संवाद जरूरी है


जिंदगी को हर पल जीना होता है। संघर्ष और कर्तव्यबोध से भरी हुई जिंदगी हमेशा सक्रिय प्रेरणा हैं। कई बार आदमी अपने अनजाने भी ऐसा कुछ कर जाता है जिसके दूसरे के लिए महत्त्व का पता उसे खुद भी नहीं होता है। जब पीछे मुड़कर, थोड़ा

ठहर कर सोचता है तो कभी-कभी खुद भी अचरज से भर जाता है कि यह मैंने किया है। हाँ यह मुड़ना, थोड़ा ठहरना, थोड़ा सोचना थोड़े मुश्किल से होता है।

जिंदगी को अपने तरह से जीना चाहिए। संवाद जरूरी है उससे जिससे हम अपना सुख-दुख बाँट सकें। छोटी-छोटी खुशियाँ जिंदगी को मनोरम बनाती हैं छोटे-छोटे दुख जीवन को दुर्भर बना देते हैं। मैं जानता हूँ कि दिल में उमंग हो, भाव हों तो पेड़-पौधे, फूल-पत्ती, पूरबा-पछबा, सूरज-चाँद, रंग-पाखी सभी संवाद करने लगते हैं आपस में और हमारे संवाद के सहयोगी, संवाहक बनते हैं। याद है वो दिन जब हम मेघ से अपना मन कहते थे और मेघ तुम से मेरा ... हम से हमारा मन कहता था गरज-बरसकर... हम चाँद से कुछ कहते थे और चाँद आधी बात कहकर बादलों में छुपकर हमें सताता था.. बहुत मनुहार के बाद सामने आता था... बहुत मनाने पर पूरी बात बताता था... हवा का एक झोंका आता था और मन को सँवार जाता था... और बरखा रानी दूब को हरियाने के पहले हमारे मन को हरित-क्रांति की संभावनाओं से भर देती थी... याद है कैसे सारी-सारी रात तारों से हम बतियाते थे ... उनकी बातें गुप-चुप सुन लेते थे... और तारे कभी-कभी तो हम पर टूट भी पड़ते थे... आज मगर थोड़ा कठिन हो गया है... दिल के उमंग को इन सबसे जोड़े रखना.. मगर असंभव नहीं यह आज भी...तब हमारे पास नेट और फेस बुक नहीं था... अब तो यह भी है... संवाद का नया साधन...
फेसबुक पर

साथ से नहीं, सेल्फी से परफूल!

साथ से नहीं,
सेल्फी से परफूल!
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सुबह-सुबह पास-पास
तुहिन-कणों से लदे-फदे
खिले-खिले दो फूल!
मैं ने पूछा फूलों से
सुबह-सुबह!
इतने खिले-खिले कैसे!
फूल ने कहा,
सच फूल ने कहा!
- देखते नहीं परफूल!
हम दोनों हैं!
कितने पास-पास हैं!
साथ-साथ हैं!
मैं ने कहा,
- चल पगले!
हो जाये
तुम दोनों के साथ
मेरी भी एक सेल्फी!
फूल ने कहा -
चल ठीक है!
तू भी खिल जा!
आजकल
आदमी का मन!
साथ से नहीं
सेल्फी से खिलता है!
चट बना, पट खाया!
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अपने हाथ से
बने खाना
का मजा
कुछ और ही होता है।
क्यों मुरली, है न!
जितना भात तरकारी
जिस मजा से खाये
अभी उसका चवन्नी भी
बड़े बड़े होटलों में
नसीब नहीं भाई!
हाँ, बिल्कुल
चट बना
पट खाया
गरमागरम!
हाथ मुँह बरतन
साथ धो लिया
किचेन बरतन
स्वच्छ इंडिया
सब हो गया!
अपने सिवा
किसी को
पता नहीं चला -
क्या मजा लिया!
क्या मजा लिया!

