जो खो गया, उससे बेहतर की खोज

जो खो गया, उससे बेहतर की खोज

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आरंभ

मेरी आँख — सामाजिक आँख — जब खुल रही थी, उस समय प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार द्वारा देश पर लादी गई राजनीतिक आपातकाल चल रहा था। जिस तरह से देश पर राजनीतिक आपातकाल लागू की गयी, दल के रूप में कांग्रेस राजनीतिक रूप से जरूर जिम्मेवार कही जा सकती है, है भी। लेकिन नैतिक और राजनीतिक रूप से प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी इसके लिए खुद जिम्मेवार थी; करीबी लोगों की भूमिकाओं पर भी बात की जा सकती है। मानना होगा कि यह शुद्ध रूप से  तात्कालीन प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी की व्यक्तिगत जिम्मेवारी थी — जैसे प्रीवी पर्स के समाप्त किये जाने, बैंकों के, कोयला क्षेत्र आदि के राष्ट्रीयकरण के लिए उनको व्यक्तिगत श्रेय दिया जाता है। हमारे जैसे बहुत सारे लोग इतना तो मानते थे कि श्रीमती इंदिरा गांधी बहुत शक्तिशाली नेता थी। साथ ही यह भी मानते थे कि हर मजबूती तारीफ के काबिल नहीं होती है — मजबूतों की हर बात तारीफ के काबिल नहीं होती है।

यह सच है कि राजनीतिक आपातकाल लागू करने की प्रशंसा नहीं की जा सकती है, लेकिन तात्कालीन परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए; तात्कालीन शासन व्यवस्था की ज्यादातियों पर भी विचार किया जाना चाहिए। विचार किया गया है — लेकिन सिर्फ राजनीतिक स्तर पर, न सामुदायिक स्तर पर, न नागरिक मंच पर, न ही नागरिक जमात के अंदर।

यह सच है कि जयप्रकाश नारायाण के नेतृत्व में चले राजनीतिक आंदोलन ने देश की हवा बदल दी। इस बदली हुई राजनीतिक हवा को प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी ने समझा, उसका दबाव महसूस किया — राजनीतिक आपातकाल ढीला हुआ, चुनाव हुआ और सत्ताधारी दल सत्ता से बाहर हुआ। चुनकर आये सत्ताधारी दलों की सरकार ने राजनीतिक आपातकाल को हटाकर सामान्य स्थिति बहाल की। उस समय के विपक्ष का राजनीतिक रूप से यह कहना गलत नहीं है कि राजनीतिक आंदोलन के दबाव से यह सब हुआ, लेकिन इसे समग्र रूप में नागरिक सच मान लेने में भी बुद्धिमत्ता नहीं है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं है कि राजनीतिक आपातकाल का विरोध और राजनीतिक आंदोलन नागरिक अधिकार और संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार की सामाजिक स्वीकृति और राजनीतिक गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत जरूरी था। आज जरूरत इस बात की है कि हम नागरिक पूर्वग्रह मुक्त मन-मस्तिष्क  और खुले दिल से यह भी आकलित करें कि इस दौरान हमने क्या खोया, क्या पाया, हमारा अनुभव क्या कहता है, खैर यह तो इतिहास की बात है। वैसे, नेपोलियन बोनापार्ट के कहे को मानें तो — इतिहास झूठ का एक समूह ऐसा होता है जिस पर लोग सहमत हो चुके होते हैं (History is a set of lies that people have agreed upon   Napoleon Bonaparte)। मतलब! इतिहास होता नहीं, गढ़ा जाता है। खैर यह सब अपनी जगह, मूल बात यह है कि जिनके सामने राजनीतिक आपातकाल भारत में लागू हुआ उन में से अधिकांश अभी जिंदा हैं, अपना अनुभव बता सकते हैं।

राजनीतिक आपातकाल लागू करते समय श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर फासीवाद का खतरा मँडराने और उससे मुकाबले का तर्क दिया था। वह तर्क कितना वास्तविक था, कितना राजनीतिक था और इसका राजनीतिक मुकाबला कैसे और कितना हुआ, इस पर भी सोचने की जरूरत हो सकती है। लोकलुभावन राजनीति के इस दौर में यह भी सोचना होगा कि इसका मुकाबला कोई राजनीतिक दल अकेले कर सकता है या इसमें नागरिक मंच और नागरिक जमात की भी भूमिका है! नागरिक मंच और नागरिक जमात की भी भूमिका है, तो वह क्या है और कैसे उसका निर्वाह किया जा सकता है? जो खो गया, उससे बेहतर की खोज जरूरी तो है न!

