अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् ।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
पुरखों ने सपना सँजोया था, वसुधैव कुटुम्बकम का। आज हम ऐसे मुकाम पर पहुँच गये हैं, जहाँ वसुधैव कुटुम्बकम तो दूर, कुटुम्ब ही बेसुध हो रहा है। एक दूसरे की सुधि लेने की बुद्धि कमजोर पड़ती दिख रही है। परिवार बिखरते दिख रहे हैं। व्यक्ति टूटते दिख रहे हैं। अंधकार घना तो है, पर उसकी कोख में प्रकाश भी पल रहा है। उस प्रकाश को हासिल करने के लिए, अंधकार से प्रकाश की तरफ बढ़ने के लिए उदार चरित की जरूरत है। उदार चरित वसुधैव कुटुम्ब की शर्त्त भी है। यह मेरा, वह तेरा का हिसाब लगानेवाली लघु चेतना से बाहर निकल कर मैं सब का हूँ, सब मेरा है। अपने पराये के बोध की प्रतीति और वस्तुस्थिति के पार औरों को हँसते हुए देखकर सुखी होने की मनःस्थिति को हासिल किया जा सकता है। औरों में खुद को तथा खुद में औरों को हासिल कर लेने का विन्यास बनना असंभव नहीं है। जियो और जीने दो, तो ठीक लेकिन जीने की शर्त्त जीने देना है तो इस तरह समझा जा सकता है कि पहले जीने दो और फिर जियो। अंतःकरण के आयतन को बढ़ाने की कोशिश करते हुए उदार चरित के साथ मस्तक उठाकर जियो, भय चित्त के साथ जियो। बाधा! बाधा अपने अंदर का कायर है। अपने चित्त के अंदर आसन जमाये बैठा यह कायर बहुत भयभीत है। चित्त के भय मुक्त होने के लिए अपने चित्त के अंदर बैठे इस कायर को निकालना होगा, तभी कुटुम्ब भी बचेंगे, वसुधा भी बचेगी। कर पाओगे परफूल! मुश्किल है। खैर तुम नहीं तो कोई और, अभी नहीं तो कभी और यह संभव हो सकता है।
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