खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन


खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन
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जब कभी
अत्याचार की घटनाओं की खबरों से
टूटता है मन, परत-दर-परत
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन

जीने के लिए बेहद जरूरी
और न्यूनतम जो खुशियाँ
आँख की कोर में सहेजकर रखता हूँ
जैसे पोखरिया सहेज कर रखती है जीरा

तपत नोर में
मछलियों की तरह
तड़फड़ाती है खुशियाँ

तड़पती है खुशियाँ
पोखरिया सिकुड़कर
कराही में तबदील हो गई जैसे
और तुम्हारी मुसकान उग्र भट्ठी में

मन तड़पता है कि
क्यों नहीं मुसलमान हुआ
क्यों नहीं दलित हुआ
औरत ही क्यों नहीं हुआ
आदि, आदि इत्यादि
कम-से-कम
अत्याचारियों के समूह में
गिने जाने से खुद को बचा ले जाता

अंधेरे के सच और उजाले के झूठ में फँसकर
मन ही बौड़म बना है, मालिक
अत्याचार पीड़ित को मेरा मन इंसान नहीं मानता
अत्याचार पीड़ित का मन मुझे इंसान नहीं मानता

आग में घिरे गऊ-गृह के बीच
खूँटे से बँधे बैल सा छटपट करता है मन

भाषा और पेशागत व्यवहार पेशा के परिसर में भाषा लाचार


भाषा और पेशागत व्यवहार
पेशा के परिसर में भाषा लाचार!
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जीवन में भाषा का बड़ा महत्त्व है। हम किस तरह की भाषा में और कैसे लोगों से बात करते हैं। लोगों से हमारा संबंध इस बात पर निर्भर करता है। पेशागत लोगों से जैसे वकील, पुलिस, डाक्टर, अध्यापक या अफसर बाबू से हम किसी प्रयोजन से बात करते हैं तो उनका भाषागत व्यवहार या तेवर कुछ इस तरह का होता है, जैसे सामनेवाला निरा मूरख है। मूरख है, लाचार भी है। मूरख या लाचार होना चरित्र की दुर्बलता का सूचक नहीं हो सकता और न ही इस बिना पर किसी के साथ हीन व्यवहार करने का किसी को कोई हक मिलता है। यह संभव है कि उपस्थित संदर्भ में वह निरा अज्ञानी हो, जैसे बहुत बड़ा अध्यापक, बिजली तार जोड़ने के मामले में अज्ञानी हो या कोई डाक्टर अपने देश के इतिहास की बारीकियों को नहीं जानता हो। यह हम कब समझ पायेंगे कि कोई मूरख, लाचार, निर्धन भले हो वह मनुष्य है। भारत के संदर्भ में कहें तो भारतीय है, उसी तरह से और उतना ही जिस तरह से ज्ञानी गुनी, समर्थ और धनवान होते हैं। एक ही संविधान से शासित हैं हम, एक ही हमारा आधार है एक ही हमारा आकाश है, एक ही क्षितिज है एक ही विरासत है। हो सकता है मैं गलत होऊँ, लेकिन मुझे लगता है कि अपढ़ या अनपढ़ लोग इस देश की उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितनी बड़ी समस्या पढ़े लिखे लोगों निरक्षराचारण है, समाज के प्रति, उपलब्ध संसाधनों के प्रति। निरक्षरता और मूर्खता में कोई अनिवार्य या जिसे कहते हैं अन्योनाश्रित संबंध नहीं होता है।
बहरहाल, हम साहित्य के संदर्भ में सोचें। आज साहित्य पर भी पेशेदारी का कोई कम दबाव नहीं है। अच्छा है, या नहीं इस पर अलग से बात हो सकती है, लेकिन पेशागत विशेषज्ञता, कई बार दंभ और भ्रम से भरी विशेषज्ञता के भी दबाव में साहित्यकार भी आ गये हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। कई बार अपने पाठकों से, अगर कभी जीवन में उससे मुलाकात हो जाये तो, हमारा पेशागत दुर्दमाीय बरताव पाठक को हम से पिंड छुड़ाने में ही अपना भला होने के निष्कर्ष तक अविलंब पहुँचने की प्रक्रिया में जुटा देता है। अन्य पेशादारों को झेलना उसकी दैनंदिन जरूरतों को पूरा करने की मजबूरी होती है, तो उसे झेल लेता है। साहित्य उसकी किसी दैनंदिन जरूरत से जुड़ा हुआ नहीं होता है। हाँ, कोई साहित्य का कक्षा विद्यार्थी या फिर परीक्षार्थी हो तो बात और है। तो, क्या हमें अपने पाठकों और श्रोताओं पर बौद्धिक अतिक्रमण से बचने की सावधान कोशिश नहीं करनी चाहिए! करनी चाहिए, बहुत सावधानी से यह सतर्क कोशिश करनी चाहिए। एक संदर्भ देता हूँ। तथाकथित, हास्य-व्यंग्य कवि सम्मेलन में जो श्रोता जाते हैं, वे अधिकतर मामले में समाज के समर्थ लोग होते हैं। उन कवियों के अर्थ-भार को उठाने में कुछ हद तक सक्षम भी होते हैं, कई बार उठाते भी हैं। इसलिए उनके प्रति उनका व्यवहार चारण जैसा होता है। इस चारण वृत्ति से उनकी कोई बुनियादी वृत्ति संतुष्ट होती है। प्रसंगवश, भाषा में भाट और चारण इतनी बार साथ-साथ प्रयुक्त होते हैं, तो उस का कोई तो कारण होगा। हम जैसे खुद को गंभीर और प्रगतिशील माननेवाले लोगों के जो श्रोता होते हैं वे भिन्न प्रकार के होते हैं और हम उनकी उस तरह की बुनियादी वृत्ति को संतुष्ट नहीं करते हैं। ऊपर से बौद्धिक अतिक्रमणवाला आपत्तिजनक आचरण, हर बार नहीं भी तो अधिकतर बार, उन्हें हम से दूर कर देता है। हमें अन्य पेशादारों, यदि हम खुद को भी पेशादार मानते हों तो खासकर, अपने पाठक (जिसे हम अचेतन रूप से ही सही हम अपना क्लाइंट मानने लगे हैं, हालाँकि वह इसके निकृष्टतम अर्थ में भी क्लाइंट होता नहीं है) जैसे व्यवहार से बचना चाहिए।
पेशा के परिसर में भाषा के लाचार हो जाने की स्थिति से अपना मन खिन्न है, दूसरे की खिन्नता की थोड़ी परवाह जरूर है! इसलिए, ये सारी बातें मैं अपने जन-व्यवहार के लिए सोच रहा हूँ, किसी अन्य के लिए नहीं। किसी अन्य के या आप के भी काम आ जाये तो क्या कहने!
एक बात और। पढ़-पढ़कर बोलता नहीं हूँ, बोल-बोलकर लिखता नहीं हूँ। हमेशा भवानीप्रसाद की चुनौती की याद रहती है कि जैसा बोलता है, वैसा लिखकर देख, जैसा लिखता है वैसा बोलकर देख। वैसा कर के देख। मुझे मानने में कोई संकोच नहीं कि मैं अक्सर इस कसौटी पर खुद को खोटा साबित होता हुआ पाता हूँ।

