अब उन बातों का तो है हिसाब कोई नहीं
जज्वात समेट ले सारे, किताब कोई नहीं
जिंदगी चलती रहे सवालात तो कोई नहीं
रहूं जमीन पर आसमान खयालात कोई नहीं
दिल धड़कता है बस और खुराफात कोई नहीं
अंधेरा है बहुत मगर वस्ल की रात कोई नहीं
उजालों ने छला कम नहीं करामात कोई नहीं
आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
कोई नहीं
आयो घोष बड़ो व्यापारी
रोजगार की बात नहीं, करो खूब बेगारी
साथ में तोप-तमंचा चलते जब धजधारी
यौवन तो बेखबर कि कटती है कैसे बुढ़ारी
अभी, उसके मुँह पर है छिटकी जो खेसारी
जो होते भी अगर करते क्या गिरिधारी
अचरज में पड़े, देखो अबकी खूब मुरारी
चिंता नहीं चतुराई, पंचों में बहस है जारी
पूरा मुल्क हुआ कैसे है गुपचुप एक निठारी
संपद तो उनकी सब, और बिपद हमारी
कैसे छाई है हम पर खुशियों की खुमारी
हुनरमंद है जो आयो घोष बड़ो व्यापारी
जल जमीन सब खतरे में, कैसी लाचारी
जाने डेमोक्रेसी कितना और रुलायेगी
ख्वाहिशों की बात जो, ख्वाबों से सम्हल न पायेगी
सिंथेटिक मुस्कान है, मुहब्बत आँसू कहाँ से लायेगी
सिढ़ियों पर आँसू गिरे हैं, यह बात याद न आयेगी
जाने डेमोक्रेसी, दुनिया को कितना और रुलायेगी
कातिल है बहुत खुशमिजाज उसकी अदा बुलायेगी
ख्वाहिशें हैं बेलगाम ये हमारे खून से घर सजायेगी
जज्वात के हैं हौसले बुलंद, यह खुशी काम आयेगी
तूफान नहीं, नई रौशनी ही जिंदगी बिखेर जायेगी
ये बात इश्किया है तुम नादान, समझ में न आयेगी
ये दुनिया का रिवाज दुनिया हर बात पर रुलायेगी
समय सखी संवाद
समय सखी संवाद
यह एक खुशगवार सुबह थी
जिसकी पीछे गतिशील अंधकार था और थी ठहरी हुई प्रतीक्षा
सब कुछ वैसा ही हुआ लगभग जैसा कि तय था
ठहरी हुई प्रतीक्षा के दिन-क्षण-काल गिनने का रिवाज नहीं है
इस तरह कहा जा सकता है, ठहरी हुई थी जरूर मगर लंबी थी प्रतीक्षा
लंबी कितनी का जववाब क्या हो सकता है!
