क्या
हम गुलाम हैं!
हमारे मन में बार-बार सवाल उठता है — क्या हम गुलाम हैं। दिमाग कहता है
नहीं, बिल्कुल नहीं। और दिल! दिल कहता है — और नहीं तो क्या? दिल दिमाग आपस में
उलझता ही रहता है। सही स्थिति क्या है? कहना मुश्किल है क्योंकि न दिमाग ठीक कहता
है, न दिल ठीक कहता है — हम कभी आजाद होते हैं, कभी गुलाम! कोई साफ स्थिति नहीं है। सुबह-सुबह एक
आदमी इस तरह रास्ते में बुदबुदाता जा रहा था। वह चला गया। लेकिन मेरा दिल-दिमाग
दोनों ही एक बार फिर इस सवाल में उलझकर रह गया — क्या हम गुलाम हैं?
अब मैं चाय-वाय पीकर इस सवाल
के पीछे पड़ गया। मन में आया कि इस तरह के सवाल तो और लोगों के मन में भी यदा-कदा
उठते ही रहे होंगे — खासकर सिद्धांतकारों और दार्शनिकों के मन में तो जरूर उठते
रहे होंगे। वैसे भी सिद्धांतकारों और दार्शनिकों से कम-से-कम इस तरह के सवाल तो
छूटते नहीं हैं! उन्होंने जरूर इस पर कुछ-न-कुछ सोचा होगा, राय बनाई होगी। अब ऐसे
सिद्धांतकार और दार्शनिक कहाँ मिलेंगे — सोचके मन मायूस हो गया। फिर ध्यान आया
भारत में तो हर दूसरा आदमी दार्शनिक और पहला आदमी दार्शनिक होता है। सिद्धांतकारों
और दार्शनिकों से भरी इस पुण्य भूमि पर ऐसे सवालों के सामने मायूस होना असंगत है।
वैसे तो पुण्य भूमि के पण्य भूमि में विकसित हो जाने के बाद स्थिति में कुछ बदलाव
तो आया है, मगर उतना भी अभी नहीं आया है कि मायूसी छा जाये। गौर से विचार करने या
कह लीजिये मन में उथल-पुथल मचने के बाद पाया कि यहाँ सिद्धांतकार और दार्शनिकों का
विकास या तो कवि में या महात्मा में हो जाता है — कभी-कभी तो एक ही आदमी कवि और
महात्मा दोनों के रूपों को साधे हुए प्रकट होता है। बस अब गुत्थी सुलझने लगी —
बचपन में ही मुझे शब्दों को जोड़ने-तोड़ने का कुटेव लग गया था, जोड़ने का कम :
तोड़ने का अधिक। दो-चार अपने जैसे मिल गये जिन्होंने इस जोड़-तोड़ को कविता कहके
मन को पागल बना दिया। यह तो जल्दी ही समझ में आ गया कि वे चाहते हैं मैं भी उन्हें
पागल बनाने के लिए कुछ-न-कुछ करूँ। जिसे मैं जल्दी ही कह रहा हूँ, असल में वह बहुत
देर हो चुकने के बाद हुआ। इतनी देर कि लौटने की कोई राह न बची! मैं लौटते-लौटते भी
सिद्धांतकार के प्लेटफॉर्म तक ही पहुँच पाया अब तक! आगे बढ़ने की कोशिश करता रहता
हूँ — एक दिन कामयाबी मिल जायेगी। विश्वास है, जब यहाँ तक लौट आया हूँ तो एक दिन
मनुष्य होने तक भी लौट जा सकता हूँ। मनुष्यतर लौटने में लोगों को आपत्ति हो सकती
है, बल्कि है — सो मनुष्य तक ही लौटने की ख्वाहिश में खैर है!
