेट पर निकला है। उनका चयन हो गया है। लेकिन वे दुविधा में थे। घरखर्ची कैसे निकलेगी? जहाँ सुविधा नहीं होती है, वहाँ दुविधा ही तो होती है। नीलुओं और पढ़े-लिखे नीलुओं के भी सामने जीवन भर यही समस्या होती है कि दुविधा के पहाड़ के नीचे से रत्ती भर सुविधा कैसे हासिल करे।