जो
खो गया, उससे बेहतर की खोज
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आरंभ
मेरी आँख — सामाजिक आँख — जब खुल रही थी, उस
समय प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार द्वारा
देश पर लादी गई राजनीतिक आपातकाल चल रहा था। जिस तरह से देश पर राजनीतिक आपातकाल
लागू की गयी, दल के रूप में कांग्रेस राजनीतिक रूप से जरूर जिम्मेवार कही जा सकती
है, है भी। लेकिन नैतिक और राजनीतिक रूप से प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी इसके
लिए खुद जिम्मेवार थी; करीबी लोगों की भूमिकाओं पर भी बात की जा सकती है। मानना
होगा कि यह शुद्ध रूप से तात्कालीन
प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत जिम्मेवारी थी — जैसे प्रीवी पर्स के
समाप्त किये जाने, बैंकों के, कोयला क्षेत्र आदि के राष्ट्रीयकरण के लिए उनको
व्यक्तिगत श्रेय दिया जाता है। हमारे जैसे बहुत सारे लोग इतना तो मानते थे कि
श्रीमती इंदिरा गांधी बहुत शक्तिशाली नेता थी। साथ ही यह भी मानते थे कि हर मजबूती
तारीफ के काबिल नहीं होती है — मजबूतों की हर बात तारीफ के काबिल नहीं होती है।
यह सच है कि राजनीतिक आपातकाल लागू करने की
प्रशंसा नहीं की जा सकती है, लेकिन तात्कालीन परिस्थितियों पर विचार किया जाना
चाहिए; तात्कालीन शासन व्यवस्था की ज्यादातियों पर भी विचार किया जाना चाहिए।
विचार किया गया है — लेकिन सिर्फ राजनीतिक स्तर पर, न सामुदायिक स्तर पर, न नागरिक
मंच पर, न ही नागरिक जमात के अंदर।
यह सच है कि जयप्रकाश नारायाण के नेतृत्व में
चले राजनीतिक आंदोलन ने देश की हवा बदल दी। इस बदली हुई राजनीतिक हवा को
प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी ने समझा, उसका दबाव महसूस किया — राजनीतिक आपातकाल
ढीला हुआ, चुनाव हुआ और सत्ताधारी दल सत्ता से बाहर हुआ। चुनकर आये सत्ताधारी दलों
की सरकार ने राजनीतिक आपातकाल को हटाकर सामान्य स्थिति बहाल की। उस समय के विपक्ष का
राजनीतिक रूप से यह कहना गलत नहीं है कि राजनीतिक आंदोलन के दबाव से यह सब हुआ,
लेकिन इसे समग्र रूप में नागरिक सच मान लेने में भी बुद्धिमत्ता नहीं है। यह मानने
में कोई गुरेज नहीं है कि राजनीतिक आपातकाल का विरोध और राजनीतिक आंदोलन नागरिक
अधिकार और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार की सामाजिक स्वीकृति और राजनीतिक गुणवत्ता
की दृष्टि से बहुत जरूरी था। आज जरूरत इस बात की है कि हम नागरिक पूर्वग्रह मुक्त
मन-मस्तिष्क और खुले दिल से यह भी आकलित
करें कि इस दौरान हमने क्या खोया, क्या पाया, हमारा अनुभव क्या कहता है, खैर यह तो
इतिहास की बात है। वैसे, नेपोलियन बोनापार्ट के कहे को मानें तो — इतिहास झूठ का
एक समूह ऐसा होता है जिस पर लोग सहमत हो चुके होते हैं (History is a set
of lies that people have agreed upon — Napoleon Bonaparte)। मतलब! इतिहास होता नहीं,
गढ़ा जाता है। खैर यह सब अपनी जगह, मूल बात यह है कि जिनके सामने राजनीतिक आपातकाल
भारत में लागू हुआ उन में से अधिकांश अभी जिंदा हैं, अपना अनुभव बता सकते हैं।
राजनीतिक आपातकाल लागू करते समय श्रीमती इंदिरा
गांधी ने देश पर फासीवाद का खतरा मँडराने और उससे मुकाबले का तर्क दिया था। वह
तर्क कितना वास्तविक था, कितना राजनीतिक था और इसका राजनीतिक मुकाबला कैसे और
कितना हुआ, इस पर भी सोचने की जरूरत हो सकती है। लोकलुभावन राजनीति के इस दौर में
यह भी सोचना होगा कि इसका मुकाबला कोई राजनीतिक दल अकेले कर सकता है या इसमें
नागरिक मंच और नागरिक जमात की भी भूमिका है! नागरिक मंच और नागरिक जमात की भी
भूमिका है, तो वह क्या है और कैसे उसका निर्वाह किया जा सकता है? जो खो गया, उससे
बेहतर की खोज जरूरी तो है न!
