आप की राय सदैव महत्त्वपूर्ण है और लेखक को बनाने में इसकी कारगर भूमिका है।
स्थिति भयावह
पछतावा 3
पछतावा 2
फेसबुक जवाब मुक्तिबोध
पछतावा 1
खराऊँ
घोर दरवाजा
जानकार
आप से है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना
आप से
है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना
इसलिए तो हे महामहिम
इसीलिए हे महामहिम
पता नहीं किस चीज पर टिकी हुई है पृथ्वी
इस सवाल पर तरह-तरह की कहानी है
न पृथ्वी का मतलब मालूम है मुझे
न टिके होने के बारे में ठीक-ठीक कुछ पता है
मालूम इतना भर है कि कहानी है कई
कोई आँख नचाकर कहता है
कोई तर्जनी तानकर कहता है
कोई अंगूठा दिखाकर कहता है
कोई छाती फुलाकर कहता है
कोई भिंची हुई मुट्ठी उछाल कहता है
कोई कहकर कंधा झुका लेता है
कोई खुशामद में कहता है
कोई आमद की उम्मीद में कहता है
कोई एक बाँह उठा कर कहता है
कोई दोनों बाँह उठकर कहता है
कोई झंडा लहराकर कहता है
कोई डंडा हिलाकर कहता है
कहाँ तक कहूँ, मुख्तसर यह कि
कहने की जितनी वजहें
उतनी तरह से कहता है, कहानी
मेरी समझ में कुछ नहीं आता है
इसलिए तो हे महामहिम
इसीलिए हे महामहिम
है जो भी शक्ति-पीठ
उन्हें होना ही चाहिए न्याय-पीठ
मगर ऐसा होता नहीं है
इसलिए तो हे महामहिम
इसीलिए हे महामहिम
न्याय-पीठ तो है ही न्याय-पीठ
होनी चाहिए आपके पास भी कोई कहानी
काठुआए हुए काठघर की काठ-हथौड़ी के पास
कहानी कि किस चीज पर टिकी हुई है पृथ्वी
यह भी कि क्या है पृथ्वी और क्या है टिकना
इसलिए तो हे महामहिम
इसीलिए हे महामहिम
आप से है प्रार्थना, बस आप से है प्रार्थना
नवाक/ न्यू-स्पीक
नवाक / न्यू-स्पीक
जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास 1984 (NINETY
EIGHTYFOUR) 1949
में प्रकाशित हुआ। ‘राजकमल गौरवग्रंथ माला: कालजयी साहित्य की विशिष्ट प्रस्तुति’ के अंतर्गत इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ
है। अभिषेक श्रीवास्तव ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। हिंदी भाषा समाज की खासियत
को ध्यान में रखते हुए बहुत बढ़िया अनुवाद संभव किया है अभिषेक श्रीवास्तव ने। इसमें
न्यू-स्पीक के बारे में, उसकी विकासमान वैयाकरणिक कोटियों के बारे में बताया गया
है।
यह माना गया है कि 2050 तक अंग्रेजी भाषा पूरी
तरह बदल जायेगी, न्यू-स्पीक में। इतनी बदल जायेगी कि पुराने सारे पाठ समझ एवं प्रयोग
से बाहर हो जायेंगे। क्या इस तरह सिर्फ अंग्रेजी भाषा बदलेगी! मेरी उत्सुकता भारतीय भाषाओं को लेकर है। हिंदी
के लिए खासकर। हिंदी के लिए खासकर इसलिए कि हिंदी मेरे सर्वाधिक इस्तेमाल की भाषा
है। क्या हिंदी (अन्य भी) नवाक (नव वाक) में बदल जायेगी!
टू द प्वाइंट होने की माँग बढ़ रही है। पावर
प्वाइंट्स, कथ्य के बुलेट फॉर्म्स अधिक सहजता से स्वीकार्य हो रहे हैं। संवाद का कारगर
माध्यम शब्द से अधिक चित्र बन रहे हैं। बाइनरी युग आ गया है या तेजी से आता जा रहा
है। ‘ग्रे
एरिया’ तेजी
से छोटा होता जा रहा है। हाँ या ना, दोस्त या दुश्मन, बीच की कोई स्थिति नहीं।
सप्रसंग व्याख्या और विस्तृत विवरण, गये जमाने
की चीज है। आज दृश्य का विस्तार हो रहा है। श्रव्य तेजी से संकुचित हो रहा है। टेक्स्ट
जितनी पढ़ी जा रही है, उससे कई गुणा चित्र पढ़े जा रहे हैं। दर्शक की क्षमता एवं सुविधा
के आधार पर चित्र मनोबांछित टेक्स्ट बनकर हासिल हो रहा है। सामाजिक दृष्टिकोण से
देखें तो संज्ञा का (डिजिटेलेजाइशन) संख्या में बदलना शुरू हो गया है। कुछ मामले
में पहचान नाम से नहीं नंबर से हो रहा है। संज्ञा के साथ पहचान के बहुत सारे
संदर्भ लिपटे रहते हैं, जैसे जाति, धर्म, लिंग आदि। विशिष्ट संख्या (युनिक नंबर) नाम
का स्थान बड़ी आसानी और अधिक विश्वसनीयता से ले रही है। आगे क्या होनेवाला है!
