सूचना और संवेदना
दिन काल अच्छे नहीं हैं। पुराने दिनों को याद करना चाहिए। बहुत पुराने दिनों
की बात नहीं भी तो, आजादी के आंदोलन के समय की बात करनी चाहिए। आजादी के आंदोलन की
आकांक्षा और बनक पर बात करनी चाहिए। आंदोलन के गर्भ में एक आकांक्षा थी। एक स्वप्न
था। कुछ के कुछ स्वप्न पूरे हुए। कुछ की कुछ आकांक्षा पूरी हुई। यह सच है कि बहुजन के स्वप्न, बहुजन की आकांक्षा पीछे छूट गई और छूटती चली गई। और इक्कीसवीं सदी
के दूसरे दशक के समापन सब कुछ बिखरा-बिखरा प्रतीत हो रहा है। यहाँ आजादी के आंदोलन
के दौरान हिंदी पटल पर सूचना और संवेदना माध्यम पर बात करने का इरादा है। सूचना से
आशय यहाँ समाचार माध्यम या मीडिया से है और संवेदना से आशय साहित्य से है।
जब मीडिया नहीं थी, साहित्य तब भी था। मीडिया के आने के बाद सूचना की गति में
अद्भुत तेजी आई। सूचना से संवेदना को जोड़ने के लिए मीडिया ने साहित्य को साथ
लिया। देखा जा सकता है कि उस समय के साहित्यकार ही मीडिया का काम करने लगे। कवि
कहानीकार आदि ही संपादन का जिम्मा सम्हाल रहे थे। कहना न होगा कि इन दोनों के साथ
निरपेक्ष राजनीति का दृष्टिकोण भी सक्रिय था या जन राजनीति सक्रिय थी। धीरे-धीरे
मीडिया की मुख्य संचालिका शक्ति सत्ता राजनीति से प्राण पाने लगी और उसने अपने साथ
लिया सत्ता साहित्य को। बड़ी-बड़ी पत्रिकाओं में उन यथाकथित (तथाकथित नहीं) बड़े
साहित्यकारों को जगह मिलने लगी। यथाकथित जन पक्षधर साहित्य को खाते-पीते लोगों के
स्वप्न का अवरोधक माना जाने लगा। धन पक्षधर को जन पक्षधर फूटी आँख नहीं सुहाया। इस
तरह साहित्यिक या लघु पत्रिकाओं का जन्म हुआ। अचंभा नहीं होनी चाहिए कि क्यों जन
पक्षधर साहित्य खाते-पीते लोगों से दूर होता गया और जिनकी पक्ष धरता की बात करता था
यह साहित्य, उन में बड़े-बड़े का ही प्रभाव बढ़ता चला गया। लघु पत्रिकाओं की अपनी
सीमा थी-- संसाधनगत भी, उद्देश्यगत भी। अपने
और अपनों के बाहर के किसी को स्थान देने की गुंजाइश धीरे-धीरे खतम हो गई। अंततः लघु
पत्रिकाओं के भी विशाल-विशाल अंक निकलने लगे। कह सकते हैं कि साहित्य के क्षेत्र
में लघु पत्रिकाओं की जगह ठगु पत्रिकाओं ने ले लिया। ऐसा इस लिए हुआ कि इन में
बड़ा बनने की चाह हिलोरें मार रही थी। बड़ा बनने की चाह कहाँ ले जाकर क्या गति
करती है यह जानने महसूस करने के बावजूद बड़े लोगों ने इस गति को ही प्रगति मानने
बताने का काम किया। धनी और बड़ा होना किसे अच्छा नहीं लगता है, भला! मुख्तसर यह कि मीडिया और साहित्य का
तथाकथित बड़े हिस्से का रुझान बची हुई जन पक्षधरता से बदलकर धन पक्षधरता की तरफ
होने लगा। मीडिया में सक्रिय कुछ संवेदनशील लोग धन पक्षधरता और धन पक्षधरता में
