सपनों का हमसफर और यथास्थितिवाद की कराह

यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के बाद भाववाद के बदलाव का व्याकरण
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चारों तरफ बदलाव की बात चल रही है। बात क्या चल रही है, इसे हाहाकार ही समझा जा सकता है। बदलाव से घबराने की जगह उसे समझने की जरूरत है। बदलाव की अपनी दिक्कतें होती हैं। अधिकतर मामलों में, हमारा मन अपनी आरंभिक जड़ता के कारण जीवन में आये किसी बदलाव के लिए सहज तैयार नहीं होता है। मन सहज ही तैयार हो या न हो, बदलाव जीवन का नियम है, बदलाव जीवन की नियति है। इसलिए, बदलाव के साथ तो अंततः होना ही पड़ता है।
एक बात यह समझ में आती है कि इस बदलाव में सब कुछ शुभ नहीं है। यह जरूर है कि सब कुछ अ-शुभ भी नहीं है। शुभ और अ-शुभ  के बीच का अंतर हमारा आलोचनात्मक विवेक करता रहता है। जरूरत इस आलोचनात्मक विवेक को जिलाये तथा सक्रिय रखने की है। अक्सर, हमारा यह आलोचनात्मक विवेक या तो सो जाया करता है या फिर परम निष्क्रियता का शिकार हो जाता है।
मोटे तौर पर देखें तो, राजनीतिक आजादी मिलने के बाद सामाजिक आजादी का आंदोलन निष्क्रिय हो गया। बाबा साहब ने तब ध्यान दिलाया था कि सामाजिक आजादी सुनिश्चित नहीं हो पाने की स्थिति राजनीतिक आजादी अपाहिज हो कर रह जायेगी। ऐसा इसलिए कि राजनीतिक समानता और सामाजिक अ-समानता का अंतर्विरोध, अंततः हमें अपनी चपेट में ले ही लेगा। इस अपाहिजपने की चपेट से बचने के लिए आधुनिकतावाद के पैरोकारों ने आर्थिक आधार पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया, वह भी आर्थिक समानता के लिए बिना कोई प्रयास किये। इस क्रम में, वेतनभोगियों, मजदूरों, छोटे कारोबारियों आदि को मिलाकर मध्यम वर्ग आकार पाने लगा। इस बीच धुंधला ही सही ग्रामीण मध्य वर्ग भी आकार पा रहा था। इस मध्य वर्ग पर बहुत यकीन किया गया। यकीन यह कि आर्थिक संस्तरण अंततः सामाजिक संस्तरण को सुनिश्चित कर देगा। ऐसा हुआ नहीं। इस बीच दुनिया भी बदल रही थी। इस बदलती हुई दुनिया में भारत आर्थिक अनिश्चयता और विपन्नता में फँस रहा था। इसका असर मध्यम वर्ग पर ज्यादा पड़ रहा था। निम्न वर्ग तो पहले से तबाह था। फिर भी बहुत हद तक सामाजिक सामंजस्य बना रहा तो इसका कारण यह था कि निम्न वर्ग ने बहुत सहा था। सहने की आदत मध्य वर्ग में कम होती है, उच्च वर्ग तो अपने साधनों के बल पर वैसे भी दबाव झेल लेता है।
1990 तक आते-आते सामाजिक न्याय की माँग में स्पष्टता आने लगी थी। मध्य वर्ग का एक हिस्सा, इस सामाजिक न्याय की बढ़ती हुई स्पष्टता से भी दबाव में था। इस बीच यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद व्यवस्था को जकड़ता चला गया। 1990 में आई नई विश्व-व्यवस्था में आर्थिक अवसरों के नया क्षितिज खुलने लगा। यथास्थितिवाद और फिर तदर्थवाद से मुक्ति के लिए छटपटाते हुए मध्य वर्ग में नई हरियरी आने लगी। इस स्थिति में बदलाव की आकांक्षा कुलाँचे मारने लगी। पिछले 25-30 साल में नई विश्व-व्यवस्था के आर्थिक अवसरों में भयानक छीजन आने लगी। लेकिन, यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह में कोई कमी नहीं आई। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद की शिकार संस्थाएँ होने लगी। हम साहित्य से जुड़े लोग हैं। हमें इस बात का अंदाजा है कि किस प्रकार यथास्थितिवाद और तदर्थवाद के कारण संस्थाओं पर एक सत्ता समूह का वर्चस्व बना हुआ था और वे अपने समूह के अंदर ही लेन-देन करते थे।
इस बदलाव में, मध्य वर्ग पर चोट पड़ने लगी। यथास्थितिवाद और तदर्थवाद में बुरी तरह से फँसी इसकी संरचना पर असर पड़ने लगा। संस्थाओं में तोड़-फोड़ की स्थिति पैदा हो गई। भाववाद ने यथास्थितिवाद और तदर्थवाद से मुक्ति की चाह के रास्ते आये बदलाव को अपना आधार बना लिया। इस भाववादी बदलाव की प्रक्रिया में नई मुसीबत बनकर  आया भ्रष्टाचार। भ्रष्टाचार से कई बार लड़ता हुआ दिखता हुआ भी असल में उससे हमारी कोई ईमानदार लड़ाई शुरू ही नहीं हो पाई। याद किया जा सकता है अण्णा हजारे और इंडिया अगेनस्ट करप्शन के आंदोलन की तीव्रता और उसकी परिणति को।  यहीं नागरिक जमात या सिविल सोसाइटी के परिसर में साहित्य की भूमिका को समझा जा सकता है। बातें और भी हैं, अवसर और भी हैं, अभी तो इतना ही।

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