राजा को तुरंता सपना आया

राजा को तुरंता सपना आया
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यह एक कहानी है। कहानी में एक राजा है। सपना किसी को आ सकता है। तो, राजा को सपना आया। सपना सचमुच का आया। तुरंता सपना। सपना आया कि वह अपना हुलिया बदलकर प्रजा का हाल चाल और माल मलाल का जायजा लेने निकल पड़ा है। वह एक बगीचे में खड़ा है। देखता क्या है कि एक आदमी ऊपर से गिरा और धम्म की आवाज हुई। इस आवाज से सपना थोड़ा डोल गया, लेकिन रुका नहीं। वह सपना में करुणा से भीग गया। ध्यान रहे, यह कहानी है। सपना कहानी का हिस्सा है। इसका मिलान सच से करना बचकाना है। तो, करुणा से भीगा हुआ राजा आदमी के पास पहुँचा। राजा ने आदमी से पूछा, अबे क्या हुआ! आदमी चुप। गुस्ताख के चुप रहने से राजा को गुस्सा तो बहुत या लेकिन क्या करता। हुलिया बदल कर हाल जानने निकला था सो बेबस था। उसके अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब उसने गौर किया कि वह रो भी नहीं रहा था। ऐसा तो होता ही है कि कोई किसी चीज पर गौर करने से अचरज से भर जाये। तो, राजा भी अचरज से भर गया। करुणा जब अचरज से भर जाये तो क्या होता है, आप जानते हैं। यह मियादी बात है। उसने आदमी से पूछा तू रो क्यों नहीं रहा है बे। आखिर तू इतने ऊपर से गिरा है। अब उस आदमी ने चुप्पी तोड़ी, कहानी में। उसने कहा, मैं रोऊंगा तो राजा की बदनामी होगी। लोग कहेंगे इस राजा के राज में आदमी रोता है। कुत्ता रोने से दूसरे का अशुभ होता है, आदमी के रोने से उसके खुद का अशुभ होता है।
राजा ने सोचा। सपना में सोचा। आदमी समझदार है। इस राज में समझदार लोग कम हैं। नहीं रोने से भी तो राजा की बदनामी होगी। लोग कहेंगे इस राजा के राज में रोने पर भी बंदिश है। आदमी फिर चुप। राजा को फिर गुस्सा आया। हुलिया बदलने से क्या होता है, गुस्सा तो राजा को आता ही है, बात-बात में। बहुत डराने पर आदमी ने कहा मैं कुछ भी बोलूंगा तो उसे राजा के पक्ष में याा फिर विपक्ष में घसीट ले जायेंगे। इस घसीटा-घसीटी में मेरा पक्ष तो खो ही जाता है। मेरा भी कोई पक्ष हो सकता है, यह कोई मानता ही नहीं है। मेरा पक्ष खो गया है। जिसका पक्ष खो जाये उसके लिए खामोशी ही एक मात्र सहारा है। इतने में राजा की आँख खुल गई। आँख खुल जाने के बाद सपने रफूचक्कर हो ही जाते हैं। कभी-कभी नींद भी उड़ जाती है।
दूसरे दिन राजा को फिर सपना आया। सपना में राजा ने दरबारियों को सपना का सच बताया। किसी दरबारी ने मुंह नहीं खोला। राजा ने पूछा कि क्या तुम लोगों का भी पक्ष खो गया है। जवाब कोई नहीं था। लेकिन राजा को गुस्सा नहीं आया। राजा के कान में अपनी ही आवाज आती रही। दरबारी अपनी मुंडी धुनते रहे। उधर, अपनी प्रतिध्वनि से राजा को लगता रहा कि सभी बोल रहे हैं। बोल ही नहीं रहे हैं, खुशी से झूम भी रहे हैं। अगले दिन राजा को क्या सपना आयेगा यह बाद की बात है। जब आयेगा, तब आयेगा। फिलहाल, अपनी मुंडी धुनते रहिये। ध्यान रहे, राजा को सपना आया। सपना में यह सब हुआ। यह तुरंता सपना में सच की कहानी है, सच में तुरंता सपना की कहानी।

बहुत घुटन है


बहुत घुटन है
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बहुत घुटन महसूस कर रहा हूँ, इन दिनों। बात दिल्ली की है, लेकिन दिल्ली तक सीमित नहीं है। जीवन के व्यापक धरातल पर इसे देखने की कोशिश की जानी चाहिए। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमारे पास इनपुट तो बहुत सारे स्रोत से मिलते रहते हैं, लेकिन साहित्य में उसका समावेश या निवेश एक भिन्न तरह से होता है। मैं पत्रकारिता पर बात करने की स्थिति में नहीं हूँ, हैसियत भी नहीं है। इतना जरूर कहना चाहता हूँ कि पत्रकारिता को अपने स्रोत से जिस तरह का इनपुट मिलता है, उसे हू-ब-हू न भी तो प्रस्तुति की शैली और संपादन में थोड़े-से बदलाव के साथ पत्रकारिता उसे प्रस्तुत कर सकती है। साहित्य ऐसा नहीं कर सकता है। साहित्य सूचित करने तक सीमित नहीं रह सकता है, बल्कि संवेदित करने के दायित्व से बंधा होता है। भाषा के जानकार बताते हैं, सूचना शब्द सूई चुभोने से विकसित हुआ है और आज एक नितांत स्वायत्त अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है। लेकिन इसके मूलार्थ को एकदम से भूला ही न दिया जाये तो कहना चाहता हूँ कि सूई चुभोने का असर तो तभी हो सकता है न जब वह संवेदनशील या जीवंत जगह पर चुभोई जाये। संवेदनहीनता की पहचान है, सूचना में सूच्यता का न बच पाना। सूच्यता पर गौर करना होगा, शुचिता पर भी गौर किया जाना चाहिए। घुटन इसलिए महसूस होती है कि संवाद के माध्यम जितने विकसित और बढ़ते जा रहे हैं, व्यापक होते जा रहे हैं, संवाद के अवसर उतने ही कम होते जा रहे हैं। संवाद में असर, या कहें संवाद का असर उतना ही कम होता जा रहा है। विश्वास और भरोसा के अभाव में संवाद हो नहीं सकता और संवाद माध्यम, इसे मात्र पत्रकारिता से ही सीमीत कर न समझा जाये, विश्वास की रक्षा कर नहीं पा रहे हैं। विश्वास और भरोसा को सिर्फ और सिर्फ व्यवहार ही बहाल कर सकता है। हमारे नागरिक व्यवहार में क्या कुछ कमी रह गई है या रह जाती है इस पर जरूर गौर करना चाहिए कि विश्वास का कच्चा घागा कमजोर होता चाला जा रहा है। यह काम खुद ही कर सकते हैं, हमारे एवज में कोई अन्य इस काम को कर ही नहीं सकता है। साहित्य तो आज हास्यास्पद हो जाने की हद और शर्त्त तक हँसने-हँसाने तक सीमित होकर रह गया प्रतीत होता है। विदूषक में भी विद्वता तो होती है, लेकिन वह अपने विदूषण से अन्य का दोष दिखलाकर रुक जाता है, चुक जाता है। साहित्य सिर्फ विदूषण नहीं होता, न साहित्यकार विदूषक होता है। वह जय-पराजय, गुण-दोष के पार जाकर अपने श्रोता को आत्मावलोकन की स्थिति में ला खड़ा करता है। बाहर शोर बहुत है, आत्मावलोकन की जिस स्थिति तक श्रोता या पाठक को ले जाने की उम्मीद साहित्य से होती है, इस उम्मीद पर खुद बहु-प्रचारित, बहु-मान्यता प्राप्त या बहु-पुरस्कृत साहित्यकार भी कम ही खरा उतर पाते हैं। संकट यह भी है। साहित्य तो रोने और रुलाने तक विस्तृत होता है, हँसने-हँसाने तक उसका सीमित होते जाना साहित्य का दुखद प्रसंग है। इसलिए, घुटन का असर बढ़ता जा रहा है। भू-पर्यावरण के असंतुलन के कारण घुटन के बढ़ते हुए दायरे से कम घातक नहीं है, सभ्यता और संस्कृति के पर्यावरण में बढ़ते असंतुलन के कारण घुटन का यह बढ़ता हुआ दायरा। यह नागरिक जीवन-चर्या की बात है, इसे राजनीतिक दायरे में समेट कर देखना इस बात को अपटी खेत में मार देने के बराबर है।
अल्फाज थोड़े इधर-उधर हो सकते हैं, लेकिन भावार्थ नहीं, (Noor Mohammad Noor) नूर मुहम्मद नूर का एक शेर य़ाद आ रहा आज बहुत आपको भी सुनाता हूँः
बहुत घुटन है, मकीनो तुम्हारी बस्ती में
कोई राह निकालो, इक जरा सी हवा के लिए

जिंदगी इन दिनों, जीवन के अंदर, जीवन के बाहर

इन दिनों जिंदगी के लिए 
नया ककहरा बन रहा है
अद्भुत है इसकी सिसकी 
इसकी बारह-खड़ी
 जितनी जोर से 
चीख निकलती है बाहर
उतनी ही खामोशी से
सन्नाटा पसर जाता है अंदर 
किसी संवाद में नहीं है 
बाहर भीतर 

जिनके हाथ में झंडे हैं, 
किसी भी रंग के
उनके पास कान नहीं हैं साबूत
जिनके पास कान हैं बचे हुए थोड़े भी
उनकी जुबान नहीं 
भाषा की चौहद्दी में 
भाषा जय जय में सिमटकर रह गई है
जीवन जय के वेष में 
क्षय की शंकाओं से ग्रस्त 

ऐसे में 
कविता कैसे 
पढ़ी-पढ़ाई जाती होगी
कक्षाओं के अंदर, 
बाहर पढ़ाये जाने का
रिवाज नहीं रहा!

कविता
न चीख में बची है 
न सन्नाटा में 

इस ककहरा को सीखने 
इस बारह-खड़ी को सीखने 
लायक बचा क्या है!
जीवन के अंदर 
जीवन के बाहर!