सूचना और संवेदना


सूचना और संवेदना

दिन काल अच्छे नहीं हैं। पुराने दिनों को याद करना चाहिए। बहुत पुराने दिनों की बात नहीं भी तो, आजादी के आंदोलन के समय की बात करनी चाहिए। आजादी के आंदोलन की आकांक्षा और बनक पर बात करनी चाहिए। आंदोलन के गर्भ में एक आकांक्षा थी। एक स्वप्न था। कुछ के कुछ स्वप्न पूरे हुए। कुछ की कुछ आकांक्षा पूरी हुई। यह सच है कि बहुजन के स्वप्न, बहुजन की आकांक्षा पीछे छूट गई और छूटती चली गई। और इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के समापन सब कुछ बिखरा-बिखरा प्रतीत हो रहा है। यहाँ आजादी के आंदोलन के दौरान हिंदी पटल पर सूचना और संवेदना माध्यम पर बात करने का इरादा है। सूचना से आशय यहाँ समाचार माध्यम या मीडिया से है और संवेदना से आशय साहित्य से है।
जब मीडिया नहीं थी, साहित्य तब भी था। मीडिया के आने के बाद सूचना की गति में अद्भुत तेजी आई। सूचना से संवेदना को जोड़ने के लिए मीडिया ने साहित्य को साथ लिया। देखा जा सकता है कि उस समय के साहित्यकार ही मीडिया का काम करने लगे। कवि कहानीकार आदि ही संपादन का जिम्मा सम्हाल रहे थे। कहना न होगा कि इन दोनों के साथ निरपेक्ष राजनीति का दृष्टिकोण भी सक्रिय था या जन राजनीति सक्रिय थी। धीरे-धीरे मीडिया की मुख्य संचालिका शक्ति सत्ता राजनीति से प्राण पाने लगी और उसने अपने साथ लिया सत्ता साहित्य को। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में उन यथाकथित (तथाकथित नहीं) बड़े साहित्यकारों को जगह मिलने लगी। यथाकथित जन पक्षधर साहित्य को खाते-पीते लोगों के स्वप्न का अवरोधक माना जाने लगा। धन पक्षधर को जन पक्षधर फूटी आँख नहीं सुहाया। इस तरह साहित्यिक या लघु पत्रिकाओं का जन्म हुआ। अचंभा नहीं होनी चाहिए कि क्यों जन पक्षधर साहित्य खाते-पीते लोगों से दूर होता गया और जिनकी पक्ष धरता की बात करता था यह साहित्य, उन में बड़े-बड़े का ही प्रभाव बढ़ता चला गया। लघु पत्रिकाओं की अपनी सीमा थी--  संसाधनगत भी, उद्देश्यगत भी। अपने और अपनों के बाहर के किसी को स्थान देने की गुंजाइश धीरे-धीरे खतम हो गई। अंततः लघु पत्रिकाओं के भी विशाल-विशाल अंक निकलने लगे। कह सकते हैं कि साहित्य के क्षेत्र में लघु पत्रिकाओं की जगह ठगु पत्रिकाओं ने ले लिया। ऐसा इस लिए हुआ कि इन में बड़ा बनने की चाह हिलोरें मार रही थी। बड़ा बनने की चाह कहाँ ले जाकर क्या गति करती है यह जानने महसूस करने के बावजूद बड़े लोगों ने इस गति को ही प्रगति मानने बताने का काम किया। धनी और बड़ा होना किसे अच्छा नहीं लगता है, भला! मुख्तसर यह कि मीडिया और साहित्य का तथाकथित बड़े हिस्से का रुझान बची हुई जन पक्षधरता से बदलकर धन पक्षधरता की तरफ होने लगा। मीडिया में सक्रिय कुछ संवेदनशील