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आपकी राय के आलोक में जारी —
2.
हाँ, राजनीतिक आपातकाल लागू हुआ था
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न्यायमूर्ति
जग मोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी
को उस चुनाव में दो अनियमितताओं का दोषी ठहराया था — पहली यह कि प्रधानमंत्री
सचिवालय में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर का इस्तेमाल चुनाव में किया
जाना और दूसरी यह कि जिन
मंचों से श्रीमती गांधी ने चुनावी
रैलियों को संबोधित किया, उन मंचों को तैयार
करने में उत्तर प्रदेश में कार्यरत सरकारी अधिकारियों
की लेना। राजनीतिक आपातकाल के
दौरान जिन पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था उनमें से एक प्रमुख पत्रकार
कुलदीप नैयर ने अपनी किताब “इमर्जेंसी ए इनसाइड स्टोरी” में दर्ज किया है — “राज
नारायण 1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गए थे। वास्तव में, ये अनियमितताएँ वैसी
नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो। ये आरोप एक
प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे। यह वैसा ही था जैसे
प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए।” राजनीतिक आपातकाल लागू करने
के पीछे इस अदालती फैसले को मोटे तौर पर एक
कारण माना जाता है। अदालती फैसला को
एक तात्कालिक कारण माना जाता है, और वह था भी लेकिन यह एक मात्र कारण नहीं था। अब
अगर कुलदीप नैयर की बात मानें तो आरोप और सजा में अन-आनुपातिक संबंध तो था — माना
जा सकता है कि यह अदालती फैसला राजनीति से प्रेरित नहीं था, लेकिन इस अदालती फैसले
से राजनीतिक माहौल में युगांतरकारी बदलाव के हो जाने से भी इनकार नहीं किया जा
सकता है। इसलिए, इस अदालती फैसले को कोई राजनीति प्रेरित कहना चाहे तो उसका प्रतिवाद करना
आसान नहीं है। यह जरूर ध्यान रखना होगा कि इस दौरान राजनीतिक मकसद ने भी अदालत और
कानूनी संरचना को प्रभावित किया — @madhukantjha की टिप्पणी के संदर्भ में है।
@amarnathgupta की टिप्पणी के संदर्भ में — हाँ, राजनीतिक आपातकाल के विरोध में चला
आंदोलन ईमानदार हाथ में था, लेकिन इसके अन्य घटकों के दिल के मैल की भी अनदेखी
नहीं की जा सकती है — भले ही इसका कारण विभिन्न दलों और नेताओं की राजनीतिक
महत्त्वाकांक्षा और सत्ता लोलुपता को ही क्यों न ठहराया जाये। जनता और संविधान ने
तो पाँच साल का समय दिया था। चला
बहरहाल, इस बात को यहीं छोड़ते
हैं, आगे बढ़ते हैं।
आज की परिस्थिति
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जिस राजनीतिक मकसद से संविधान के प्रावधानों के
राजनीतिक इस्तेमाल से आपातकाल लगा वे सारे मकसद बिना आपातकाल लगाये पूरा किया जा
रहा है — ऐसा आज का विपक्ष आरोप लगाता है। विपक्ष का आरोप अपनी जगह, अधिकतर
नागरिकों को क्या लगता है, महत्त्वपूर्ण यह है। मुझे तो विपक्ष का आरोप सही लगता
है। नागरिक मन निराश और हताश है — सवाल, रोजी-रोटी का हो, महँगाई में उछाल का हो,
अर्थनीति में साँठ-गाँठ (क्रोनी कैपटलिज्म) का हो, बेहतर नागरिक सुविधा का हो,
स्वास्थ्य सेवा की सुलभता या गुणवत्ता का हो, समुचित शिक्षा व्यवस्था की सुलभता का
हो, सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन का हो, सामाजिक न्याय और व्यक्ति और नागरिक
गरिमा का हो। भारत में संसाधनों की कमी से भारत का नागरिक अवगत है — नागरिक मन तब
फटता है जब गैर-आर्थिक मुद्दों पर भी वह छला हुआ महसूस करने लगता है। विभिन्न सेवा
प्रदाताओं की तरफ से ठगा जाकर असहाय होना महसूस करने लगता है। भारतीय प्रतिस्पर्धा
आयोग (Competition Commission of India) की गतिविधियों से उपभोक्ता क्या उम्मीद करता
है, करता भी है या नहीं! नागरिक मन अपनी हताशा और निराशा से कैसे बाहर निकले?