वैसे भी सोचने के अलावा जीवन
में किया ही क्या है! जो सोचने का विषय नहीं उस पर भी सोचा बल्कि खूब सोचा —
दत्तचित्त होकर सोचा। जब से सोचना अपराध हुआ है, सोचते हुए दिखने से बचने का अभ्यास
कर रहा हूँ। घरवालों को भी मेरे सोचते हुए दिखने पर चिंता होती है। अतएव, अब मैं
सोचता हुआ दिखे बिना सोच रहा था — पहली गुलामी चाय-वाय के चक्कर में पड़ना है।
चाय-वाय की गुलामी के कारण कई बार घर में उलझ चुका हूँ — खासकर भोरुकवा चाय के
चक्कर में। खैर, खून, खाँसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान की तरह सोचने को भी छिपाना
आसान नहीं है! खैर, खून, खाँसी, खुशी, वैर, प्रीत, मधुपान से तो पिंड छूट गया है,
अब सोचने से भी दूर होना जरूरी है — मगर सोचकर ही दूर हुआ जा सकता है। सोचने पर ही
एक दार्शनिक याद गये। उन्होंने कहा था,
डंके की चोट पर कहा था — मैं सोचता हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व है। सोचना बंद करने
के लिए मन को मनाना होगा — मेरा अस्तित्व नहीं है, इसलिए मैं नहीं सोचता हूँ।
सवाल फिर धक्का दे गया — क्या
हम गुलाम हैं? दिल ने कहा जिस देश में गुलाम वंश का राज चला हो, उस देश में गुलामी
के मजा पर सोचना चाहिए। है कि नहीं — हैये है! मजा तो तब न जब मन मान जाये कि हम
गुलाम हैं! ओह तो क्या हम गुलाम भी नहीं हैं! अन-अस्तित्वों को आजाद नहीं कहा जा
सकता, गुलाम तो बिल्कुल नहीं। अब, सिद्ध सिद्धांतकारों की राय जानना जरूरी है,
अतएव निम्नलिखित :
— गुलाम बिका हुआ होता है।
उसे अपने को एवं अपने कौशल, क्षमताओं आदि को बेचने का अधिकार नहीं होता है। जब
बेचने का ही अधिकार न हो तो कोई अन्य संसाधनों पर स्वामित्व या इस्तेमाल के अधिकार
की बात ही खत्म! गुलाम पूरी तरह स्वामी का चरणागत व शरणागत होता है — वह स्वामी के
काम आता रहे, इसलिए उसका सारा ख्याल स्वामी रखता है, उसे कुछ सोचने की जरूरत नहीं
है। जरूरत है तो, बस निजी सुख, संतोष, निजता के सवाल से परे रहके दिल की दृढ़ता,
दिमाग की दक्षता और देह की क्षमता से आज्ञापालन की —बाकी तो मजे ही मजे हैं, कहीं
और बौआने की कोई नौबत नहीं। जो सुख गुलामी में है, वह सुख और कहाँ त्रिभुवन में! आजाद
अपने को, अपने समय को, अपने कौशल को, अपनी दक्षता आदि को बेचने का अधिकार रखता है,
बल्कि बेचने के लिए बेचैन रहता है। आजाद निजी दुख, निजता को सुरक्षित रखने की
सफल-विफल चेष्टा में लगा रहता है एक चिथड़ा सुख और निम्नकोटि के संतोष के लिए रात-दिन
बौआता रहता है — एक भ्रम से निकलके दूसरे भ्रम में पनाह लेता रहता है। कभी-कभी तो
सोचने लगता है — काश! मेरी तकदीर में गुलामी बदी होती!
संतुष्ट सूअर, असंतुष्ट
मनुष्य के द्वंद्व में फँसा कुछ सोच रहा था। एक अखबारवाले को सोचता हुआ दिख गया —
वह अभी-अभी जिन घरों में अभी भी अखबार की इज्जत या माँग बची हुई है, अखबार फेक कर बीड़ी
सुलगा रहा था। पास आके पूछ बैठा :
— सच-सच बताइये, क्या सोच रहे थे? आजकल लोग
सच-सच नहीं बताते हैं — न सुख, न दुख!
— गुलामी अच्छी है या आजादी!
— कल मेरे साथ चलके बड़े साहब
के कुत्ते की मिजाजपुर्सी कर आइए, शायद कोई बात सूझ जाये!
मैंने सोचा, मनुष्य को
पूर्णता की तलाश रहती है — पूर्ण आजादी संभव नहीं है, गुलामी संभव है! गुलामी के
विभिन्न प्रकार और कायदे हैं। जितनी पूर्ण गुलामी उतना ही मजा है! आनंद! हाँ, वह
भी।
अब सवाल बदल गया था — हम
गुलाम क्यों नहीं हैं! यह
बात यहाँ आके खत्म हुई या शुरू हुई — राम जानें!
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