आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
न थी
बेखबर नदियाँ रहती हैं, शायद
पुनर्परिभाषा का दौर
वक्त बदलने का मतलब
करोना की सीख और सलाह
प्रेमचंद की कहानी - नशा
हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए।
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प्रेमचंद की एक कहानी है नशा। नशा का नैरेटर समतामूलक विचार और समाज का पैरोकार है। जमींदार परिवार से आये अपने सहपाठी के सामंती व्यवहार के लिए उसे कोसता रहता है। एक बार वह सहपाठी जमींदार के साथ उसके गांव जाता है। इस शर्त के साथ कि उसे वहां कुछ दिन के लिए जमींदारी परिवेश के अनुरूप आचरण करना होगा। इस शर्त का पालन करने के क्रम में वह सत्ता के नशे में जीने लगता है। लौटते समय रेल सफर में एक हादसा होता है। वह एक ग्रामीण यात्री के साथ अमानवीय आचरण कर बैठता है। उसके बाद, एक सहयात्री ग्रामीण बोला- "दफ्तरन माँ घुसन तो पावत नहीं, उस पर इत्ता मिजाज!
ईश्वरी ने अंग्रेजी मे कहा- What an idiot you are, Bir! (बीर, तुम कितने मूर्ख हो !) और मेरा नशा अब कुछ-कुछ उतरता हुआ मालूम होता था।" इस
नशा कहानी की याद आ गई तो मैं ने सिर्फ याद दिलायी है, कहानी के साथ सफर कोई अकेले करे तो बेहतर।
नवाबराय के नाम से लिखने वाले व्यक्ति धनपतराय श्रीवास्तव ने अकेले प्रेमचंद नामक लेखक का उपार्जन किया था! नहीं इसके पीछे दयानारायण निगम की भूमिका थी। प्रेमचंद और दयानारायण निगम बहुत गहरे मित्र थे। नवाबराय के नाम से लिखनेवाले धनपतराय श्रीवास्तव को प्रेमचंद नाम दयानारायण निगम ने ही सुझाया।
दयानारायण निगम कानपुर से निकलनेवाली जमाना नाम की उर्दू पत्रिका के संपादक थे। प्रेमचंद की पहली कहानी 'दुनिया का सबसे अनमोल रतन' पहली बार इसी जमाना में छपी थी। जमाना में ही पहली बार इक़बाल की रचना, सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा, भी छपी थी। दयाराम निगम के साथ प्रेमचंद का सघन और गहन पत्राचार भी होता था, जिसका अधिकांश अब प्रकाशित है।
दयानारायण निगम के पीछे भी कोई व्यक्ति, कोई प्रेरणा रही होगी। मूल बात यह कि कोई दयानारायण निगम न हो तो किसी धनपतराय श्रीवास्तव का प्रेमचंद में कल्पातंरण कैसे हो! यों ही नहीं लेखक बनता है। लेखकों की बनक के पीछे झांकिए तो पता चलता है कि इतिहास के गत्तों में गुम हो जाने की शर्त पर भी समाज को गुमराह करनेवाली शक्तियों से बचाने के लिए दयानारायणों की कैसी अदृश्य भूमिका सक्रिय रहती है। अब तो प्रेमचंद की भूमिका भी अदृश्य होती दिख रही है। अचंभा होता है कि जिस हिंदी समाज के पास प्रेमचंद और उन जैसे कई साहित्यकार हैं वह समाज इतना भाव विपन्न कैसे हो सकता है! हो सके तो, ऐसे साहित्यकारों की अदृश्य होती स्थिति और लुप्त होती निर्मिति में अपनी अदृश्य भूमिका को पहचानने और समझने की कोशिश कीजिए।
फिलहाल, कहीं प्रेमचंद की कहानी नशा पढ़ने की कोशिश कीजिए और मुझे भी बताइए।
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यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत
यों तो अलग रहने के कायदे थे बहुत
ये आलमी जंग तो उनमें शुमार न था
यों पहले बीमारियाँ थी जहां में बहुत
हां तुम्हारा नाम तो उनमें शुमार न था
यों तो जुर्म थे पहले दर्ज खाते में बहुत उन में तेरी करतूत का तो शुमार न था
यों परिंदों पर तो पाबंदी नहीं थी बहुत जमीन पर कोई इंसानी किरदार न था
रोजी रोटी में कोताही थी पहले ही बहुत
सांसों और ख्वाहिशों का पहरेदार न था
जिंदगी में खुशी और गम के रंग थे बहुत
