लोकतंत्र का भविष्य पर

लोकतन्त्र का भविष्य : लोकतान्त्रिक सरकार के लिए लोकतान्त्रिक समाज होना अनिवार्य है!
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आज के प्रश्न की पुस्तक श्रृँखला की 24वीं कड़ी में Vani Prakashan वाणी प्रकाशन की नई पुस्तक लोकतन्त्त्र का भविष्य Arun Tripathi अरुण कुमार त्रिपाठी के संपादन में आई है। इस पुस्तक में कई महत्त्वपूर्ण आलेख हैं। इन आलेखों में लोकतंत्र के भविष्य के संदर्भ में काफी गहन चिंतन किया गया है। सिर्फ भारत के लोकतंत्र के संदर्भ में ही नहीं, वैश्विक स्तर पर लोकतंत्र की घनीभूत चिंता को भी इस पुस्तक के आलेखों के केंद्र में रखा गया है। "सम्पादक की  बात" में काफी विस्तार से लोकतन्त्त्र के अतीत और वर्त्तमान के उलझे सूत्रों को सुलझाने में भविष्य की संभावित और आशंकित रूपरेखा को आँकने की तीव्र छटपटाहट है। इस छटपटाहट में भारत की अद्यतन लोकतांत्रिक स्थितियों की भी आहट है। इस पुस्तक में शामिल लेखों को पढ़ते हुए इस आहट की आवाज क्रमशः तेज होती जाती है। आम नागरिकों की तरह जनतंत्र मेरी भी चेतना का बड़ा इलाका घेरता रहा है। यह पुस्तक रेखांकित करती है कि लोकतान्त्रिक सरकार के लिए लोकतान्त्रिक समाज होना अनिवार्य है। यहाँ इस सवाल पर भी विचार करना जरूरी है कि समाज के लोकतांत्रिक होने की प्रक्रिया क्या है और इस प्रक्रिया में सरकार या राज्य की भूमिका क्या हो सकती है या होनी चाहिए। इस पुस्तक को पढ़ते हुए मुझे भी फिर से, एक स्वतंत्र लेख तैयार करने की इच्छा हो रही है। वैसे, इस पुस्तक की आलोचना की भी इच्छा है। पता नहीं यह सब मुझ से हो पायेगा या नहीं। एक बात और, यह पुस्तक आम और निर्विशिष्ट नागरिकों के लिए तो दिलचस्प है ही, राजनीति और समाज शास्त्र के शोधार्थियों के लिए भी उपयोगी है।   
इस पुस्तक में शामिल हैं –
1 लोकतन्त्रः नन्ही-सी जान, दुश्मन हजार – रमेश दीक्षित
2 लोकतन्त्र का पुनर्निर्माण – शंभुनाथ
3 लोलुभावनवाद और तानाशाही – अभय कुमार दुबे
4 लोकतन्त्रः स्वप्न से अन्तर्विरोध तक – नरेश गोस्वामी
5 पूँजीवाद से परे जाने की जरूरत – विजय झा
6 लोकतन्त्र की धड़कन है आन्दोलन – डॉ सुनीलम
7 औपनिवेशिक अतीत को उतारने की जरूरत – गिरिश्वर मिश्र
8 आपातकाल का अतीत और उसका भविष्य – जयशंकर पाण्डेय
9 न्यायपालिकाः क्या कुछ संभावना शेष है? – अनिल जैन
10 गोदी मीडिया का स्तम्भ – अरुण कुमार त्रिपाठी
11 अल्पसंख्यकों को चाहिए समान अवसर – सैयद शाहिद अशरफ
12 लोकतन्त्र के हाशिये पर – कमल नयन चौबे
लगभग आम राय यह है कि दुनिया भर में लोकतंत्र के विपन्न होने में लोकतांत्रिक पद्धतियों से चुनी हुई सरकारें ही भूमिका अदा कर रही हैं; अर्थात सरसों में ही भूत! अभी तो यहाँ इतना ही।

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