सागर
से संवाद
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सागर
ने कहा ---
सुनो
मैं तुम्हारे पहले ही नहीं
बीज
पूर्वजों से अधिक पुराना हूँ
तुम्हारे
सबसे छोटे शिशु से
भी
छोटा हूँ!
युवाओं
से कहीं अधिक युवा हूँ।
तुमने
नदियों को गंदा किया है
मेरा
मन अभी भी साफ है।
मेरे
खारापन पर मत जाओ
दुनिया
में जहां भी नमक है
लवण
है, लावण्य है
वहां
मैं ही तो मुसकुराता हूँ।
और
हां जो भी मिठास है
मैं
ही तो समाया रहता हूं।
खुशी
हो गम हो वहाँ मैं हूँ
दोनों
के लिए मेरे
पास
एक ही भाषा है!
आंसू
में नमक हो
या
मुस्कान में मिठास मैं ही हूँ।
मैं
ही हूँ शिखर का
सब
से गहरा धरती का संवाद।
मैं
अकसर नींद में भी आता हूँ
और
सपने में भी!
मेरा
स्वभाव है
न बहुत
पास न बहुत दूर
बस
होता हूँ
धमनियों
की तरह शरीर में
धरती
के भी सभ्यता के भी।
मैं
रगों में दौड़ता लहू हूं
पसीना
हूँ और उसका खारापन भी।
जानता
है चांद
पता
सौरमंडल को भी है।
मैं
काल का अटूट संवाद हूँ।
समय
का आखिरी छोर!
सभ्यता
की धरती की ऊंचाई का
मैं
ही माप हूं। गहराई का भी।
मैं
समुद्र हूँ।
यही
मेरा रहस्य है कि मैं रहस्य हूँ।
मैं
अटूट संवाद में हूँ
हवा
के साथ ही, हवा के पहले भी
हवा
के बाद भी!
मैं
बस संवाद हूँ।
अच्छा
लगा
समुद्र
का समुदाय से संवाद!