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आपकी राय के आलोक में जारी —

2.

हाँ, राजनीतिक आपातकाल लागू हुआ था

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न्यायमूर्ति जग मोहन लाल सिन्हा ने प्रधानमंत्री, श्रीमती इंदिरा गांधी को उस चुनाव में दो अनियमितताओं का दोषी ठहराया था पहल यह कि प्रधानमंत्री सचिवालय में ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यशपाल कपूर का इस्तेमाल चुनाव में किया जाना और दूसरी यह कि जिन मंचों से श्रीमती गांधी ने चुनावी रैलियों को संबोधित किया, उन मंचों को तैयार करने में उत्तर प्रदेश में कार्यरत सरकारी अधिकारियों की लेना राजनीतिक आपातकाल के दौरान जिन पत्रकारों को जेल में डाल दिया गया था उनमें से एक प्रमुख पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब “इमर्जेंसी ए इनसाइड स्टोरी” में दर्ज किया है —  राज नारायण 1 लाख से अधिक वोटों के अंतर से हार गए थे। वास्तव में, ये अनियमितताएँ वैसी नहीं थीं, जिनसे हार-जीत का फैसला हुआ हो। ये आरोप एक प्रधानमंत्री को अपदस्थ करने के लिए बेहद मामूली थे। यह वैसा ही था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम तोड़ने के लिए अपदस्थ कर दिया जाए। राजनीतिक आपातकाल लागू करने के पीछे इस अदालती फैसले को मोटे तौर पर एक कारण माना जाता है। अदालती फैसला को एक तात्कालिक कारण माना जाता है, और वह था भी लेकिन यह एक मात्र कारण नहीं था। अब अगर कुलदीप नैयर की बात मानें तो आरोप और सजा में अन-आनुपातिक संबंध तो था — माना जा सकता है कि यह अदालती फैसला राजनीति से प्रेरित नहीं था, लेकिन इस अदालती फैसले से राजनीतिक माहौल में युगांतरकारी बदलाव के हो जाने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है। इसलिए, इस अदालती फैसले को कोई राजनीति प्रेरित कहना चाहे तो उसका प्रतिवाद करना आसान नहीं है। यह जरूर ध्यान रखना होगा कि इस दौरान राजनीतिक मकसद ने भी अदालत और कानूनी संरचना को प्रभावित किया — @madhukantjha की टिप्पणी के संदर्भ में है। @amarnathgupta की टिप्पणी के संदर्भ में — हाँ, राजनीतिक आपातकाल के विरोध में चला आंदोलन ईमानदार हाथ में था, लेकिन इसके अन्य घटकों के दिल के मैल की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है — भले ही इसका कारण विभिन्न दलों और नेताओं की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और सत्ता लोलुपता को ही क्यों न ठहराया जाये। जनता और संविधान ने तो पाँच साल का समय दिया था। चला  बहरहाल,  इस बात को यहीं छोड़ते हैं, आगे बढ़ते हैं।

आज की परिस्थिति

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जिस राजनीतिक मकसद से संविधान के प्रावधानों के राजनीतिक इस्तेमाल से आपातकाल लगा वे सारे मकसद बिना आपातकाल लगाये पूरा किया जा रहा है — ऐसा आज का विपक्ष आरोप लगाता है। विपक्ष का आरोप अपनी जगह, अधिकतर नागरिकों को क्या लगता है, महत्त्वपूर्ण यह है। मुझे तो विपक्ष का आरोप सही लगता है। नागरिक मन निराश और हताश है — सवाल, रोजी-रोटी का हो, महँगाई में उछाल का हो, अर्थनीति में साँठ-गाँठ (क्रोनी कैपटलिज्म) का हो, बेहतर नागरिक सुविधा का हो, स्वास्थ्य सेवा की सुलभता या गुणवत्ता का हो, समुचित शिक्षा व्यवस्था की सुलभता का हो, सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन का हो, सामाजिक न्याय और व्यक्ति और नागरिक गरिमा का हो। भारत में संसाधनों की कमी से भारत का नागरिक अवगत है — नागरिक मन तब फटता है जब गैर-आर्थिक मुद्दों पर भी वह छला हुआ महसूस करने लगता है। विभिन्न सेवा प्रदाताओं की तरफ से ठगा जाकर असहाय होना महसूस करने लगता है। भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (Competition Commission of India) की गतिविधियों से उपभोक्ता क्या उम्मीद करता है, करता भी है या नहीं! नागरिक मन अपनी हताशा और निराशा से कैसे बाहर निकले?

