जनतंत्रः प्रक्रिया और प्राण

जनतंत्रः प्रक्रिया और प्राण

प्रिंट नेशनल्जिम के दौर में अखबार का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। नये दौर में मीडिया की तरफ लोग बड़ी उम्मीद से देखते रहे हैं। अब तथाकथित मुख्य धारा की मीडिया से अधिक लोगों की निगाह सोशल मीडिया पर अधिक है। बड़े-बड़े पत्रकार और विद्वान विभिन्न प्रकार से सोशल मीडिया पर आते रहते हैं। ऐसे विद्वान भी दिख जाते हैं, जिन्हें अन्यथा देख पाना पहले संभव नहीं था। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ कि किसी भी समय किसी भी मुद्दे पर पूरी तरह निष्पक्ष कुछ भी नहीं होता। सवाल पक्षधरों के उद्देश्यों का है। सवाल यह है कि किसी भी पक्ष में झुके हुए रहने के पीछे का मुख्य इरादा क्या है, उसकी तार्किक वैधता की स्थिति क्या है, निष्कर्ष कितना वस्तुनिष्ठ, आत्मनिष्ठ, वास्तविक और कितना मनगढ़ंत है।  

शब्द भिन्न हो सकते हैं लेकिन यह लगभग, सभी लोग मानते हैं कि चुनाव जनतंत्र की प्रक्रिया है, प्राण नहीं है। सोशल मीडिया की बड़ी जगह चुनावी प्रक्रिया घेरती है, जनतंत्र के प्राण पर चर्चा के लिए बहुत कम जगह बचती है। सूचनाओं के विविध परिप्रेक्ष्यों को जोड़ना, समझना-समझाना, विश्लेषण करना, निष्कर्ष निकालना उचित है। सलाह-सुझाव देने से अधिक प्रवचन-उपदेश की तरफ बढ़ जाने के औचित्य पर सोचना चाहिए। चुनावी प्रक्रिया से कौन सत्ता पर कौन पक्ष काबिज होगा यह महत्त्वपूर्ण सवाल है, मुख्य सवाल है जनतंत्र के प्राण का क्या होगा!