संवाद जरूरी है


जिंदगी को हर पल जीना होता है। संघर्ष और कर्तव्यबोध से भरी हुई जिंदगी हमेशा सक्रिय प्रेरणा हैं। कई बार आदमी अपने अनजाने भी ऐसा कुछ कर जाता है जिसके दूसरे के लिए महत्त्व का पता उसे खुद भी नहीं होता है। जब पीछे मुड़कर, थोड़ा

ठहर कर सोचता है तो कभी-कभी खुद भी अचरज से भर जाता है कि यह मैंने किया है। हाँ यह मुड़ना, थोड़ा ठहरना, थोड़ा सोचना थोड़े मुश्किल से होता है।

जिंदगी को अपने तरह से जीना चाहिए। संवाद जरूरी है उससे जिससे हम अपना सुख-दुख बाँट सकें। छोटी-छोटी खुशियाँ जिंदगी को मनोरम बनाती हैं छोटे-छोटे दुख जीवन को दुर्भर बना देते हैं। मैं जानता हूँ कि दिल में उमंग हो, भाव हों तो पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, पूरबा-पछबा, सूरज-चाँद, रंग-पाखी सभी संवाद करने लगते हैं आपस में और हमारे संवाद के सहयोगी, संवाहक बनते हैं। याद है वो दिन जब हम मेघ से अपना मन कहते थे और मेघ तुम से मेरा ... हम से हमारा मन कहता था गरज-बरसकर... हम चाँद से कुछ कहते थे और चाँद आधी बात कहकर बादलों में छुपकर हमें सताता था.. बहुत मनुहार के बाद सामने आता था... बहुत मनाने पर पूरी बात बताता था... हवा का एक झोंका आता था और मन को सँवार जाता था... और बरखा रानी दूब को हरियाने के पहले हमारे मन को हरित-क्रांति की संभावनाओं से भर देती थी... याद है कैसे सारी-सारी रात तारों से हम बतियाते थे ... उनकी बातें गुप-चुप सुन लेते थे... और तारे कभी-कभी तो हम पर टूट भी पड़ते थे... आज मगर थोड़ा कठिन हो गया है... दिल के उमंग को इन सबसे जोड़े रखना.. मगर असंभव नहीं यह आज भी...तब हमारे पास नेट और फेस बुक नहीं था... अब तो यह भी है... संवाद का नया साधन...
फेसबुक पर

साथ से नहीं, सेल्फी से परफूल!

साथ से नहीं,
सेल्फी से परफूल!
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सुबह-सुबह पास-पास
तुहिन-कणों से लदे-फदे
खिले-खिले दो फूल!
मैं ने पूछा फूलों से
सुबह-सुबह!
इतने खिले-खिले कैसे!
फूल ने कहा,
सच फूल ने कहा!
- देखते नहीं परफूल!
हम दोनों हैं!
कितने पास-पास हैं!
साथ-साथ हैं!
मैं ने कहा,
- चल पगले!
हो जाये
तुम दोनों के साथ
मेरी भी एक सेल्फी!
फूल ने कहा -
चल ठीक है!
तू भी खिल जा!
आजकल
आदमी का मन!
साथ से नहीं
सेल्फी से खिलता है!
चट बना, पट खाया!
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अपने हाथ से
बने खाना
का मजा
कुछ और ही होता है।
क्यों मुरली, है न!
जितना भात तरकारी
जिस मजा से खाये
अभी उसका चवन्नी भी
बड़े बड़े होटलों में
नसीब नहीं भाई!
हाँ, बिल्कुल
चट बना
पट खाया
गरमागरम!
हाथ मुँह बरतन
साथ धो लिया
किचेन बरतन
स्वच्छ इंडिया
सब हो गया!
अपने सिवा
किसी को
पता नहीं चला -
क्या मजा लिया!
क्या मजा लिया!

सूचना और संवेदना


सूचना और संवेदना

दिन काल अच्छे नहीं हैं। पुराने दिनों को याद करना चाहिए। बहुत पुराने दिनों की बात नहीं भी तो, आजादी के आंदोलन के समय की बात करनी चाहिए। आजादी के आंदोलन की आकांक्षा और बनक पर बात करनी चाहिए। आंदोलन के गर्भ में एक आकांक्षा थी। एक स्वप्न था। कुछ के कुछ स्वप्न पूरे हुए। कुछ की कुछ आकांक्षा पूरी हुई। यह सच है कि बहुजन के स्वप्न, बहुजन की आकांक्षा पीछे छूट गई और छूटती चली गई। और इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के समापन सब कुछ बिखरा-बिखरा प्रतीत हो रहा है। यहाँ आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी पटल पर सूचना और संवेदना माध्यम पर बात करने का इरादा है। सूचना से आशय यहाँ समाचार माध्यम या मीडिया से है और संवेदना से आशय साहित्य से है।
जब मीडिया नहीं थी, साहित्य तब भी था। मीडिया के आने के बाद सूचना की गति में अद्भुत तेजी आई। सूचना से संवेदना को जोड़ने के लिए मीडिया ने साहित्य को साथ लिया। देखा जा सकता है कि उस समय के साहित्यकार ही मीडिया का काम करने लगे। कवि कहानीकार आदि ही संपादन का जिम्मा सम्हाल रहे थे। कहना न होगा कि इन दोनों के साथ निरपेक्ष राजनीति का दृष्टिकोण भी सक्रिय था या जन राजनीति सक्रिय थी। धीरे-धीरे मीडिया की मुख्य संचालिका शक्ति सत्ता राजनीति से प्राण पाने लगी और उसने अपने साथ लिया सत्ता साहित्य को। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में उन यथाकथित (तथाकथित नहीं) बड़े साहित्यकारों को जगह मिलने लगी। यथाकथित जन पक्षधर साहित्य को खाते-पीते लोगों के स्वप्न का अवरोधक माना जाने लगा। धन पक्षधर को जन पक्षधर फूटी आँख नहीं सुहाया। इस तरह साहित्यिक या लघु पत्रिकाओं का जन्म हुआ। अचंभा नहीं होनी चाहिए कि क्यों जन पक्षधर साहित्य खाते-पीते लोगों से दूर होता गया और जिनकी पक्ष धरता की बात करता था यह साहित्य, उन में बड़े-बड़े का ही प्रभाव बढ़ता चला गया। लघु पत्रिकाओं की अपनी सीमा थी--  संसाधनगत भी, उद्देश्यगत भी। अपने और अपनों के बाहर के किसी को स्थान देने की गुंजाइश धीरे-धीरे खतम हो गई। अंततः लघु पत्रिकाओं के भी विशाल-विशाल अंक निकलने लगे। कह सकते हैं कि साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिकाओं की जगह ठगु पत्रिकाओं ने ले लिया। ऐसा इस लिए हुआ कि इन में बड़ा बनने की चाह हिलोरें मार रही थी। बड़ा बनने की चाह कहाँ ले जाकर क्या गति करती है यह जानने महसूस करने के बावजूद बड़े लोगों ने इस गति को ही प्रगति मानने बताने का काम किया। धनी और बड़ा होना किसे अच्छा नहीं लगता है, भला! मुख्तसर यह कि मीडिया और साहित्य का तथाकथित बड़े हिस्से का रुझान बची हुई जन पक्षधरता से बदलकर धन पक्षधरता की तरफ होने लगा। मीडिया में सक्रिय कुछ संवेदनशील लोग धन पक्षधरता और धन पक्षधरता में संतुलन बनाये रखने की कोशिश में लगे रहे। इस कोशिश में अपनी बढ़ती हुई मुख परिचिति को इन संवेदनशील लोगों ने अपनी योग्यता और लोकप्रियता मानते हुए धन पक्षधरता के परिसर में अनिवार्य मानने की गलती की। स्थिति की आक्रामकता बढ़ती गई। अंततः धन पक्षधर ने इन संवेदनशील मीडिया कर्मियों के अपने को अनिवार्य मानने के भ्रम को तोड़ दिया। इसी का नतीजा था कि चैनलों की सेवा से ऐसे लोग निकाल बाहर किये गये। जाहिर है समाचार की गुणवत्ता में उन मुद्दों को जोड़ने का इरादा ही प्रमुख था जिन्हें कई बार जन सरोकारों के मामले से ध्यान भटकानेवाला कहा जाता है। यह सब आ उच्च तकनीक के सर्वसुलभ होने के वातावरण में नेट की सुलभता ने एक हद तक इस मामले में बड़े-छोटे के अंतर को मिटा दिया है। अभी नेट-निष्क्षता बची हुई है। है, कब तक बची रहेगी कहना मुश्किल है। स्थिति यह है कि नेट-निष्पक्षता दोनों तरफ की सुविधा देती है – ध्यान भटकाने की भी और ध्यान दिलाने की भी। ध्यान दिलाने की प्रक्रिया को सीमित करने के लिए नेट-निष्पक्षता को कमजोर किया जाता है तो ध्यान भटकाने की प्रक्रिया भी उसी अनुपात में सीमित होती चली जायेगी। नेट-निष्पक्षता को खतम करने में यह एक मुश्किल है। इस मुश्किल का कोई हल निकल जाने पर नेट-निष्पक्षता बहुत दिन तक टिकी रहेगी, इस में वाजिब संदेह है।
नेट-निष्पक्षता के माहौल में संवेदनशील पत्रकारों ने अपना काम बखूबी करना शुरू किया है। वे आयासपूर्वक मीडिया की जन पक्षधरता में जन मुद्दों का संतुलन कामयाबी से बनाये रख पा रहे हैं। सूचनाएँ लगातार आ रही हैं। उन्हें संवेदना यानी साहित्य से जोड़ने का काम नहीं हो पा रहा है। जितनी मेहनत कर वे सूचनाओं और संदर्भों को खोजकर ले आते हैं और पूरी दक्षता के साथ परोस देते हैं और उसमें अपनी बात कहते हैं वह निश्चित ही सराहनीय है। इस खोज-बीन में वे चाहें तो और न चाहने का कोई कारण नहीं है, साहित्य में उनके कथ्य से जुड़े साहित्यिक अभिव्यक्ति के उपलब्ध संदर्भ का भी उतनी ही दक्षता से समायोजन कर सकते हैं। इस समायोजन के लाभ को वे बेहतर जानते हैं यहाँ तो सिर्फ ध्यान दिलाया जा रहा है। यह ध्यान दिलाये जाने की आवश्यकता मुझे इस लिए पड़ी कि पुण्य प्रसून बाजपेयी की एक बहु-प्रभावी प्रस्तुति में बार-बार अंधेरे का जिक्र आ रहा था लेकिन कहीं भी मुक्तिबोध की कविता अंधेरे किसी संदर्भ का कोई जिक्र नहीं आया। मुझे तो 1990 के आस-पास लिखे नूर मुहम्मद नूर का एक शेर भी बहुत याद आया जो पुण्य प्रसून बाजपेयी की उस बहु-प्रभावी प्रस्तुति के समापन पर उनके शुक्रिया कहने के बाद मेरे मुँह से निकल गया। आप भी गौर कीजिए। ये
जो थोड़ा-सा उजाला है, गनीमत जानो,
दिन और अभी, और अभी काले होंगे।

