कोई नहीं, हाँ कोई नहीं, कुछ नहीं

कोई नहीं, हाँ कोई नहीं, कुछ नहीं

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सोचा न था, सच कहता हूँ सोचा न था

कोई नहीं, हाँ कोई नहीं, कुछ नहीं

न न्याय, न अन्याय, न नीति, न अनीति, न पाप, न पुण्य

 

कोई तो साथ नहीं

निपट अकेला

न विचार, न संचार, न प्रचार, न शोभा, न श्रृँगार

यह कैसा जीवन, न आचार, न व्यवहार

 

किसी से कुछ कहना बाकी नहीं

किसी से कुछ सुनने की कोई उम्मीद नहीं

उम्मीद का कोई अर्थ नहीं

कोई फर्ज नहीं, कोई गर्ज नहीं, कोई हर्ज नहीं

कोई अर्ज नहीं, कोई कर्ज नहीं

लाइक नहीं, डिसलाइक नहीं, कुछ भी दर्ज नहीं

दर्द नहीं, हमदर्द नहीं

क्या कहना है, कुछ भी नहीं, कुछ भी तो नहीं

हरिशंकर परसाई व्यंग्य

व्यंग्य

यह हरिशंकर परसाई का जन्म शताब्दी वर्ष है। यह हरिशंकर परसाई के लेखन के ऐतिहासिक महत्त्व को समकाल के संदर्भ में ध्यान से देखने-परखने का अवसर है। साहित्य के सक्षम विद्वान लोग इस काम को कर रहे होंगे। पत्रिकाएँ अपनी योजनाओं पर काम कर रही होंगी। मैं इस काम में बहुत सक्षम तो नहीं हूँ, लेकिन उनका पाठक होने के नाते अपने दायित्व से मुँह नहीं मोर सकता।

व्यंग्य लिखना कठिन काम है। इस माहौल में तो बहुत ही कठिन है। व्यंग्य की खासियत यह होती है कि जिस पर व्यंग्य लिखा जाता है वह भी अपनी सहमति-असहमति से ऊपर उठकर मुसकुराये बिना नहीं रहता है। मन मसोस कर भले रह जाये, आक्रामक नहीं हो जाता है। व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में नहीं लेता है। व्यंग्य के मर्म को समझता है। अपनी भावनाओं को आहत होने से बचा लेता है। इसे अपनी मान हानि नहीं मानता है। व्यंग्य को अपमान नहीं मानता है। कटुक्ति और व्यंग्य के अंतर को समझता है। परिष्कृत हँसी मजाक मनोरंजन से आगे बढ़कर का मनुष्य के मनःप्रसादन का एक सरस प्रयास होता है। कहा जाता है कि मजाक करना, मजाक नहीं है। जिस मजाक से कटुता बढ़ जाये वह मजाक तो मजाक नहीं रह जाता है। इसका ध्यान व्यंग्यकार को रखना ही पड़ता है। ऐसे में अपनापन, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की बेहतर जरूरत होती है। व्यंग्य साहित्यिक विधा के साथ ही जीवंत समाज में बातचीत की सामान्य सामाजिक शैली भी है। व्यापक और बहुल भारतीय समाज और साहित्य में इसकी पुरजोर उपस्थिति मिलती है। जो समाज में रहा है वह राजनीति में सहज रूप में होता है। खुले मन और खुले समाज में ही व्यंग्य के लिए जगह बनती है। अशांत, आंतरिक रूप से विभक्त और विघ्न-तोषी समय में व्यंग्य के लिए जगह कहाँ बचती है। ऐसे में इस तरह की कई बातों को ध्यान में रखते हुए, इस खास अवसर पर हरिशंकर परसाई के साहित्य को फिर से देखने परखने का इरादा है, दायित्व भी। अभी तो मन बाँटा है। पूरा कर पाऊँगा? पता नहीं!

चरैवेति - चलते रहो

चलना कठिन है। बहना आसान है। बहना प्रकृति है। चलना संस्कृति है। चलने और बहने में बहुत बड़ा अंतर होता है। रुपया पैसा न चले तो मुश्किल है लेकिन, बह जाये तो मुश्किल है। क्या हाल है, पूछने पर लोग जवाब देते है; चल रहा है। कोई नहीं कहता बह रहा है। लछमी चंचल होती है। बहुत तेज चलती है। मनुष्य उसके पीछे-पीछे चलता है। चलना प्रकृति की शक्ति, गति, और स्थिति के विरुद्ध मनुष्य की जिद, युक्ति, शक्ति और आंतरिक गति से संभव होता है। जिंदा आदमी बहता नहीं, चलता है। मुर्दा चलता नहीं, बहता है। पुरखों ने कहा चरैवेति चलते रहो। जिंदा बचना है, तो चलते रहो। चलना क्या है! फिर कभी।