ऐसी प्रतीक्षा की लंबाई प्रकाशवर्ष में नापी नहीं जा सकती
प्रतीक्षा की लंबाई को अंधकारवर्ष में नापना निरादर है प्रतीक्षा का
इतना ही कहा जा सकता है कि ठहरी हुई थी इसलिए माप से परे थी प्रतीक्षा
प्रतीक्षा के उस छोर पर तुम थी और इस छोर पर मैं था
हाँ अब हम देख सकते थे साफ-साफ अपने आस-पास
और उस वक्त किसी भी तरह की प्रतीक्षा का कोई ओर-छोर नहीं था
ऐसा महसूस ही न हुआ कि हम प्रतीक्षा में थे
प्रतीक्षा के उपांत में हम तो थे उतने ही उतने पास
ठीक-ठीक उतने ही पास और कुछ इस तरह थे जैसे प्रतीक्षा के पूर्वांत में
मेरी दोस्त बिना लंबी उसाँस के भी यह महसूस किया जा सकता है कि
जब कुछ भी नहीं होता या होता है, हर हाल में बची रहती है प्रतीक्षा और तुम
शहर पुराना थो जो नये सिरे सँवर रहा था परंतु इतना कहना पर्याप्त नहीं
पर्याप्त नहीं क्योंकि सँवरना शहर की आदत में शामिल था और बेशुमार था
शहर की रौनक हँसी उदासी और रुलाई में तुम्हारा शमिल होना साफ दिखता था
लेकिन शहर की आदत में न तो तुम्हारा होना दिखा और न तुम में शहर की आदत
हाँ दोस्त शहर में समय दो लोगों के बीच इसी तरह खुदमुख्तारी में खड़ा हो जाता है
कि रहें दो लोग चाहे जितने भी पास, समय बीच में खड़ा हो तो दिखे कुछ भी नहीं
समय जानता था एक-ब-एक सन्नाटा तारी होगा इसके पहले कुछ टूट सकता है
हालाँकि समय को अपने जानने पर संदेह होने लग गया था, समय संदेह में था
समय संदेह में था जबकि देह में न कोई संदेह था न सिहरन, हाँ समय में सहम था
समय में सहम क्या होता है, मैंने पहली बार इस तरह से जाना जैसे कि तुम्हें
समय में सहम के होने का तकाजा यही होता है कि टिकी है
जिस पर सभ्यता की बुनियाद
हर किसी के सिर को ही नहीं वजूद को भी
और काँपकर उठती हुई नजर को भी झुक जाना होता है बार-बार
समय ने जैसे अपने खालीपन को भरा इस तरह कि तोड़ा थोड़ा पीछे हटकर
अब हाथ में थी डायरी और कोरे पन्ने एक कलम भी, कुछ अल्फाज भी
शायद समय चाहता हो! क्या पता कि डायरी के कोरे पन्ने भी चाहते हों
चाहते हों कि दर्ज किया जाये और शामिल भी समय के साथ कुछ संवाद
मैं तब से समय से झगड़ रहा हूँ कि समय अकेला नहीं है संवाद
प्रथमतः और अंततः भी तुम हो इसलिए समय है और समय का संवाद भी
इस तरह कोरे पन्ने में तुम्हें दर्ज करना समय को दर्ज करना हो जाता है
समय को दर्ज करने पर जो दर्ज होता है तो वह तुम ही होती होती हो समय सखी
इस तरह तुम समय, तुम सखी और तुम ही संवाद
शुरू करो कहीं से भी किसी भी तरह और दिशा कोई हो बस चलता रहता है
समय सखी संवाद
देशज पर अरुण कमल
अरुण कमल की कविताएँ या कहें दो हिस्से में बँटी एक ही कविता दरअस्ल अपनी सार्वभौमिकता से कटी उस उपभोक्ता व्यक्ति की करुण मानसिक स्थिति का इजहार है जो अमरत्व की लिप्सा की चपेट में जीवन के लिए जरूरी नैसर्गिक संसाधन खोता चला जा रहा है। उसे पानी चाहिए और पानी कहीं बच नहीं पा रहा जीवन में - - - न चेहरे पर, न आँख में और चरित में तो बिल्कुल ही नहीं।
हाट, बाजार और पेठिया के अंतर को ध्यान में रखें तो पता चलता है कि अंतर खो गया है। पहले इलाके मे साप्ताहिक बाजार लगा करता था। जीवन जारी रखने के वास्ते जरूरी विनिमय को संभव करने के लिए बाजार का दिन एक प्रतीक्षित दिन हुआ करता था। तब बाजार का दिन भाषा का यथार्थ था। अरुण कमल की कविता तक आते-जाते बाजार का दिन बहुत ही करुण मुहावरा में बदल गया है। भयानक है इस तरह भाषा के यथार्थ का निरीह मुहावरा में बदलते चला जाना।
जिसके पास देह के अलावा कुछ नहीं होता वही सर्वहारा होता है।
सच को सजा कर रखने की कोशिश सच को झूठ में बदलने की बुनियाद है तो सवाल कलात्मक अभिव्यक्ति पर या अभिव्यक्ति की कला पर जोर देना सच के दायरे से निकलकर झूठ की बारात में शामिल होना है। जब खून में ही उबाल नहीं तो बाजार के दिन के बीच से गुजर रहे आदमी के सामने पानी उबाल कर पीने की शर्त बन जाती है। श्राद्ध से लौटकर छठी में शामिल होने की ओर बढ़ते हुए कवि का हौसला पस्त है, वह हौसला जो कहता था, न जाने से कुछ न होगा टूटेगा भरोसा और वही तो बचाना है हर हाल में! चलिए साथी!