खिड़की से समय में झाँकता हूँ



प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

समाज में हूँ, समाज में सब चलता है, बस .....

समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 

सब चलता है समाज में 
कीर्तन चलता है 
भजन चलता है 
दमन चलता है 
मर्दन चलता है 
बस मनन नहीं चलता है 
मनन नहीं चलता है 
  समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 
चलता हो भले
आता जाता नहीं है 
किसी को कुछ आता जाता नहीं है

समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 
समाज में सब छलता है

बनारस शहर नहीं, समास है


केदार नाथ सिंह की कविता बनारस

कविता में सामान्य मनुष्य, स्थान का उल्लेख तो होता ही रहता है। किसी विशिष्ट या खास व्यक्ति या शहर आदि पर कविता कम ही देखने को मिलती है। सामान्यतः, कविता सामान्य पर होती है। खास पर कविता लिखना तोड़ा मुश्किल काम है। अभी केदारनाथ सिंह की कविता माँझी का पुल पर कुछ काम किया है। वह भी तो एक खास पुल ही है। अब जबकि उनकी कविता बनारस पर काम करने बैठा हूँ, मन में फिर एक सवाल है कि आखिर किस तरह से उन्होंने इस कविता को हासिल किया होगा! पाठक ठीक उसी तरह से इस कविता को कैसे हासिल करे! केदारनाथ सिंह की कविता में यह एक खास बात है कि वे ठीक उस तरह से पर अतिरिक्त जोर देते हैं और इस तरह से कविता में कुछ खास ऐसा जोड़ देते हैं जिस से उनकी पूरी कविता का अर्थ-लय बदल जाता है। सिर्फ अर्थ-लय ही क्यों संवेदना का धरातल भी बदल जाता है।
बनारस के संदर्भ हिंदी साहित्य में कई तरह से आया है, लेकिन इस शहर में कैसे आता है वसंत यह तो सिर्फ यह कविता बताती है। इस शहर में वसंत के आने के बाद क्या होता है, यह भी केदारनाथ सिंह की कविता की नजर से ही समझा जा सकता है।
इस शहर में वसंत

अचानक आता है

और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
यानी शहर की खाँटी देसी बनारसी वाचालता बढ़ जाती है। शहर पुराना है, मगर बूढ़ा नहीं है। वसंत आता है तो उस शहर का मिजाज भी अपने वसंती रंग का जीर्णोद्धार कर लेता है। जो गुजर गया है वह भी जैसे अभी गुजरा नहीं है, वसंत के आगमन का स्वागत अपनी खपचियों से करता जाता है। खपचियाँ फेंकते हुए किसी का इस तरह गुजर जाना दशाश्वशमेध घाट के पहले पत्थर को नहीं, आखिरी पत्थर को मुलायम बना जाता है। न जाने कितने शव के जाने का साक्षी बना यह दशाश्वशमेध घाट अपने आखिरी पत्थर को मुलायम बनाता आ रहा है लेकिन न मेध रुकता है, न इस का आखिरी पत्थर कभी आखिरी हो पाता है। इस कारुणिक दृश्य से नम हुए पूर्वजों, बंदरों की आँख की नमी केदारनाथ सिंह की कविता की आँख की नमी से अदृश्य रह पाती है। भीखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन भी किसी चमक से भर जाता है। गुजरा हुआ भी किसी-न-किसी के लिए एक आश्वासन छोड़ जाता है, इस तरह से। जो शहर में आता है भीखारियों के कटोरों में उतरता है, वह वसंत कुछ इस तरह कि गुजरने से शहर खाली होता है जितना, उतना ही भरता रहता है भीखारियों का कटोरा चमक से। इस तरह से खाली कटोरियों में वसंत का उतरना देखती है, केदारनाथ सिंह की कविता।
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है खपचियाँ
आदमी दशाश्वशमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़



धीमापन इस शहर का स्वाभाविक छंद है। कोई लाख कहे, और कहनेवाला कोई कवि ही क्यों न हो, लेकिन यह सच है इस शहर में  भी बदलाव होता तो है, परंतु होता है, धीरे-धीरे। अचानक और अचंभा की तरह नहीं होता है, होता है बदलाव शाश्वत की तरह धीमे-धीमे। यह धीमापन ही है जिसने बचाया था बनारस में उस पुरानेपन को और उसे भी जो पुराना होने पर भी बूढ़ा होने से बचाता रहता है सदैव। यह धीमापन का ही छंद है जो उसे अछिंजल-सा पवित्र अस्तित्व को आधार देता है। और शायद इसीलिए अपने आधे-अधूरे अस्तित्व में भी यह शहर जल में भी है मंत्र में भी है, फूल में भी है, शव में भी है, नींद में भी है और शंख में भी है। सूर्य जो किसी को भी लक्षित करने का बुनियादी आधार देता है, वही सूरज इस शहर में खुद अलक्षित होकर अपना अर्घ्य ग्रहण करता है। यह शहर गंगा में अपनी एक टाँग पर खड़ा है। खड़ा है कुछ इस तरह कि दूसरे टाँग से है बेखबर। परंपरा में जीता है यह शहर और प्रगति के लिए उठाये गये दूसरे कदम की उसे कोई खबर ही नहीं है। बनारस में इतने पास-पास रहते आये हैं परंपरा और प्रगति, दोनों बिना संवाद के। शहर कि मानें तो प्रगति एक दिन परंपरा बन जाती है, लेकिन परंपरा कभी प्रगति नहीं बनती। परंपरा बहती है, जिधर जमीन अनुकूल हो, ढलान हो; प्रगति चलती है जिधर जमीन अनुकूल न भी हो मगर जिधर समय की उठान हो।
आज की स्थिति में देखें तो, आधा बनारस इस कविता में है, आधा नहीं भी है। बनारस बदल रहा है। अच्छा है या है बुरा इसकी परवाह किये बिना बनारस बदला है, बदल रहा है। और थोड़ी-सी तेजी से ही बदल रहा है। जितनी तेजी से बदल रहा है उतनी ही तेजी से इसका स्वाभाविक छंद भी बदल रहा है। बनारस में आरती का आलोक तेज हुआ है तो तेज़ भी हुआ है, तीखा हुआ है। श्रीकांत वर्मा को याद कर लें तो यह सच है कि वह जो बनारस था जिसे हम मगध की तरह खोते जा रहे हैं वह बनारस बचा रह जायेगा केदारनाथ सिंह की इस कविता में। बचा रह जायेगा वह बनारस इस कविता में ठीक उसी तरह से जैसे बचा रह गया था बाघ कुम्हार की आँख में जैसा कि वह था टूटने के पहले, खुद केदारनाथ सिंह की कविता बाघ में। यह भरोसा इस कविता के मन में है।
इन दिनों की बदलाव की बयार नहीं, आँधी चल रही है। हमारे रिश्ते बदल रहे हैं, सरोकार बदल रहे हैं, संबंध चाहे व्यक्ति से हों, समाज से हों या फिर राष्ट्र-राज्य या ईश्वर से ही क्यों न हों बदल रहे हैं, कुछ अधिक तेजी से ही बदल रहे हैं। इस बदलाव में सत्य तो है, शिवम और सुंदरम की बात तो भविष्य की मोतियाबिंदी आँख में है। ऐसे में केदारनाथ सिंह की कविता में भी जो भरोसा है वह तभी कामयाब हो सकता है जब उनकी कविता बसी-बची रहेगी हमारे मन में। इसलिए जरूरी है इस कविता को अपने मन में जगह देने की और भरोसा को बचाने की। इस कविता के लिए मन में जगह नहीं बनी रहे तो कुछ नहीं, बस भरोसा का एक रेशा और टूटेगा। भरोसा का रेशा जब टूटता है तो क्या होता है, बतायेगी राजेश जोशी की कविता जिसमें नट भरोसे की रस्सी पर चलता है। सिसक उठेगी अरुण कमल की कविता कि अरे यही तो था हर हाल में जो टूट गया! क्योंकि यही वह भरोसा था जयशंकर प्रसाद की आँख में हिमाद्रि तुंग श्रृँग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती की ललकार बना था। न बचेगा भरोसा तो भीगे नयनों से प्रबल प्रवाह देखना ही हमारी नियति बनकर रह जायेगी। पूछिये नजीर से इस तरह नहीं बचा पाये हम बनारस को तो, कैसे मनेगी होली! उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी का समन्वय, संतुलन और समंजन का साक्षी यह बनारस ही तो है। हजारीप्रसाद द्विवेदी से पूछिये उन्हें पोथा देनेवाला अनामदास का असल नाम बनारस नहीं था तो क्या था! बनारस शहर नहीं समास है, भारतीय संस्कृति के सार का समास है बनारस। बनारस शहर नहीं, समास है। बनारस बदलकर भी बनारस ही रहेगा, जैसे देवदत्त अंततः देवदत्त ही रहता है अपने हर बदलाव के साथ। जैसे बचे रह गये हैं बाघ और बुद्ध दोनों अष्टाध्यायी और चर्यापद में। इस बचे रहने में केदारनाथ सिंह की कविता बनारस बची रहेगी, बसी रहेगी मन में।
  




