हरिशंकर परसाई व्यंग्य

व्यंग्य

यह हरिशंकर परसाई का जन्म शताब्दी वर्ष है। यह हरिशंकर परसाई के लेखन के ऐतिहासिक महत्त्व को समकाल के संदर्भ में ध्यान से देखने-परखने का अवसर है। साहित्य के सक्षम विद्वान लोग इस काम को कर रहे होंगे। पत्रिकाएँ अपनी योजनाओं पर काम कर रही होंगी। मैं इस काम में बहुत सक्षम तो नहीं हूँ, लेकिन उनका पाठक होने के नाते अपने दायित्व से मुँह नहीं मोर सकता।

व्यंग्य लिखना कठिन काम है। इस माहौल में तो बहुत ही कठिन है। व्यंग्य की खासियत यह होती है कि जिस पर व्यंग्य लिखा जाता है वह भी अपनी सहमति-असहमति से ऊपर उठकर मुसकुराये बिना नहीं रहता है। मन मसोस कर भले रह जाये, आक्रामक नहीं हो जाता है। व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में नहीं लेता है। व्यंग्य के मर्म को समझता है। अपनी भावनाओं को आहत होने से बचा लेता है। इसे अपनी मान हानि नहीं मानता है। व्यंग्य को अपमान नहीं मानता है। कटुक्ति और व्यंग्य के अंतर को समझता है। परिष्कृत हँसी मजाक मनोरंजन से आगे बढ़कर का मनुष्य के मनःप्रसादन का एक सरस प्रयास होता है। कहा जाता है कि मजाक करना, मजाक नहीं है। जिस मजाक से कटुता बढ़ जाये वह मजाक तो मजाक नहीं रह जाता है। इसका ध्यान व्यंग्यकार को रखना ही पड़ता है। ऐसे में अपनापन, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व की बेहतर जरूरत होती है। व्यंग्य साहित्यिक विधा के साथ ही जीवंत समाज में बातचीत की सामान्य सामाजिक शैली भी है। व्यापक और बहुल भारतीय समाज और साहित्य में इसकी पुरजोर उपस्थिति मिलती है। जो समाज में रहा है वह राजनीति में सहज रूप में होता है। खुले मन और खुले समाज में ही व्यंग्य के लिए जगह बनती है। अशांत, आंतरिक रूप से विभक्त और विघ्न-तोषी समय में व्यंग्य के लिए जगह कहाँ बचती है। ऐसे में इस तरह की कई बातों को ध्यान में रखते हुए, इस खास अवसर पर हरिशंकर परसाई के साहित्य को फिर से देखने परखने का इरादा है, दायित्व भी। अभी तो मन बाँटा है। पूरा कर पाऊँगा? पता नहीं!

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