नैतिक निस्संगता
और आंतरिक भुरभुरापन से
मुल्क के ईंधन
बन जाने की त्रासद कथा
स्वयं प्रकाश जी हमारे समय के प्रसिद्ध एवं
स्वंयसिद्ध हिंदी साहित्यकार हैं। उनके लेखन का महत्त्व कई दृष्टियों से है। उनका
उपन्यास ईंधन, एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। 2004 में ईंधन का प्रथम संस्करण आया।
हिंदी में प्रकाशन की प्रक्रिया और परिस्थितियों को देखते माना जा जा सकता है कि
इसका लेखन पिछली सदी में संपन्न हुआ होगा। इसकी कथा वस्तु का आधार पिछली सदी के
संदर्भों से बना होगा। यह सब अनुमान का विषय है। प्रकाशन के इतने वर्षों के बाद
इसकी समीक्षा की क्या जरूरत है! इससे
पाठकों की कौन-सी जरूरत पूरी हो सकती है!
खासकर
जब हम दशकों में सोचने-विचारने के अभ्यस्त हो गये हैं। प्रत्येक पीढ़ी दस साल में
बदल जाती है। यह पीढ़ी बदलाव निरंतर होता रहता है। तकनीकी विकास की तीव्रता का तो
हाल यह है कि, आज सामने आई तकनीक कल पुरानी हो जाती है, अभी की चीज अभी-की-अभी
पुरानी हो जाती है। युग परिवर्तन का जो लक्षण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संकेतित
किया, बात उससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। वास्तविक विकल्प भले ही उतने नहीं हों,
आभासी विकल्पों की भरमार-सी लग गई है। उपलब्ध वास्तविक विकल्पों और आकांक्षित
आभासी विकल्पों के स्वरूप तथा मिजाज से भी नई-नई मनोवृत्तियों, अभिरुचियों,
रोजी-रोजगार, काम-संतुष्टि के अवसर और मनोरंजन के तौर-तरीकों, खेल,
कला-संस्कृतियों, सिनेमा, साहित्य की
विलक्षण अभिव्यक्तियों की सूक्ष्मता में भी भारी बदलाव आया है। आर्थिक गतिविधियों,
सामाजिक संदर्भों, स्वीकरण और निरसन की प्राथमिकताओं के मिजाज साथ ही पठन-पाठन की
पद्धतियों में भी बहुत अंतर आया है। वेश-भूषा, साज-सज्जा के विन्यास को सहज ही
लक्षित किया जा सकता है। चालाकियों, धुर्त्तताओं और मूर्खताओं में भी अंतर आया है।
ईंधन की स्निग्धताओं और रोहितों के सारे प्रसंग आज बदल गये हैं। तो फिर इसके
प्रकाशन के इतने वर्षों के बाद इसकी समीक्षा की क्या जरूरत है! सामान्य,
सरल शब्दों में कहें तो आज इसकी समीक्षा का कोई खास औचित्य नहीं है। जहाँ, समीक्षा
की जरूरत नहीं है, वहीं आलोचना की बहुत अधिक जरूरत है। कायदे से यहाँ समीक्षा और आलोचना
के तात्त्विक अंतर को स्पष्ट किया जाना जरूरी है। हालाँकि इस अंतर को स्पष्ट करने
के लिए यहाँ बहुत अवकाश नहीं है। इस पर बहुत सारी बातें पहले भी होती रही है।
शास्त्रीय विवेचन के उलझाव-सुलझाव का प्रयास न भी किया जाये तो भी इतना टाँक रखना
जरूरी है कि समीक्षा मूलतः समीक्ष्य कृति के रचनाकाल और रचनाशीलता को देखते हुए
तथा तत्कालीन धूल-धुआँ से निकालकर रचना के विविध पक्षीय महत्व को आँकने का काम
करती है। आलोचना का मूल दायित्व सभ्यता विकास के साथ संवाद कर सकने और उसकी दिशाओं
तथा दशाओं को समझने में रचना के उपयोगी हने के महत्व को देखने व आँकने का प्रयास
करना है। कहना न होगा कि समीक्षा रचना प्रकाशन के साथ-ही-साथ किया जाना जरूरी होता
है ताकि वह पाठक, सर्वजन या तत्कालीन नागरिक जमात की नजरों से ओझल न रह जाये।
आलोचना का काम रचना के पूरे परिप्रेक्ष्य के, कम-से-कम एक स्तर पर, थिर हो जाने के
बाद ही शुरू होता है। आलोचना का मौलिक काम पाठकों के परिप्रेक्ष्य को सही करते
हुए, सभ्यता विकास के बहुविध अध्ययन के परिप्रेक्ष्य से जोड़कर ज्ञान और रस की
बहुआयामिता में परखना और संयोजित करना। समकालीनता का दबाव या कह लें धूल-धुआँ का
असर समीक्षकों पर कुछ ज्यादा पड़ता है। असर तो आलोचकों पर भी पड़ता है, लेकिन इन
से बचने का कुछ अधिक अवसर आलोचक को सुलभ होता है। हालाँकि यह समाज का और इसलिए
साहित्य का भी, अनालोचन काल है फिर भी यहाँ, स्वयं प्रकाश के उपन्यास ईँधन को
आलोचना की नजर से देखने की जरूरी कोशिश की गई है। फिर कहें यह समय अनालोच्य है। दृष्टि
की निकृष्टता कहती है तत्काल समीक्षा के रूप में विज्ञापन, रचना के प्रचार का
जितना महत्व है उसकी तुलना में आलोचना तुच्छ ही समझी जा सकती है; साँप
के गुजर जाने या रस्सी घसीट लिये जाने के बाद उसकी लकीर की निशानदेही की तरह। यह
समझना चाहिए की लकीर की दशा-दिशा के अध्ययन और विश्लेषण के महत्व को न समझा जायेगा
तो पुरातात्विक अध्ययन का ही क्या महत्त्व रह जायेगा। स्निग्धताओं और रोहितों के
सारे प्रसंग आज भले ही बदल भी गये हों तो क्या!
