कोशिश के हुस्न की तासीर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan






जी, कामयाबी को नहीं जानता मैं, कोशिश से ही अपनी दिलजोई है
कामयाबी तो बेवफा है, मेरी कोशिश के हुस्न की तासीर कब खोई है

दीठ को दीदार तो कभी हासिल हुआ ही नहीं जाने आँख क्यों रोई है
सिर पर लदी टोकरी में है वही फसल जो हमने दिल लगाकर बोई है

है इतिहास गवाह, कैसे नदियों से मिलने के बाद लहरों ने धार खोई है
वो जो बात मुकम्मल सराही आपने, उसे मैंने आँसुओं से बारहा धोई है

तारीफ तवारुफ अल्फाज-ए-हकीकत क्या, आपने एहसास में बिलोई है
हँसी चेहरे पर है जैसे धरती पर फसल-ए-बहार ओ पुकार कहाँ खोई है

बहुत बोलती है आप की वे खामोशियाँ जिसे आपने हँसी से भिगोई है
रोकर पूरियाँ निकालती माँ, हँसकर पिता पूछते हाथ में कहाँ लोई है

जी, कामयाबी को नहीं जानता मैं, कोशिश से ही अपनी दिलजोई है
कामयाबी तो बेवफा है, मेरी कोशिश के हुस्न की तासीर कब खोई है

खिड़की से समय में झाँकता हूँ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

हमारे समय में
जीवन के कई अच्छे प्रसंग
डरावने हो गये हैं, जैसे कि दोस्ती
डरता मैं भी हूँ, कम नहीं बहुत
लेकिन इस डर के बाहर
शायद थोड़ी-सी खुली हवा हो
थोड़ी-सी आजाद रौशनी
थोड़ी-सी जमीन बस थोड़ी-सी

इस उम्मीद से डर के बाहर
थोड़ी-सी खुली हवा,
थोड़ी-सी आजाद रौशनी,
थोड़ी-सी जमीन, बस थोड़ी-सी
के लिए आकाश में भटकता रहता हूँ

उम्मीद में भटकन
और भटकन में उम्मीद
हमारे समय को समझने की
एक छोटी-सी खिड़की है
बहुत दिनों से बंद
इस खिड़की को खोलने की
कोशिश को एक गुनाह की तरह
मैं अपने खाता में दर्ज करता हूँ
और इस तरह अपने समय की
उम्मीद को बचाने की कोशिश में
चुटकी भर लिखने की हिम्मत करता हूँ
बस चुटकी भर, सिंदूर की तरह
इस तरह उम्मीद से
डर के बाहर खिड़की से झाँकता हूँ ▬▬
देखो न प्रिय, यह जानते हुए कि
झाँकना देखना नहीं है,
मैं देहरी के अंदर बने रहकर
खिड़की से समय में झाँकता हूँ


बातों में अब बहर कहाँ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

मेरे हमराज! रंग और गंध में अब वह असर कहाँ
हुस्न की नरम परछाइयों में अब मेरा बसर कहाँ

हाँ रहते थे आगे-पीछे सदा अब आते नजर कहाँ
तिल-मिलाहट यह कि समझ न आये कसर कहाँ


उनकी आमद से रौनक! अब वह शाम सहर कहाँ
मसान में ढूढ़ो रात, सुबह, शाम कि दोपहर कहाँ

अमराइयों के एकांत को चीरने वाली कुहर कहाँ
ढूढ़ते क्या झुकी रीढ़ को मयस्सर गुलमोहर कहाँ

पानी ही सूख गया तो फिक्र क्यों, कि दहर कहाँ
जिंदगी में ही नहीं बची बातों में अब बहर कहाँ

उड़ान पर है संविधान

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan


तुझे डाँटने का भी तो हक है नहीं करूँ तो क्या करूँ
डाँट दिमाग में है आँख में मुहब्बत करूँ तो क्या करूँ

गैर है मुझे इसका कोई इल्म नहीं करूँ तो क्या करूँ
पूछूँगा दिल से कभी फिल वक्त मैं करूँ तो क्या करूँ

हाँ होंगे कायदे जरूर मालूम नहीं करूँ तो क्या करूँ
नजर में नजर नहीं कान में हल्ला करूँ तो क्या करूँ

जो कहकर गया परदेश याद नहीं करूँ तो क्या करूँ
उड़ान पर है संविधान इन दिनों करूँ तो क्या करूँ

वापस बुलाने का हक नहीं हासिल करूँ तो क्या करूँ
ये शहर दिल्ली की रवायत है अब करूँ तो क्या करूँ