लोग भूल गए हैं (संभवतः 1982) कविता संकलन में रखे गए निवेदन से एक अंश " ज के कवि का अपनी परीक्षा के लिए समाज के सामने आना,विशेष रूप से तब जबकि समाज में उसके अपने अस्तित्व को अर्थात समाज से अपने रिश्ते को समझने में संशय हो रहा हो, उसे अहं के रचनाविरोधी खतरे से बचायेगा।क्या उसकी रचना सचमुच कहीं झूठे विश्वासोंं को झूठा बताती है?और जो नया विश्वास देती है वह लोगों के मन में क्या स्वयं उनकी एक नयी पहचान पैदा करता है ? लोग कवि की रचना में क्या उस नये विश्वास को पहचानकर देख पाते हैं कि अवश्य ही कविता उन्हें बता रही है कि खुद उनमें नया क्या है? पाठक का पुनरूज्जीवन कर सकना आदेश या उपदेश देनेवाले अहं का विसर्जन करके ही संभव है और इसीकी परीक्षा के लिए कवि को बार-बार अपनी रचनाएँ प्रकाशित करनी होती हैं।आज अन्याय और दासता की पोषक और समर्थक शक्तियों ने मानवीय रिश्तों को बिगाड़ने की प्रक्रिया में वह स्थिति पैदा कर दी है कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करनेवाले जन मानवीय अधिकार की अपनी हर लड़ाई को एक पराजय बनता हुआ पा र हे हैं।" तो फिर विकल्प क्या है? रघुवीर सहाय के शब्दों में "... भाइयो,अगर हम अपनी दुनिया में जूझते-जूझते जिंदा नहीं रह सकते तो कम-से-कम इतना करें कि जब मरना पड़े तो उसी में मरने की कोशिश करें।" ( आत्म हत्या के विरूद्ध )
आज जब सभ्यता अमरत्व की खोज में भटककर जिस नये इलाके में पहुंच गई है वहाँ कवि का असली मोर्चा ही खो गया है। ऐसे में कवि जीये तो कैसे और मरे तो कैसे! पानी रे पानी, तेरा मेरे खून से रिश्ता ही खो गया! आभार अरुण कमल और देशज। अब दोस्तों की बात का इंतजार..