बेटू का सवाल बदला नहीं है,
हाँ
बदली है सवाल की तीव्रता, सवाल की भयावहता और सवाल का दायरा इसलिए जरूरी है ईंधन
की आलोचना।
रोहित ने
स्निग्धा को बहुत सारा कुछ सिखाया।
और इस बात के
लिए स्निग्धा ने रोहित को कभी माफ नहीं किया।
स्निग्धा और रोहित के माध्यम से जो जीवन
दर्शन सामने आता है, वह पिछली सदी में जितना जीवंत था उससे जीवंत इस सदी के चौथे
दशक में भी प्रयोज्य तथा प्रचलित है। दी गई, जीवन स्थिति में हर किसी को जीना होता
है। जीवन यापन की पद्धतियों और शर्तों के अनुसार ही जीवन का सलीका विकसित होता है
और फिर उसी तर्ज पर जीवन दर्शन भी आकार पाता है। रोहित ने ऐसा क्या कुछ स्निग्धा
को सिखाया जिस बात के लिए उसने कभी उसको माफ नहीं किया! कोई
कुछ भी सिखाये तो वह गुरु का दर्जा हासिल कर लेता है और इसके लिए सीखनेवाला
कृतज्ञता बोध से भर जाता है। यहाँ परिस्थिति विपरीत है तो इसके अंदर जाना होगा। यह
अंदर की बात है। जानना होगा कि रोहित स्निग्धा को क्या सिखा रहा था! वह
सिखा रहा था निम्न-वर्गीय घरेलू काम जो महिलाएँ घर में पारंपरिक तौर पर करती आई
हैं, और जिन घरेलू काम को करने में पुरुषों की दिलचस्पी कम होती है, जानकारी भी कम
होती है। यहाँ, उलटी स्थिति है। रोहित अपनी पारंपरिक भूमिका में लौटने की कोशिश
करता है, इसके लिए जरूरी है कि स्निग्धा को भी अपनी पारंपरिक भूमिका में लौटना
होगा। जाहिर है, स्निग्धा को यह पसंद नहीं आया होगा और रोहित ने ठीक भी ही महसूस
किया होगा कि स्निग्धा ने इसके लिए उसे कभी माफ नहीं किया। आज, इस समय घरेलू कार्य
के बदले संदर्भों पर गौर करें तो कई बदलाव नजर आयेंगे। शहरी घरों में रसोई की
बनावट और रसोई में व्यवहार में लाये जानेवाले उपकरणों में भी बदलाव आया है।
खान-पान में भी अंतर आया है। अंतर पहले भी था, वर्गगत अंतर। स्निग्धा और रोहित की
जीवन शैली में वर्गगत अंतर भी है, जो पसंद-नापसंद आदि में दिखता था। यहाँ का खाना
स्निग्धा की पसंद का नहीं था। क्या
खाना था?
यह किस तरह का खाना? स्निग्धा वैसे भी रसोई या घरेलू काम से
कभी जुड़ी नहीं रही। रोहित उसे सबकुछ धैर्यपूर्वक सिखाने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन स्निग्धा के मन में चल क्या रहा था!
यह
कि क्या
यही सब सीखने की तमन्ना लेकर वह इस घर में आई थी? क्या कोई भी लड़की शादी के बाद मां-बाप का घर छोड़कर यही सब सीखने ससुराल
आती है? इस तरह कदम-कदम पर जलील होना, पल-पल
दोषी ठहराया जाना। घड़ी घड़ी, छोटी छोटी चीजों के लिए तरसना
और एक तरह का अदृश्य पर निरंतर हिंसा और रक्तपात झेलना! उसे अपने
पापा की याद आती है। पापा का घर ही क्या बुरा था? क्यों क्यों लड़कियों अपने मायके में याद करके
रोती हैं बुढ़ापे तक। स्निग्धा को अब बाप के राज का मतलब समझ में आ रहा था। स्निग्धा
हमेशा कुढ़ती रहती थी कि क्या-क्या करना पड़ेगा उसे रोहित के घर को अपना घर बनाने
के लिए। बाप का घर और उस घर को भूलने में कितने बरस लगेंगे। उसे घर की चिंता है।
लेकिन पापा के घर को भूल जाने के साहस का अभाव उस में है। उसका मन यह सोचकर सिहर
जाता है कि जीवन भर ऐसे ही फटीचर परिस्थितियों में बदहवास की तरह रहना होगा। उसे
चिंता है कि क्या घर के इसी माहौल में अपने
बच्चे को जन्म देगी? इसी माहौल में उसके बच्चे शिक्षा
प्राप्त करेंगे! स्निग्धा को रोहित के घर के माहौल की चिंता
सताती है, घर के बहर के माहौल की कोई खबर ही नहीं है। वह निराश होकर रोहित के बारे
में सोचती है कि एक बार ताकत लगाकर रोहित अपने वर्ग से ऊपर क्यों नहीं उठ जाता! लेकिन उसमें इस आत्मविश्वास का अभाव है कि वह रोहित में ऊपर उठने की
इच्छा कभी वह जगा पायेगी। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचने लगी कि ऐसे नहीं चलेगा
समस्याओं का समाधान उसे ही करना होगा। समाधान करना होगा लेकिन उसे तो यह भी पता
नहीं कि रोहित की तनख्वाह कितनी है! गौर से देखें तो यही वह
दौर था जब रोहित के घर के माहौल में बदलाव की ही नहीं, विश्व-व्यवस्था में भी बदलाव
की बयार आँधी बनने की तैयारी में थी। उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) सभी के
मन में बेहतर जीवन-स्तर की नयी-नयी संभावनाओं के लोभ और स्वप्न के आयातित पौधे को
रोप-सींच रहा था। ऐसे में स्निग्धा की तरह सभी गृहणी मोर्चा सम्हालने के लिए तत्पर
हो रही थी। अपने-अपने रोहितों के बारे में सोच रही थी कि एक बार ताकत लगाकर उनका
रोहित अपने वर्ग से ऊपर क्यों नहीं उठ जाता!