लोग धन पक्षधरता और धन पक्षधरता में संतुलन बनाये रखने की कोशिश में लगे रहे। इस कोशिश में अपनी बढ़ती हुई मुख परिचिति को इन संवेदनशील लोगों ने अपनी योग्यता और लोकप्रियता मानते हुए धन पक्षधरता के परिसर में अनिवार्य मानने की गलती की। स्थिति की आक्रामकता बढ़ती गई। अंततः धन पक्षधर ने इन संवेदनशील मीडिया कर्मियों के अपने को अनिवार्य मानने के भ्रम को तोड़ दिया। इसी का नतीजा था कि चैनलों की सेवा से ऐसे लोग निकाल बाहर किये गये। जाहिर है समाचार की गुणवत्ता में उन मुद्दों को जोड़ने का इरादा ही प्रमुख था जिन्हें कई बार जन सरोकारों के मामले से ध्यान भटकानेवाला कहा जाता है। यह सब आ उच्च तकनीक के सर्वसुलभ होने के वातावरण में नेट की सुलभता ने एक हद तक इस मामले में बड़े-छोटे के अंतर को मिटा दिया है। अभी नेट-निष्क्षता बची हुई है। है, कब तक बची रहेगी कहना मुश्किल है। स्थिति यह है कि नेट-निष्पक्षता दोनों तरफ की सुविधा देती है – ध्यान भटकाने की भी और ध्यान दिलाने की भी। ध्यान दिलाने की प्रक्रिया को सीमित करने के लिए नेट-निष्पक्षता को कमजोर किया जाता है तो ध्यान भटकाने की प्रक्रिया भी उसी अनुपात में सीमित होती चली जायेगी। नेट-निष्पक्षता को खतम करने में यह एक मुश्किल है। इस मुश्किल का कोई हल निकल जाने पर नेट-निष्पक्षता बहुत दिन तक टिकी रहेगी, इस में वाजिब संदेह है।
नेट-निष्पक्षता के माहौल में संवेदनशील पत्रकारों ने अपना काम बखूबी करना शुरू किया है। वे आयासपूर्वक मीडिया की जन पक्षधरता में जन मुद्दों का संतुलन कामयाबी से बनाये रख पा रहे हैं। सूचनाएँ लगातार आ रही हैं। उन्हें संवेदना यानी साहित्य से जोड़ने का काम नहीं हो पा रहा है। जितनी मेहनत कर वे सूचनाओं और संदर्भों को खोजकर ले आते हैं और पूरी दक्षता के साथ परोस देते हैं और उसमें अपनी बात कहते हैं वह निश्चित ही सराहनीय है। इस खोज-बीन में वे चाहें तो और न चाहने का कोई कारण नहीं है, साहित्य में उनके कथ्य से जुड़े साहित्यिक अभिव्यक्ति के उपलब्ध संदर्भ का भी उतनी ही दक्षता से समायोजन कर सकते हैं। इस समायोजन के लाभ को वे बेहतर जानते हैं यहाँ तो सिर्फ ध्यान दिलाया जा रहा है। यह ध्यान दिलाये जाने की आवश्यकता मुझे इस लिए पड़ी कि पुण्य प्रसून बाजपेयी की एक बहु-प्रभावी प्रस्तुति में बार-बार अंधेरे का जिक्र आ रहा था लेकिन कहीं भी मुक्तिबोध की कविता अंधेरे किसी संदर्भ का कोई जिक्र नहीं आया। मुझे तो 1990 के आस-पास लिखे नूर मुहम्मद नूर का एक शेर भी बहुत याद आया जो पुण्य प्रसून बाजपेयी की उस बहु-प्रभावी प्रस्तुति के समापन पर उनके शुक्रिया कहने के बाद मेरे मुँह से निकल गया। आप भी गौर कीजिए। ये
जो थोड़ा-सा उजाला है, गनीमत जानो,
दिन और अभी, और अभी काले होंगे।