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आपकी राय से, जारी —

 

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यह कैसे हुआ, क्यों कर हुआ

याद करते हैं डॉ मनमोहन सिंह सरकार के आखिरी सालों को, लेकिन पहले उनकी शुरुआत। डॉ मनमोहन सिंह दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री हैं। विभिन्न हैसियत में भारत सरकार के वित्तीय मामलों पर सलाहकार और कर्ता के रूप में उनकी प्रभावी भूमिका रही है। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी रहे। कई प्रधानमंत्रियों के साथ उन्हें काम करने का मौका मिला। न सिर्फ प्रधानमंत्री, के साथ उन्होंने काम किया, बल्कि खुद प्रधानमंत्री बनने का मौका भी मिला — दो-चार महीने, साल नहीं दो दशक तक वे प्रधानमंत्री रहे। लंबे समय तक जुझारू राजनीतिक जीवन के अनुभवों से समृद्ध लोक प्रिय प्रधानमंत्री, अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को दुबारा सरकार बनाने जितना बहुमत नहीं मिल सका — सरकार बनाने जितना बहुमत मिला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) को। राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के प्रमुख दल भारतीय जनता पार्टी के नेताओं, एवं अन्य नेताओं ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल के होने के मामलों को बहुत जोरदार ढंग से अपने राजनीतिक दाँव के रूप में उठाया। सोनिया गांधी को बहुमत हासिल करनेवाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) के दलों का समर्थन हासिल था। लगभग तय था कि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री के रूप में शपथ लेने जा रही हैं — उस समय (25 जुलाई 2002 से 25 जुलाई 2007 तक) भारत के राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम थे — भारत के वैज्ञानिक और मिसाइल मैन के रूप में विख्यात थे। ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का भारत के लोगों से, खास कर युवाओं से, बहुत गहरा भावात्मक और बौद्धिक लगाव था — युवा तो उन्हें अपने प्रेरणा स्रोत के रूप में स्वीकार करते थे।

अपनी पुस्तक “टर्निंग प्वाइंट्स” में ए.पी.जे. अब्दुल कलाम लिखते हैं — “अपने कार्यकाल में मुझे बहुत-से कठिन निर्णय लेने पड़े। मैंने हमेशा कानूनी और संवैधानिक परामर्शों के आधार पर, अपने विवेक से फैसले किये। अपने हर फैसले के पीछे मेरी यही कोशिश रही कि मैं संविधान की प्रकृति, पवित्रता और दृढ़ता की रक्षा कर सकूँ।” इसी पुस्तक में, डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनाये जाने के बारे में वे लिखते हैं — “मेरे पास लोगों, संगठनों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा भेजे गये बहुत से ई मेल, और पत्र आये, कि मैं सोनिया गाँधी को देश का प्रधानमंत्री न बनने दूँ। मैंने वह सारे पत्र वगैरह, बिना अपनी किसी टिप्पणी के, सूचनार्थ, अनेक सरकारी एजेंसियों को भेज दिए। इसी बीच, मेरे पास बहुत से राजनेता इस बात के लिये मिलने आये कि मैं किसी दबाव के आगे कमज़ोर पड़ कर, श्रीमती सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री न बनने दूं। यह निवेदन किसी भी तरह संवैधानिक नहीं था। वह अगर अपने लिये कोई दावा पेश करेंगी तो मेरे पास उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होगा। तयशुदा समय शाम 8:15 पर श्रीमती गांधी राष्ट्रपति भवन आईं और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह थे। इस भेंट में, रस्मी खुशनुमा बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपने गठबंधन वाले दलों का समर्थन पत्र दिया। उसके बाद मैंने सरकार बनाने योग्य दल के रूप में उनका स्वागत किया और कहा कि राष्ट्रपति भवन उनके बताए समय पर शपथ ग्रहण समारोह के लिये तैयार है। उसके बाद उन्होंने कहा कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये डॉ. मनमोहन सिंह को नामांकित करना चाहती हैं। वह 1991 के आर्थिक सुधार के नायक हैं, काँग्रेस पार्टी के विश्वसनीय कर्णधार हैं तथा प्रधानमंत्री के रूप में निर्मल छवि वाले नेता हैं। यह सचमुच मेरे लिये और राष्ट्रपति भवन के लिये एक अचंभा था। सचिवालय को डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए और यथा शीघ्र सरकार बनाने का आमंत्रण देते हुए, दूसरा पत्र बनाना पड़ा।

प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया गांधी को संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (युपीए) का समर्थन प्राप्त था। राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम उन्हें प्रधानमंत्री पद पर नियुक्त करने के लिए तैयार थे। सोनिया गांधी ने फिर भारत जैसे महान देश के प्रधानमंत्री के लिए अपने बदले डॉ मनमोहन सिंह का नाम कैसे आगे बढ़ाया — यह कोई सामान्य बात नहीं मानी जा सकती है। आखिर, क्या कारण थे! क्या राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के नेताओं के दबाव में थीं?