हालांकि मरने से तो कभी इन्कार न था
यों तो कशिश थी तेरी अदाओं में बहुत नाक के नीचे अगरचे कोई इसरार न था
पिछले चुनावों में फूल तो बिके थे बहुत हालांकि दिल अवाम का गुलज़ार न था
यों दान तो देता है दिल खोलकर बहुत कह रहा कोई वह शख्स देनदार न था
करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था
करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था
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करोना का प्रकोप दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। अधिकृत सरकारी और प्रशासनिक निर्देशों का पालन कड़ाई से करना जरूरी है। इस समय बहुत ही डरावनी स्थिति है। अलग रहना ही सब के साथ होना है।
सभ्यता का इतिहास जब लिखा जायेगा तब पिछले चालीस साल का एक अलग अध्याय होगा। 1980 से 2020 के बीच दुनिया का चक्का बहुत तेजी से घूमा, इतनी तेजी से घूमा कि इसकी धूरी ही दरक गई। करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी। जाने मेरा मन क्यों ऐसा संकेत दे रहा है! मन यानी 6ठी इंद्रिय। 6ठी इंद्रिय के पास संकेत तो होते हैं, सबूत नहीं होते हैं। 6ठी इंद्रिय पर बात करने के पहले कुछ और शब्दों पर बात कर लेते हैं, जरूरी है। साहित्य तो सभ्यता की अंतर्ध्वनि को शब्दों से ही पकड़ता है, इसलिए शब्द।
इन दिनों चाणक्य की चर्चा आम जुबान पर रहती है, सूत्र यहीं से सुलझाते हैं। साम, दाम, भय, भेद, दंड, माया, उपेक्षा, इंद्रजाल।। साम यानी प्रशंसा, पुरस्कार। दाम यानी पैसा, वस्तु भी। भय यानी असुरक्षा की आशंका। भेद यानी रहस्य। दंड यानी शक्ति का कोप। माया जो है ही नहीं या जो है उस पर जो नहीं है उसकी प्रतीति। उपेक्षा यानी जो है उसका होना न होने जैसा कर दिया जाये। ये सभी अलग-अलग सूत्र हैं जो अस्ल में नाभिनालबद्ध होकर भीतर से एक ही होते हैं। जब साम, दाम, भय, भेद, दंड, उपेक्षा और माया का इस्तेमाल कर लिया जाता है तब बारी आती है इंद्रजाल की। इंद्रजाल यानी जादू, धोखा का शक्ति का जाल। इंद्र देवताओं के राजा रहे हैं। महा शासक। अब इंद्र से इंद्रजाल का क्या रिश्ता हो सकता है! इस रिश्ते को मिलकर समझना और खोजना होगा। बहर हाल यह कि इंद्रजाल के प्रभाव में आई आबादी की इंद्रियों में दिमाग को सही सूचना देने में शक्ति नहीं रह जाती है। इसलिए ईश्वर को भी इंद्रियातीत, यानी बियांड इंद्रिय, अर्थात इंद्रियों के प्रभाव से पार जाकर ही समझा जा सकता है। ईश्वर यानी सत्य। सत्य जो न होकर भी नहीं होता है और होकर तो होता ही है। इसकी सूचना दिमाग को जिस से मिलती है उसी का नाम 6ठी इंद्रिय है। जी, 6ठी इंद्रिय! 6ठी इंद्रिय, जो न होकर भी होती है और होकर तो होती है। उसी 6ठी इंद्रिय का संकेत मानें तो यही लगता है कि करोना के पहले और करोना के बाद विश्व व्यवस्था के बदलाव की कथा इतिहास की सिसकियों के साथ लिखी जायेगी।
विज्ञान और धर्म
विज्ञान और धर्म
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करोना से बचाव के लिए अपनाई गई एहतियाती सामाजिक दूरी के हवाले से कुछ लोग विज्ञान और धर्म की उपयोगिता से जोड़ कर टिप्पणी करते हुए कह रहे हैं कि संकट की इस घड़ी में विज्ञान ड्यूटी पर है और धर्म छुट्टी पर! उनका इशारा अस्पतालों को खुले रखने और उपासना स्थलों को बंद रखने की स्थिति की तरफ है। इस इशारे में थोड़ा तंज भी है। यह तुलना समीचीन नहीं है।
