मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ

मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ
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ना ना, किसी लव गुरु ने नहीं
यह तो कबीर ने सिखलाया है
सभ्यता को कान में बताया है
प्रेम में नाचता हुआ मत्त मन
आत्मन्वेषण और आत्मविस्तार
के कठिन रास्ते पर कदम बढ़ाता है
तब उसका ‘नाच’ चुपके से
आलोचना में बदल जाता है।

जैसे वसंत
चुपके से चुंबन में सिमट जाता है
प्रेम सिर्फ भावना न रहकर
मौसम बन जाता है और
अपनी धुरी पर नाचती हुई धरती
हल्की-सी सिहरन के साथ
चुपके से प्रेमपत्र में बदल जाती है।

पूछो तुलसी से कि कैसे
किसी राम का मन खग-मृग-मधुकर से
छल मृग के दृश्याभास से बिंधे
अपनी सीता के मन का पता पूछता है

कहेंगे रवींद्र कि कैसे पागल हवा में
मन का पाल खुल जाता है
उधियाता हुआ मन मानसरोवर पहुँच जाता है

बतायेंगे नागार्जुन जिन्होंने बादल को घिरते देखा
जिन्होंने हरी दरी पर प्रणय कलह छिड़ते देखा
कालिदास से पूछा पता व्योम प्रवाही गंगाजल का

ना ना, किसी लव गुरु ने नहीं
यह तो जीवन के ताना-बाना ने
पुरखों ने सिखलाया है
कि इस कठकरेज दुनिया में
मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ
हे मेरे जीवन से एक-एक कर विदा हो रहे
रूप-रस-गंध के यौवन

प्रेम ही गुरु है! गोबिंद भी!
मैं तुम्हें कैसे पहचानूँ

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