भारत नये
बदलाव के स्वागत की आंतरिक और अवचेतन आकांक्षा से लबाब था। हर किसी को संभावनाओं
के चमकीले दाने दिख रहे थे, पसरे हुए आशंकित जाल की रस्सी और रस्सी की गाँठ नहीं
दिख रही थी। भारत की स्थिति पर गौर करने से यह बात बिल्कुल साफ दिख सकती थी कि
भारत विविधताओं, बहुलताओं से समृद्ध ही नहीं बल्कि विभिन्न स्तर एवं प्रकार की
विषमताओं से ग्रस्त एवं अंदर से विखंडित भी रहा है। इसका अंतर्मन स्पर्श-कातर गाँठों
और हमेशा टीसती रहनेवाली रसौलियाँ से भी पीड़ित रहा है। इसकी भुरभुरी सामाजिक
संरचनाओं और उसकी परंपराओं में विषमताओं, गाँठों और रसौलियों की सक्रियताओं में
कोई कमी नहीं हो पाई थी। आजादी के आंदोलन के दौरान आकांक्षित मूल्यबोध और ज्ञानोदय
एवं आधुनिकता की आयातित नैतिकता जीवनबोध का जीवंत हिस्सा नहीं बन पाई थी। औद्योगिक
क्रांति के साथ दुनिया में जब राष्ट्रवाद आकार पा रहा था तब भी भारत में
राष्ट्रवाद उस रूप में गठित नहीं हो पा रहा था। भारत में ‘हम’ और ’अन्य’ के इतने सारे ऐतिहासिक, आर्थिक, क्षेत्रीय, धार्मिक, जातिवादी, आनुवंशिक
आदि के संदर्भ थे कि राष्ट्रवाद का विकास असंभव था। जानकारों ने माना कि भारत कभी एक
राष्ट्र नहीं रहा है और राष्ट्रवाद से अधिक जरूरी एवं उपयोगी है, मानवदाद। विडंबना
यह कि दुनिया में जब राष्ट्रवाद का दबदबा था तब भारत विश्व-मानववाद की तरफ बढ़ने की
कोशिश कर रहा था, लेकिन जब दुनिया में बहुराष्ट्रवाद या अधिराष्ट्रवाद
(ट्रांसनेशनलिज्म) का उभार आया तो इसके साथ भारत में राष्ट्रवाद, धर्म-आधारित
राष्ट्रवाद, बहु-सूत्रीय नहीं एक-सूत्रीय राष्ट्रवाद का ज्वार उठ रहा था। विडंबना
यह भी कि यह राष्ट्रवाद राष्ट्रवासियों में ‘हम’ और ’अन्य’ के दलदल से बाहर
निकलकर एक होने की गुहार नहीं लगाता है। इस बार जो राष्ट्रवाद का ज्वार उठा उसके
अंदर धर्म-आधारित ‘हम’ और ’अन्य’ की भावना को पहले की अपेक्षा अधिक तीव्र और
तीखा बनाने के दर्प और उन्माद के साथ आगे बढ़ने के नाम पर पीछे ले जाने का प्रपंच
साफ दिख रहा था। ‘अयं बन्धुरयं’ और
‘नेति गणना’ करनेवाली ‘लघुचेतना’ का प्रभाव विस्तृत हो रहा था। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के लिए आवश्यक ‘उदार चरित’ पर
‘लघुचेतना’ का ग्रहण लग गया था।
हालाँकि, “अयं बन्धुरयं नेति गणना लघु चेतसाम। उदार चरितानां
तु वसुधैव कुटुम्बकम।” संसद के प्रवेश कक्ष में यथावत अंकित था,
फिर भी ‘बन्धुरयं’ की गणना सत्ता की
मूल प्रेरणा बन गई; अ-पारदर्शी प्रभुओं के नेतृत्व में
पारदर्शिता और स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा को नष्ट करनेवाला ‘क्रोनी
कैपिटलिज्म’ (साथ-गाँठवाला सत्ता-सहचर पूँजीवाद) जोर पकड़
रहा था। जन समर्थित जनतंत्र को पूँजी-प्रायोजित जनतंत्र अवहेलित और विस्थापित करने
लगा था। धर्म के बारे में महाभारतीय संशय की कोई अब गुंजाइश नहीं बची थी। यह सब
अद्भुत था, अपूर्व था। इन्हीं अद्भुत, अपूर्व परिस्थितियों में रोहित अपने विकास
की संभावनाओं की तलाश कर रहा था। इस तलाश में जो हासिल हो रहा था उसे पकड़ने
टिकाये रखने की कोशिश में स्निग्धा का साथ छूटते जाने, बेटू के हाथ से निकलते चले
जाने, यानी अगली पीढ़ी और आवाम के ‘ईंधन’ में बदलते जाने की आशंकाओं का अ-दृश्य घटाटोप आकार पा रहा था।
‘धम्म’ और ‘धर्म’ के अंतर पर फिर कभी
बात की जा सकती है, लेकिन कबीर! कबीर के पास जाना जरूरी है। कबीर
जब धर्म की बात करते थे, तब क्या कहते थे, स्वयं प्रकाश के इस उपन्यास को जानने की
दृष्टि से कदाचित प्रासंगिक है, कि क्यों आवाम ‘ईंधन’ में बदल रहा था। कुछेक विद्वान लोगों ने कबीर साहित्य में धर्म शब्द के इस्तेमाल की गिनती भी की और वे
निराश हुए। उन्हें कहीं भी कबीर के साहित्य में धर्म शब्द का सीधा उल्लेख नहीं
मिला। सच तो यह है कि भक्ति धर्म का विस्तार नहीं विकल्प बनकर उपस्थित हुई थी। यहाँ
यह ध्यान दिलाना जरूरी है कि भक्ति के बोध में सूफी तत्व समाहित है। बहरहाल, कबीर
के साहित्य में धर्म शब्द को तलाशना और उसकी व्याख्या करना अपने आप में बौद्धिक
धोखे की ओर बढ़ना है। साहित्य में धर्म की खोज करना शरीर में उसके आत्मा की खोज
करने जैसा हो सकता है। हाँ, देखना यह जरूरी होगा कि किसी साहित्य में स्वतः
समाविष्ट धर्म का स्वरूप और चरित किस तरह लोक-हितैषी, या फिर लोक-विरोधी है। साहित्य
में स्वतः समाविष्ट धर्म की अवधारणा में किसी मतिभ्रम की गुंजाइश नहीं होनी चाहिए।
साहित्य में सच और सपना नीर-क्षीर के मिश्रण की तरह होता है। सपना माने झूठ?