लेखक संगठन की भूमिका

लेखक संगठन की भूमिका

साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है, - उसका दरजा इतना न गिराइए। वह देश-भक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है। - प्रेमचंद

(1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में किये गये अध्यक्षीय भाषण से)

सत्य हिंदी के ताना-बाना पर डॉ मुकेश कुमार को लेखक संगठनों की भूमिका पर सार्थक परिचर्चा आयोजित करने की कोशिश के लिए धन्यवाद और आभार। रेखा अवस्थी, वैभव सिंह और राकेश बिहारी को परिचर्चा में शामिल किया गया। इस परिचर्चा में मंतव्यों के लिए जितनी जगह हो सकती थी उसका सदुपयोग हुआ।  इस विषय पर अधिक तैयारी के साथ बात करने की नहीं, करते रहने की जरूरत है। इस संदर्भ में कुछ अन्य बिंदुओं को चर्चा में शामिल किया जा सकता है।

वामपंथी दलों को छोड़ दें तो, किसी राजनीतिक दल के सदस्य बनने की कोई बुनियादी शर्त नहीं होती है। इन दलों का सदस्य बनते ही कोई नेता मंत्री नहीं बन जाता। लेखक संगठन का सदस्य बनने के लिए भी कोई शर्त नहीं होती है। कई तो सदस्य पहले बनते हैं, लेख भी पहले ही बन जा सकते हैं, लेखन बाद में शुरू करते हैं। इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक  लाभ की संभावनाओं को हिंदी साहित्य के  होशियार छात्र अच्छी तरह समझते हैं। मन बनाकर पहला वाक्य लिखते ही ऐसा मोह दबोचता है कि वे बिना देर किये खुद को लेखक घोषित कर देते हैं। बाकी रही-सही कसर उनके जैसे ही क्लासमेट, चाहें तो सहपाठी लेखक पूरी कर देते हैं। संख्या बल का कमाल यहाँ भी होता है।  अहो रूपम, अहो ध्वनि का सिलसिला शुरू हो जाता है। हिंदी साहित्य का वेतन भोगी अध्यापक कुछ लिखे या न लिखे खुद को साहित्य का पद-सिद्ध आलोचक लेखक मानकर चलता है। विश्वविद्यालय परिसर इसकी समानांतर प्रक्रिया चलती रहती है। इस तरह घिसे हुए लेखक आलोचनात्मक प्रोत्साहन, अंग्रेजी में कहें तो क्रिटिकल एप्रिशियेसन, के नाम पर संख्या बल को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। बाकी सोशल मीडिया तो है न! राजनीति में जो मेरे दल में नहीं है वह भ्रष्टाचारी है, हिंदी साहित्य में जो मेरे गुट में नहीं है,  वह साहित्यकार कैसा! उसका सामाजिक सरोकार ढकोसला के अतिरिक्त कुछ नहीं। आप चिल्लाते रहिए आबद्ध हूँ, संबद्ध हूँ, प्रतिबद्ध हूँ।

जिस विचारधारा की बात लेखक संगठन करते हैं, उसके असली ठेकेदार तो लेखन में कोई दिलचस्पी नहीं लेते। उनकी दिलचस्पी इस बात तक सीमित रहती है कि वह उनके द्वारा घोषित राजनीतिक कार्यक्रमों में कितनी तत्परता से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। समाज इसमें कहीं होता ही नहीं है। जिस तरह नागरिक, प्रजा कहना शायद अधिक सही हो, वोटर में लघुमित (रिड्यूस्ड) हो गया है, उसी तरह लेखक भी लघुमित हो गया है। कोई दल यह नहीं कहता कि आप विचारधारा से सहमत हों तभी हमें अपना वोट दें। जैसे भी हो बस वोट दे दें, आप का वोट मेरा स्वार्थ, आप का हित बाद में सधता रहेगा। हिंदी साहित्य में पाठकों की भूमिका या पक्ष पर क्या बात हो सकती है, इसकी जरूरत ही क्या है, जो है नहीं उस पर समय बर्बाद करना!