खिड़की से समय में झाँकता हूँ



प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

समाज में हूँ, समाज में सब चलता है, बस .....

समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 

सब चलता है समाज में 
कीर्तन चलता है 
भजन चलता है 
दमन चलता है 
मर्दन चलता है 
बस मनन नहीं चलता है 
मनन नहीं चलता है 
  समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 
चलता हो भले
आता जाता नहीं है 
किसी को कुछ आता जाता नहीं है

समाज में हूँ 
समाज में सब चलता है 
समाज में सब छलता है

बनारस शहर नहीं, समास है


केदार नाथ सिंह की कविता बनारस

कविता में सामान्य मनुष्य, स्थान का उल्लेख तो होता ही रहता है। किसी विशिष्ट या खास व्यक्ति या शहर आदि पर कविता कम ही देखने को मिलती है। सामान्यतः, कविता सामान्य पर होती है। खास पर कविता लिखना तोड़ा मुश्किल काम है। अभी केदारनाथ सिंह की कविता माँझी का पुल पर कुछ काम किया है। वह भी तो एक खास पुल ही है। अब जबकि उनकी कविता बनारस पर काम करने बैठा हूँ, मन में फिर एक सवाल है कि आखिर किस तरह से उन्होंने इस कविता को हासिल किया होगा! पाठक ठीक उसी तरह से इस कविता को कैसे हासिल करे! केदारनाथ सिंह की कविता में यह एक खास बात है कि वे ठीक उस तरह से पर अतिरिक्त जोर देते हैं और इस तरह से कविता में कुछ खास ऐसा जोड़ देते हैं जिस से उनकी पूरी कविता का अर्थ-लय बदल जाता है। सिर्फ अर्थ-लय ही क्यों संवेदना का धरातल भी बदल जाता है।
बनारस के संदर्भ हिंदी साहित्य में कई तरह से आया है, लेकिन इस शहर में कैसे आता है वसंत यह तो सिर्फ यह कविता बताती है। इस शहर में वसंत के आने के बाद क्या होता है, यह भी केदारनाथ सिंह की कविता की नजर से ही समझा जा सकता है।
इस शहर में वसंत

अचानक आता है

और जब आता है तो मैंने देखा है
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से
उठता है धूल का एक बवंडर
और इस महान पुराने शहर की जीभ
किरकिराने लगती है
यानी शहर की खाँटी देसी बनारसी वाचालता बढ़ जाती है। शहर पुराना है, मगर बूढ़ा नहीं है। वसंत आता है तो उस शहर का मिजाज भी अपने वसंती रंग का जीर्णोद्धार कर लेता है। जो गुजर गया है वह भी जैसे अभी गुजरा नहीं है, वसंत के आगमन का स्वागत अपनी खपचियों से करता जाता है। खपचियाँ फेंकते हुए किसी का इस तरह गुजर जाना दशाश्वशमेध घाट के पहले पत्थर को नहीं, आखिरी पत्थर को मुलायम बना जाता है। न जाने कितने शव के जाने का साक्षी बना यह दशाश्वशमेध घाट अपने आखिरी पत्थर को मुलायम बनाता आ रहा है लेकिन न मेध रुकता है, न इस का आखिरी पत्थर कभी आखिरी हो पाता है। इस कारुणिक दृश्य से नम हुए पूर्वजों, बंदरों की आँख की नमी केदारनाथ सिंह की कविता की आँख की नमी से अदृश्य रह पाती है। भीखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन भी किसी चमक से भर जाता है। गुजरा हुआ भी किसी-न-किसी के लिए एक आश्वासन छोड़ जाता है, इस तरह से। जो शहर में आता है भीखारियों के कटोरों में उतरता है, वह वसंत कुछ इस तरह कि गुजरने से शहर खाली होता है जितना, उतना ही भरता रहता है भीखारियों का कटोरा चमक से। इस तरह से खाली कटोरियों में वसंत का उतरना देखती है, केदारनाथ सिंह की कविता।
जो है वह सुगबुगाता है
जो नहीं है वह फेंकने लगता है खपचियाँ
आदमी दशाश्वशमेध पर जाता है
और पाता है घाट का आखिरी पत्‍थर
कुछ और मुलायम हो गया है
सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आँखों में
एक अजीब सी नमी है
और एक अजीब सी चमक से भर उठा है
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन
तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना!
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़ रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अँधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़