मगर जीवन है फिर भी सुंदर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

छान में मरी हुई चूहिया की तरह
जब तारीख गन्हाने लगे तो
जीवन और मृत्यु की शाश्वत समस्याओं के
शाश्वत हल खोजने के बदले
जरूरी हो जाता है मृत्यु को विस्थापित करना

बहुत बुरा होता है किसी तारीख का इस तरह गन्हाना
बहुत कायराना होता है मरी हुई तारीख से आँख चुराना
उससे भी बुरा होता है मरी हुई तारीख की छाती पर
लँगड़े पैर को टिकाकर फोटू खिंचवाना
और हँस देना दुर्गंध से बचने के लिए
तीखी हँसी की धार से अपनी नाक छप्प से कटवा लेना

मरी हुई तारीख जब
अपनी सरहद पर जाकर गन्हाती है
तब थोड़ा आसान होता है
चूजों के बीच मुर्गियों का सभा लगाना
मुश्किल होता है बहुत कामगारों का
अपने बच्चों के बीच लौट आना

मरी हुई तारीख को विस्थापित करना संभव है
संभव है विषप्रभाव के नीलेपन पर गिरे ओसकण
और अपराजिता के नीलवदन पर जमे अश्रुकण में 
फर्क करते हुए सभ्यता की सरहद को क्षितिज तक फैलाना

चाहे जितनी गन्हाये तारीख
मगर जीवन है फिर भी सुंदर

भरें, किसी और ही का खजाना

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

दो चार बातें मुहब्बत की फिर औकात बताना
छाता खोलकर, बरसात में जी, भरकर नहाना


छाता-बादल को तेरा इरादा समझ में न आना
हाय रे हाय, यह आया देखो अब कैसा जमाना

बड़ी घटना है इस दिल का धर्मशाला हो जाना
सिले दीवार पर, जले काठ से नाम लिख जाना

बात मेरी थाली की जो करें वो साहिब रोजाना
और नीतियों से भरें, किसी और ही का खजाना

दोस्तों के अंदाज में है अब तो कम ही दोस्ताना
हाय, कातिल का अंदाज! है कितना कातिलाना



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मगर ये बे-दाम करता हूँ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

थोड़ी-सी जो फुरसत है, तुम से कलाम करता हूँ
हाँ, हर बात पर दुआ करता हूँ सलाम करता हूँ

दिल में भरोसे का कोई पुख्ता इंतजाम करता हूँ
दिहाड़ी हूँ, बीमारी में ही थोड़ा आराम करता हूँ

वो जो मेरा अजीज है उसी को बदनाम करता हूँ
मदद करता नहीं, करता हूँ तो गुमनाम करता हूँ

आजाद खयाली को तेरी हँसी का गुलाम करता हूँ
बुरा न मानो अगर तो आज यहीं मुकाम करता हूँ

हाथ खाली है जाने क्या दिन भर गोदाम करता हूँ
मिहनती हूँ लगा रहता हूँ मगर ये बे-दाम करता हूँ
थोड़ी-सी जो फुरसत है, तुम से कलाम करता हूँ
हाँ, हर बात पर दुआ करता हूँ सलाम करता हूँ



लाज, सिखलाया नहीं जा सकता

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

जी हर जख्म को दिखलाया नहीं जा सकता
किसी को लाज, सिखलाया नहीं जा सकता


भूखों को बातों से बहलाया नहीं जा सकता
किसी को बराबर फुसलाया नहीं जा सकता

जो लगी ठोकर उसे भुलाया नहीं जा सकता
रूठी है, उसे फिर से बुलाया नहीं जा सकता

तेरी अदा पर, और पगलाया नहीं जा सकता
पत्थरों को आँसू से नहलाया नहीं जा सकता

मरे हुए को मंतर से जिलाया नहीं जा सकता
सच है कि मुर्दों को सहलाया नहीं जा सकता

उसे मालूम बाकी किसी को कुछ नहीं मालूम है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

सब को मालूम हो कि मुझे कुछ नहीं मालूम है
सब को मालूम है किसी को कुछ नहीं मालूम है

तेरी इस अदा पर फिदा कि कुछ नहीं मालूम है
कत्ल हुआ किसका बहा लहू कुछ नहीं मालूम है

भोला इत्ता कि काला सफेद कुछ नहीं मालूम है
बेरोजगारी, भूख, गरीबी है कुछ नहीं मालूम है

क्या लोकतंत्र है! संविधान! कुछ नहीं मालूम है
नशा में तो कहता हर कोई कुछ नहीं मालूम है