आपकी राय से, जारी —

 

4

डॉ मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने

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अपनी पुस्तक How Prime Ministers Decide में प्रसिद्ध पत्रकार नीरजा चौधुरी ने दर्ज किया है — “दोपहर के लगभग 2 बजे रहे होंगे। मुझे लगता है कि यह वरिष्ठ नेताओं की बैठक होने से ठीक पहले की बात है, "नटवर सिंह ने इस लेखक से कहा। उन्होंने कहा, 'मैं मनमोहन सिंह से संपर्क करने की कोशिश कर रहा था। उन्होंने कहा कि वह 10, जनपथ पर हैं... मैं उसे खोजने के लिए वहां गया ... जब मैं वहां पहुंचा तो उन्होंने (सचिवों ने) कहा, 'आप अंदर जा सकते हैं। गांधी परिवार के सहयोगी के रूप में, गांधी परिवार तक उनकी आसान पहुंच थी।

उन्होंने कहा, 'वह (सोनिया) वहां सोफे पर बैठी थीं... मनमोहन सिंह और प्रियंका भी वहां मौजूद थे। कुछ देर बाद सुमन दुबे आ गई। सोनिया गांधी परेशान दिख रही थीं... तभी राहुल अंदर आए और हम सबके सामने कहा, 'मैं आपको प्रधानमंत्री नहीं बनने दूंगा। मेरे पिता की हत्या कर दी गई, मेरी दादी की हत्या कर दी गई। छह महीने में, आप मारे जाएंगे। राहुल ने धमकी दी कि अगर सोनिया ने उनकी बात नहीं मानी तो वह अतिवादी कदम उठा लेंगे। नटवर सिंह ने याद करते हुए कहा, 'यह कोई साधारण धमकी नहीं थी, राहुल एक मजबूत इरादों वाले व्यक्ति हैं। उन्होंने सोनिया को फैसला करने के लिए 24 घंटे का समय दिया। राहुल ने जब कहा कि वह अपनी मां को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए हर संभव कदम उठाने को तैयार हैं तो सोनिया गांधी गुस्से में थीं और उनकी आंखों में आंसू थे। कमरे में एक हैरान कर देने वाला सन्नाटा छा गया। उन्होंने कहा, 'यह राहुल की कुछ कठोर कदम उठाने की धमकी थी जिसके कारण सोनिया गांधी ने अपना मन बदल लिया। मूल रूप से उसके बेटे ने उसके लिए निर्णय लिया। नटवर सिंह ने कहा, उन्होंने कहा। एक मां के रूप में उनके लिए राहुल को नजरअंदाज करना असंभव था।तो! इस तरह डॉ मनमोहन सिंह भारत के प्रधानमंत्री नियुक्त हुए।

   

 

दुनिया चपटी है, सपाट है!

दुनिया चपटी है, सपाट है!

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मेरी किसी पोस्ट पर एक मित्र की टिप्पणी पर बात हो रही थी किन से! किस पोस्ट पर! याद नहीं। संदर्भ था — धरती गोल है या चपटी। वे बार-बार कह रहे थे धरती गोल है। मैं जोड़ देके कहे जा रहा था मेरी दुनिया चपटी है, सपाट है। मैं परती, धरती, पृथ्वी, वसुंधरा और दुनिया आदि के अंतर को जानता हूँ जो किसी प्रयोजन के लिए निर्धारित नहीं है वह परती है, जो विविध प्रयोजन के लिए निर्धारित है वह धरती है, जो किसी खास प्रयोजन के लिए अलग (पृथक) की गई है वह पृथ्वी है, जिसके अंदर पहले से प्रकृति ने कुछ (खनिज, रत्न, आदि) रखा है वह वसुंधरा है, जो मनुष्य ने बसाया है वह दुनिया है; संसृति है, संसार यानी जो चलती-बदलती रहती है, बांग्ला में खिसकने को सोरे (सर : संदर्भ संस्कृत शब्द-रूप) जान कहते हैं। फिर भी मैं कहे जा रहा था मेरी दुनिया चपटी है। मुझे उम्मीद थी कि वे पूछेंगे कि मैं दुनिया को चपटी, सपाट क्यों कह रहा था! उम्मीद यह भी थी कि किसी-न-किसी मित्र की टिप्पणी आ जायेगी जो उनको संतुष्ट कर सके। बहरहाल, उम्मीद कुछ ज्यादा थी — न उन्होंने पूछा, न किसी अन्य की कोई टिप्पणी आई! बात आयी-गयी हो गयी, जैसा कि होता ही है।  