संतुलन बनाये रखने की कोशिश में लगे रहे। इस कोशिश में अपनी बढ़ती हुई मुख परिचिति
को इन संवेदनशील लोगों ने अपनी योग्यता और लोकप्रियता मानते हुए धन पक्षधरता के
परिसर में अनिवार्य मानने की गलती की। स्थिति की आक्रामकता बढ़ती गई। अंततः धन
पक्षधर ने इन संवेदनशील मीडिया कर्मियों के अपने को अनिवार्य मानने के भ्रम को
तोड़ दिया। इसी का नतीजा था कि चैनलों की सेवा से ऐसे लोग निकाल बाहर किये गये।
जाहिर है समाचार की गुणवत्ता में उन मुद्दों को जोड़ने का इरादा ही प्रमुख था
जिन्हें कई बार जन सरोकारों के मामले से ध्यान भटकानेवाला कहा जाता है। यह सब आ
उच्च तकनीक के सर्वसुलभ होने के वातावरण में नेट की सुलभता ने एक हद तक इस मामले
में बड़े-छोटे के अंतर को मिटा दिया है। अभी नेट-निष्क्षता बची हुई है। है, कब तक
बची रहेगी कहना मुश्किल है। स्थिति यह है कि नेट-निष्पक्षता दोनों तरफ की सुविधा
देती है – ध्यान भटकाने की भी और ध्यान दिलाने की भी। ध्यान दिलाने की प्रक्रिया
को सीमित करने के लिए नेट-निष्पक्षता को कमजोर किया जाता है तो ध्यान भटकाने की प्रक्रिया
भी उसी अनुपात में सीमित होती चली जायेगी। नेट-निष्पक्षता को खतम करने में यह एक
मुश्किल है। इस मुश्किल का कोई हल निकल जाने पर नेट-निष्पक्षता बहुत दिन तक टिकी
रहेगी, इस में वाजिब संदेह है।
नेट-निष्पक्षता के माहौल में संवेदनशील पत्रकारों ने अपना काम बखूबी करना शुरू
किया है। वे आयासपूर्वक मीडिया की जन पक्षधरता में जन मुद्दों का संतुलन कामयाबी
से बनाये रख पा रहे हैं। सूचनाएँ लगातार आ रही हैं। उन्हें संवेदना यानी साहित्य
से जोड़ने का काम नहीं हो पा रहा है। जितनी मेहनत कर वे सूचनाओं और संदर्भों को खोजकर
ले आते हैं और पूरी दक्षता के साथ परोस देते हैं और उसमें अपनी बात कहते हैं वह
निश्चित ही सराहनीय है। इस खोज-बीन में वे चाहें तो और न चाहने का कोई कारण नहीं
है, साहित्य में उनके कथ्य से जुड़े साहित्यिक अभिव्यक्ति के उपलब्ध संदर्भ का भी
उतनी ही दक्षता से समायोजन कर सकते हैं। इस समायोजन के लाभ को वे बेहतर जानते हैं
यहाँ तो सिर्फ ध्यान दिलाया जा रहा है। यह ध्यान दिलाये जाने की आवश्यकता मुझे इस
लिए पड़ी कि पुण्य प्रसून बाजपेयी की एक बहु-प्रभावी प्रस्तुति में बार-बार अंधेरे
का जिक्र आ रहा था लेकिन कहीं भी मुक्तिबोध की कविता अंधेरे किसी संदर्भ का कोई
जिक्र नहीं आया। मुझे तो 1990 के आस-पास लिखे नूर मुहम्मद नूर का एक शेर भी बहुत
याद आया जो पुण्य प्रसून बाजपेयी की उस बहु-प्रभावी प्रस्तुति के समापन पर उनके
शुक्रिया कहने के बाद मेरे मुँह से निकल गया। आप भी गौर कीजिए। ये
जो थोड़ा-सा उजाला है, गनीमत जानो,
दिन और अभी, और अभी काले होंगे।
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