ऑरवेल
के निष्कर्ष को भाषा के पार जाकर देखना चाहिए, उन्हें फासिज्म और सोशलिज्म के पश्च
प्रभाव (After Affect) को
समझने का मौका नहीं मिला, थोड़े-से विभ्रमित निष्कर्ष पर पहुँचने की छूट उन्हें
मिलनी चाहिए।
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लोकतंत्र
पर फासिस्ट और कम्युनिस्ट दोनों में सर्वसत्तावाद के लक्षण होते हैं, एक ही आधार
पर प्रहार करते हैं। ऊँचे और बड़े लोगों को अच्छा लगनेवाला तर्क सामने आता है ।
लोकतंत्र में निकृष्तम को उच्चतम स्थान मिल जाता है। सर्वसत्तावाद के समर्थक
लोकतंत्र को एक धोखा मानते हैं। वे मानते हैं, लोकतंत्र पूरा धोखा नहीं है, लेकिन
अंततः धोखा है। लोकतंत्र के पक्ष में जितने तर्क हैं उन से ज्यादा विपक्ष में हैं।
पाँच साल में एक बार अपने पसंदीदा को अपना समर्थन देने का मौका मिलता है, लेकिन
वास्तविकता यह है कि उनका जीवन उनको रोजगार देनेवाले से नियंत्रित होता है। रोजगार
देनेवाला से तात्पर्य सकल पूँजीवादी व्यवस्था से है , जो पूँजीवादी व्यवस्था इस या
उस तरीके उसके पसंदीदा को अपनी ओर मोड़ लेता है। लोकतंत्र के सारे गुण तभी तक बने
रहते हैं जब तक पूँजीवादी व्यवस्था इसे बने रहने देती है। यह एक ऐसी दुनिया होती
है जहाँ स्वशासित या स्वनियंत्रित व्यक्ति नहीं होता। आलोचना का मोल नहीं रहता है।
लेखक के पास कुछ बुनियादी निष्ठा होनी चाहिए। आज के दौर में लेखन एक व्यक्तिगत
मामला होता है। ऑरवेल के मन में केंद्रित अर्थव्यवस्था इस में वे पूँजीवाद और समाजवाद (स्टेट कैपिटलिज्म)
को भी जोड़ लेते हैं। बेरोजगारी, गरीबी से मुक्त करनेवाला हमारा बुद्धि और संवेदना,
अर्थात संपूर्ण प्रज्ञा का नियंत्रण, या अपने पक्ष में अनुकूलन भी देर सबेर कर
लेता है। हमने देखा है भारत में एक कंपनी अपने कर्मचारियों को अपेक्षाकृत कम दाम
में अपना शेअर बेचती है और शेअरधारक कर्मचारी अपनी कंपनी के नफा-नुकसान की चिंता
कंपनी के मालिकों से अधिक करने लगता है। बहुत सारे शेअर धारक मतदाता भी होते हैं।
सारे मतदाता शेअर धारक नहीं होते हैं, लेकिन सारे शेअर धारक मतदाता होते हैं। क्या
ऐसे माहौल में जहाँ व्यक्ति के चिंतन मनन , संवेदनाओं, इच्छा और चयन आदि की
स्वायत्ता न हो और ये क्षण-क्षण बदलने की छम-छम चपलताओं से आक्रांत हों वहाँ क्या
लेखन संभव है! ऑरवेल
मानते हैं नहीं। ऑरवेल का मानना जरूरी नहीं कि हमारे लिए भी सही हो, बल्कि नहीं है।
हाँ, कठिन जरूर है। यह सच है कि जब
व्यक्ति जीवन की भौतिक आवश्यकताओं के संदर्भ में गत्यात्मक स्थिरता (इसे जड़ता न समझा जाये)
न हो तो, उसकी प्रज्ञात्मक-स्वायत्ता, मानसिक स्वायत्ता, चयन की इच्छा और क्षमता भंगुर
हो जाता है। जब इच्छा की स्वतंत्रता नहीं तब नैतिकता की बात बे मानी है, यह बात तो
बार-बार कही गई है। जब इच्छा स्वायत्त नहीं तो चिंतन का स्वायत्त होना दूर की
कौड़ी है। से में गाँधियन नैतिकता और मार्क्सवादी दृष्टि काम आ सकती है – अलग-अलग
नहीं, इनके भौतिक मिश्रण से नहीं, बल्कि एक साथ और इनके रासायनिक मिश्रण से। भौतिक
मिश्रण और रासायनिक मिश्रण के अंतर पर यहाँ विस्तार से कहने की जरूरत नहीं है। एक
बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए, समाजवाद और फासीवाद दोनों एक ही तरह के कारण से लोकतंत्र
का विरोध कतरते हैं, लेकिन हम ने दोनों के विरोध के अंतर को ठीक से समझा नहीं।
हमने फासिज्म और सोशलिज्म को ही तरह का बरताव किया – जबकि फासिज्म खुद निकृष्ट है
और उत्कृष्ट के बारे में सोचता भी नहीं है, वहीं शोसलिज्म निकृष्ट को उत्कृष्ट बनाने
की बात पर सोचता है। यह सच है कि ऊँचे और बड़े लोगों को भी जीवन में भौतिक समृद्धि
के उपरांत जो भी आधिभौतिक भौतिक चाहिए वह लोकतंत्र में ही मिल सकता है। निकृष्तम
को उच्चतम स्थान मिलने का तर्क उतना प्रभावी नहीं रह जाता है। और अंततः निकृष्ट के
उत्कृष्ट बनने की प्रक्रिया की खोज शुरू होगी। इस खोज के रास्ते कठिन होंगे, लेकिन
में गाँधियन नैतिकता और मार्क्सवादी
दृष्टि का रसायन उनका पाथेय या
बटखर्चा जोगाता रहेगा। इस काम में साहित्य
की भूमिका है, बस साहित्यकार को समकालीन हताशा से बाहर निकलना होगा और समझदार
पूँजी का सहयोग मिलेगा। और हाँ, आगत एवं आसन्न संकट का संबंध सिर्फ व्यवस्था की
वैचारकिता से तो है ही, कुव्यवस्था के कारण हुए प्राकृतिक क्षरण से भी है। यह
फासिज्म का नहीं, उसके पार का और उससे अधिक भयावह दौर है, खैर।
ऑरवेल
के निष्कर्ष को भाषा के पार जाकर देखना चाहिए, उन्हें फासिज्म और सोशलिज्म के पश्च
प्रभाव (After Affect) को
समझने का मौका नहीं मिला, थोड़े-से विभ्रमित निष्कर्ष पर पहुँचने की छूट उन्हें
मिलनी चाहिए। बाकी फिर कभी।
(महेश मिश्र के वाल पर टिप्पणी के संदर्भ में)
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