किसने खाया? क्या खाया? कुछ नहीं मालूम है
किसके हाथ में किसका हाथ कुछ नहीं मालूम है

पीठ पर है हाथ क्यों उसके कुछ नहीं मालूम है
उसे मालूम बाकी किसी को कुछ नहीं मालूम है

बाघ था पोसा जिसे, बिलाव समझकर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan


खेल में मुँह नोच डाला नकाब समझकर
मुस्कान को रौंद डाला जवाब समझकर

बाँह चढ़ा वोट डाला इंक्लाब समझकर
भूल जो कर बैठे उसे इंतखाब समझकर

सुलझा ही था छोड़ा उलझाव समझकर
बाघ था पोसा जिसे, बिलाव समझकर

साथ रहा निकटता को दुराव समझकर
जिंदा रहा अब तक, अपनाव समझकर

अँधेरे को स्वीकारा, रखरखाव समझकर
हाँ भूल की जुल्फ का बिखराव समझकर

मंजिल बनी, जहाँ रुका पड़ाव समझकर
जिंदगी ने उसे छोड़ा, बहलाव समझकर

धोखा है, वह खुश है, बदलाव समझकर
दुखी है इन बातों को दोहराव समझकर


खेल में मुँह नोच डाला नकाब समझकर
मुस्कान को रौंद डाला जवाब समझकर


  

बात सँवरेगी! किसी और को दोष देकर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

क्या करूँगा दोस्ती का अमरकोष लेकर
बात सँवरेगी! किसी और को दोष देकर

इश्क तो ठीक क्या मिलेगा होश खोकर
माना कि आसान जीना मदहोश होकर

चाँद कूदता आकाश में, खरगोश होकर
जैसे-तैसे वह जीता है सफेदपोश होकर

विचार वो फैले जो खून में जोश होकर
मुहब्बत जिंदा है पँखुरी पर ओस होकर

हाँ मरना क्या एहसान फरामोश होकर
ये जीना भी क्या एहसान फरोश होकर


बात सँवरेगी! किसी और को दोष देकर

हम ने इश्क भी, फरमाया है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

हाँ सच ने मुझे बहुत सँवारा है
तेरे झूठ ने भी तो दुलराया है
जिंदगी बस खालिस तमन्ना है
जब आँख कुछ छलछलाया है

एक तेरे ही ख्याल में, डूबकर
मैं ने ओढ़ी जब भी चादर तो
चाँद मेरे पहलू में, उग आया
इस हँसी ने कम ही रुलाया है

आँसू से तर रुमाल लहराया है
देख रूठे चाँद का रौब भाया है
मन लहका! किसने भरमाया है
मेरे वजूद पर, तेरा ही साया है

खुशियों ने दी जब कभी, दस्तक
चुप से, अपने गम को बुलाया है
कुछ इस तरह काम निपटाया है
जी हम ने इश्क भी, फरमाया है



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Ajay Singh, Praphull Jha, Jai Singh Kapren और 16 अन्य को यह पसंद है.

इरादा ठीक न सही पर लह जाता है

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan


वह इतनी जोर से आवाज लगाता है
अंदर का पवित्र मकाम ढह जाता है

है दुश्मन सही मगर जादू जगाता है
वह काला लिबास कुछ कह जाता है

राह में बेवजह सब को आजमाता है
न हवा, न पानी, जो है बह जाता है

हुनरमंद डूबकर हर राग को गाता है
राग कत्ल को राग चैन कह जाता है

हर फरीक से खुद को ही पुजवाता है
इरादा ठीक न सही पर लह जाता है



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हाथ की चलनी से पानी क्या भरूँ

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

जब खुद पर ही नहीं तो तुझ पर यकीन क्या करूँ
बलखाती नदी, हाथ की चलनी से पानी क्या भरूँ

सब लुट गया पानी में अब और पानी से क्या डरूँ
पंख सारे बिक गये आसमान खाली, पर क्या उड़ूँ

एक बाँकी मुस्कान है सिवा उसके बंधक क्या धरूँ
सौ बार तो उजड़ा हूँ अब और कितनी बार उजड़ूँ

इस तूफान में तिनका है हाथ, तो और क्या पकड़ूँ
जिंदगी बता किस तरह जमूँ, कि फिर क्या उखड़ूँ

जब खुद पर ही नहीं तो तुझ पर यकीन क्या करूँ
बलखाती नदी, हाथ की चलनी से पानी क्या भरूँ




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Sudhir Kumar Jatav, Rajesh Kumar Yadav, Snehlata Singh और 9 अन्य को यह पसंद है.