सपनों का हमसफर और यथास्थितिवाद की कराह

यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के बाद भाववाद के बदलाव का व्याकरण
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चारों तरफ बदलाव की बात चल रही है। बात क्या चल रही है, इसे हाहाकार ही समझा जा सकता है। बदलाव से घबराने की जगह उसे समझने की जरूरत है। बदलाव की अपनी दिक्कतें होती हैं। अधिकतर मामलों में, हमारा मन अपनी आरंभिक जड़ता के कारण जीवन में आये किसी बदलाव के लिए सहज तैयार नहीं होता है। मन सहज ही तैयार हो या न हो, बदलाव जीवन का नियम है, बदलाव जीवन की नियति है। इसलिए, बदलाव के साथ तो अंततः होना ही पड़ता है।
एक बात यह समझ में आती है कि इस बदलाव में सब कुछ शुभ नहीं है। यह जरूर है कि सब कुछ अ-शुभ भी नहीं है। शुभ और अ-शुभ  के बीच का अंतर हमारा आलोचनात्मक विवेक करता रहता है। जरूरत इस आलोचनात्मक विवेक को जिलाये तथा सक्रिय रखने की है। अक्सर, हमारा यह आलोचनात्मक विवेक या तो सो जाया करता है या फिर परम निष्क्रियता का शिकार हो जाता है।
मोटे तौर पर देखें तो, राजनीतिक आजादी मिलने के बाद सामाजिक आजादी का आंदोलन निष्क्रिय हो गया। बाबा साहब ने तब ध्यान दिलाया था कि सामाजिक आजादी सुनिश्चित नहीं हो पाने की स्थिति राजनीतिक आजादी अपाहिज हो कर रह जायेगी। ऐसा इसलिए कि राजनीतिक समानता और सामाजिक अ-समानता का अंतर्विरोध, अंततः हमें अपनी चपेट में ले ही लेगा। इस अपाहिजपने की चपेट से बचने के लिए आधुनिकतावाद के पैरोकारों ने आर्थिक आधार पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया, वह भी आर्थिक समानता के लिए बिना कोई प्रयास किये। इस क्रम में, वेतनभोगियों, मजदूरों, छोटे कारोबारियों आदि को मिलाकर मध्यम वर्ग आकार पाने लगा। इस बीच धुंधला ही सही ग्रामीण मध्य वर्ग भी आकार पा रहा था। इस मध्य वर्ग पर बहुत यकीन किया गया। यकीन यह कि आर्थिक संस्तरण अंततः सामाजिक संस्तरण को सुनिश्चित कर देगा। ऐसा हुआ नहीं। इस बीच दुनिया भी बदल रही थी। इस बदलती हुई दुनिया में भारत आर्थिक अनिश्चयता और विपन्नता में फँस रहा था। इसका असर मध्यम वर्ग पर ज्यादा पड़ रहा था। निम्न वर्ग तो पहले से तबाह था। फिर भी बहुत हद तक सामाजिक सामंजस्य बना रहा तो इसका कारण यह था कि निम्न वर्ग ने बहुत सहा था। सहने की आदत मध्य वर्ग में कम होती है, उच्च वर्ग तो अपने साधनों के बल पर वैसे भी दबाव झेल लेता है।
1990 तक आते-आते सामाजिक न्याय की माँग में स्पष्टता आने लगी थी। मध्य वर्ग का एक हिस्सा, इस सामाजिक न्याय की बढ़ती हुई स्पष्टता से भी दबाव में था। इस बीच यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद व्यवस्था को जकड़ता चला गया। 1990 में आई नई विश्व-व्यवस्था में आर्थिक अवसरों के नया क्षितिज खुलने लगा। यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद से मुक्ति के लिए छटपटाते हुए मध्य वर्ग में नई हरियरी आने लगी। इस स्थिति में बदलाव की आकांक्षा कुलाँचे मारने लगी। पिछले 25-30 साल में नई विश्व-व्यवस्था के आर्थिक अवसरों में भयानक छीजन आने लगी। लेकिन, यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह में कोई कमी नहीं आई। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद की शिकार संस्थाएँ होने लगी। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमें इस बात का अंदाजा है कि किस प्रकार यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के कारण संस्थाओं पर एक सत्ता समूह का वर्चस्व बना हुआ था और वे अपने समूह के अंदर ही लेन-देन करते थे।
इस बदलाव में, मध्य वर्ग पर चोट पड़ने लगी। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद में बुरी तरह से फँसी इसकी संरचना पर असर पड़ने लगा। संस्थाओं में तोड़-फोड़ की स्थिति पैदा हो गई। भाववाद ने यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह के रास्ते आये बदलाव को अपना आधार बना लिया। इस भाववादी बदलाव की प्रक्रिया में नई मुसीबत बनकर  आया भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार से कई बार लड़ता हुआ दिखता हुआ भी असल में उससे हमारी कोई ईमानदार लड़ाई शुरू ही नहीं हो पाई। याद किया जा सकता है अण्णा हजारे और इंडिया अगेनस्ट करप्शन के आंदोलन की तीव्रता और उसकी परिणति को।  यहीं नागरिक जमात या सिविल सोसाइटी के परिसर में साहित्य की भूमिका को समझा जा सकता है। बातें और भी हैं, अवसर और भी हैं, अभी तो इतना ही।

जय जय भैरवि

संदर्भ : जय जय भैरवि क गायन मे ठाढ़ भेनाइ
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विभूति आनन्द जी क एहि विचार आ व्यवहार क प्रति सम्मान आ समर्थन रखैत निवेदन।
आध्यात्मिक प्रसंग क भौतिक आख्या क अभाव एहि तरह क द्वंद्व क कारण भ जाइत छै। विद्यापति क एहि गीत में निहित  सांस्कृतिक संघर्ष क करुण अनुगूँज आ संघर्ष क ऐतिहासिक समाहार क प्रेरणा सहज सुमति क विकल आकांक्षा क रूप में अभिव्यक्त होइत आएल छै। हम सहज सुमति क विकल आकांक्षा क उपलब्धि क तत्परता में मानसिक रूपें ठाढ़ होयबाक प्रति संवेदनशील हेबाक महत्व के बुझैत ओहि संवेदनशीलता क शारीरिक अभिव्यक्ति के संगे ठाढ़ हेबाक सामूहिकता क विरोध मे नहि जा सकैत छी। ठाढ़ भेला क बाद चलनाइ, आगू बढ़नाइ स्वाभाविक। एहि स्वाभाविकता क सम्मान नहि क बैस जाइत छी। शारीरिक रूपें ठाढ़ भेनाइ आ मानसिक रुपें बैस गेनाइ हमर सांस्कृतिक विडंबना अछि। संभव होय त शारीरक रूपें ठाढ़ होयबा स असहमति क बदले मानसिक रूपें बैस जेबाक प्रतिकार पर सोचब प्रासंगिक।

पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!

पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!
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माँ भी बच्चा को रोने पर दुध पिलाती है! बच्चा के दूध न पीने पर दूध के काटने से माँ का विकल होना गये जमाने, पिछड़े समय की बात है। यह विकास का जमाना है, इसे विचार का जमाना समझने में गफलत है। जो माँ बच्चा की मौत पर जश्न मनाने के लिए विकल हो, वह भला उसके रोने पर क्या पसीजेगी। दूध तो है नहीं,  जाहिर है दूध के काटने की विकलता भी नहीं है। सीधी सी बात है, हड़ताल-फड़ताल से जोड़कर इसका पढ़ताल बिगारना ठीक नहीं। और हाँ, बच्चा भी अब बच्चा कहाँ रहा! पढ़ताल बनाये रखना जरूरी है, बचाये रखिये!

कविता मगध से भिन्न नहीं

ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं!  कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए  नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध  से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!

मगध और कविता

मगध और कविता
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ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं!  कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए  नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध  से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
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इस पर गोविंद गुंजन की रायः (फेोसबुक पर) - 'बात तो सही है प्रफुल्ल जी, पर अंतिम पंक्ति में आप एक तरफ मगध को विचार की बजाय प्रचार से परिभाषित
बताते बताते कविता को भी मगध से अभिन्न कह गए, तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
मेरा निवेदन : सवाल छोटा है, जवाब लंबा हो सकता है।
अब आगे : -
निवेदन है कि मैं कुछ कहूँ उसके पहले श्रीकान्त वर्मा की दो कविताओं और आदि कवि बाल्मीकि के श्लोक का स्मरण कर लें।
कोसल में विचारों की कमी है / श्रीकान्त वर्मा (साभार, कविता कोश)
महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।
वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।
कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।
न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।
उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !
राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –
वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।
मगध (कविता) / श्रीकांत वर्मा (साभार, कविता कोश)
सुनो भई घुड़सवार, मगध किधर है
मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है
किधर मुड़ूँ
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?
लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य -
कल ही तो मगध मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन -
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा
न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूँढ़ रहे हो
बंधुओ,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो।
(साभार, विचार संकलन)
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम्।।
(बाल्मीकि, रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
और अब साभार, भरतमुनिः-
‘न वेद व्यवहारोयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सावणार्णिकम।’            
              - भरतमुनि: नाट्यशास्त्र, 1.12
लौटते हैं, Govind Gunjan के सवाल पर --- तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने को पराजित ने बताया था। पराजित की बात को कवि सुन सकता है। राजसूय यज्ञ के उपरांत बचे कोलाहल के बीच चक्रवर्त्ती सम्राट कहाँ सुन पाता है! कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने के मर्म को  समझ कर कवि मगध की तरफ मुड़ जाता है। मगध पहुँचकर निराशा तब और बढ़ जाती है जब पता चलता है, यह वह मगध था जो पूरी तरह गँवाया जा चुका था! कहना न होगा कि ‘कोसल’ और ‘मगध’ भारत की दो मूल सत्ता परंपरा रही है। आगे और इस दिशा में आज के सत्ता परिप्रेक्ष्य को विश्लेषित किया जा सकता है। मैं विश्लेषण करूँ यहाँ तो उस में उलझ-पुलझ कर रह जाने का डर है, और फिर प भी उतने नादान तो नहीं हो सकते हैं। एक बात का संकेत करूँ, भारत की दो मूल सत्ता परंपरा अर्थात, ‘कोसल’ और ‘मगध’ का संबंध हमारी संस्कृति के दो मेगा टेक्स्ट रामायण और महाभारत से बहुत ही घना है। इसे डिकोड किया जा सकता है।
पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा का स्मरण कर लेना जरूरी है। शस्त्रधारी सत्ता को बरजते हुए कवि की वाणी मुखरित हुई और इसी उद्यम में लगी रही, संदर्भ आदि कवि बाल्मीकि का लें। जिन “शूद्रजातिषु” को वेद सुनने तक का अधिकार न रह गया था, उनके लिए ही कवि ने पंचम वेद की संभावनाओं को तलाश लाया, संदर्भ भरतमुनि का लें। पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा में विचलन पैदा हुआ जब ‘कोसल’ हो या ‘मगध’ कवि सत्ता-शस्त्र की मनोनुकूलता में कवि अपने को ढालने लगा। जाहिर है अब पराजितों की बात उसे सुनाई देना बंद होता चला गया। विजेताओं की आकांक्षाएँ उसकी वाणी का वैबव बनने लगी। हाँ, आगे लोक और वेद के बहुस्तरीय और बहुक्रियात्मक अंतस्संघर्ष का मामला आया। संत कवियों की लंबी शृँखला का सूत्रपात हुआ। कबीर आये तो तुलसीदास भी आये। कबीर और तुलसीदास पराजित की बात को अपने-अपने संदर्भ से सुन पाने में सक्षम थे। अपने समय में मिले इनको जो सामाजिक व्यवहार या तिरस्कार मिला उसने इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल को बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की। इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल के बीच से कविता की वह परंपरा आगे बढ़त पाने लगी जिसे हम कवि केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित तिरस्कार को पुरस्कार की संभावनाओं में बदलने की प्रक्रिया से जोड़कर कुछ हद तक ही सही, समझ तो सकते हैं।
आज कवि की हालत क्या है! तर्क वितर्क चाहे जितना कर लें। कवि अंततः नागरिक ही होता है। उसकी भी संसारी जरूरतें होती हैं। संत की आज की जमात में कबीर और तुलसीदास के लिए ही कोई जगह नहीं है। केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित पुरस्कार उसे अपनी चपेट में लेता है। कुछ ‘कवि’ केशवदास की काव्यबोध-परंपरा को खाला का घर समझकर नाचते-गाते खुशी के पारावार के साथ सिंहद्वार से प्रविष्ट कर जाते हैं, अधिकतर पिछले दरवाजे की सुराख में झाँकने के संघर्ष में शामिल रह जाते हैं। होंगे अपवाद भी जो कि अनिवार्यतः होते ही हैं। इस घर देखिये या उस घर, सफल प्रचार वस्तु की तरह स्वीकृत हो जाने में ही आज की बन रही कविता की सार्थकता बची हुई है। ऐसे में, कविता, जिसे कविता का ओहदा हासिल है, प्रचार प्रेरित न लगे तो क्या लगे?

हे भंते, बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए

हे बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए।

लोकतंत्र का लचकमंत्र
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बड़े-बड़े इकॅनोमिस्ट, जर्नलिस्ट भी मंदी-फंदी की बात करते हैं! कॅरपोरेट टैक्स छूट जैसी ऐतिहासिक घटना को डिमांड-सप्लाई साइड पर कस रहे हैं। साइड की बात करते हैं और साइड इफेक्ट को नहीं जानते! लोकतंत्र के लचकमंत्र को नहीं जानते! भाई सामने चुनाव है। न डिमांड समझते हैं, न सप्लाई! बहस किये जा रहे हैं! यह समय देशभक्ति का है, बहस का नहीं! मंदी-फंदी की चकरघिन्नी से बाहर देशभक्ति के मनोरम दृश्य की अशुभ और अशोभनीय उपेक्षा से दुनिया में हमारी छवि पर कैसा विद्रूप असर पड़ेगा, यह भी नहीं सोचते! हे भंते, बहस नहीं देशभक्ति बड़ी बात है, करते रहिए।

