कल 'पर बरहमन झूठा है : कोलकाता में कोलख्यान' की सोलहवीं कड़ी पर फेसबुक रूबरु (लाइव) पर Hitendra Patel भी हमारे साथ रहे। उन्होंने वक्त बदल रहा है को थोड़ा और साफ करने की जरूरत की ओर इशारा किया। इस सक्रिय भागीदारी के लिए मैं उनका आभार मानता हूँ। इस प्रसंग पर भी आज शाम रूबरु में शाम 07.00 बजे संभव हुआ तो चर्चा की जायेगी।
फिलहाल, तो यह कि
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जिस क्रम में वस्तु का निवास होता है उसे स्थान कहते हैं।जितनी देर में धरती सूर्य की परिक्रमा पूरी करती है, उसे हम 24 घंटा में बाँटकर एकत्र
करते हैं, यह प्राकृतिक
समय है।
जितनी देर में हम किसी काम को कर लेते हैं वह हमारा व्यक्तिगत वक्त होता है। अब दो व्यक्ति एक काम को संपन्न करने में अलग-अलग समय लगा सकते हैं। इससे उनके
वक्त में अंतर को समझा जा सकता है। काम का संपन्न होना सामूहिकता
पर निर्भर होता है। व्यक्तिगत
वक्त समूह के अधीन होता
है। कई बार इसे वर्क इनवायारामेंट और वर्क
कल्चर के रूप में हम समझते हैं। काम और उपभोग के अवसर और आधिकारिकता
(इंटाइटेलमेंट, संदर्भ अमर्त्य
कुमार सेन) की स्थिति पर
वक्त का अच्छा या बुरा होना
निर्भर करता है। जिसके पास
यह अवसर और आधिकारिकता जितना अधिक होती है, उसका
वक्त उतना अच्छा होता है। काम के अवसर और आधिकारिकता का सामान्य रूप से व्यापक अभाव, सामान्य और व्यापक रूप से समय का खराब होना है। वक्त के बदलने का मतलब
क्रिया की संपन्नता में बदलाव
की प्रक्रियाओं में बदलने से
होता है। इसमें वर्क कल्चर
को जोड़कर विचार करें तो
काम के अवसर और उपभोग
के अवसर की जटिलताओं में
होनेवाले बदलाव से भी समझा
जा सकता है। इस तरह से हम अपने वक्त में बदलाव को समझ सकते हैं। औकात असल में वक्त का बहुवचन है। और वक्त!
वक्त काम और उपभोग के
अवसर से जुड़ा है। काम और उपभोग के अवसर और आधिकारिकता का बदलना, औकात का बदलना है। काम और उपभोग के अवसर में असामंजस्य और असंतुलन वक्त को खराब बना देता है।
हमारा वक्त कैसा है!
फैसला आप कर सकते हैं। वक्त के बदलने का मतलब
क्रिया की संपन्नता में बदलाव
की प्रक्रियाओं में बदलाव से
होता है। इसमें वर्क कल्चर
को जोड़कर विचार करें तो
काम के अवसर और उपभोग
के अवसर की जटिलताओं में
होनेवाले बदलाव से भी समझा
जा सकता है।