धीमापन इस शहर का स्वाभाविक छंद है। कोई लाख कहे, और कहनेवाला कोई कवि ही क्यों न हो, लेकिन यह सच है इस शहर में  भी बदलाव होता तो है, परंतु होता है, धीरे-धीरे। अचानक और अचंभा की तरह नहीं होता है, होता है बदलाव शाश्वत की तरह धीमे-धीमे। यह धीमापन ही है जिसने बचाया था बनारस में उस पुरानेपन को और उसे भी जो पुराना होने पर भी बूढ़ा होने से बचाता रहता है सदैव। यह धीमापन का ही छंद है जो उसे अछिंजल-सा पवित्र अस्तित्व को आधार देता है। और शायद इसीलिए अपने आधे-अधूरे अस्तित्व में भी यह शहर जल में भी है मंत्र में भी है, फूल में भी है, शव में भी है, नींद में भी है और शंख में भी है। सूर्य जो किसी को भी लक्षित करने का बुनियादी आधार देता है, वही सूरज इस शहर में खुद अलक्षित होकर अपना अर्घ्य ग्रहण करता है। यह शहर गंगा में अपनी एक टाँग पर खड़ा है। खड़ा है कुछ इस तरह कि दूसरे टाँग से है बेखबर। परंपरा में जीता है यह शहर और प्रगति के लिए उठाये गये दूसरे कदम की उसे कोई खबर ही नहीं है। बनारस में इतने पास-पास रहते आये हैं परंपरा और प्रगति, दोनों बिना संवाद के। शहर कि मानें तो प्रगति एक दिन परंपरा बन जाती है, लेकिन परंपरा कभी प्रगति नहीं बनती। परंपरा बहती है, जिधर जमीन अनुकूल हो, ढलान हो; प्रगति चलती है जिधर जमीन अनुकूल न भी हो मगर जिधर समय की उठान हो।
आज की स्थिति में देखें तो, आधा बनारस इस कविता में है, आधा नहीं भी है। बनारस बदल रहा है। अच्छा है या है बुरा इसकी परवाह किये बिना बनारस बदला है, बदल रहा है। और थोड़ी-सी तेजी से ही बदल रहा है। जितनी तेजी से बदल रहा है उतनी ही तेजी से इसका स्वाभाविक छंद भी बदल रहा है। बनारस में आरती का आलोक तेज हुआ है तो तेज़ भी हुआ है, तीखा हुआ है। श्रीकांत वर्मा को याद कर लें तो यह सच है कि वह जो बनारस था जिसे हम मगध की तरह खोते जा रहे हैं वह बनारस बचा रह जायेगा केदारनाथ सिंह की इस कविता में। बचा रह जायेगा वह बनारस इस कविता में ठीक उसी तरह से जैसे बचा रह गया था बाघ कुम्हार की आँख में जैसा कि वह था टूटने के पहले, खुद केदारनाथ सिंह की कविता बाघ में। यह भरोसा इस कविता के मन में है।
इन दिनों की बदलाव की बयार नहीं, आँधी चल रही है। हमारे रिश्ते बदल रहे हैं, सरोकार बदल रहे हैं, संबंध चाहे व्यक्ति से हों, समाज से हों या फिर राष्ट्र-राज्य या ईश्वर से ही क्यों न हों बदल रहे हैं, कुछ अधिक तेजी से ही बदल रहे हैं। इस बदलाव में सत्य तो है, शिवम और सुंदरम की बात तो भविष्य की मोतियाबिंदी आँख में है। ऐसे में केदारनाथ सिंह की कविता में भी जो भरोसा है वह तभी कामयाब हो सकता है जब उनकी कविता बसी-बची रहेगी हमारे मन में। इसलिए जरूरी है इस कविता को अपने मन में जगह देने की और भरोसा को बचाने की। इस कविता के लिए मन में जगह नहीं बनी रहे तो कुछ नहीं, बस भरोसा का एक रेशा और टूटेगा। भरोसा का रेशा जब टूटता है तो क्या होता है, बतायेगी राजेश जोशी की कविता जिसमें नट भरोसे की रस्सी पर चलता है। सिसक उठेगी अरुण कमल की कविता कि अरे यही तो था हर हाल में जो टूट गया! क्योंकि यही वह भरोसा था जयशंकर प्रसाद की आँख में हिमाद्रि तुंग श्रृँग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती की ललकार बना था। न बचेगा भरोसा तो भीगे नयनों से प्रबल प्रवाह देखना ही हमारी नियति बनकर रह जायेगी। पूछिये नजीर से इस तरह नहीं बचा पाये हम बनारस को तो, कैसे मनेगी होली! उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम सभी का समन्वय, संतुलन और समंजन का साक्षी यह बनारस ही तो है। हजारीप्रसाद द्विवेदी से पूछिये उन्हें पोथा देनेवाला अनामदास का असल नाम बनारस नहीं था तो क्या था! बनारस शहर नहीं समास है, भारतीय संस्कृति के सार का समास है बनारस। बनारस शहर नहीं, समास है। बनारस बदलकर भी बनारस ही रहेगा, जैसे देवदत्त अंततः देवदत्त ही रहता है अपने हर बदलाव के साथ। जैसे बचे रह गये हैं बाघ और बुद्ध दोनों अष्टाध्यायी और चर्यापद में। इस बचे रहने में केदारनाथ सिंह की कविता बनारस बची रहेगी, बसी रहेगी मन में।
  