विकल्पहीनता का आनंद

विकल्पहीनता का आनंद
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कुछ लोगों के जेहन में किशन पटनायक की याद होगी। किशन पटनायक सामाजिक राजनीतिक चिंतक थे। वह दौर था जब पूरी दुनिया में टीना (TINA) का कोहराम मचा था। टीना, मतलब कि कोई विकल्प बचा नहीं है। किशन पटनायक तब दोनों हाथ उठाकर पूरी बौद्धिक ताकत के साथ कहते थे, विकल्प है। उनकी बहुत महत्त्वपूर्ण किताब है ‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’। अवसर मिल जाये तो जरूर पढ़ना चाहिए। उनके लेखों का संकलन है जो काफी है भरोसे के लिए। दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती है। यह सच है कि जो विकल्प हमें दिखाया जा रहा था या दिख रहा था वह वह अपनी अंतर्वस्तु में वस्तुतः एक ही था। इस तरह कोई विकल्प था नहीं, बस विकल्प का आभास था। हमने आभास पर यकीन किया। विकल्प सत्ता के पास नहीं हुआ करती है, चाहे वह राजनीतिक सत्ता हो या बाजारनीतिक सत्ता हो। विकल्प हमेशा जनता के पास होता है। इस बात पर भरोसा कर लेना चाहिए।  हमने भरोसा किया।
अब यह विडंबना ही है कि गाँधी और गोडसे को एक दूसरे का विकल्प मानने तथा मनवाने का प्रस्ताव किया जा रहा है। बहुत सारे लोग गाँधी को नहीं, गोडसे को बेहतर विकल्प मानने भी लगे हैं। ध्यान में होना ही चाहिए कि गाँधी और गोडसे यहाँ व्यक्ति होने के कारण महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, बल्कि विचार सरणी के रूप में महत्त्वपूर्ण हैं।
विकल्प का द्वंद्व
आज की तुरंग गति-मति के समय में विकल्प की तलाश बहुत कठिन काम है। एक तो वास्तविक विकल्प को पहचानना मुश्किल, दूसरे वह पूरी तरह अपरीक्षित होता है। बेहतर नतीजा नहीं भी दे सकता है। विकल्प का द्वंद्व बहुत कष्टकर होता है। जिन्हें नतीजे की बहुत चिंता नहीं होती है वे विकल्प को लेकर मगजमारी नहीं करते हैं। विकल्प तलाश की दुविधा के पार बसता है विकल्पहीनता का आनंद! कहने की जरूरत नहीं है कि आज हम में से बहुत सारे लोग विकल्प तलाश के कष्टकर द्वंद्व से बाहर निकल गये हैं। न सिर्फ बाहर निकल गये हैं बल्कि विकल्पहीनता का आनंद लेने में जीवन की सार्थकता पा रहे हैं।
तो फिर क्या है विकल्प!
है विकल्प है। यह जरूर है कि विकल्प को खोजना आसान नहीं है। आसान इसलिए नहीं है कि यह खोज अकेले का उद्यम नहीं है। इसके लिए संगठित उद्यम चाहिए। मुश्किल इसलिए भी है कि उद्यम संगठित होते ही इस या उस तरह की शक्ति में बदल जाता है। शक्ति के सत्ता में बदल जाने में देर ही कितनी लगती है। हमारा काव्य अनुभव बताता है, जिधर अन्याय होता है, शक्ति उधर ही झुक जाती है। साक्षी निराला हैं। ऐसा है, दुष्चक्र। न्याय, चाहे जिस भी प्रकार का हो, चाहिए तो इस दुष्चक्र को शुभचक्र में बदलना ही होगा। फिलहाल तो मैं Arti Thakur आरती ठाकुर के सवाल (फेसबुक पर) का जवाब ढूढ़ रहा हूँ कि ‘कोसल और मगध से होते हुए कवि और उसकी कविता नागरिक होएंगे ही अंततः सांसारिक जरूरतें उन्हें प्रचारित कवि बनाती है और वैराग्य से जीते/ लिखते उन्हें पलायनवादी...... कवि जो मगध में था अब वो किसी समयकाल में नहीं। शब्दों में जिंदा रहने की क्या शर्त्तें है, कोई बताये तो?’ कोई क्या बतायेगा भला! रघुवीर सहाय को याद करें तो अपने मोर्चे पर मरने की जिद हमें बचा सकता है। अपने मोर्चे पर मरने की जिद भी एक विकल्प है!
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Ramesh Chand Meena (फेसबुक पर) का सवाल गौर तलब है इसलिए इस सवाल को यहाँ रखना और इसके जवाब को प्रस्तावित करना दायित्व है।
सवाल, विकल्पहीनता के दौर में नहीं जी रहे है हम?
जवाब यह कि
भाई, विकल्पहीनता भी एक विकल्प है, अब चयन हमारा जो हो!

मगध और कविता

मगध और कविता

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ए भाई, आलोचक फालोचक की बात रहने दो। जीते जी मुक्तिबोध का कोई संकलन न आया। यह याद दिलाकर, कहना कि मेरा भी न आया, इसलिए मुक्तिबोध और मैं बराबर! यह तर्क सड़ गया है। यह कहना कि अमुक के इतने सारे संकलन छप गये हैं, मुराद यह कि वह जुगाड़ू है, किसी काम का नहीं! लिखना है तो लिखो, न कुछ और करना है तो सो करो, सिर्फ पुरस्कार तुरस्कार की बात नहीं। मालूम है, पाठ तो होते हैं कविता के इस अकाल बेला में भी, बेचारी की कोई सुनता नहीं, अधिकतर बार उसका कवि भी नहीं!  कविता के मृत्यु प्रसंग की बात रहने दो भाई। अकाल बेला और मुक्ति प्रसंग के लिए मैं राजकमल चौधरी को याद कर लूंगा। मुद्दे की बात यह कि जो रोया नहीं अपनी कविताओं को पढ़कर, जी भर हँसा नहीं अपनी कविताओं पर, ये बातें उनके लिए  नहीं हैं। ये बातें बिल्कुल बकबास है, अब हैं बकबास तो हैं। मैं मगध  से बोल रहा हूँ, मगध विचार से नहीं प्रचार से परिभाषित होता रहा है, और कविता मगध से भिन्न नहीं, आगे खुद समझ लो भाई!
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इस पर गोविंद गुंजन की रायः - 'बात तो सही है प्रफुल्ल जी, पर अंतिम पंक्ति में आप एक तरफ मगध को विचार की बजाय प्रचार से परिभाषित
बताते बताते कविता को भी मगध से अभिन्न कह गए, तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
मेरा निवेदन : सवाल छोटा है, जवाब लंबा हो सकता है।
अब आगे : -
निवेदन है कि मैं कुछ कहूँ उसके पहले श्रीकान्त वर्मा की दो कविताओं और आदि कवि बाल्मीकि के श्लोक का स्मरण कर लें।
कोसल में विचारों की कमी है / श्रीकान्त वर्मा (साभार, कविता कोश)
महाराज बधाई हो; महाराज की जय हो !
युद्ध नहीं हुआ –
लौट गये शत्रु ।

वैसे हमारी तैयारी पूरी थी !
चार अक्षौहिणी थीं सेनाएं
दस सहस्र अश्व
लगभग इतने ही हाथी ।

कोई कसर न थी ।
युद्ध होता भी तो
नतीजा यही होता ।

न उनके पास अस्त्र थे
न अश्व
न हाथी
युद्ध हो भी कैसे सकता था !
निहत्थे थे वे ।

उनमें से हरेक अकेला था
और हरेक यह कहता था
प्रत्येक अकेला होता है !
जो भी हो
जय यह आपकी है ।
बधाई हो !

राजसूय पूरा हुआ
आप चक्रवर्ती हुए –

वे सिर्फ़ कुछ प्रश्न छोड़ गये हैं
जैसे कि यह –
कोसल अधिक दिन नहीं टिक सकता
कोसल में विचारों की कमी है ।
मगध (कविता) / श्रीकांत वर्मा (साभार, कविता कोश)
सुनो भई घुड़सवार, मगध किधर है
मगध से
आया हूँ
मगध
मुझे जाना है

किधर मुड़ूँ
उत्तर के दक्षिण
या पूर्व के पश्चिम
में?

लो, वह दिखाई पड़ा मगध,
लो, वह अदृश्य -

कल ही तो मगध मैंने
छोड़ा था
कल ही तो कहा था
मगधवासियों ने
मगध मत छोड़ो
मैंने दिया था वचन -
सूर्योदय के पहले
लौट आऊँगा