उम्मीद थी, कि सन् 1982 ई. में लेबनान पर इजरायली आक्रमण एवं ‘बसरा शतीला नरसंहार’ पर बेहतरीन रिपोर्टिंग के लिए पत्रकारिता को दिये जानेवाले प्रतिष्ठित पुलित्जर पुरस्कार और डेविड के. शिपलर के साथ जॉर्ज पोल्क पुरस्कार प्राप्त करनेवाले तथा न्यूयॉर्क टाइम्स के जेरूसलम ब्यूरो प्रमुख रहे अमरीकी पत्रकार फ्रीडमैन की पुस्तक The World Is Flat का उल्लेख कहीं से कोई करेगा। किसी ने कोई उल्लेख नहीं किया, हो सकता है जो उल्लेख कर सकते थे उनकी नजर से हमारी बातचीत गुजरी ही न हो!

इस बार इस इलाके में तना-तनी बढ़ी है तो, मुझे फिर महत्त्वपूर्ण पत्रकार फ्रीडमैन की पुस्तक — The World Is Flat याद आ रही है। अब तो, भयानक युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया है, The World Is Flat, एक महत्त्वपूर्ण किताब है, अवसर और सुविधा हो तो देखियेगा। सत्योपरांत समय में झूठ और सच के संबंध को वैसे भी जानना दिलचस्प है है कि नहीं! हैये है

लोक को समझने और उसके पास जाने की दो दृष्टि

#Fir_Loktantra_kolkhyan #फिरःलोकतंत्रःकोलख्यान

 

6.

लोक को समझने और उसके पास जाने की दो दृष्टि

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भारत के ग्रामीण इलाकों में यह लोकोक्ति चलती है कि घर में महाभारत न रखना चाहिए न पढ़ना चाहिए — लोकोक्तियों के पीछे निश्चित ही कोई प्रेरणा, लोक का कोई सांस्कृतिक अनुभव होती है, कोई-न-कोई बात जरूर होती है। क्या हो सकती है वह बात! अरुण त्रिपाठी हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं। महाभारत काव्य खरीदके घर ले जाते समय यह लोकोक्ति दिमाग में झलकी, मन में शंका उठी! हर शंका में डर नहीं होता है, लेकिन उस में एक ख्याल तो होता ही है — एक ठिठक होती है। लोक में, खासकर मिथिला में एक उक्ति प्रचलित है — अपना गामक गाछी डेराउन, आन गामक पोखैर डेराउन! जाने-पहचाने बगीचों में भूत-प्रेत की कहानियाँ स्मृति में होती है, जो एकांत अंधेरे में डर पैदा करती है : अनजान तालाब की गहराई का पता नहीं होता है, प्रवेश के पहले थोड़ा डराता है। महाभारत को लेकर लोक के मन में ऐसी क्या बात है, लोक का ऐसा क्या अनुभव हो सकता है! इस बात की छान-बीन के लिए लोक मन और महाभारत की खासियत को समझना चाहिए। लोक मन बहुत गहरा होता है और महाभारत भी दुनिया की जटिलतम महागाथाओं में से एक है — इसे समझना इतना आसान नहीं। एक बात यह भी है कि लोक का मन धार्मिक, सांस्कृतिक से संबंधित वेदांत-दंतकथाओं से बनी पाप-पुण्य बोध की अवधारणाओं का वहन अधिक गुरुता से करता है; संवैधानिक प्रावधानों की विधि-निषेध से उतना संचालित नहीं होता है। लोक मन को समझना मुश्किल, महाभारत की बारीकियों को समझने में भी मुश्किल कम नहीं। फिर भी कोशिश तो की ही जा सकती है! फेसबुक तो वैसे भी त्वरित टिप्पणी के लिए उकसाती है।

अरुण त्रिपाठी की पोस्ट : ‘सोमवार को अयोध्या से गीताप्रेस से प्रकाशित महाभारत ले आया। यह छह खंडों में है और इसका एक सेट का मूल्य 3000 रुपए है। गांव में कहते है महाभारत पढ़ने से झगड़ा होता है। इसलिए न तो पढ़ना चाहिए है और न ही घर में  रखना चाहिए। पर मैं दोनों कर रहा हूँ। लेकिन शुरुआत शान्ति पर्व से कर रहा हूँ।

