अगरचे हिंदोस्तान न था

सफलता की सूचियों में, कोई निशान न था
अगरचे नाम था, मगर वह हिंदोस्तान न था

गलतफहमियों की शागिर्दी से परेशान न था
मुहब्बत थी, किरदार-ए-मुहब्बत हैरान न था

कुछ सवाल थे खुदमुख्तारी का ऐलान न था
फूल मुस्कुराये जब चमन में बागवान न था

गले मिले बधाइयाँ दी कोई मगर इंसान न था
थूकते चले गए मुँह था कोई पीकदान न था

रोजमर्रा था बस बचा कोई भी अरमान न था
झांकते भी तो किधर जब कोई गरेबान न था

मूस्तैद हुजूरी में था ऐसा कोई फरमान न था
कहूं कि रवायत में शामिल कोलख्यान न था

कविता कहानी

जब कोई दर्द बेजुबान हो जाता है तो भाषा के पार चला जाता है। जब किसी भाषा की साँस फूलने लगती है तब वह अपनी छटपटाहट में अपने अस्तित्व के पनाह को अतिक्रमित करने लगती है। बेजुबान दर्द और बेपनाह जुबान के मिलने से अभिव्यक्ति जिन रूपाकारों को ग्रहण करने लगती है उन्हें हम कविता कहते हैं। इस प्रक्रिया के इतर जब भाषा अपना श्रृंगार रचती है तब भाषा का वैभव जिन रूपाकारों में प्रकट होता है वह वाक् विलास होता है। दोनों की अपनी प्रक्रियाएं हैं। दोनों का अपना महत्व है।
जब कोई घटना इतिहास में दर्ज होने का हौसला खो देती है और जन प्रेरणा बनने की सीधी राह नहीं पकड़ पाती है तब उस घटना की व्यथा और वेदना कहानी के रूप में प्रकट होती है। इससे इतर बात रसाने की कला भी नई कहानी को जन्म देती है। दोनों का अपना महत्व है।

खौआ छौ, बझौआ छौ

एकर ओकर मिठ बोली पर नै
नोरक पोसुआ नोनछराइन के सुआस चिन्ह
मेह बना क दाऊन क बरद जका जे घुमे छौ
एहि सब लोकक कात चिन्ह, कतवाहि चिन्ह
चिन्ह की ई सब त खौआ आर बझौआ छौ।

गाम ठाम सब गरदा, गरदा
कोनो लाज ने कोनो परदा
ने एकरा ओकरा सुख दुःख स लेना देना
झुठहि खाट छै, झूठहि बिछौना
झूठहि ठाठ छै आ झूठहि पाठ छै
हाटे द क गाम क बाट छै त की कीनना
लुग्गा लत्ता की दिल्ली, कीं कोलिकाता
इएह निकास आ इएह बिकस, 
झटपट बूझें त इएह बेसहना

सोचि सोचि क की पछिताना
की पछिताना!
ई सब खौआ आर बझौआ छौ!
नोरक पोसुआ नोनछराइन के सुआस चिन्ह!