नवाक / न्यू-स्पीक
जॉर्ज ऑरवेल का उपन्यास 1984 (NINETY
EIGHTYFOUR) 1949
में प्रकाशित हुआ। ‘राजकमल गौरवग्रंथ माला: कालजयी साहित्य की विशिष्ट प्रस्तुति’ के अंतर्गत इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ
है। अभिषेक श्रीवास्तव ने इसका हिंदी अनुवाद किया है। हिंदी भाषा समाज की खासियत
को ध्यान में रखते हुए बहुत बढ़िया अनुवाद संभव किया है अभिषेक श्रीवास्तव ने। इसमें
न्यू-स्पीक के बारे में, उसकी विकासमान वैयाकरणिक कोटियों के बारे में बताया गया
है।
यह माना गया है कि 2050 तक अंग्रेजी भाषा पूरी
तरह बदल जायेगी, न्यू-स्पीक में। इतनी बदल जायेगी कि पुराने सारे पाठ समझ एवं प्रयोग
से बाहर हो जायेंगे। क्या इस तरह सिर्फ अंग्रेजी भाषा बदलेगी! मेरी उत्सुकता भारतीय भाषाओं को लेकर है। हिंदी
के लिए खासकर। हिंदी के लिए खासकर इसलिए कि हिंदी मेरे सर्वाधिक इस्तेमाल की भाषा
है। क्या हिंदी (अन्य भी) नवाक (नव वाक) में बदल जायेगी!
टू द प्वाइंट होने की माँग बढ़ रही है। पावर
प्वाइंट्स, कथ्य के बुलेट फॉर्म्स अधिक सहजता से स्वीकार्य हो रहे हैं। संवाद का कारगर
माध्यम शब्द से अधिक चित्र बन रहे हैं। बाइनरी युग आ गया है या तेजी से आता जा रहा
है। ‘ग्रे
एरिया’ तेजी
से छोटा होता जा रहा है। हाँ या ना, दोस्त या दुश्मन, बीच की कोई स्थिति नहीं।
सप्रसंग व्याख्या और विस्तृत विवरण, गये जमाने
की चीज है। आज दृश्य का विस्तार हो रहा है। श्रव्य तेजी से संकुचित हो रहा है। टेक्स्ट
जितनी पढ़ी जा रही है, उससे कई गुणा चित्र पढ़े जा रहे हैं। दर्शक की क्षमता एवं सुविधा
के आधार पर चित्र मनोबांछित टेक्स्ट बनकर हासिल हो रहा है। सामाजिक दृष्टिकोण से
देखें तो संज्ञा का (डिजिटेलेजाइशन) संख्या में बदलना शुरू हो गया है। कुछ मामले
में पहचान नाम से नहीं नंबर से हो रहा है। संज्ञा के साथ पहचान के बहुत सारे
संदर्भ लिपटे रहते हैं, जैसे जाति, धर्म, लिंग आदि। विशिष्ट संख्या (युनिक नंबर) नाम
का स्थान बड़ी आसानी और अधिक विश्वसनीयता से ले रही है। आगे क्या होनेवाला है!
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जारी.....
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