न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ

न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ
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मैं आप से बात करना चाहता हूँ
जानता हूँ, फिलहाल वक्त नहीं है आपके पास
इसलिए बात करना तो बहुत ही मुश्किल है इन दिनों
मुश्किल है बात करना इसलिए बता भर देना चाहता हूँ


मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है
इस सिकोड़ का रिश्ता मेरे इलाके में
रह रह कर पेट में उठनेवाले ममोड़ से कितना और कैसा है
कह नहीं सकता लेकिन, मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है

इंटरनेशनल या ग्लोबल या ऐसे ही किसी विस्तार से
डर लगने लगा है मन, मन बहुत डर लगने लगा है

मेरा मन तो अब मिथिला तक सिमटकर रह जा रहा है
बहुत जोर मारकर भी बस बचे हुए बिहार तक पहुँच पा रहा है
उससे आगे नहीं जा पा रहा है, बहुत पुचकारने के बावजूद

इसे कविता न समझें, आप के पास बेहतरीन कविताएं हैं
इसे बस एक गृहस्थ की हताशा और अनास्था समझ लें
जानता हूँ, आप के पास आशा और आस्था के बेहतरीन काऱण हैं
जानता हूँ, बेहतरीन काऱण हैं कि फिलहाल वक्त नहीं है आपके पास
मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है

बहुत ही भयानक होता है मन का सिकोड़
और दर्दनाक भी इस पर बात करना
न बताना बहुत ही खतरनाक, इसलिए बता रहा हूँ
मेरे मन में भयानक सिकोड़ हो रहा है।

बस्ता पर पकड़

बस्ता पर पकड़!
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ओ जब एक से बढ़कर सब बन गई
लगातार उनकी आवाज गूँज रही थी
मैं इस दौरान लगातार सफर में रहा!


सफर में रहा नदियों की तरह
बहती विभिन्न भाषाओं बोलियों की
भंगिमाओं से रू-ब-रू होता रहा

कोई यकीन करे, तो कर ले!
मैं मातृभाषाओं की
विभिन्न भंगिमाओं में
उन उसटी अनुगूँजों का सीधा तर्जुमा
सुनता रहा, सफर में।

कितनी फीकी हो गई
अनुगूँजों के इन मातृभाषायी
तर्जुमाओं के सामने सदियों से
दुहरायी जा रही वाणी --- या देवी सर्वभू....
कितनी फीकी हो गई!

मैं मातृभाषाओं में
हो रही इन अनुगूँजों की
तर्जुमाओं को
अपनी मातृभाषा
मैथिली में
आप तक पहुँचाना चाहता हूँ - -
बस्ता पर गाम क बेटी क
पकड़ आर बढ़ि गेल छै मालिक
आब एकरा अपने
जेना बूझियै वा
नै बूझियै सरकार!

उधर बनारस
इधर मगध मिथिला
मैं इस दौरान लगातार सफर में रहा!
सफर में रहा बिहारी नदियों की तरह।

साबूत अंगूठा दिखा दिया

साबूत अंगूठा दिखा दिया
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कसूर, इतना कि आँसू को पोछ लिया
डर अपने अक्स, से डर न जाओ प्रिया

रस्म नहीं मुनासिब भी नहीं जो किया
समझो, यह सब है अपना किया धिया

मुल्कियों की बात तो है खुद यही जीया
मुसीबत से खुश होकर तू ने राहत दिया

मेरे जज्वात का क्या जो दिया सो लिया
दिन थोड़े बचे हैं जो दिया सो कह दिया

आया था हाकिम कटी तर्जनी दिखा दिया
तो उसने अपना साबूत अंगूठा दिखा दिया

एक अनावश्यक स्पष्टीकरण, नहीं तो!

