इतिहास के आइने में हाल-फिलहाल
1757 में इस्ट इंडिया की जीत के बाद से भारत में ब्रिटिश राज
का प्रारंभ हो गया। वारेन हेस्टिंग्स और रॉबर्ट क्लाइव को ब्रिटिश राज की स्थापना का
श्रेय दिया जाता है। 1773 से 1785 तक वारेन हेस्टिंग्स फोर्ट विलियम प्रेसिडेंसी
(बंगाल) के प्रथम गवर्नर जेनरल रहे जो वस्तुतः भारत के पहले गवर्नर जेनरल थे।
हालाँकि पहले अधिकारिक गवर्नर जनरल लार्ट विलियम बेंटिक थे, जिनके शासन काल में राजा
राम मोहन राय के प्रयास से सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा। 1773 से 1785 तक वारेन हेस्टिंग्स अपने पद पर
बने रहे। 1787 में उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन पर महाभियोग लगाया गया।
हालाँकि, 1795 में वे बरी हो गये और 1814 में प्रिवी काउंसिलर भी बन गये।
महत्वपूर्ण यह है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भी भ्रष्टाचार और सत्ता के प्रशासनिक
दुरुपयोग के मामले में शासक पर महाभियोग लगा, गहन जाँच प्रक्रिया से गुजरना पड़ा। यह
ध्यान में रखना जरूरी है कि इस के पीछे कई कारण सक्रिय थे, औपनिवेशिक अंतर्विरोध
और भिन्न हित-मत आदि। इस महाभियोग का नेतृत्व एडमंड बर्क ने किया। उन पर आरोप क्या
थे, आज महाभियोग के कुछ बिंदुओं को याद करना आज हमारे लिए दिलचस्प हो सकता है। वे
कुछ थे, ग्रेट ब्रिटेन के संसदीय विश्वास के साथ धोखा, ब्रिटेन
के राष्ट्रीय चरित्र को कलंकित करना, भारतवासियों के अधिकारों और स्वतंत्रता का अतिक्रमण,
भारत की संपदा का विनाश।
महत्त्वपूर्ण यह है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान भी जनता को कष्ट में डालने
पर महाभियोग लगता था। कानूनी कार्रवाई होती थी। एक बात साफ-साफ कहना जरूरी है। इस संदर्भ
को न्यायपूर्ण व्यवस्था या जन हितैषी सोच का उदाहरण नहीं माना जा सकता है। लोकतांत्रिक
शासकों को भी शामिल करते हुए भी फिलहाल सोचा जा सकता है कि क्या शासकों के
अंतर्विरोध से उत्पन्न टकराव जो ऊपर से न्यायपूर्ण
और जनहितैषी दिखते तो हैं, क्या सचमुच वे न्यायपूर्ण और जनहितैषी होते भी
हैं! पता नहीं, इतिहासकार और विद्वान लोग बेहतर निष्कर्ष निकाल सकते हैं। मेरे जैसे साधारण नागरिक के अधकचरा ज्ञानवाले उत्तप्त मन में नाना-नाना तरह की फालतू सवालिया तरंगें तो यूँ ही उठती रहती हैं।
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