1) सुधा जी 🙏🏼 अवधेश को संबोधित करते हुए जिस मार्के की बात की ओर आपने ध्यान खींचा है वह रघुवीर सहाय की कही बात है जिसे यहां मैंने उद्धृत भर किया है। जय से सहमत दुख का मितभाषी हो जाना सही नहीं है। मेरा मानना यह है कि दुख का मितभाषी होना उसी तरह सही नहीं है जिस तरह से उसका दहाड़ना भी सही नहीं है। बहुत बोलती हुई (loud) कविता के बाहर बहुत चुस्त लेकिन सुस्त (mild) कविता भी पाठक का पनरुज्जीवन में बहुत सहायक नहीं। कवि सिर्फ द्रष्टा (observe r) या वाचक (narrator) की भूमिका तक सीमित होता दिखे और पाठक (public के अर्थ में भी ) के नागरिक जीवन के दुख के बाहर से संबोधित करे तो इसे संकट की सूचना के रूप में पढा जाना चाहिए। हमारा यथार्थबोध का अधकचरापन और भाषा का अतिकथन कविता की संवेदना के अंतःकरण को संकुचित ही करता है और पाठक को उसकी आत्मविमुग्धता या आत्मातिक्रमण में जड़ीभूत करने का उपकरण बन जाता है। आरोपित प्रशंसा और कुत्सा से बाहर विश्लेषण की गहरी जरूरत आज कविता को है। इस जरूरत पर ध्यान नहीं दिया गया तो काव्य स्फीति और विस्फीति में कविता सिर्फ उक्ति बन कर रह जायेगी। सिर्फ उक्तिजि चाहे जितनी चामात्कारिक हो अपने चरमोत्कर्ष पर भी कविता नहीं ठहरती है। सामाजिक ताप के संवहन के नैसर्गिक वैभव के छीजन से कविता को बाहर निकलना ही होगा। पब्लिक (सार्त्र का संदर्भ लें) तो दूर पाठक का भी साथ मिलना कठिन ही है। हाँ, प्रशंसा और /या कुत्सा करनेवालों के साथ होने की बात और है।
प्रेम में द्रोह!
प्रेम में द्रोह!
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प्रेम कभी भूतपूर्व नहीं होता। प्रेम में कोई द्रोह नहीं होता। प्रेम में कोई 'ब्रेकअप' भी नहीं है होता है। जहाँ यह सब होता है और जिसमें यह सब होता है वहाँ और वह सब प्रेम नहीं कुछ और होता है। प्रेम एकनिष्ठ भी नहीं होता। प्रेम प्रकाश है। प्रकाश में कोई अंधकार नहीं होता। प्रेम पोशाक नहीं है। प्रेम रौशनी है। रौशनी में पोशिदगी नहीं होती। ऐसी कोई रौशनी नहीं जिसमें कोई एक ही चीज नजर आये और बाकी चीजें नजरअंदाज हो जाये। नजरशनाशी प्रेम का करिश्मा है। इसलिए फिर कहूँ, प्रेम एकनिष्ठ नहीं होता। मुहब्बत चाँद से भी होती है और सितारों से भी, फूल से भी और काँटों से भी, मुहब्बत पूरी कायनात से होती है। यह सब तो कह रहा लेकिन यह एहसास है और बहुत शिद्दत से है कि प्रेम को समझना आसान नहीं, प्रेम एहसास है एहसान नहीं! तो मैं किसी वायवीयता में फँस रहा, किसी अधि-आत्मिकता में! नहीं, बिल्कुल ही नहीं। प्रेम एक तरंग है और इसका अपना रंग है। रंग जो महबूब के वजूद के पनाह में होता है उसका रिश्ता आँख से तो है, सूरज से भी है और ज्यादा है। इसे समझना कठिन है और जरूरी उससे भी ज्यादा। यह ठीक है कि जार जार रोना, बगैर मुड़े आगे बढ़ जाना, बगैर सोचे पीछे लौट आना, और इस दुःख को जानना यह सब मुहब्बत की फसल है। फसल है, फैसला नहीं। यह सब लगता है, होता नहीं। न आगे बढ़ना इतना आसान