नहीं। वैसे, यशपाल को याद करें तो झूठ साहित्य में सच का विशेषण
बनकर आता है, याद है न झूठा सच! सपना में जो होता है उसका सपना के बाहर में कोई तार्किक अस्तित्व नहीं
होता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल ने प्रेम की
अकथ कहानी के प्रसंग में कबीर से भारतीय आधुनिकता की शुरुआत को ठीक ही लक्षित किया
है। भारत में आधुनिकता की शुरुआत को कबीर से जोड़ा जा सकता है। मैंने कई जगह
भारतीय पुनर्जागरण का आरंभ विद्यापति से माने जाने का प्रस्ताव किया है। आधुनिकता
पीठिका के रूप में पुनर्जागरण का होना, ऐतिहासिक समझ और तार्किक संगति से समर्थित
माना जाना चाहिए। बहरहाल, भारतीय आधुनिकता और
भारतीय पुनर्जागरण का रूप-तत्व ग्रामाभिमुखी था। यूरोपीय आधुनिकता और पुनर्जागरण का
रूप-तत्व नगर-केंद्रित था। यूरोपीय आधुनिकता एवं पुनर्जागरण से भारतीय आधुनिकता
एवं पुनर्जागरण के भिन्न होने को नैसर्गिक और सहज माना जाना चाहिए। यूरोप की
आधुनिकता में ईसाई-मूल्य श्रृँखला की दार्शनिक बुनियाद, बौद्धिक विवेक का आग्रह और ज्ञानोदयी आकांक्षा प्रेरिका शक्ति के रूप में सक्रिय
थी। भारतीय आधुनिकता की बुनियाद में आडंबर
मुक्त भक्ति-तत्व की आध्यात्मिक आकांक्षा, निर्विशिष्ट सामाजिक-समता का आग्रह,
निर्वैर जीवन-व्यवहार और सबसे ऊपर मानुस के होने का बोध सक्रिय था। यूरोपीय आधुनिकता और भारतीय आधुनिकता अर्थात
आधुनिकता के इन दोनो संस्करणों के अपने क्रम और विक्रम हैं। इन्हें एक दूसरे की
कसौटी के आधार पर कमतर या बेहतर मानने में अतुल्यों के बीच तुल्य-दोष है। यूरोपीय आधुनिकता
और भारतीय आधुनिकता अर्थात आधुनिकता के इन दोनो संस्करणों का आकाश तो लगभग एक ही था,
लेकिन जमीन बहुत ही भिन्न थी। भारतीय आधुनिकता
की जमीन प्रत्यक्षतः दो कारणों से कठिन थी। एक कारण की ज़ड तो भारत के बहुलात्मक
गठन की पारंपरिकता में थी और दूसरे की जड़ औपनिवेशिक विडंबनाओं में थी। यहाँ संकेत करना प्रासंगिक है कि वैकल्पिक
आधुनिकताओं पर हुए अध्ययनों एवं निष्कर्षों को अलग से देखा जाना जरूरी हो सकता है।
भारत के
स्वाधीनता आंदोलन की बुनियादी बातों को याद कर लेना अप्रासंगिक न होगा। भारत के
स्वाधीनता आंदोलन को अन-उपनिवेशन, ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेश से बाहर निकलने की
प्रक्रिया के रूप में देखा जा सकता है। आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक अन-उपनिवेशन का
आग्रह तो प्रबल था ही, सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन का आग्रह भी कम प्रबल
नहीं था। सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया में भारतीय आधुनिकताबोध
और यूरोपीय आधुनिकताबोध का अंतर्विरोध था। स्वाधीनता आंदोलन में तीव्रता के साथ ही
आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक अन-उपनिवेशन का आग्रह मुखर और प्रबल होता गया जबकि सांस्कृतिक
और बौद्धिक अन-उपनिवेशन का आग्रह निःशब्द और कमजोर पड़ता गया। स्वाधीनता आंदोलन की
तीव्रता के दौर में भी सपनों में लुकझुक करती आदर्श राज्य-व्यवस्था के रूप में
ब्रिटेन ही था, विडंबना ही है कि उपनिवेशित के अन-उपनिवेशन की आकांक्षा में
उपनिवेशक ही आदर्श था। महात्मा गाँधी के ग्राम-स्वराज्य/ ग्राम-स्वराज के अनुसरण
से अधिक आकर्षण ब्रिटिश-राज्य/ ब्रिटिश-राज के अनुकरण में था। इसका एक बड़ा कारण
अन-उपनिवेशन की प्रेरणा का गुणसूत्र उपनिवेशक से जुड़ा था। जवाहरलाल नेहरू के
नेतृत्व में वाम-प्रगतिशीलता के वर्चस्व के कारण भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक
अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया उपनिवेशक की सांस्कृतिक और बौद्धिक परियोजना की अधीनस्थ
बनकर रह गई। भारत में आंतरिक उपनिवेश भी कोई कम भयावह नहीं था। इस उपनिवेश की
बेड़ियों को उतार फेकने की आकांक्षा भक्ति काल की सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना में
थी। बाबा साहब आंतरिक उपनिवेश की कड़ियों को बाह्य-उपनिवेशक की राजनीतिक, सांस्कृतिक
और बौद्धिक परियोजना के बल पर उतार फेकने के प्रति आश्वस्त थे। साफ-साफ कहना जरूरी
है कि भारत के सांस्कृतिक और बौद्धिक अन-उपनिवेशन की प्रक्रिया में उपनिवेशक की सांस्कृतिक
और बौद्धिक परियोजना की अधीनस्थता से बाहर निकलने की कोशिशें न सिर्फ जारी रही बल्कि
निरंतर तीव्र एवं विकृत होती गई। इस तीव्रता में संस्कृति को धर्म ने विस्थापित कर