सपनों का हमसफर और यथास्थितिवाद की कराह

यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के बाद भाववाद के बदलाव का व्याकरण
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चारों तरफ बदलाव की बात चल रही है। बात क्या चल रही है, इसे हाहाकार ही समझा जा सकता है। बदलाव से घबराने की जगह उसे समझने की जरूरत है। बदलाव की अपनी दिक्कतें होती हैं। अधिकतर मामलों में, हमारा मन अपनी आरंभिक जड़ता के कारण जीवन में आये किसी बदलाव के लिए सहज तैयार नहीं होता है। मन सहज ही तैयार हो या न हो, बदलाव जीवन का नियम है, बदलाव जीवन की नियति है। इसलिए, बदलाव के साथ तो अंततः होना ही पड़ता है।
एक बात यह समझ में आती है कि इस बदलाव में सब कुछ शुभ नहीं है। यह जरूर है कि सब कुछ अ-शुभ भी नहीं है। शुभ और अ-शुभ  के बीच का अंतर हमारा आलोचनात्मक विवेक करता रहता है। जरूरत इस आलोचनात्मक विवेक को जिलाये तथा सक्रिय रखने की है। अक्सर, हमारा यह आलोचनात्मक विवेक या तो सो जाया करता है या फिर परम निष्क्रियता का शिकार हो जाता है।
मोटे तौर पर देखें तो, राजनीतिक आजादी मिलने के बाद सामाजिक आजादी का आंदोलन निष्क्रिय हो गया। बाबा साहब ने तब ध्यान दिलाया था कि सामाजिक आजादी सुनिश्चित नहीं हो पाने की स्थिति राजनीतिक आजादी अपाहिज हो कर रह जायेगी। ऐसा इसलिए कि राजनीतिक समानता और सामाजिक अ-समानता का अंतर्विरोध, अंततः हमें अपनी चपेट में ले ही लेगा। इस अपाहिजपने की चपेट से बचने के लिए आधुनिकतावाद के पैरोकारों ने आर्थिक आधार पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया, वह भी आर्थिक समानता के लिए बिना कोई प्रयास किये। इस क्रम में, वेतनभोगियों, मजदूरों, छोटे कारोबारियों आदि को मिलाकर मध्यम वर्ग आकार पाने लगा। इस बीच धुंधला ही सही ग्रामीण मध्य वर्ग भी आकार पा रहा था। इस मध्य वर्ग पर बहुत यकीन किया गया। यकीन यह कि आर्थिक संस्तरण अंततः सामाजिक संस्तरण को सुनिश्चित कर देगा। ऐसा हुआ नहीं। इस बीच दुनिया भी बदल रही थी। इस बदलती हुई दुनिया में भारत आर्थिक अनिश्चयता और विपन्नता में फँस रहा था। इसका असर मध्यम वर्ग पर ज्यादा पड़ रहा था। निम्न वर्ग तो पहले से तबाह था। फिर भी बहुत हद तक सामाजिक सामंजस्य बना रहा तो इसका कारण यह था कि निम्न वर्ग ने बहुत सहा था। सहने की आदत मध्य वर्ग में कम होती है, उच्च वर्ग तो अपने साधनों के बल पर वैसे भी दबाव झेल लेता है।
1990 तक आते-आते सामाजिक न्याय की माँग में स्पष्टता आने लगी थी। मध्य वर्ग का एक हिस्सा, इस सामाजिक न्याय की बढ़ती हुई स्पष्टता से भी दबाव में था। इस बीच यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद व्यवस्था को जकड़ता चला गया। 1990 में आई नई विश्व-व्यवस्था में आर्थिक अवसरों के नया क्षितिज खुलने लगा। यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद से मुक्ति के लिए छटपटाते हुए मध्य वर्ग में नई हरियरी आने लगी। इस स्थिति में बदलाव की आकांक्षा कुलाँचे मारने लगी। पिछले 25-30 साल में नई विश्व-व्यवस्था के आर्थिक अवसरों में भयानक छीजन आने लगी। लेकिन, यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह में कोई कमी नहीं आई। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद की शिकार संस्थाएँ होने लगी। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमें इस बात का अंदाजा है कि किस प्रकार यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के कारण संस्थाओं पर एक सत्ता समूह का वर्चस्व बना हुआ था और वे अपने समूह के अंदर ही लेन-देन करते थे।
इस बदलाव में, मध्य वर्ग पर चोट पड़ने लगी। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद में बुरी तरह से फँसी इसकी संरचना पर असर पड़ने लगा। संस्थाओं में तोड़-फोड़ की स्थिति पैदा हो गई। भाववाद ने यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह के रास्ते आये बदलाव को अपना आधार बना लिया। इस भाववादी बदलाव की प्रक्रिया में नई मुसीबत बनकर  आया भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार से कई बार लड़ता हुआ दिखता हुआ भी असल में उससे हमारी कोई ईमानदार लड़ाई शुरू ही नहीं हो पाई। याद किया जा सकता है अण्णा हजारे और इंडिया अगेनस्ट करप्शन के आंदोलन की तीव्रता और उसकी परिणति को।  यहीं नागरिक जमात या सिविल सोसाइटी के परिसर में साहित्य की भूमिका को समझा जा सकता है। बातें और भी हैं, अवसर और भी हैं, अभी तो इतना ही।