व्यक्तिगत आस्था जो भी हो, धर्म के पुरोहितवादी रुझान को बाद देकर देखा जाये तो धर्म मनुष्य की भिन्न जरूरतों को पूरा करता है और विज्ञान भिन्न जरूरतों को पूरा करता है। विज्ञान से भी जीवन में कम विसंगतियां नहीं पैदा हुई है। जानता हूँ कि यह बहुत बड़ा, यह बहुआयामी और संवेदनशील विषय है। कई तरह से बात की जा सकती है। इस प्रसंग पर अभी अधिक कुछ नहीं कहते हुए भी इतना कहना जरूरी है कि इस समय इस मुद्दे पर समग्र रूप से तंज करना न सिर्फ़ अनावश्यक है, बल्कि हानिकारक भी है।
युद्ध और अकाल
करोना का कोहराम
घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।
घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।
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सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना तलाशते हुए हमें इस बात के प्रति भी सचेत रहना होगा कि यह मानसिक दूरी में न बदलने लगे। सामाजिक दूरी में सुरक्षा की संभावना बहुत संवेदनशील मामला है। परिवार में इस समय संवाद और संवेदनशील आचरण की जरूरत है। पीढ़ियों के बीच के बीच के अंतराल को पाटते हुए संवाद की जरूरत है। जेंडर सेंसेटिव, अर्थात स्त्री पुरुष के बीच संवेदनशील व्यवहार की जरूरत है। घरेलू काम को जेंडर निरपेक्ष होकर किये जाने की जरूरत है। घरेलू काम में घर की साफ सफाई से लेकर धोने मांजने और बच्चों की जिज्ञासाओं को बिना खीझे पूरा किया जाना भी शामिल है। एक दूसरे को अवसाद से दूर रखने और विवाद के किसी भी प्रकरण को विनोद में बदलने के कौशल का उपयोग भी घरेलू काम में शामिल है।
घर के बर्तन को आपस में टकराने से बचाना प्रमुख घरेलू काम है, प्रभु।
विरोध और समर्थन
विरोध और समर्थन लोकतंत्र में लोकव्यवहार का आवश्यक उपकरण है। किसी भी मुद्दे पर सभी लोग एकमत या सहमत हों यह जरूरी नहीं होता है। लोकतंत्र सर्वसम्मत से नहीं बहुमत से चलता है। बहुमत तभी तक लोकतंत्र की सेवा करता है जब तक उसमें सब का सहयोग हासिल करने और अल्पमत के मूल्यवान तत्व के संयोजित करने की कोशिश का हौसला बचा रहता है। कोशिश में नाकामी की कशिश बची रहती है। भारतीय वृहदाख्यान (मेगा टेक्स्ट) में आंख और कान की प्रतिबंधकता से उत्पन्न संकटों के संदर्भ में हिंदी आलोचक विनोद शाही ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है, श्रवण कुम्हार और धृतराष्ट्र का संदर्भ याद किया है, समझा है समझाने की कोशिश की है। अंधत्व या अंधापन आंख की प्रतिबंधकता से उतना नहीं जुड़ा है, जितना पूर्वग्रहों को प्रतिबद्धता मानकर अभिमत बनाने और उसके सामाजिक प्रसार से जुड़ा है। अंध समर्थन बुरा है, बहुत बुरा है। अंथ विरोध भी बुरा है और बहुत बुरा है। अस्ल में अंधत्व बुरा है। अंध समर्थन और अंध विरोध के इस घनीभूत समय में कभी इसके और कभी उसके उचित के साथ होनेवाले को दोनों तरफ की ओर से बेपेंदी का कहकर मजाक उड़ाया जाता है। अंध समर्थन से समर्थन की सार्थकता और धार खत्म होती है। अंध विरोध से विरोध की भी सार्थकता, स्वीकार्यता और धार खत्म ही होती है। लोकतंत्र को अंधलोकवाद से बचाने के लिए अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह से बाहर निकलना ही होगा, बेपेंदी का मान लिए जाने का जोखिम चाहे जितना हो।
प्रियता की परवाह किये बिना किया जानलेवा यह साहस आसान नहीं है। आखिर कृष्ण को भी अर्जुन तभी तक प्रिय थे जब तक उनकी दी हुई दृष्टि से जगत को देखते रहे। अपने समय के कई अच्छे लोगों को अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह में पड़ा देखकर बहुत पीड़ा होती है। इस ब्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है? रास्ता का अंत कभी नहीं होता! कोई-न-कोई रास्ता तो होना ही चाहिए।