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आपकी राय से, जारी —
3
यह कैसे हुआ, क्यों कर हुआ
याद करते हैं डॉ मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी सालों को, लेकिन पहले उनकी
शुरुआत। डॉ मनमोहन सिंह दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। विभिन्न हैसियत में
भारत सरकार के वित्तीय मामलों पर सलाहकार और कर्ता के रूप में उनकी प्रभावी भूमिका
रही है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी रहे। कई प्रधानमंत्रियों के साथ उन्हें
काम करने का मौका मिला। न सिर्फ प्रधानमंत्री, के साथ उन्होंने काम किया, बल्कि खुद
प्रधानमंत्री बनने का मौका भी मिला — दो-चार महीने, साल नहीं दो दशक तक वे प्रधानमंत्री
रहे। लंबे समय तक जुझारू राजनीतिक जीवन के अनुभवों से समृद्ध लोक प्रिय प्रधानमंत्री, अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व
में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को दुबारा सरकार बनाने जितना बहुमत नहीं
मिल सका — सरकार बनाने जितना बहुमत मिला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) को। राष्ट्रीय
लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं, एवं अन्य
नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के मामलों को बहुत जोरदार ढंग से
अपने राजनीतिक दाँव के रूप में उठाया। सोनिया गांधी को बहुमत हासिल करनेवाले संयुक्त
प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) के दलों का समर्थन हासिल था। लगभग तय था कि सोनिया गांधी
प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रही हैं — उस समय (25 जुलाई 2002 से 25 जुलाई
2007 तक) भारत के राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम थे — भारत के वैज्ञानिक और
मिसाइल मैन के रूप में विख्यात थे। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का भारत के लोगों से, खास
कर युवाओं से, बहुत गहरा भावात्मक और बौद्धिक लगाव था — युवा तो उन्हें अपने
प्रेरणा स्रोत के रूप में स्वीकार करते थे।
अपनी पुस्तक “टर्निंग प्वाइंट्स” में ए.पी.जे.
अब्दुल कलाम लिखते हैं — “अपने कार्यकाल में मुझे बहुत-से कठिन निर्णय लेने पड़े।
मैंने हमेशा कानूनी और संवैधानिक परामर्शों के आधार पर, अपने विवेक से फैसले किये।
अपने हर फैसले के पीछे मेरी यही कोशिश रही कि मैं संविधान की प्रकृति, पवित्रता और दृढ़ता
की रक्षा कर सकूँ।” इसी पुस्तक में, डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनाये जाने के
बारे में वे लिखते हैं — “मेरे पास लोगों, संगठनों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा भेजे गये
बहुत से ई मेल, और पत्र आये, कि मैं सोनिया गाँधी को देश का प्रधानमंत्री न बनने दूँ। मैंने वह सारे
पत्र वगैरह, बिना अपनी किसी टिप्पणी के, सूचनार्थ, अनेक सरकारी एजेंसियों को भेज दिए। इसी बीच,
मेरे पास बहुत
से राजनेता इस बात के लिये मिलने आये कि मैं किसी दबाव के आगे कमज़ोर पड़ कर,
श्रीमती सोनिया
गाँधी को प्रधानमंत्री न बनने दूं। यह निवेदन किसी भी तरह संवैधानिक नहीं था। वह
अगर अपने लिये कोई दावा पेश करेंगी तो मेरे पास उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई
रास्ता नहीं होगा। तयशुदा समय शाम 8:15 पर श्रीमती गांधी राष्ट्रपति
भवन आईं और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह थे। इस भेंट में, रस्मी खुशनुमा बातचीत के बाद
