Sheshnath Prasad
आप मेरी पोस्ट पर कुछ भी, हाँ कुछ भी लिखकर कोई गलती नहीं करते हैं। मुझे यह अच्छा लगता है। और आप से अनुरोध है कि आप जरूर लिखें। खेद व्यक्त करने का तो कोई सवाल ही नहीं है। और हाँ, यदि आप का मन मेरे जवाब या मेरी टिप्पणी से खिन्न होता है तो मुझे इसके लिए खेद होना चाहिए और है।
आप ने कई सवाल उठाये हैं और वे महत्वपूर्ण हैं। सभी सवालों का जवाब यहाँ संभव नहीं है, कुछ का जवाब देना जरूरी है। मैं भले ही जवाब की तरह लिखूं, आप से अनुरोध है कि इन सवालों पर मेरे जवाबों को मेरे पक्ष की तरह पढ़ने की कृपा करें, सिर्फ अपने सवालों के जवाब की तरह नहीं। संभव होगा तो इन सवालों को स्वतंत्र पोस्ट के रूप में डालने की कोशिश करूंगा।
जो बात वर्ग या समूह के लिए कही जाती है वह उस वर्ग या समूह के किसी सदस्य के ऊपर तत्काल लागू नहीं होती है। वर्ग या समूह पर कही गई बात उस वर्ग या समूह की प्रजाति पर लागू होती है। जैसे, सफेद शेर विलुप्त हो रहे हैं यह किसी व्यक्ति शेर पर लागू नहीं हो सकती है। किसी एक शेर को सामने खड़ा कर उसके विलुप्त होने की परीक्षा नहीं की जा सकती है और न इस आधार पर कोई निर्णय किया जा सकता है। उसी तरह व्यक्ति पर कही गई बात को उसके पूरे वर्ग पर लागू किया जा सकता है। जैसे, यह या कुछ शेर लंगड़ा है तो यह नहीं कहा जा सकता कि शेर लंगड़ा होता है। अधिक के लिए इंपरेटिव नॉरमेटिव या आगमन निगमन पद्धतियों का संदर्भ आप ग्रहण कर सकते हैं।
बौद्धिक वर्ग को बौद्धिक वर्ग के सदस्यों पर लागू करना ठीक है या नहीं, निर्णय आप करें।
बौद्धिक वर्ग कैसे बनता है या किन से बनता है! क्या इसमें सिर्फ भौतिक धरातल पर जीवित लोग ही शामिल होते हैं यह एग्रीगेट होता है या एवरेज अर्थात सकल या औसत होता है यह एक जटिल प्रक्रिया है। इस पर यहाँ अभी लिखना संभव नहीं है मेरे लिए। बौद्धिक कौन होता है! सभ्यता का मूल संघर्ष सत्ता संघर्ष होता है। मनुष्य के मनुष्य बनने में अन्य मनोभावों के इतर, बुद्धि का बड़ा और प्राथमिक योगदान है। बुद्धि के अनुपात में सत्ता का संदर्भ समझा जा सकता है। आत्म आकलित बुद्धि के अनुपात में अपेक्षित और अर्जित सत्ता का असंतुलन सत्ता संघर्ष के पहले पायदान यानी बौद्धिक संघर्ष से जोड़ देता है। संक्षेप में, प्रसंगतः, यह कहना जरूरी है कि बौद्धिक वर्ग का कोई नेता नहीं होता या बौद्धिक वर्ग का सदस्य किसी का अनुयायी नहीं होता है। बौद्धिक संघर्ष का एक रास्ता राजनीतिक संघर्ष की तरफ जाता है और राजनीतिक संघर्ष में बदल जाता है। इसी तरह से और तरह के संघर्षों में भी बौद्धिक संघर्ष बदलता रहता है।
गाँधी या कृपलानी नेहरु आदि राजनीतिक वर्ग में माने जाने चाहिए, बौद्धिक वर्ग में नहीं। उन्हें कौन फीडबैक देता था, नहीं देता था कि मुझे नहीं मालूम, लेकिन वे क्रीत दास नहीं थे।
कविता क्या है? यह कैसे बनती है? इसे किस तरह पढ़ना चाहिए? यह अलग से विवेचनीय है। इसका कोई अंतिम उत्तर नहीं हो सकता, मेरे पास तो नहीं हो सकता। कविता किसी व्यक्ति पाठक के द्वारा पढ़ भले ली जाती हो, कुछ सीमित समय में, उतरती है व्यापक समय के फलक से गुजरते हुए। कवि होना और बात है वचन प्रवीण होना और बात है, तुलसीदास कह गये हैं। बहुत लंबा हो गया। वेतनभोगी भी बौद्धिक वर्ग में शामिल हो और अपने वेतनभोग के अवसरों को बचाते हुए ही उसकी बुद्धि खिले तो क्या कहेंगे। आज के बौद्धिक परिसर को देखते हुए ही इन पंक्तियों को मैं ने यहाँ साभार डाला है। मुक्तिबोध की प्रतिबंधित पुस्तक का स्मरण कराता हूँ। एक बात और जबलपुर से एक स्तर पर ओशो का भी जुड़ाव था और मुक्तिबोध का भी। भाई, बाकी अन्यत्र।
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