दिया।
आधुनिकता के
भारतीय और यूरोपीय संस्करणों के संघर्ष में धर्म के जुड़ने से राजनीतिक प्रक्रियाओं
का अगला दौर सामने आया। कई कारणों से इसके
सकारात्मक और अग्रगामी कारक छूटते चले गये और कतिपय नकारात्मक और पश्चगामी
कारक प्रभावशाली होते चले गये। इसका कारण यह भी है कि धर्म पीछे से अपना प्रमाण
प्राप्त करता है, सभ्यता आगे से अपनी प्राण-
शक्ति प्राप्त करती है। कहना ही होगा कि
कम-से-कम भारत के संदर्भ में उत्तर आधुनिकता या तो इतर आधुनिकता या फिर आधुनिकता
पूर्व के रूप में प्रकट होकर राजनीति के लिए ईंधन जुटाने में अपनी भूमिका अदा करने
लगी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने उपन्यास ‘अनामदास का पोथा’ में अंगुलि-निर्देश की चर्चा की
है। कोई अंगुलि-निर्देश करे तो उस दिशा के नफा-नुकसान को समझते हुए आगे बढ़ना
सयानो का काम होता है, न कि अंगुली पकड़कर कर लटक जाना। साहित्य तो अंगुलि-निर्देश
ही कर सकता है। स्वयं प्रकाश के इस उपन्यास को इसी संदर्भ में समझा जा सकता है। समझा
जा सकता है, लेकिन साहित्य का पाठक प्राथमिक तौर पर साहिय के पास समझ या ज्ञान के
लिए नहीं, रस और आनंद के लिए आता है, पात्रों से जुड़कर खुद को निर्विशिष्ट रूप
में खोने-पाने के लिए आता है, इसके लिए रोहित तथा स्निग्धा के जीवन-प्रसंग में
जाना होगा।
रोहित
और स्निग्धा की जीवन शैली में काफी अंतर है। इस अंतर को ध्यान से देखें तो इस में
आदमी और आदमी का अंतर दिखता है। स्निग्धा जहां पूरी तरह से आधुनिकता की जीवन शैली
यानी कि यूरोपीय जीवन पद्धति पर यकीन करती थी, यूरोपीय जीवन पद्धति ही उसे आकृष्ट
करती थी। वहीं रोहित इस बात को बिल्कुल ही सही नहीं मानता था। रोहित भारतीय शैली
में अपनी जीवन पद्धति को सुगठित करना चाहता था। रोहित और स्निग्धा के मामले में यह
गौर करने लायक बात है कि इन मुद्दों पर उन में पारस्परिक भिन्नता थी और यह भिन्नता
उनके मन को मथती रहती थी। अचानक बने संबंध के बावजूद दोनों की जीवन गति बिल्कुल
भिन्न में दिशाओं में जा रही थी। भिन्न-भिन्न दिशाओं में कुछ दूर जाकर भी दोनों अपनी
संबंध भूमि पर लौट आते थे। रोहित कहता कि अंगुलियों से, हाथ से खाने में क्या
बुराई है!
अपना हाथ खाना खाने से पहले हम तीन बार साबुन से धो सकते हैं, जबकि काँटा जाने किस किस के मुंह में घुसकर आया होता है। काँटा कभी
अंगुलियों जितना साफ हो ही नहीं सकता। अंगुलियाँ भोजन को छूते ही उसके तापमान की
सूचना आपको दे देती है। देखना कल को पश्चिम के लोग भी हाथ से खाना खाने के महत्व
को समझेंगे। रोहित भिन्न धरातल पर जिंदगी जी रहा था। रोहित को लगता था कि उसे सभ्य
बनाए जाने की कोशिश की जा रही है। पालतू बनाया जा रहा है। भद्र समाज के अनुकूल
ढालने की कोशिश की जा रही है। सफलता की गगनचुंबी दिशा में प्रक्षेपित किया जा रहा
है। रोहित और स्निग्धा में सफलता की कामना के औचित्य पर कोई विवाद नहीं था। जीवन
लक्ष्य के बारे में और जीने के अर्थ के बारे में कोई संदेह नहीं था। सब कुछ स्पष्ट
था। रोहित की आत्मा रहन-सहन के वैश्विक रूप से मान्यता प्राप्त तरीके को एक मात्र
सही तरीका मानने को तैयार नहीं थी। इस मसले पर बहस करता था। शांति से और विस्तार
से अपने विचार व्यक्त कर सकता था, लेकिन उसका विचार सुनता कौन? बहस तो व्यक्ति से की जा सकती है! बहस ऑब्जेक्ट्स
से नहीं की जा सकती। एक ऐसा माहौल बन गया था कि हर कोई, दूसरे के लिए ‘ऑब्जेक्ट्स’ बनता जा रहा था। विडंबना यह कि संवाद
साधनों की बढ़ती प्रचूरता के साथ ही संवादहीनता का माहौल अधिक गहराता जा रहा था।
लोग अपनी-अपनी वास्विक कंटीली जीवन स्थिति से पलायन करके अपने-अपने सपनीले एवं
सुकुमार आभासी धरातल पर मनसा संचरण के नये उलझावों में फँसते जा रहे थे। ऐसे में
संवाद! संवाद की संभावनाएँ तिरोहित होती जा राही थी। तिरोहित
संभावाओं के बावजूद रोहित इन तमाम मसलों पर स्निग्धा से बात करना चाहता था, लेकिन
दोनों के धरातल पर अलग-अलग तरह के मसले थे। दोनों का जीवन एक धरातल पर आ ही नहीं
पा रहा था। यहां तक कि उनके सोने के लिए भी एक समान धरातल नहीं था। न सोने का
धरातल एक था, न सपनों का धरातल एक था। माहौल ऐसा कि सपना में कोई अपना शामिल नहीं हो
पा रहा था।
स्निग्धा
को धीरे-धीरे रोहित से चीढ़ सी होने लगी थी। उसके काम करने के तरीके से, यहां तक
कि उसके खर्राटे से। उसके हर प्रकार की, पूरी की पूरी जीवन शैली से स्निग्धा को
