विरोध और समर्थन लोकतंत्र में लोकव्यवहार का आवश्यक उपकरण है। किसी भी मुद्दे पर सभी लोग एकमत या सहमत हों यह जरूरी नहीं होता है। लोकतंत्र सर्वसम्मत से नहीं बहुमत से चलता है। बहुमत तभी तक लोकतंत्र की सेवा करता है जब तक उसमें सब का सहयोग हासिल करने और अल्पमत के मूल्यवान तत्व के संयोजित करने की कोशिश का हौसला बचा रहता है। कोशिश में नाकामी की कशिश बची रहती है। भारतीय वृहदाख्यान (मेगा टेक्स्ट) में आंख और कान की प्रतिबंधकता से उत्पन्न संकटों के संदर्भ में हिंदी आलोचक विनोद शाही ने अपनी किताब में विस्तार से लिखा है, श्रवण कुम्हार और धृतराष्ट्र का संदर्भ याद किया है, समझा है समझाने की कोशिश की है। अंधत्व या अंधापन आंख की प्रतिबंधकता से उतना नहीं जुड़ा है, जितना पूर्वग्रहों को प्रतिबद्धता मानकर अभिमत बनाने और उसके सामाजिक प्रसार से जुड़ा है। अंध समर्थन बुरा है, बहुत बुरा है। अंथ विरोध भी बुरा है और बहुत बुरा है। अस्ल में अंधत्व बुरा है। अंध समर्थन और अंध विरोध के इस घनीभूत समय में कभी इसके और कभी उसके उचित के साथ होनेवाले को दोनों तरफ की ओर से बेपेंदी का कहकर मजाक उड़ाया जाता है। अंध समर्थन से समर्थन की सार्थकता और धार खत्म होती है। अंध विरोध से विरोध की भी सार्थकता, स्वीकार्यता और धार खत्म ही होती है। लोकतंत्र को अंधलोकवाद से बचाने के लिए अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह से बाहर निकलना ही होगा, बेपेंदी का मान लिए जाने का जोखिम चाहे जितना हो।
प्रियता की परवाह किये बिना किया जानलेवा यह साहस आसान नहीं है। आखिर कृष्ण को भी अर्जुन तभी तक प्रिय थे जब तक उनकी दी हुई दृष्टि से जगत को देखते रहे। अपने समय के कई अच्छे लोगों को अंध समर्थन और अंध विरोध के ब्यूह में पड़ा देखकर बहुत पीड़ा होती है। इस ब्यूह से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है? रास्ता का अंत कभी नहीं होता! कोई-न-कोई रास्ता तो होना ही चाहिए।
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