एक अनावश्यक स्पष्टीकरण, नहीं तो!
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मैं जानता हूँ कि इधर मेरी कुछ मैथिली पोस्ट का अर्थ लगाने में कठिनाई महसूस कर रहेंगे। थोड़ी-बहुत कठिनाई तो वे भी महसूस कर रहे होंगे जो मैथिली बोलते लिखते पढ़ते समझते रहे हैं। तो फिर, यह जानते हुए भी मैं इस तरह की शैतानी क्यों कर रहा हूँ! असल में, मैं मैथिली का अपना जातीय ठाठ तलाश रहा हूँ। ठाठ माने रिदम। पुरुष वर्चस्व व्यवस्था में भाषा में पुंसकोड यानी मर्दाना रोआब बहुत तीखा होता है। मर्दाना रोआब से मुक्ति थोड़ा नहीं, बहुत कठिन है। हाल के दिनों में तो भाषा में खासकर राजनीतिक भाषा के रूप में बहु व्यवहृत हिंदी में तो यह मर्दाना रोआब बहुत तेजी से बढ़ा है। हिंदी में लिखते रहने की लगातार कोशिश करते हुए मैंने हिंदी में मर्दाना रोआब की बे-अदबी को न सिर्फ अपने तरीका से समझा है, बल्कि अपने स्तर पर महसूस भी किया है। मेरा थोड़ा बहुत परिचय बांग्ला भाषा से भी रहा है। बांग्ला भाषा में इस मर्दाना रोआब का असर कम है। अभी भी, अपने खून में हुगली के पानी की खनक सुनाई देती है मुझे। 
अभी मिथिलांचल में बाढ़ आई थी। बाढ़ में सबसे ज्यादा तकलीफ जिन चीजों के अभाव से ऊपजती है उन में पानी अहम है! चारो तरफ पानी। पानी से घिरे लोगों के पास पानी नहीं है। पीने-पचाने लायक पानी को बचाना जैसे बड़ा काम है वैसे ही भाषा के बढ़ते प्रवाह में बोलने-सुनने लायक भाषा को बचाना भी बड़ा काम है। मर्दाना रोआब के खतरे भोजपुरी में भी कम नहीं है, ऐसा मुझे लगता है, इसकी पुष्टि या इसका खंडन तो भोजपुरी को अधिक गहराई से जाननेवाले लोग ही प्रामाणिक ढंग से कर पायेंगे। अपेक्षाकृत मगही भाषा पर मर्दाना रोआब का असर कम है। मैथिली में भी इस मर्दाना रोआब का असर उतना नहीं है। हाँ तो, इस तरह समझा जा सकता है कि मैं मैथिली का अपना जातीय ठाठ तलाशते हुए उस के अंदर किंचित सक्रिय मर्दाना रोआब को निष्क्रिय deactivate करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने तो जो भी सीखा है, दोस्तों से ही सीखा है। आप से अनुरोध है कि इस में मेरी मदद करें। मैथिली के संदर्भ में इस मर्दाना रोआब निष्क्रिय deactivate करने की कोशिश का नतीजा उत्साहबर्द्धक रहा तो फिर इसका लाभ अपनी हिंदी में भी मुझे मिलेगा। बस इतना ध्यान रहे, आपका, यानी प्राइमरी जनता विद्यालय का अल्प बुद्धि छात्र और आपके स्नेह का स्वाभाविक हकदार भी हूँ।

हरामी उजाले में मटकते भटकते हुए 'अँधेरे में' का पाठ संभव नहीं होता

हरामी उजाले में मटकते भटकते हुए 
'अँधेरे में' का पाठ संभव नहीं होता
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आज ये सवाल ‘अग्निवर्षी लेखकों’ से ही नहीं ‘तुषराद्रि-संकाश-गौर-गंभीर लेखकों’ से भी है और खुद से भी है, कि क्या हमारा लेखन साहित्य की किसी भी तरह की सामाजिक सार्थकता को बचा पाने में सक्षम हुआ है? जवाब...! जवाब तो उजाले के चराऊर पर निकला है!


तब याद आते हैं मुक्तिबोध आशंकाओं के अंधेरे में विचरते मुक्तिबोध

‘….... ….......
…..............
इसीलिए मैं हर गली में 
और हर सड़क पर
झाँक-झाँक देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति
प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति !!
खोजता हूँ पठार...पहाड़...समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार
आत्म-सम्भवा।' –----- मुक्तिबोध
निश्च्त रूप से मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' बहु अर्थ संभवा ऐसी कविता है जिसमें सभ्यता की काव्य चेतना के सारे संदर्भ मुखर हैं। यह रहस्य और अस्मिता की कविता न होकर सभ्यता के मुख्य अंश में सक्रिय शंकाओं और समय की छलनाओं से टकराते हुए अनावरण और संभावनाओं को भाषा में हासिल करने की बहुआयामी द्वंद्वात्मकताओँ की कविता है। यह वह कविता है जिसे बाहर से पढ़ा ही नहीं जा सकता है। एक स्थिति के संदर्भ से शायद बात साफ हो। रौशनी में खड़ा व्यक्ति अँधेरे में खड़े व्यक्ति की स्थिति को नहीं देख सकता है लेकिन अँधेरे में खड़ा व्यक्ति रौशनी में खड़े व्यक्ति की स्थिति को देख सकता है। मुक्तिबोध की कविता 'अँधेरे में' का पाठ तभी संभव हो पाता है जब हमारी पाठचेतना के अंदर उस अँधेरे के वृत्त में प्रवेश करने का व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा में हों। व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता परस्पर संवादी और सहयोजी मुद्रा की कमतरी 'अँधेरे में' की पाठ-प्रक्रिया को क्षतिग्रस्त कर देती है। मुश्किल यह कि व्यक्तिगत साहस, सामाजिक क्षमता और सांस्कृतिक दक्षता को परस्पर संवादी और सहयोजी बनाये रखने के लिए जिस सांस्कृतिक धैर्य की जरूरत होती है हम उस पर टिकने के बजाये किसी तात्कालिक निष्कर्ष की हड़बड़ी के शिकार हो जाते हैं। अभी तो इतना ही..