चिंता हो रही थी। स्निग्धा अपने को एडजस्ट नहीं कर पा रही थी। रोहित के टेस्ट को
लेकर भी उसके मन में काफी दिक्कत थी। कोई गरीब है इसमें उसका कोई कसूर नहीं हो
सकता है, लेकिन गरीबी को ग्लोरीफाई क्यों किया जाए! गरीबी है तो
एक अभिशाप उससे नफरत की जानी चाहिए। उसे मिटाने के लिए परिश्रम किया जाना चाहिए।
रोहित को लगता है कि जिंदगी एक संघर्ष है। असल में रोहित जिस जिंदगी को जीना चाहता
था वह जिंदगी एक भिन्न प्रकार की जिंदगी थी, जो अपने चरित में पारंपरिक भारतीय
ग्रामीण जिंदगी थी। स्निग्धा की समस्या थी कि शादी के काफी दिनों बाद तक उसे यह
पता नहीं था कि रोहित को कितनी तनखा मिलती है। कैश मिलती है या बैंक में चली जाती
है! उसका खाता किस बैंक में है? क्या
नंबर है? अकेले का खाता है जॉइंट अकाउंट है? नॉमिनी की जगह उसने किसी का नाम लिखवाया भी है या नहीं? यदि हां तो किसका? रोहित उसे नहीं बताता था। इसके
दो ही कारण हो सकते थे या तो उसकी तनख्वाह इतनी कम थी कि उसे बताने में भी शर्म
आती थी या उसके अनुमान से इतनी ज्यादा कि सोचता होगा बता देगा तो सारा पैसा खर्च
कर देगी। इन सब बातों पर स्निग्धा का मन लटका रहता था। वह हमेशा नए जमाने की बात
करती थी।
स्निग्धा
अपने जीवन में पहली नौकरी पर जब जाती है तो उसे कई तरह की परेशानियों का सामना
करना पड़ता है। स्कूल की स्थिति यह रहती है कि उसमें न तो कोई ढंग का बाथरूम होता
है और ना किसी प्रकार का वास्तविक वातावरण होता है। स्कूल का पूरा इकोसिस्टोम जैसे
डिस्टर्ब रहता है। हद तो तब होती है जब तनख्वाह की बारी आती है। ढाई हजार पर साइन
कराए जाते हैं, एक हजार दिए
जाते हैं। अड़ जाने पर ढाई हजार देकर नौकरी समाप्त कर दी जाती है। स्निग्धा के मन
में जो सवाल उठता है, ईमानदारी से एक सामान्य जीवन जीने के लिए हम कहां जाएं! यह इस सभ्यता का सबसे बड़ा सवाल है कि ईमानदारी से एक सामान्य जीवन के
लिए कोई कहां जाए?
रोहित और स्निग्धा में मंदिर भगवान देवी देवताओं को लेकर भी बहस होती है।
रोहित के पास अपने धर्म होते हैं। स्निग्धा के पास अपने। रोहित इस बात को ऐसे लगता
है कि कॉमन सेंस रखने के लिए धर्म का होना जरूरी थोड़े ही है! हजारों लोग हैं जो देवी देवताओं को नहीं मानते मंदिर नहीं जाते।
स्निग्धा के पापा सोचते हैं, आदमी के पास पैसा नहीं होता है, तो वह पैसे
के पीछे पड़ जाता है। पैसा कमाने के पीछे सब कुछ भूल जाता है बीवी बच्चे घर परिवार
को, हँसना खेलना सब, यहां तक कि खुद को भी। जब इस तरह सब कुछ खोकर खूब पैसा कमा
लिया जाता है तो समझ में ही नहीं आता इस पैसे का और अधिक पैसा बनाने के अलावा क्या
उपयोग किया जा सकता है!
रोहित
को पूरी तरह बदल दिया, कायाकल्प कर दिया मुंबई ने। रोहित को वह सपना देखना सिखा दिया मुंबई ने
जिसे वह अब तक नीची नजर से देखता था। छ महीने के अंदर ही मुंबई के जीवन में ऐसे
रंग गया जैसे पानी में मछली, खासकर महिलाओं के बारे में तो उसकी सोच ही बदल गई।
रोहित अपने को परंपरा पोषित परिस्थिति पुत्र भी मानता था। अर्थात, आदमी कमा कर
लाता है और औरत उड़ाती है। आदमी खटता है और
औरत खिलाती है। आदमी जुटाता है और औरत बनाती है। आदमी पाता है औरत पालती है। आदमी
चलाता है औरत चलती है। इसी तरह की होती है दुनिया। रोहित ने महिला के साथ काम नहीं
किया था। कामकाजी स्त्रियाँ डॉक्टर, नर्स, अध्यापिकाएँ, धोबन, मेहतरानी, मालन आदि
पहले भी देखी थी। लेकिन, पहली बार एक संपूर्ण-सहज-स्वाभाविक मानवीय ईकाई के रूप
में अब देखी। जिन से बात-चीत, हँसी-मजाक किया जा सकता था लेकिन जो हर समय उसकी
चेतना पर लदी नहीं रहती। जैसे और वैसे वे भी। मुंबई के गरीब भी रोहित के शहर के
गरीबों की तुलना में अमीर नहीं तो काफी कम गरीब व्यक्ति थे। रोहित को लगता था
मुंबई में अर्थशास्त्र अपने सबसे मुखर रूप में गतिशील था। उसकी हर परत, उसका हर
खेल, उसका हर जलवा मुंबई में सरे आम नुमाया था। मुंबई में ऐसे लोग भी थे जो एक
वक्त में हजार रुपया का खाना खाते थे, बीस हजार की पोशाक पहनते थे, पचास हजार की
घड़ी बाँधते थे, पाँच लाख की कार में बैठते थे, करोड़ों का धंधा करके अरबों का
ख्वाब देखते थे। तो ऐसे भी थे जो नौ हजार में गुजर-बसर करते थे – जैसे कि खुद
रोहित। लेकिन मुंबई ने उसे सपना देखना सिखला दिया।
एक
महत्वपूर्ण संदर्भ स्निग्धा के गर्भवती होने से जुड़ा हुआ है। इस बच्चे का क्या
किया जाए?
स्निग्धा इस समय में बच्चा नहीं चाहती थी। और इसके लिए वह न तो अपने
पति से सलाह कर सकती थी और न पिता से। इन परिस्थितियों में, धीरे-धीरे तुषार को
उसने अपना राजदार बनाना शुरू कर दिया। तुषार जो रिश्तों की गहराई में लगभग मौन था,
लेकिन वह स्निग्धा के पिता का भी राजदार था और स्निग्धा का भी। बेटू से भी उसका
रिश्ता बहुत करीबी था, उसके गर्भ में आने से लेकर उसके भस्म हो जाने के बाद तक।
स्निग्धा, उसके पापा और बेटू के बीच तुषार उनके रिश्तों का चौथा आयाम था। बेटू के
गर्भ में आने से बहुत ही दुविधा में थी स्निग्धा। गर्भावस्था का तीसरा महीना था जब
रोहित आया। रोहित बदला नहीं था, लेकिन रोहित के प्रति लोगों का व्यवहार जरूर बदल
गया था। यह बदलाव उसने पापा के व्यवहार में भी देखी। रोहित नया अनुभव कमा कर आया
था। दुनिया में कुछ भी हो सकता है। जब एक टाइपिस्ट एक दिन मंत्री बन सकता है। कार्यालय
में झाड़ू लगाने वाला और चाय पिलाने वाला एक दिन पार्टी का अध्यक्ष बन सकता है।
सिनेमा के पोस्टर बनाने वाला एक दिन क्या-से-क्या बन सकता है। कुछ भी हो सकता है। विडंबना यह कि गर्भ में उपस्थित बेटू उसके अनुभव का हिस्सा नहीं बन पा रहा
था।
रोहित तो इस
बात सेआश्वस्त था कि धीरे-धीरे बेटू समझ गया कि बाप खेलने की या टाइमपास करने की चीज
नहीं होता है। वह हर समय माँ से चिपका रहने लगा। जब उधर से भी झिड़कियाँ मिलने लगी।
तो चार साल का होते-होते अकेले-अकेले हंसने, अकेले रोने, अकेले होने, अकेले अपने-आप
से बातें करने अकेले सोने की आदत उस के अंदर विकसित हो गई। स्निग्धा और रोहित को
लगा था कि बेटू आत्मनिर्भर हो रहा है, और
बच्चों को आत्मनिर्भर तो होना ही चाहिए। धीरेधीरे स्निग्धा भी समझ गई कि पति गपशप
करने की चीज या दिल की बात बताने की, पछूने की, या साथ हंसने-रोने की, घमूने फिरने
की, साथ-साथ सपने देखने की, सोचने और योजना बनाने की या अपना सब कुछ बांटने की चीज
नहीं होता है। उसके शहर के पति होते होंगे! क्या
महानगर का पति! महानगर के पति का कुछ और चरित्र है, कुछ और अपेक्षाएँ, कुछ और कर्तव्य, यह सब समझने और
स्वीकार करने में स्निग्धा को बहुत समय लगा।
रोहित को भी महससू
हने लगा कि रोमांस उनके घर को, उनकी जिंदगियों को छोड़कर न जाने कहाँ चला गया था! यहां हर चीज समय पर रूटीन के साथ बंधी थी। जिस समय आप रोमांटिक मूड में हों,
उस समय साथ हों और प्यार करने लगें यह सभंव नहीं था। जब समय हो, साथ हो तभी फटाफट
मूड बनाकर रोमांटिक हो जाना, यही अब सभंव था। अपनी भावनाओं को, मन को मानसिकता को,
मूड को इस तरह बिजली के झटके की तरह चालू बदं करना आसान नहीं था। लेकिन, दूसरा कोई
उपाय भी नहीं था। महानगर के लाखों पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका यही कर रहे थे। इन
तमाम परिस्थितियों का असर यह हुआ कि उनके संबंध बदलने लगे। अब पति -पत्नी की जगह
सहयात्री की तरह हो गए थे। इसी तरह जिंदगी चल रही थी।
देश की बदलती
उठती गिरती अर्थव्यवस्था के बीच राजनीतिक विकास की स्थिति इस तरह हो गई थी कि एक
मध्यवर्ग सामने आ गया था। कदरोलकर की नजर जितनी पैनी थी उसकी नजर वह उतना ही
धूर्त्त भी था। उसकी पैनी नजर में उच्च मध्यवर्ग के चरित्र में उपभोक्तावाद,
शानदार जीवन की लालसा विदेश यात्रा का प्रलोभन और श्रम से छुटकारा पाने की प्यास
का असर था। कदरोलकर की धूर्त्त नजर में में इस देश के लिए सांप्रदायिकता से ज्यादा
बड़ा कैंसर हो गया था नौकरशाही का दखल। लेकिन नौकरशाही के खिलाफ कोई नहीं बोलता।
कदरोलकर की नजर में सांप्रदायिकता के खिलाफ बोलना फैशन में है। शायद इसलिए भी आपको
लगता है कि आप उसेफाइट कर सकते हैं। लेकिन
नौकरशाही! उसका ख्याल आते ही आपको लगता है कि उसके बगैर देश कैसे चल सकता है!