उन्होंने मुझे अपने गठबंधन वाले दलों का समर्थन पत्र दिया। उसके बाद मैंने सरकार
बनाने योग्य दल के रूप में उनका स्वागत किया और कहा कि राष्ट्रपति भवन उनके बताए
समय पर शपथ ग्रहण समारोह के लिये तैयार है। उसके बाद उन्होंने कहा कि वह
प्रधानमंत्री पद के लिये डॉ. मनमोहन सिंह को नामांकित करना चाहती हैं। वह 1991
के आर्थिक
सुधार के नायक हैं, काँग्रेस पार्टी के विश्वसनीय कर्णधार हैं तथा प्रधानमंत्री के रूप में
निर्मल छवि वाले नेता हैं। यह सचमुच मेरे लिये और राष्ट्रपति भवन के लिये एक अचंभा
था। सचिवालय को डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए और यथा शीघ्र
सरकार बनाने का आमंत्रण देते हुए, दूसरा पत्र बनाना पड़ा।”
प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी को संयुक्त
प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) का समर्थन प्राप्त था। राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
उन्हें प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त करने के लिए तैयार थे। सोनिया गांधी ने फिर
भारत जैसे महान देश के प्रधानमंत्री के लिए अपने बदले डॉ मनमोहन सिंह का नाम कैसे
आगे बढ़ाया — यह कोई सामान्य बात नहीं मानी जा सकती है। आखिर, क्या कारण थे! क्या राष्ट्रीय
लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेताओं के दबाव में थीं?
आपकी राय से, जारी —
4
डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने
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अपनी पुस्तक How Prime Ministers Decide
में प्रसिद्ध
पत्रकार नीरजा चौधुरी ने दर्ज किया है — “दोपहर के लगभग 2 बजे रहे होंगे। मुझे
लगता है कि यह वरिष्ठ नेताओं की बैठक होने से ठीक पहले की बात है, "नटवर सिंह ने इस लेखक
से कहा। उन्होंने कहा, 'मैं मनमोहन सिंह से संपर्क करने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने कहा कि वह
10, जनपथ
पर हैं... मैं उसे खोजने के लिए वहां गया ... जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने
(सचिवों ने) कहा, 'आप अंदर जा सकते हैं। गांधी परिवार के सहयोगी के रूप में, गांधी परिवार तक उनकी
आसान पहुंच थी।
उन्होंने कहा, 'वह (सोनिया) वहां सोफे पर
बैठी थीं... मनमोहन सिंह और प्रियंका भी वहां मौजूद थे। कुछ देर बाद सुमन दुबे आ
गई। सोनिया गांधी परेशान दिख रही थीं... तभी राहुल अंदर आए और हम सबके सामने कहा,
'मैं आपको
प्रधानमंत्री नहीं बनने दूंगा। मेरे पिता की हत्या कर दी गई,
मेरी दादी की
हत्या कर दी गई। छह महीने में, आप मारे जाएंगे। राहुल ने धमकी दी कि अगर सोनिया ने
उनकी बात नहीं मानी तो वह अतिवादी कदम उठा लेंगे। नटवर सिंह ने याद करते हुए कहा,
'यह कोई साधारण
धमकी नहीं थी, राहुल एक मजबूत इरादों वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने सोनिया को फैसला करने
के लिए 24 घंटे का समय दिया। राहुल ने जब कहा कि वह अपनी मां को प्रधानमंत्री बनने
से रोकने के लिए हर संभव कदम उठाने को तैयार हैं तो सोनिया गांधी गुस्से में थीं
और उनकी आंखों में आंसू थे। कमरे में एक हैरान कर देने वाला सन्नाटा छा गया। उन्होंने
कहा, 'यह
राहुल की कुछ कठोर कदम उठाने की धमकी थी जिसके कारण सोनिया गांधी ने अपना मन बदल
लिया। मूल रूप से उसके बेटे ने उसके लिए निर्णय लिया। नटवर सिंह ने कहा, उन्होंने कहा। एक मां
के रूप में उनके लिए राहुल को नजरअंदाज करना असंभव था।” तो! इस तरह डॉ मनमोहन सिंह
भारत के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए।