इस्तीफा
इस्तीफा प्रेमचंद जयंती 2023
साहित्य के सच से इनकार नहीं, लेकिन जीवन का सच इस के विपरीत है ¾ इज्जत गँवा कर ही बाल-बच्चों की परवरिश की जाती है। गृहस्थ आदमी साहित्य के सार को बचाये या खुद को बचाये!
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आज प्रेमचंद का जन्मदिन है। स्वाभाविक है कि पाठकों को उनकी कई बातें, कई प्रसंग, कई रचनाएँ आदि स्मृति में कौंध जाती है। प्रेमचंद की कुछ रचनाओं को लेकर कई असहमतियाँ विवाद बनकर सामने आती हैं। कुछ लोग इसे प्रेमचंद पर हमला की तरह लेते हैं। ऐसे लोग प्रेमचंद के बचाव में तत्पर होते हैं और असहमतियाँ रखनेवालों से उलझ जाते हैं। प्रेमचंद ही, नहीं किसी भी बड़े लेखक या व्यक्तित्व से असहमतियाँ रखनेवालों को उन लेखकों या व्यक्तियों का विरोधी घोषित करने और आक्रामक बचाव में उतर आये लोगों की मुख मुद्रा देखकर मैं खुद भी उलझन में पड़ जाता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि प्रेमचंद की रचनाओं पर अपनी सहमति-असहमति के आधार पर अपनी समझ कायम करने के लिए पाठक स्वतंत्र हैं। इस से इतर का रास्ता वीर-पूजा की ओर ले जाता है और असहिष्णु बनाता है। लेखक जो अपने पाठकों या व्यक्ति अपने माननेवालों को अंततः असहिष्णु बनने से रोक नहीं पाये तो अफसोस किया जाना चाहिए कि उसका संदेश ठीक से संप्रेषित नहीं हो पाया। यह अफसोसनाक स्थिति सिर्फ प्रेमचंद की ही नहीं है, हमारे देश में सभ्यता विकास, सामंजस्य-मेलमिलाप का रास्ता खोजने बरतनेवाले कई अति-विशिष्ट लोगों की भी है। ऐसे लेखकों, व्यक्तियों पर आक्रमण या बचाव की नकली बहस से बाहर निकलकर अपने समय में लोगों को असहज करनेवाली परिस्थितियों में हमारे अपने बचाव में ये कैसे हमारी मदद कर सकते हैं। मेरी समझ यह है कि हमारे लिए प्रेमचंद अत्यंत प्रयोजनीय हैं, पूजनीय नहीं। इस पर फिर कभी।
अभी, मैं अपनी बात कहूँ। बचपन में ही मुझे स्कूली पढ़ाई के बाहर दो किताबों को पढ़ने का मौका मिला — रामचर्चा और पंचवटी। रामचर्चा के लेखक, प्रेमचंद और पंचवटी के कवि मैथिली शरण गुप्त। दोनों का मेरे मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। आगे चलकर अन्य रचनाकारों के साथ इनकी रचनाओं को भी ठीक से पढ़ने और समझने का अवसर चुनौती की तरह आया। इनको पढ़ना और समझना कितना आया ठीक-ठीक कह पाना मुश्किल है। ऊपर से मुसीबत यह कि लिखने की ललक का शिकार हो गया। जीवन के अच्छे-बुरे तो क्या कहें, सुख-दुख में जिन रचनाकारों की विभिन्न रचनाओं, पंक्तियों की कौंध ने सहारा दिया, उन में प्रेमचंद महत्त्वपूर्ण हैं।
जीवन का आधार नौकरी में पाया। नौकर-चाकर की जिंदगी जैसी होती है, वैसी रही। एक बात यहीं बता दूँ, नौकरी बस नौकरी होती है ¾ छोटी हो या बड़ी। विवाहित लोगों में शायद ही ऐसा कोई होता या होती है जिसकी दिमाग का काँटा तलाक की तरफ कभी न लपका हो, उसी तरह नौकरी करके घर परिवार चलानेवालों में शायद ही कोई ऐसा होगा जिसके मन में कभी-न-कभी इस्तीफा का ख्याल न आया हो। लेकिन अधिकतर लोग तलाक और इस्तीफा से बच जाते हैं, किसी-न-किसी तरह निभा ले जाते हैं, खींच लेते हैं। इसके क्या कारण हैं या हो सकते हैं! दोनों का कारण एक ही है - परिवार के बरबाद हो जाने का डर। इस डर के सामने होते ही प्रेमचंद की कहानी इस्तीफा की याद आती है। पढ़िये प्रेमचंद की कहानी इस्तीफा का यह प्रसंग ¾ ‘मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता। वह किसके दरवाजे हाथ फैलाते? यदि उसके पास इतने रुपये होते, जिसे उनके कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का उन्हें डर न था। जिन्दगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते। ख्याल था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का।’ कहानी में यह मनःस्थिति फतहचंद की है। प्रेमचंद दर्ज करते हैं, फतहचंद का नाम ‘हारचंद’ भी होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता। क्यों? इसलिए कि फतहचंद के लिए ‘दफ्तर में हार, जिंदगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर निराशाएँ ही थीं।’
फतहचंद को जीवन में पहली फतह हासिल तब हुई, जब उन्होंने इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने की हिम्मत कैसे आई! पत्नी ने कहा ¾ ‘आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत है। इज्जत गँवा कर बाल-बच्चों की परवरिश नहीं की जाती।’
साहित्य के सच से इनकार नहीं, लेकिन जीवन का सच इस के विपरीत है ¾ इज्जत गँवा कर ही बाल-बच्चों की परवरिश की जाती है। गृहस्थ आदमी साहित्य के सार को बचाये या खुद को बचाये! आप मुझ से असहमत हो सकते हैं, मौका मिले तो पढ़ लीजिएगा प्रेमचंद की कहानी ¾ इस्तीफा! फिर बात करते हैं!