देत लेत मन
संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
प्रीत
और वैर प्राणियों की मूल वृत्ति है। प्रीत और वैर की अधिकता अंधा बना देती है। वैर
वीर का विशेषण लगता है। प्रेत तो प्रीत का विशेषण लगता है। वीरता के साबित होने के
लिए वैरी का होना जरूरी है।
अभी तो बात मीत की।
आजकल मित्र निर्वाह के उदाहरण कम ही मिलते हैं। जबर्दस्त उदाहरण तो कभी-कभी मिलते
हैं, आप चाहें तो समकाल में भी ऐसे उदाहरण दिख सकते हैं बस दीद चाहिए, जो कि
मुश्किल है। खैर, गोस्वामी तुलसीदास ने बड़ी स्पष्ट बात कही है। जिस के साथ लेने
देने में कोई शंका न हो, अपने बल के अनुसार हमेशा हित करे, विपत्ति के समय मजबूती
से साथ दे। यहाँ तक मतलब साफ है। वक्त और हालात मतलब बदल देते हैं। आज के वक्त और
हालात में भी मतलब बदल गया दिखता है। लेने देने में शंका न हो का मतलब यह भी हो
सकता है कि किसी का माल उठाकर मित्र को दे। मित्र के बल पर किसी का माल उठवा ले। ऐसा
करने में कोई संकोच न करे।
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