न पीछे लौटना! मुहब्बत के बारे में ये कुछ कयास हैं जो अपनी अदा में दिल और जुबान से टकराकर और एक दूसरे की सोहबत में कविता के शक्ल में हासिल होती है। "आज कल तो बहुत सारे प्रबंध पाठ और शास्त्र हैं, होटल मैनेजमेंट से ह्यूमेन मैनेजमेंट तक। किंतु संभवत:, दुनिया का सबसे पुराना प्रबंध प्रेमप्रबंध ही है। प्रेम पोषण के लिए भी चाहिए और शोषण के लिए भी। प्रेम साधू को भी चाहिए और कामी को भी चाहिए। दानी को भी चाहिए और डाकू को भी।"
प्रेम का होना हो या फिर राग-द्वेष का होना यह मनुष्य की ऐच्छिक क्रिया नहीं है। अनुभूतियाँ ऐच्छिकता पर निर्भरशील नहीं होती हैं। समझा जा सकता है कि जैसे ठंडा-गर्म या भूख का लगना प्राणी की ऐच्छिकता पर निर्भर नहीं करती वैसे ही प्रेम-पदार्थ के प्रभाव में व्यक्ति के होने का सर्वांश व्यक्ति पर निर्भर नहीं करता। हाँ, प्रभाव की व्याप्ति और गहनता में भिन्नता होती है।
प्रेम में द्रोह नहीं होता प्रेम कभी भूतपूर्व नहीं होता। कई बार हम समझते ही नहीं कि जिसे जीत समझ रहे वह असल में हमारी हार है और जिसे हार समझ रहे जीत उसके भीतर मुस्कुरा रहा है। मेरे दोस्त जो हार और जीत से बाहर है, जो भव और पराभव से परे है वही है जिंदगी।
कह दूँ तेरी हँसी बहुत भाती है
कह दूँ! कि तेरी हँसी बहुत भाती है!!! ▬▬▬▬
गहन, घन अंधकार का गर्जन चतुर्दिक हाहाकर,
दर्द का नीरव निनाद
यह कैसा समय आ गिरा सर पर कोई घायल चीख
नंगे घावों को लेकर कर रहा नाच, भैरवी के सुर में अनाघात
चू पड़ता, बिना हवा के महुआ जंगल में चुपचाप सहमकर ग्राम, सड़क, बन, प्रांतर, बाग, विकार से भरे हुए सब, निर्विकार
ऐसे मौसम में कहाँ
लुप्त वे सारी पुरा कथाएँ,
माथे पर जिनके सजता था जीवन का हास-विलास, रंग-राग नहीं वैभव की स्मृति दूर
क्षितिज के आर-पार से लेकर गह्वर पाताल लोक तक मची हुई मार-काट, सत्ता के शिखर से
जन के पद तक,
हर कहीं अन-चिन्हार आघात के पार कोमल भाव, सीमांत के अंतिम क्षण पर खड़ा निर्जन में अवाक सिर्फ, बोल रहा है जो शब्द-हीन, जो वंचित संचित शोणित राग फफक कर प्रतिपल उत्ताल भू-धराकार रौशनी में सबसे अधिक चमकता है झूठ
यह दुर्लभ समय का चमत्कार सच अँधेरे में है, है मगर जिंदा अब भी, कटे हुए तरु की जिंदा जड़ से लिपटकर, स्वप्न-मग्न
वह भग्न-मनोरथ है जिंदा अब भी उनकी साँसों में साँस मिलाकर जिनका जीवन घोषित व्यर्थ अर्थ जिनके नहीं काम का रह गया किसी अर्थ में, सब अर्थों में असमर्थ भयानक समय, फूल में डंक, पूजा में भी प्रसाद में भी कलंक
कंथा के आर-पार कंधे पर ढोता, जिसके सब अनुगामी, प्रेमी, साधक, राजा, रंक
ऐसे में कह दूँ कि तेरी हँसी बहुत भाती है, तू मेरे साँस-साँस में गाती है तो यह झूठ, समझ
जब तक ग्राम, सड़क, वन, प्रांतर, बाग नहीं लगें झूमने फिर से
तब तक यह चमक झूठ,
यह राग झूठ, अनुराग झूठ, व्यवहार झूठ
यह कब होगा, यह होगा भी
यह कौन कहे
तब तक सब कुछ मौन रहे,
प्रश्न अनुत्तरित, साधना लीन !!! कह दूँ! कि तेरी हँसी बहुत भाती है!!!
