हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह एक
(साभार :जयशंकर प्रसाद : कामायनी)
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जीवन का कोई भी हो, हर जिंदा आदमी के अंदर शिखर पर पहुंचने की एक स्वाभाविक चाह होती है। कुछ पहुँच पाते हैं, कुछ का सफर बीच में ही समाप्त हो जाता है। कुछ तो उत्तुंग शिखर पर पहुंच जाते हैं। विडंबना यह कि उत्तुंग शिखर पर पहुँचनेवाले को भी किसी शिला के छाँह की चाहत होती है। समस्या यह कि उत्तुंग शिखर से भी ऊपर शिला कहाँ से आये, और शिखरवासी को छाँह कहाँ से मिले। जीवन का प्रवाह तो नीचे होता है, जिसे भींगी नजरों से शिखरवासी देख ही सकता है। शिखरवासी को गंगा स्नान का सुयोग कभी नहीं मिलता है। बहरहाल, यहाँ इतना भर कहना है कि शिखर पर पहुँचनेवाले को हर कोई याद करता है, उन शेरपाओं को कौन याद करे जिनके बिना शिखर पर पहुँचना असंभव होता है! साहित्य के शिखर पुरुषों के शेरपाओं को हम नहीं जानते! क्या सचमुच जानना भी नहीं चाहते! शायद चाहकर भी जान नहीं पायें —मैं जब भी शिखर की तरफ देखने की कोशिश करता हूँ उन अजाने शेरपाओं को मन-ही-मन प्रणाम करता हूँ। मेरा कोई शेरपा नहीं, लेकिन नाविक तो है जो मुझे अक्सर भुलावा देकर धीरे-धीरे शिखरिणी कोलाहल से दूर ले जाता है।
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