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जारी.....
पुतला और उसकी हँसी
पुतला और उसकी हँसी
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एक कमरा है। हर तरफ से बंद। हर तरफ से खुला। यह
समझना मुश्किल है। हर तरफ से बंद और हर तरफ से खुला, एक साथ कैसे संभव है!
यह आधुनिक तकनीक है। महाभारत में इसकी चर्चा
मिलती है। आधुनिक तकनीक से हमारे समय में यह संभव हुआ है। द्वार और दीवार का फर्क
मिट गया है। दूर से देखने पर द्वार ही द्वार नजर आते हैं। कहीं कोई दीवार नहीं।
पास आने पर पता चलता है, दीवार ही दीवार है। कहीं कोई द्वार नहीं। तो असल में, यह
क्या है! यह
दीवार भी है। यह द्वार भी है। बस पता नहीं चलता कहाँ दीवार है, कहाँ द्वार है। एक
आदमी को पता है। वह आगंतुक है। आगंतुक कमरा में घुस जाता है। उसके पीछे आनेवाले को
पता ही नहीं चलता, वह आदमी गया कहाँ। वह आदमी कैसे आगंतुक में बदल गया!
बाकी कैसे नागंतुक बनकर बाहर रह गये! नागंतुक कमरे के अंदर जा नहीं सकते। बाहर आगंतुक
दिखाई नहीं देता।
कमरा सजा-धजा है। एक आदमी दिखाई देता है। पुतला
भी हो सकता है। वह आदमी है या पुतला, पता नहीं चलता है। हर चीज आँख के इशारे पर। हाथ
की पहुँच में। उसकी पीठ दिखाई देती है। पीठ पर अंकित बड़ी-सी शक्ति-मुद्रा साफ-साफ
दिखती है। आगंतुक न समझ आनेवाली मुख ध्वनि से शक्ति-मुद्रा को संबोधित करता है।
कमरा में बहुत सारे पुतले प्रकट होते हैं। पुतला में कोई हलचल नहीं। आगंतुक फिर
कुछ बुदबुदाता है। इस बार शक्ति-मुद्रा पीछे और मुख-मुद्रा सामने। साफ होता है। वह
आदमी है। कमराधिपति है। आगंतुक कमराधिपति को अपनी भाषा में संबोधित करता है। कमराधिपति
सुनकर मुसकुराता है। कमरे के सारे पुतले में जान आ जाती है। हरकतें होने लगती हैं।
कमराधिपति अट्टहास करता है। पुतलों का दिव्य चक्षु-नृत्य आरंभ हो जाता है। अब कमराधिपति
की मुख-मुद्रा पीछे, शक्ति-मुद्रा आगंतुक के सामने।
बाहर खड़े लोग चकित। कुलिश-दृष्टि। धुआँ। लपट। चीख।
पुकार। हाहाकार। दलन-वृष्टि।
कृपा-दृष्टि। पुष्प-वृष्टि। अन्न-वृष्टि। धन-वृष्टि।
मदन-वृष्टि।
आगंतुक कमरा से बाहर आ गया है। बाहर का दृश्य
देख वह जरा भी चकित नहीं है। भ्रमित नहीं है। नागंतुकों की ओर बढ़ता है। वह अपनी
अंगुली नागंतुकों की ठोंठ पर रखता है। इशारा! निर्देश! आदेश! चुप रहो। सब चुप रहो।
आगंतुक शंकित है। कमराधिपति कितने दिन तक हँसते
रहेंगे। कितने दिन तक अट्टहास लगाते रहेंगे। कमराधिपति के चेहरे पर थकान छा रही
है। कमराधिपति की थकान रोनी-मुद्रा में आ गयी तो क्या होगा? मुस्कान सिसकियों में बदल सकती है क्या?
अट्टहास रुलाई में बदल सकती है क्या?
कृपा-दृष्टि जाये भाँड़ में। ऐसे में प्रकट-अप्रकट पुतलों का क्या होगा? दिव्य चक्षु-नृत्य का क्या होगा? कुलिश-दृष्टि का क्या होगा?