जब लेखन का ही कोई उद्देश्य नहीं रह गया तो संगठन के उद्देश्य की क्या बात! लेखन की भूमिका ही तय नहीं, तो लेखक संगठन की भूमिका! वेतन से, या किसी स्रोत से कुछ पैसा हाथ आया तो छपवा लीजिये, मुफ्त बाँट दीजिए। खुद को लेखक मनवाने के सुकर्म में लगे रहिए, राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय हो जाइए, क्या फर्क पड़ता है। पता चला घर के लोग ही आप को लेखक मानने के लिए तैयार नहीं हैं, मन या मान रखने के लिए भले ही आप पर केंद्रित किसी आयोजन में कभी-कभार उपस्थित हो जाएँ। चुपके से पैसा देकर, पचास खुशामद करके अपनी कृति छपवानेवाले रॉयल्टी वसूलने के आंदोलन के लट-लकार की पुकार पर कान धरेंगे! पागल हैं! मेरी बातों पर मत जाइए, लेखक संगठनों की भूमिका है। मैं लेखक नहीं। न गाड़ी खींचनेवाला बैल, न गाड़ी के आगे फुदकता हुआ दौड़नेवाला कुत्ता।  आप लेखक हैं, आप लेखक संगठन की भूमिका तलाशिए। देश भक्ति और राजनीति के आगे .... बस राम राम।

 

रंगभूमि से

1."शहर अमीरों के रहने और क्रय-विक्रय का स्थान है। उसके बाहर की भूमि उनके मनोरंजन और विनोद की जगह है। उसके मध्य भाग में उनके लड़कों की पाठशालाएँ और उनके मुकदमेबाजी के अखाड़े होते हैं, जहाँ न्याय के बहाने ग़रीबों का गला घोंटा जाता है। शहर के आस-पास ग़रीबों की बस्तियाँ होती हैं। बनारस में पाँड़ेपुर ऐसी ही बस्ती है। वहाँ न शहरी दीपकों की ज्योति पहुँचती है, न शहरी छिड़काव के छींटे, न शहरी जल-स्रोतों का प्रवाह। 

लुप्त और गुप्त

लुप्त और गुप्त

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लुप्त और गुप्त के अर्थ में क्या अंतर है! मेरी समझ से लुप्त होने का अर्थ है, जो मिट गया, जिसका अस्तित्व खो गया और जिसे खोजा नहीं जा सकता हो। शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग पहले अपने घुलाता-मिलाता है। घुल मिल जाने के बाद धीरे-धीरे उस के लुप्त होने या लुप्त करने की ऐतिहासिक परिस्थिति में डाल देता है। लुप्त का सामान्यतः फिर से इस्तेमाल नहीं हो सकता है। गुप्त होने का अर्थ खो जाना नहीं है बल्कि शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग के द्वारा आम लोगों की नजर से छुपा लेना या पहुँच को प्रतिबंधित करना है। उचित समय पर गुप्त का इस्तेमाल हो सकता है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा, महायान संप्रदाय या यों कहिए कि भारतीय बौद्ध संप्रदायसन् ईस्वी के आरंभ से ही लोकमत की प्रधानता स्वीकार करता गयायहाँ तक कि अंत में जाकर लोकमत में घुल-मिलकर लुप्त हो गया। और तुलसीदास लिखते हैं, पाखंडवाद के कारण सद्-ग्रंथ गुप्त हो जाते हैं। कौन-से सद्ग्रंथ गुप्त हो गये या होते हैं, इसका संकेत तुलसीदास के यहाँ नहीं मिलता है। जो लुप्त हुआ उसका उल्लेख आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी करते हैं। देखा जाये तो गुप्त और लुप्त की ऐतिहासिक प्रक्रिया का कुछ पता यहाँ से चल सकता है। दुविधा की बात यह है कि क्या गुप्त होता है या और क्या लुप्त समझना मुश्किल है। आपकी समझ में आये तो बताइयेगा, जरूर।

देत लेत मन संक न धरई

देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥

प्रीत और वैर प्राणियों की मूल वृत्ति है। प्रीत और वैर की अधिकता अंधा बना देती है। वैर वीर का विशेषण लगता है। प्रेत तो प्रीत का विशेषण लगता है। वीरता के साबित होने के लिए वैरी का होना जरूरी है। अभी तो बात मीत की। आजकल मित्र निर्वाह के उदाहरण कम ही मिलते हैं। जबर्दस्त उदाहरण तो कभी-कभी मिलते हैं, आप चाहें तो समकाल में भी ऐसे उदाहरण दिख सकते हैं बस दीद चाहिए, जो कि मुश्किल है। खैर, गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी स्पष्ट बात कही है। जिस के साथ लेने देने में कोई शंका न हो, अपने बल के अनुसार हमेशा हित करे, विपत्ति के समय मजबूती से साथ दे। यहाँ तक मतलब साफ है। वक्त और हालात मतलब बदल देते हैं। आज के वक्त और हालात में भी मतलब बदल गया दिखता है। लेने देने में शंका न हो का मतलब यह भी हो सकता है कि किसी का माल उठाकर मित्र को दे। मित्र के बल पर किसी का माल उठवा ले। ऐसा करने में कोई संकोच न करे।