वह बिहार है मालिक

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

माना कि जुर्म है मगर रोजगार है मालिक
जो पढ़ गया हाँ वही अब बेकार है मालिक

उसका भी मन है वह तलबगार है मालिक
कहाँ किस काम का अब जोगार है मालिक

यह दौर! तरुण हाथ में हथियार है मालिक
सन सैंतालीस की आँख! इंतजार है मालिक

हादसा पर भी भाषा में ललकार है मालिक
सम्हलकर गिर जाता वह बिहार है मालिक

लोकसभा, जनसभा कहाँ दरबार है मालिक
आपकी सलामती का ये गुनहगार है मालिक

सुनाई देती नहीं चुप की फटकार है मालिक
भूखा तो क्या हुआ वह खबरदार है मालिक



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Upadhyaya Pratibha जो पढ़ गया, वही अब बेकार है.
22 घंटे · पसंद · 1


Bal Mukund Pathak बहुत ही उम्दा आलोचनात्मक काव्य ।हिँदी साहित्य के प्रख्यात आलोचक की कलम से
22 घंटे · पसंद


Kumar Bijay Gupt अच्छा लगा...तीर आर पार हो गया
21 घंटे · पसंद


Dilip Chanchal achi rachna hai badhai
20 घंटे · पसंद


Arti Priya Jha aap ki rchna share krne ka lobh samvarn nai kr pati hu..............gustakhi maf krenge aasha hai.............
14 घंटे · नापसंद · 1


Mrityunjay Tiwari एक उम्दा कविता,जो बिहार की अन्दरूनी तस्वीर दिखा रही है
5 घंटे · पसंद


Manoj Kumarjha वाह...गिरते-गिरते भी बन जाए वो सरकार है मालिक
3 घंटे · पसंद

कुछ कर नहीं सकता

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

हाँ, सच है कि कुछ कर नहीं सकता
दो बूँद आँसू बनकर बस ढरक जाऊँ


हाँ, सच है कि कुछ कर नहीं सकता
हँसो तो गाल की गहराई बन जाऊँ

हाँ, सच है कि कुछ कर नहीं सकता
नाराजगी हो तो चुप से सरक जाऊँ

हाँ, सच है कि कुछ कर नहीं सकता

कठिन दौर

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

यह कठिन दौर है। कठिन दौर के कई लक्षण होते हैं। इसका एक मारक लक्षण है कि इसमें एक की विवेकहीनता कई लोगों के विवेक को अपना अधीनस्थ बना लेती है। विवेकवान लोगों का एकाकी विवेक प्रतिपल आहत होता रहता है। आहत विवेक व्यक्तित्व को विघटित करने लगता है। जो लोग व्यक्तित्वहीन रहकर जीवनयापन को साध लेने के अभ्यास में समय के साथ पारंगत हो जाते हैं, वे इस कठिन दौर को नर्म बनाकर फिर भी एक स्तर पर, चाहे जैसे हो, जी लेते हैं। जो लोग ऐसा नहीं कर पाते हैं, कठिन दौर उनको रौंद देता है। इसलिए कहता हूँ कि इस कठिन दौर को थोड़ा नर्म बनाकर अपने लिए जगह बनाना, भावुक मूर्खता या विचारधारात्मक जड़सूत्रात्मकता का शिकार हो जाने से बेहतर है। जीवन रक्षा मनुष्य के अंतर्विवेक का पहला निदेश है। अंतर्विवेक के पहले निदेश का अनुपालन निःशर्त्त विवेक-संपन्न नैतिक कार्य है।


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Dileep Mridul Pashchim bangal me to "kathin samay" ka prabhav to kam hona chahiye,?
ya fir pahale se "abhyas" hoga?
Kya "vichar dhara" bhi kisi "uchch bauddhik" ko itana "sankirn" soch de sakti hai?
3 अक्टूबर को 09:27 अपराह्न बजे · पसंद


प्रफुल्ल कोलख्यान Dileep Mridul ... आपकी बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ। आप समझ रहे हैं?
3 अक्टूबर को 10:59 अपराह्न बजे · संपादित · पसंद


Harinarayan Thakur यह विचार नहीं, भाव का युग है. भक्ति-भावना और भजन-कीर्तन का युग है. विचारवान बने कि गए. जनता रूप-रस-गंध के चमत्कार में विश्वास करती है, रूखे-सूखे ज्ञान और वचन में नहीं.
3 अक्टूबर को 11:08 अपराह्न बजे · संपादित · नापसंद · 2


Manzar Jameel well spoken@harinarayan thakur.
4 अक्टूबर को 01:02 पूर्वाह्न बजे · पसंद