वह कहता है रोहित अगर हम कुछ नहीं बनेंगे तो भी इसकी बदौलत, कुछ भी
होंगे तो इसी नौकरशाही की बदौलत। कदरोलकर सांप्रदायिकता के खतरे को कम आँकता है और
क्रोनी कैपटलिज्म पर अधिक भरोसा जताता है।
वही बेटू जिसे
आत्मनिर्भर बनता हुआ देखकर रोहित के मन में संतोष जन्मा था अब जवान हो रहा था। उसका
स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित हो गया था। उसने अपने व्यवहार से बता दिया था कि मन,
प्राण, बुद्धि और चेतना से वह एक सपूंर्ण इकाई है। वह अपने मां-बाप का अपेंडिक्स
नहीं है। अब स्निग्धा और रोहित को किस हद तक अपने मामलों में शरीक करना है इसका
फैसला भी बिटूटू खुद ही करेगा। दुर्भाग्य से आरामदायक आर्थिक स्थिति ने इसे और
जल्दी सभंव बना दिया। आरामदायक आर्थिक स्थिति का दुर्भाग्य से जुड़ना बेटू और बेटू
की पीढ़ी की त्रासद विडंबना के रूप में प्रकट हो रही थी। असल में बदलती हुई
राजनीतिक परिस्थितियों के भीतर बेटू का विकास हो रहा था। सांप्रदायिकता के या
धार्मिक स्थल के सवाल का वह कायल होता जा रहा था। इस प्रकार बेटू का विकास एक
भिन्न प्रकार से हो रहा था। आधनिुनिकता की किसी भी परियोजना के बिल्कुल विपरीत उसका
विकास हो रहा था।
बेटू अपने कई
विषयों में फेल हो गया। फेल होने के पीछे उसने उन कारकों को रेखांकित किया, जो
तर्क गढ़ा वे भी उन्हीं परिस्थितियों की मानसिक ऊपज थी। उसका विकास एक नए राष्ट्र
के निर्माण की तरफ कदम बढ़ाने का संकेत दे रहा था। यही वह पीढ़ी थी, जिसका बड़ा
हिस्सा, भारत को एक बदले हुए मिजाज में ले जाने पर आमादा राजनीतिक अग्निकुंड की
समिधा बन रही थी। समिधा! समिधा नहीं, ईंधन। एक
नए राष्ट्र का विकास ! विकास हमारे सामने है, और उस विकास को
हम देख भी रहे हैं। जिन परिस्थितियों में बेटू का देहांत हुआ वह बहुत ही भयानक तो
है ही, उन परिस्थितियों को बनाने में उसकी भी भूमिका गौर करने लायक है। प्रतीक में
देखें तो बेटू अपनी पीढ़ी का प्रतीक लगता है। ऐसा लगता है कि बदलती हुई स्थिति में
समाज ने अपने बेटू को सही व्यक्तित्व नहीं दिया। उनका व्यक्तित्व उस इस तरह से निर्मित
हुआ कि वे उन परिस्थितियों में ईंधन बनते चले गए। ईंधन, किसी को जलाने के पहले खुद
जल जाना जिसकी दुर्निवार नियति और परिणति होती है। इसके लिए दोषी कौन, कितना कम,
कितना ज्यादा, वक्त हिसाब करेगा।
वक्त जब हिसाब
करेगा तब करेगा, फिलहाल रोहित सोचता है, पापा तो मन-ही-मन उसे ही दोष दे रहे होंगे।
वह तो यही समझ रहे होंगे कि मैं ने इन हथियारों से अपने और स्निग्धा के बेटे की
हत्या की है। पापा कभी नहीं समझ पाएंगे कि हमारी दुनिया एक विशाल दैत्याकार धमन
भट्ठी बन चुकी है और हम तीनों अपने जैसे हजारों-लाखों लोगों की तरह उसमें ईंधन की
तरह झोंक दिये गये हैं। बेटू छोटा था भस्म हो गया। हमारे पूरी तरह भस्म होने में
अभी कुछ और समय लगेगा। रोहित का ऐसा सोचना कितना सही है, कितना विलाप इसे पाठक को
तय करने दिया जाए। गुजारिश इतनी-सी कि तय करने के पहले एक बार समाज में जिंदा
प्रेत की तरह उलटे-पाँव चलते-फिरते, हँसते-रोते रोहितों, स्निग्धाओं और बेटुओं को पुरनजर
देख लिया जाए।
नोटः
पाठकों से विशेष अनुरोध
1. इसे
विडबंना को भी समझा जाना चाहिए की जिस एम-क्लास टीचर को बेटू घृणा की दृष्टि से देखता
था उसी एम-क्लास का सदस्य उसे बचाने के लिए आगे बढ़ा था और खुद जलकर जख्मी हो गया
और अब अस्पताल में अपना इलाज करवा रहा था। अस्पताल के अर्थ का अनुमान पाठक खुद लगा
सकते हैं।
2. नयी
आर्थिक नीति उनिभू के साथ 1990-91 में शुरू हुई। इस उपन्यास का प्रकाशन 2004 में
हुआ, लगभग तेरह साल बाद। तेरह बरह की उम्र में बेटू ईंधन की तरह इस्तेमाल हो गया।
पाठक इसका अर्थ अपने स्तर पर हासिल करें।
3. बेटू
6 दिसंबर को भस्म हुआ। भारत के इतिहास में 6 दिसंबर के महत्त्व को ध्यान में रख कर
पाठक बेटू के उस दिन भस्म होने की घटना का निहितार्थ खोजें।
4. एक
दिन जब बेटू उठकर खड़ा हुआ। रोने लगा। रोहित से चीखकर बोला आप उनका पक्ष लेंगे ही।
आप तो उन्हें अच्छा कहेंगे ही। आप मीट खाते हैं। आप मंदिर नहीं जाते। मैं जानता
हूँ आप कम्युनिस्ट हैं। आइ हेट यू! आइ
हेट यू! रोहित उस घटना को कैसे भूल गया, उसे तत्काल कुछ करना
चाहिए था कुछ किया क्यों नहीं? पाठक इस चूक का पलितार्थ
स्थिर करें।
5. स्निग्धा
जिस स्कूल में पढ़ाने गई थी उसका इकोसिस्टम डिस्टर्ब था, जिसे सुधारने की उसने
कोशिश की थी। लेकिन यह पता चलने पर कि बेटू के स्कूल में बड़ी कक्षाओं के कुछ
लड़के बच्चों को भड़का रहे हैं;
बड़े लड़कों को स्कूल के ही एक-दो अध्यापक और उनका दल भड़का रहा है, पाठक बतायें
रोहित को क्या करना चाहिए था जो उसने नहीं किया।
6. किन
परिस्थितियों में आदमी जितना कमाता है, उससे अधिक गँवा देता है? पाठक उन परिस्थितियों का एक ‘सुंदर-सा’ नाम दें
उपन्यासः ईंधन
उपन्यासकार
: स्वयं प्रकाशप्रकाशक
: वाणी प्रकाशन, 200
कीमत
: तीन सौ पच्चीस