जय जय भैरवि

संदर्भ : जय जय भैरवि क गायन मे ठाढ़ भेनाइ
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विभूति आनन्द जी क एहि विचार आ व्यवहार क प्रति सम्मान आ समर्थन रखैत निवेदन।
आध्यात्मिक प्रसंग क भौतिक आख्या क अभाव एहि तरह क द्वंद्व क कारण भ जाइत छै। विद्यापति क एहि गीत में निहित  सांस्कृतिक संघर्ष क करुण अनुगूँज आ संघर्ष क ऐतिहासिक समाहार क प्रेरणा सहज सुमति क विकल आकांक्षा क रूप में अभिव्यक्त होइत आएल छै। हम सहज सुमति क विकल आकांक्षा क उपलब्धि क तत्परता में मानसिक रूपें ठाढ़ होयबाक प्रति संवेदनशील हेबाक महत्व के बुझैत ओहि संवेदनशीलता क शारीरिक अभिव्यक्ति के संगे ठाढ़ हेबाक सामूहिकता क विरोध मे नहि जा सकैत छी। ठाढ़ भेला क बाद चलनाइ, आगू बढ़नाइ स्वाभाविक। एहि स्वाभाविकता क सम्मान नहि क बैस जाइत छी। शारीरिक रूपें ठाढ़ भेनाइ आ मानसिक रुपें बैस गेनाइ हमर सांस्कृतिक विडंबना अछि। संभव होय त शारीरक रूपें ठाढ़ होयबा स असहमति क बदले मानसिक रूपें बैस जेबाक प्रतिकार पर सोचब प्रासंगिक।