मेरी त्वरित टिप्पणी थी — ‘महाभारत का हर पात्र अपने अतीत का भारी पत्थर सामने रखकर आगे बढ़ता है। इस पत्थर को कभी हथियार की तरह इस्तेमाल करता है, कभी ढाल की तरह। अपने अतीत से वर्तमान को परिभाषित करता हुआ अपना अगला कदम उठाता है। नैतिक सवाल के खड़ा होते ही अपनी वैधता के लिए अपने अतीत की ओर लपकता है, कभी-कभी अतीत से कुछ जवाब ढूँढ लाता है, कभी-कभी वहाँ से तब तक नहीं लौटता है जब तक नैतिक सवाल खुद टल नहीं जाता है। अतीत को जब पीठ के बदले सीने पर लेकर परिजन मिलते हैं उनके बीच टकराव की आशंका अपने उच्चतम स्तर पर सक्रिय हो जाती है -- बुजुर्ग जानते हैं, इस तरह की शंका से बचने के लिए महाभारत को घर में न रखने, न पढ़ने का आदेश देकर समझते हैं कि परिवार के लोग टकराव से बच पायेंगे; हालाँकि ऐसा होता नहीं है! महाभारत को समझकर ही महाभारत की आशंका की परिधि से निकला जा सकता है — इसलिए इसका पारायण (पढ़ना) कीजिये।’

मेरी टिप्पणी पर @Aruntripathi अरुण जी ने कहा — ‘आपने बेहद नवीन और कल्पनाशील व्याख्या की है। मुझे तो इस ग्रंथ में सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, हिंसा और अहिंसा, नीति अनीति, लज्जा और निर्लज्जता, धैर्य अधैर्य, समता विषमता का अद्भुत टकराव दिख रहा है।’

भारत को समझने में महाभारत से कोई मदद मिल सकती है क्या? कम-से-कम उत्तर भारत की सामाजिक संरचना की जड़ों को समझने में इसकी थोड़ी-सी भूमिका हो सकती है! अब इसका प्रमाण क्या हो सकता है — इशारा हो सकता है। कहीं भी, खासकर पारिवारिक मामलों में झमेला फँसने पर लोगों के मुँह से अनायास निकल जाता है — महाभारत मचा हुआ है! ध्यान रहे यह इतिहास नहीं है, लेकिन आख्यान जरूर है, बल्कि महा-आख्यान है!

पूर्व घटित से वर्तमान निदेशित होने लगे तो वर्तमान कलह से घिर जाता है, और फिर आज का वर्तमान भविष्य के लिए पूर्व घटित बनकर भविष्य की संभावनाओं को कलुष से भर देता है — इस भँवर से निकलना जरूरी है! निकलने के लिए इसे जानना जरूरी है — जानने में महाभारत मददगार हो सकता है! महाभारत से उदाहरण तो लिये जा सकते हैं — अधिकरण नहीं बनाया जा सकता है।

कम-से-कम उत्तर भारत के लोक को समझने के लिए इसकी चर्चा करने के बाद भिन्न दृष्टि से लोक समझने की बेहतर स्थिति में हम हो सकते हैं — दो प्रमुख दृष्टि है : बाबा साहब आंबेडकर और महात्मा गांधी से मिल सकती है। यह ध्यान में रखना होगा कि ये दोनों दृष्टि जड़ नहीं गतिमान हैं; इनकी विकसित दृष्टि रेखाओं से मदद लेनी होगी। यह थोड़ा संवेदनशील और स्पर्श-कातर मामला है। थोड़ी-सी असावधानी से वह बात हाथ आकर भी, हाथ से निकल जायेगी जिसकी तलाश में हम लगे हैं! इसलिए थोड़ा ठहरकर!

जीवित रहने की शर्तें और व्यवहार की समानता

4.

जीवित रहने की शर्तें और व्यवहार की समानता

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इस समय लोकतंत्र के संदर्भ में लेख लिखने की कोशिश में लगा हूँ। मैं खुद इतना बुद्धिमान नहीं हूँ कि अकेले इस काम को पूरा कर सकूँ। सामग्री और संदर्भों की तलाश में रहता हूँ बिना सहयोग सहायता के किसी काम को पूरा करने में स्वयं नहीं हूँ। @Animesh अनिमेष प्रियदर्शी के दो पोस्ट को मैं ने इस विचार क्रम में विचार के लिए यहाँ ले रहा हूँ। एक संदर्भ हिंदी के विख्यात कवि @Rajesh राजेश जोशी की कविता से उन्होंने लिया है। और एक में @Manoj मनोज अभिज्ञान का जिक्र है। मैं इन सभी के प्रति आभार व्यक्त कर लूँ, यह जरूरी है आभार।