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(पाठकीय संदर्भ-संकेतः यह प्रथमतः अपने महबूब जनतंत्र को संबोधित और उसी को समर्पित है)
समाज, सत्ता और संस्कृति
आज संस्कृति का नेतृत्व उच्च वर्ग के हाथ में है -- जिनमें उच्च मध्यवर्ग भी शामिल है।किंतु यह आवश्यक नहीं है कि यह परिस्थिति स्थायी रहे,अनिवार्यत:।यह बदल सकती है।और, जब बदलेगी,तब इतनी तेजी से बदलेगी कि होश फ़ाख्ता हो जायेंगें। संस्कृति का नेतृत्व करना जिस वर्ग के हाथ में होता है,वह समाज और संस्कृति के क्षेत्र में अपनी भावधारा और अपनी जीवन-दृष्टि का इतना अधिक प्रचार करता है कि उसकी एक परंपरा बन जाती है। शायद वह जमाना जल्दी ही आ रहा है जब वे स्वयं संस्कृति का नेतृत्व करेंगी, और वर्तमान नेतृत्व अध:पतित होकर धराशायी हो जायेगा। इस बात से वे डरें जो समाज के उत्पीड़क हैं, या उनके साथ हैं हम नहीं क्योंकि हम पद-दलित हैं और अविनाशाय हैं-- हम चाहे जहाँ उग आते हैं। गरीब, उत्पीड़ित, शोषित मध्यवर्ग को ध्यान में रखकर मैं यह बात कह रहा हूँ।
काँटों से नहीं, बटन होल से डर
काँटों से नहीं गुलों को तो शिकायत किसी और से ही है
सचमुच बेखबर कि वह गुलों का आखिर क्या करता है
कोई भाई नहीं था
और भतीजा भतीजी
पूरा हिंदुस्तान
सारे गुलाब
बटन होल में घुसेड़ दिये गये थे
गुलाब कह रहा है
काँटों से नहीं
बटन होल से
डर लगता रहा है
मैं जो लिखता हूँ
मैं अपने लिखे बारे में कहता हूँ। मेरे लिखे को सहमति या सहमतियों या असहमतियों की कोई तलाश नहीं होती है और न होती है किसी को अपने लिखे के निष्कर्ष तक ले जाने की कोई आकांक्षा। तलाश होती है तो बस संवाद, संवेदना और संभवानाओं (potential) के साझापन की। लेकिन विमर्श विचार आदि की प्रक्रिया का अधिकांश सहमति और निष्कर्षमुखी होता है। चर्चा तो बहुत कम ही हो पाती है और हुई भी तो लिखा हुआ प्रसंग संवाद, संवेदना और संभावना की तलाश में तड़पता हुआ कहीं बहुत पीछे छूट जाता है। मेरे लिखे की हालत मंदिर की सीढ़ियों के पायदानों की तरह जिसे लतियाते हुए लोग अपना-अपना फूल चंदन लिये अपने-अपने देव की पूजा-अर्चना कर प्रसाद समेटने में लग जाते हैं। भिन्न संदर्भ में लिखा था शृंगार ही इतना भव्य कि सौंदर्य तक पहुंचने का रास्ता ढक जाता है और दुल्हन के धड़कते दिल तक पहुंचने की तो उम्मीद ही क्या!हमारा लिखा दुल्हन के धड़कते दिल की तरह तड़पता रह जाता है। अफसोस, मगर यह सच है! और हाँ, मैं पढ़ता भी इसी नजरिये से हूँ। बुद्ध कबीर गालिब रवींद्र प्रेमचंद गांधी अंबेदकर मार्क्स नजरुल निराला नागार्जुन राजेंद्र यादव कमलेश्वर .... या संजीव शिवमूर्त्ति उदय प्रकाश ये सभी मेरे लिए पठनीय बहुत हैं पूजनीय नहीं। ऐसा सोचना पूजनीयताओं के माहौल में कठिन तो है, मगर मेरे लिए कुछ भी कभी आसान नहीं रहा।