लुप्त और
गुप्त
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लुप्त और गुप्त के अर्थ में क्या अंतर है! मेरी समझ से लुप्त होने का
अर्थ है, जो मिट गया, जिसका अस्तित्व खो गया और जिसे खोजा नहीं जा सकता हो।
शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग पहले अपने घुलाता-मिलाता है। घुल मिल जाने के
बाद धीरे-धीरे उस के लुप्त होने या लुप्त करने की ऐतिहासिक परिस्थिति में डाल देता
है। लुप्त का सामान्यतः फिर से इस्तेमाल नहीं हो सकता है। गुप्त होने का अर्थ खो
जाना नहीं है बल्कि शक्तिशाली चतुर धारा या शक्ति वर्ग के द्वारा आम लोगों की नजर
से छुपा लेना या पहुँच को प्रतिबंधित करना है। उचित समय पर गुप्त का इस्तेमाल हो
सकता है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा, महायान संप्रदाय या यों
कहिए कि भारतीय बौद्ध संप्रदाय, सन् ईस्वी के आरंभ से ही लोकमत की प्रधानता स्वीकार करता गया, यहाँ तक कि अंत में जाकर लोकमत में घुल-मिलकर लुप्त हो गया। और तुलसीदास लिखते हैं, पाखंडवाद के
कारण सद्-ग्रंथ गुप्त हो जाते हैं। कौन-से सद्ग्रंथ गुप्त हो गये या होते हैं,
इसका संकेत तुलसीदास के यहाँ नहीं मिलता है। जो लुप्त हुआ उसका उल्लेख आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी करते हैं। देखा जाये तो गुप्त और
लुप्त की ऐतिहासिक प्रक्रिया का कुछ पता यहाँ से चल सकता है। दुविधा की बात यह है
कि क्या गुप्त होता है या और क्या लुप्त समझना मुश्किल है। आपकी समझ में आये तो
बताइयेगा, जरूर।
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