मैं खुद से सवाल करता हूँ आखिर लोकतंत्र से हम, यानी नागरिक, क्या उम्मीद करते हैं! फिर याद कर लूँ नागरिकता को बचाये रखने के लिए सुकरात ने दैहिक जीवन का मोह छोड़ नैतिक जीवन का विकल्प चुना था विष का प्याला पीना स्वीकार किया था। किसी भी हाल में नागरिक होने के कर्तव्य को पूरा करते हुए नागरिकता को बचाना और इसके साथ नागरिकता से प्राप्त होनेवाले हक एवं हक से प्राप्त सुफल को हासिल बरामद करने तथा निर्भय जीवन यापन की स्थिति से संतुष्ट रहना। संक्षेप में, हर हाल में और सभी अर्थों में जीवित रहने की स्थिति और जीवन प्रसंगों में समान व्यवहार। किसी भी विद्रोह या आक्रोश को गौर से देखने पर यह समझते देर न लगेगी कि उसके मूल में समान व्यवहार का अभाव है समान व्यवहार का अभाव अपने-आप में अन्याय है। समान व्यवहार और अन्याय-बोध का बड़ा हिस्सा आत्म-निष्ठ होता है इसके वस्तु-निष्ठ स्वरूप को खोज निकालना, थोड़ा मुश्किल होता है। मुश्किल इसलिए भी होता है कि कई बार हम अपने हित और स्वार्थ के दबाव में जाने-अजाने, आत्म-निष्ठ होकर वस्तु-निष्ठता की तलाश करने लग जाते हैं।  

 

जीवित रहने की शर्तें

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राजेश जोशी कि यह कविता बहुत मार्मिक और इस संदर्भ में प्रासंगिक है हम पूरी कविता को, खासकर, इस अंश को याद करते रहते हैं।

‘सबसे बड़ा अपराध है इस समय  

निहत्थे और निरपराधी होना 

जो अपराधी नहीं होंगे’

तब जीवित रहने का रास्ता क्या बचता है! हथियार थामना! हथियार थामते ही हम निहत्थे भी नहीं रह जायेंगे और निरपराध भी नहीं रह जायेंगे! इससे क्या जीवित रहने की शर्तें पूरी हो जायेंगी? यहाँ हमें ठहर कर हथियार थामनेवालों एवं अपराधी लोगों के जीवन पर गौर करना होगा। उनकी कठिनाइयों को समझना होगा। क्या इस तरह से निर्भय जीवन यापन की स्थिति हासिल हो सकती है? क्या नागरिकता खंडित होने से बच पाती है? क्या यह कविता या कवितांश इस तरह से जीवित रहने के लिए उत्प्रेरित करती है? तीनों का उत्तर है — नहीं। तो फिर काव्य-न्याय (Poetic Justice) का संकेत क्या है? संकेत है — इस स्थिति से बाहर निकले की लोकतांत्रिक कोशिश। लेकिन लोकतांत्रिक कोशिश तो, लोकतांत्रिक पर्यावरण में ही संभव है! लोकतांत्रिक पर्यावरण सुनिश्चित हो तो, ऐसी स्थिति ही क्यों उत्पन्न हो! समझना होगा, गड़बड़ी कहाँ है — लोक में या तंत्र में या दोनों में! तंत्र लोक का निर्माण नहीं कर सकता है— क्या यह पूरा सच है। नहीं यह पूरा सच नहीं है। लोक अपने लिए तंत्र का निर्माण करता है, लोक अपने बनाये तंत्र को आत्म-गृहीत करता है, तंत्र को शक्ति प्रदान करते है कि वह निर्भय जीवन यापन की स्थिति सुनिश्चित करे और बदले में लोक अपने को तंत्र की शर्तों के अनुपालन का भरोसा देता है। तंत्र की शर्तों को माननेवालों के लिए तंत्र यदि निर्भय जीवन यापन की स्थिति उपलब्ध नहीं करवा पाता है तो यह तंत्र की विफलता है। तंत्र को दुरुस्त करना लोक का ही काम है — तंत्र को दुरुस्त करने का रास्ता संविधान देता है। संविधान लोक और तंत्र के बीच भरोसे का पुल है। संविधान प्रदत्त रास्ते पर चलकर तंत्र को दुरुस्त किया जा सकता है। संविधान प्रदत्त रास्ते पर चलना क्या एकाकी संभव है! या संगठित होकर संभव है! संगठित होकर ही संभव है — दलीय नहीं, निर्दलीय संगठन की महत्ता को समझना होगा। व्यक्ति और नागरिक समुदाय को समझना होगा; मुराद नागरिक जमात (Civil Society) से है! नागरिक जमात नहीं है! कमजोर है! ऐसा है, तो लोक के पास अपने तंत्र को दुरुस्त करने का औजार नहीं है। औजार हासिल करना होगा — हथियार नहीं। नहीं तो धीरे-धीरे मारे जाते रहेंगे। निहत्थे हों, हथियारबंद हों, निरपराध हों या अपराधी हों कोई फर्क नहीं पड़ता है।