प्रफुल्ल कोलख्यान Prafulla Kolkhyan

वसुधैव कुटुम्बकम

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥

पुरखों ने सपना सँजोया था, वसुधैव कुटुम्बकम का। आज हम ऐसे मुकाम पर पहुँच गये हैं, जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम  तो दूर, कुटुम्ब ही बेसुध हो रहा है। एक दूसरे की सुधि लेने की बुद्धि कमजोर पड़ती दिख रही है। परिवार बिखरते दिख रहे हैं। व्यक्ति टूटते दिख रहे हैं। अंधकार घना तो है, पर उसकी कोख में प्रकाश भी पल रहा है। उस प्रकाश को हासिल करने के लिए, अंधकार से प्रकाश की तरफ बढ़ने के लिए उदार चरित की जरूरत है। उदार चरित वसुधैव कुटुम्ब की शर्त्त भी है। यह मेरा, वह तेरा का हिसाब लगानेवाली लघु चेतना से बाहर निकल कर मैं सब का हूँ, सब मेरा है। अपने पराये के बोध की प्रतीति और वस्तुस्थिति के पार औरों को हँसते हुए देखकर सुखी होने की मनःस्थिति को हासिल किया जा सकता है। औरों में खुद को तथा खुद में औरों को हासिल कर लेने का विन्यास बनना असंभव नहीं है। जियो और जीने दो, तो ठीक लेकिन जीने की शर्त्त जीने देना है तो इस तरह समझा जा सकता है कि पहले जीने दो और फिर जियो। अंतःकरण के आयतन को बढ़ाने की कोशिश करते हुए उदार चरित के साथ मस्तक उठाकर जियो, भय चित्त के साथ जियो। बाधा! बाधा अपने अंदर का कायर है। अपने चित्त के अंदर आसन जमाये बैठा यह कायर बहुत भयभीत है। चित्त के भय मुक्त होने के लिए अपने चित्त के अंदर बैठे इस कायर को निकालना होगा, तभी कुटुम्ब भी बचेंगे, वसुधा भी बचेगी। कर पाओगे परफूल! मुश्किल है। खैर तुम नहीं तो कोई और, अभी नहीं तो कभी और यह संभव हो सकता है। 


तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ

कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।
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मिथ को समझना। समझकर उस के विश्लेषण, इंटरप्रटेशन (तात्पर्यन) से अपने समय को समझना और उसकी समस्याओं के कोई हल निकालना कठिन है, पर असंभव नहीं। मुझे यह सदैव महत्त्वपूर्ण लगा है कि तुलसीदास की मानें तो रघुराई ने मुनि से कहा, निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई। मेरे एक मित्र ने सवाल उठाया कि शस्त्र सुसज्जित राम निर्भय होने का आश्वासन देते हैं, तो क्या शक्ति या शस्त्र ही निर्भय होने को आश्वासन दे सकता है! सवाल महत्त्वपूर्ण है, जवाब कई हो सकते हैं, कई तरह के हो सकते हैं। अधिकतर असंतोषजनक या असहमतिपरक! खैर।
शिव धनु को प्रभु राम ने तोड़ दिया। परशुराम की नाराजगी पर लक्ष्मण ने कहा कि बचपन में बहुत सारे धनुषों को तोड़ने की बात कह दी। प्रभु ने शिव धनु सहित बहुत सारे धनुषों को तोड़ा, लेकिन अपना धनुष छोड़ा नहीं। यहाँ, इतना उल्लेख भर कर देना प्रासंगिक हो सकता है कि राम और कृष्ण के युग्म को अविभाज्य मानकर चलने और उन्हें पारस्परिक प्रासंगिकता में समझना हमारी सांस्कृतिक जरूरत है, इस पर संभव हुआ तो फिर कभी।
मेरा एक लेख है। हिंसा पर टिकी सभ्यता। काफी पहले जनसत्ता में छपा था। उसके संदर्भों को याद कर रहा हूँ। मूल शब्द हिंसा है। हिंसा का निषेध अहिंसा है। हिंसा मौलिक वृत्ति है। जैसे नींद, भूख आदि। मौलिक वृत्ति को नियंत्रित तो किया जा सकता है, लेकिन उसका पूर्ण निषेध संभव नहीं है। अहिंसा सभ्यता की आकांक्षा है। इसलिए, इसे मौलिक विडंबना है कि पूर्ण अहिंसक होने की सभ्यता आकांक्षा पूरी नहीं हो पाई है। दुखद यह है कि इसे नियंत्रित करने में भी कई बार सभ्यता के उपादान विफल हो जाते हैं। उपाय! लघुतर हिंसा यदि वृहत्तर हिंसा को रोकने का उपादान मान लिया जाये तब, ‘तुलसी मस्तक तब नवै, जब धनुष बान लो हाथ।।‘ जैसी उक्ति के मर्म को नये सिरे से समझने की कोशिश की जा सकती है। अभी तो, इतना ही।
Hare Ram Katyayan