तो वह ख्वाब क्या था



क्या कहती हो मेरी जान मैंने तुम से बता नहीं की बरसो
तो वह ख्वाब क्या था जो बड़बड़ता रहा है मुझ में बरसो

तुम हुश्न-ए-आजादी थी ये मुल्क तुम्हें सजाता रहा बरसो
बात दीगर है कि भूत को पनाह देनेवाला निकला सरसो


सच जो चीज हमारे पास है उसके लिए हम तरसे बरसो
इंसानियत ये जम्हूरियत बड़ी बात बस इसके लिए तरसो

बस ये सियासत है कि आवाम ने कैसे सम्हाला इसे बरसो
क्या कहती हो मेरी जान मैंने तुम से बता नहीं की बरसो

ओ और था ये और है!

ओ और था ये और है!
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ओ दौर-ए-मुहब्बत और था ये दौर-ए-तिजारत और है
ओ दौर-ए-जियारत और था ये दौर-ए-लियाकत और है

ओ दौर-ए- हुकूमत और था ये दौर-ए-सियासत और है
ओ दौर-ए-मसरत और था ये दौर-ए- फिराकत और है

ओ दौर-ए- जम्हूरियत और था ये दौर-ए-जमूरात और है
ओ दौर-ए-अल्फाज और था ये दौर-ए-किताबत और है

ओ दौर-ए-मिलावट और था ये दौर-ए-अदावत और है
ओ दौर-ए-मजम्मत और था ये दौर-ए-हिकारत और है

ओ दौर-ए-गुफ्तगू और था ये दौर-ए-कहावत और है
ओ दौर-ए-रहमत और था ये दौर-ए-रियायत और है

ओ दौर-ए-हिफाजत और था ये दौर-ए-कयामत और है
ओ आब-ए-हयात और था ये ये दौर-ए-करामात और है

बड़पन्न साहस हर लेता है! बड़पन्न हर लेता है साहस।

बड़पन्न साहस हर लेता है!
बड़पन्न हर लेता है साहस।
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पीपल और बट वृक्ष
कितने बड़े-बड़े होते हैं, न!
दूर से भी दिख जाते हैं।
पूजे भी जाते हैं।
ताप के ताये को पनाह देते हैं।
पर्यावरण देते हैं।
देते हैं, और भी बहुत कुछ।
यह बड़प्पन है।


देते हैं बहुत कुछ
देते नहीं हैं कोई फूल
फूल जिसे तुम जूड़े में लगा सको
फूल जिसे किसी देवता पर चढ़ा सको
फल जिसे खिल-खिला उठे सहज
कोई हबक्का मार कर खा सके कोई

बड़पन्न ऐसा कुछ नहीं देता
बड़पन्न और उसकी तमन्नाओं
में बिला जाता है साहस

ऐसा है बड़पन्न!
बड़पन्न ऐसा कुछ नहीं देता है
बड़पन्न साहस हर लेता है!
बड़पन्न हर लेता है साहस।

बे-हिस सपने का मारा नहीं था


सुनो, मैं उधर जा नहीं रहा था
बस, हवा का रुख बता रहा था

किसी डूबते का सहारा नहीं था
बे-हिस सपने का मारा नहीं था

दोष था बसा कि नारा नहीं था
थी नजर मगर नजारा नहीं था

जनतंत्र में कोई चारा नहीं था
बल-बुतरू हैं, बेचारा नहीं था

मजबूरी में कोई चारा नहीं था
न समझो, कि गुजारा नहीं था

ठीक से कोई ललकारा नहीं था
बे-हिस सपने का मारा नहीं था