न मगध है, न मगध
तुम भी तो मगध को ढूँढ़ रहे हो
बंधुओ,
यह वह मगध नहीं
तुमने जिसे पढ़ा है
किताबों में,
यह वह मगध है
जिसे तुम
मेरी तरह गँवा
चुके हो।
(साभार, विचार संकलन)
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।
(बाल्मीकि, रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक १५)
और अब साभार, भरतमुनिः-
‘न वेद व्यवहारोयं संश्राव्य: शूद्रजातिषु।
तस्मात्सृजापरं वेदं पंचमं सावणार्णिकम।’             
              - भरतमुनि: नाट्यशास्त्र, 1.12
लौटते हैं, गोविंद गुंजन के सवाल पर --- तो क्या कविता भी बस प्रचार प्रेरित लगती है आपको?'
कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने को पराजित ने बताया था। पराजित की बात को कवि सुन सकता है। राजसूय यज्ञ के उपरांत बचे कोलाहल के बीच चक्रवर्त्ती सम्राट कहाँ सुन पाता है! कोसल के टिके रहने की संभावनाओं के छीज जाने के मर्म को  समझ कर कवि मगध की तरफ मुड़ जाता है। मगध पहुँचकर निराशा तब और बढ़ जाती है जब पता चलता है, यह वह मगध था जो पूरी तरह गँवाया जा चुका था! कहना न होगा कि कोसल और मगध भारत की दो मूल सत्ता परंपरा रही है। आगे और इस दिशा में आज के सत्ता परिप्रेक्ष्य को विश्लेषित किया जा सकता है। मैं विश्लेषण करूँ यहाँ तो उस में उलझ-पुलझ कर रह जाने का डर है, और फिर प भी उतने नादान तो नहीं हो सकते रहैं। क बात का संकेत करूँ, भारत की दो मूल सत्ता परंपरा अर्थात, कोसल और मगध का संबंध हमारी संस्कृति के दो मेगा टेक्स्ट रामायण और महाभारत से बहुत ही घना है। इसे डिकोड किया जा सकता है।
पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा का स्मरण कर लेना जरूरी है। शस्त्रधारी सत्ता को बरजते हुए कवि की वाणी मुखरित हुई और इसी उद्यम में लगी रही, संदर्भ आदि कवि बाल्मीकि का लें। जिन शूद्रजातिषुको वेद सुनने तक का अधिकार न रह गया था, उनके लिए ही कवि ने पंचम वेद की संभावनाओं को तलाश लाया, संदर्भ भरतमुनि का लें। पराजित की बात को सुन पाने में सक्षम काव्य परंपरा में विचलन पैदा हुआ जब कोसल हो या मगध कवि सत्ता-शस्त्र की मनोनुकूलता में कवि अपने को ढालने लगा। जाहिर है अब पराजितों की बात उसे सुनाई देना बंद होता चला गया। विजेताओं की आकांक्षाएँ उसकी वाणी का वैबव बनने लगी। हाँ, आगे लोक और वेद के बहुस्तरीय और बहुक्रियात्मक अंतस्संघर्ष का मामला आया। संत कवियों की लंबी शृँखला का सूत्रपात हुआ। कबीर आये तो तुलसीदास भी आये। कबीर और तुलसीदास पराजित की बात को अपने-अपने संदर्भ से सुन पाने में सक्षम थे। अपने समय में मिले इनको जो सामाजिक व्यवहार या तिरस्कार मिला उसने इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल को बढ़ाने में अपनी बड़ी भूमिका अदा की। इनके संदर्भों के व्यवधान और व्यवधान के अंतराल के बीच से कविता की वह परंपरा आगे बढ़त पाने लगी जिसे हम कवि केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित तिरस्कार को पुरस्कार की संभावनाओं में बदलने की प्रक्रिया से जोड़कर कुछ हद तक ही सही, समझ तो सकते हैं।
 आज कवि की हालत क्या है! तर्क वितर्क चाहे जितना कर लें। कवि अंततः नागरिक ही होता है। उसकी भी संसारी जरूरतें होती हैं। संत की आज की जमात में कबीर और तुलसीदास के लिए ही कोई जगह नहीं है। केशवदास की काव्यबोध-परंपरा में निहित पुरस्कार उसे अपनी चपेट में लेता है। कुछ कवि केशवदास की काव्यबोध-परंपरा को खाला का घर समझकर नाचते-गाते खुशी के पारावार के साथ सिंहद्वार से प्रविष्ट कर जाते हैं, अधिकतर पिछले दरवाजे की सुराख में झाँकने के संघर्ष में शामिल रह जाते हैं। होंगे अपवाद भी जो कि अनिवार्यतः होते ही हैं। इस घर देखिये या उस घर, सफल प्रचार वस्तु की तरह स्वीकृत हो जाने में ही जब आज की बन रही कविता की सार्थकता बची हुई है। ऐसे में, कविता, जिसे कविता का ओहदा हासिल है, प्रचार प्रेरित न लगे तो क्या लगे?

निस्संदेह

निस्संदेह आपके मन में प्रति जो लगाव है, वह मुझे बल देता है। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि मेरे प्रति अपने लगाव को किसी अन्य पर थोप नहीं सकते। मुझे इसका कुछ तो अनुमान था ही कि देशज के साथियों की ओर से किस तरह की प्रतिक्रिया आ सकती है। यह स्वाभाविक है। दो कारण तो तत्काल समझ में आ सकता है। पहला यह कि मैं कविता के नाम पर जो लिखता हूँ उसे कविता मानने में लोगों को स्वाभाविक संकोच होता है। संकोच मेरे मन भी कम नहीं है। यह अलग बात है कि मैं इसके अलावे और कर कुछ नहीं सकता हं। दूसरा यह कि मैं जब खुद किसी आपसदारी में शामिल नहीं होता हूँ, तो कोई अन्य बेगानी की शादी में अब्दुल्ला क्यों बने भला!
अरुण जी, सच पूछिये तो मेरे अंदर साहित्यकार बनने की योग्यता कभी अर्जित हो ही नहीं पाई, ललक रही होगी जरूर। ललक नहीं थी तो इतने दिन तक जैसे-तैसे इसमें लगा ही कैसे रह गया! अब वह ललक ढलान पर है। बहुत होगा तो क्या होगा! उन तमाम बड़े साहित्यिक लोगों के उदाहरण भरे पड़े हैं कि उनके साथ अंततः क्या सलूक हुआ और हो रहा है। कह सकते हैं कि इन बातों में छद्म आत्मसंतोष ढूढ़ रहा हूँ। जब सच से आंख मिलाने का साहस नहीं बचता है तो छद्म ही सहारा बनता है जीवन का। कहने को बहुत कुछ है,  लेकिन अभी इतना ही।
मुझे किसी से इस मुताल्लिक कोई शिकायत नहीं है। मन उन न करें। अपना लगाव बनाये रखें। देशज पर मेरी कविता को रखने के लिए आभार।

कुछ और तरह से पढ़ियेगा, ठीक! कू.....

कुछ और तरह से पढ़ियेगा, ठीक! कू.....
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चीन में कुछ और तरह से कही-सुनी जाती है, आर्यावर्त में किसी और तरह से। रेवा खंड में कुछ और तरह से तो जम्बू द्वीप में कुछ और तरह से। सब तरह में जो बात समायी रहती है मैं उस तरह से सुनाता हूँ। आप अपनी तरह से सुन लीजियेगा, ठीक!
एक आदमी था। वह अंधेरे में बैठा मन-ही-मन रो रहा था। अंधेरा घुप्प था और आदमी चुप्प था। जब कोई राह नही सूझती है, आदमी चुप नहीं चुप्प हो जाता है। ऐसी हालत को चुप्पी कहते हैं। चुप्पी की रुलाई को आदमी नहीं सुनता है, देवदूत सुना करते हैं। देवदूत कहीं आते जाते हैं नहीं, प्रकट होते हैं और प्रच्छन्न होते हैं माने छुप जाते हैं।
तो हुआ यह कि उस आदमी के सामने देवदूत प्रकट हो गये। पूछा क्या हुआ! यह लालटेन लो और आगे बढ़ो। लालटेन की रौशनी में आदमी का ललाट चमक उठा। उसने कमर कसी। अगली यात्रा शुरू की। मगर यह क्या दो-तीन कदम बढ़ाते ही फिर वही अंधेरा! वही अंधेरा और आदमी किंकर्तव्यविमूढ़! देवदूत ने इशारा किया कि लालटेन हाथ में लो और आगे बढ़ो। लालटेन को साथ लेकर आगे बढ़ोगे तो रौशनी साथ रहेगी और राह रौशन।
आदमी मुश्किल में पड़ गया। लालटेन हाथ में उठाये तो पैर न उठा पाये। पैर उठाये तो लालटेन न उठे। यह सब दो-तीन टर्म तो ऐसे ही गुजर गया। टर्म समझते हैं न, जी टर्म। बिहार में बुद्ध ने कहा था अपना दीपक आप बनो। अपना दीपक बनना ही मुश्किल था। अपना लालटेन आदमी अपने बने तो कैसे!
तो दुविधा में आदमी करे तो क्या करे!  दुविधा यह कि बिना लालटेन उठाये चलो, तो बस दो-तीन कदम! आदमी को दूर जाने की तमन्ना सताने लगी। उसने तरकीब निकाली। तरकीब कि लालटेन बोलते रहो चलते रहो। पूरा कुनबा चल पड़ा। हर किसी के पास यकीन था कि उनमें से किसी-न-किसी के पास से जरूर निकलेगी कोई-न-कोई लालटेन। हुआ वही जिसका डर था। खाली लालटेन,  लालटेन बोलते रहने से कहीं लालटेन का साथ मिलता है! और अब तो हाथ भी हाथ न रहा, तेरा मेरा साथ न रहा की नौबत आ गयी। बात यह है कि मिट्टी हो चुकी देह पास-पास होती भी है तो एक-दूसरे के साथ नहीं होती है।  अब और बात आगे बढ़ाने से क्या फायदा!  हाँ फिर याद दिलाता हूँ मैंने कहानी एक तरह से कही, आप एक और तरह से सुनें। ध्यान रहे, कहानी कह तो मुर्दा भी सकता है, लेकिन सुन सिर्फ  जिंदा ही सकता है! हमारे इलाके में मुर्दा के कान में लोग चिल्लाकर कहते हैं-- कू...! सुना तो जिंदा, नहीं सुना तो राम न सत्त! कू.....