सामाजिक समरसता के लिए निर्भय जीवन यापन की स्थिति सुनिश्चित करना तंत्र का दायित्व है यह कहते हुए मुझे ग्रीक दार्शनिक पाइथागोरस और हेराक्लिटस को याद करना चाहिए पाइथागोरस के दर्शन में समरसता पर जोर दिया गया है। हेराक्लिटस के दर्शन में जीवन की विरोधी की तनातनी द्वारा बने रहने की बात कही गई है। इस तनातनी में किसी की निर्णायक जीत की स्थिति से इनकार किया गया है। यहाँ दोनों को मिलाकर देखने की जरूरत है महत्त्वपूर्ण है फिर भी ये पहले की बात है, आज की परिस्थिति में नये ढंग से समझने की जरूरत है। इस तना-तनी को दो विरोधियों की तना-तनी के रूप में न देखकर लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच की तना-तनी के रूप में देखा जा सकता है जिसका लक्ष्य निर्णायक जीत-हार के मुहावरे में न समझकर निरंतर अर्जित होते रहनेवाली समरसता के रूप में देखा जा सकता है। हेराक्लिटस के संगी क्रेटाइलस ने यह टिप्पणी सही है कि ‘‘आप एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकते।’’ लेकिन एक विचार को बार-बार पढ़ने की जरूरत होती है वाक्य एक रहे, अर्थ बदलता रहे! नहीं क्या!

 

 

असमान के साथ समान व्यवहार

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@Manojabhigyan मनोज अभिज्ञान जी के जिस पोस्ट को @Animesh अनिमेष जी के वॉल से लिया है पूरी बात उनकी वॉल पर देखी जा सकती है।

‘कुछ लोग कहते हैं कि प्रकृति ही हमें असमान बनाती है इसलिए समानता की बात करना ही मूर्खता है. सही बात है. प्राकृतिक तौर पर सब समान नहीं हैं. सब समान हो भी नहीं सकते. इसलिए हमारा संघर्ष यह है ही नहीं कि सबके साथ समान व्यवहार हो. हमारा तो संघर्ष ही इस बात के लिए है कि असमान लोगों के साथ समान व्यवहार न हो. असमान लोगों के साथ समान व्यवहार करना मूलभूत मानवीय अधिकारों के खिलाफ़ है. किसी ट्रेन, बस या अन्य स्थान पर अगर एक गर्भवती स्त्री खड़ी है और एक पुरुष खड़ा है और बैठने के लिए एक ही सीट हो तो सीट पर बैठने का बुनियादी हक़ गर्भवती स्त्री का बनता है, न कि पुरुष का. इसी तरह जहां एक बार में एक ही व्यक्ति के पार निकलने का रास्ता हो वहां सिर पर बोझ उठाए व्यक्ति को पहले निकलने का बुनियादी हक़ है. इन मामलों में यह तर्क नहीं चलेगा कि सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए और जिसमें क्षमता होगी, वह सीट या रास्ते से निकलने का हक हासिल कर लेगा.’

इस टिप्पणी या पोस्ट की मूल भावना से असहमत होने का कोई कारण नहीं है रूपक से बाहर कुछ बातों को समझने की जरूरत मुझे है, क्या पता अन्य को भी हो! सुकरात ने रेखांकित किया था सामान्य जीवन में जितने भी इस तरह के उदाहरण हम देखते हैं, उनमें समानता लगती अवश्य है, लेकिन फिर भी वह समानता 100 प्रतिशत नहीं होती है। खैर।

यह सच है कि प्रकृति हमें असमान बनाती है, लेकिन हम प्रकृति के बनाये को जस-का-तस स्वीकार नहीं कर लेते, उसके बनाये को बदलने की कोशिश अवश्य करते हैं। हम प्राकृतिक प्राणी तो हैं ही, लेकिन सामाजिक प्राणी भी हैं। अगर हम प्रकृति के बनाये नियम को जस-का-तस स्वीकार कर लेंगे तो हमें ‘मत्स्य न्याय’ को स्वीकार कर लेना होगा बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछली को निगल जाने को वैध मान लेना होगा। अगर हम ऐसा करते हैं तो हम खुद को किसी भी नैतिक प्रसंग से बाहर हो जाने का जोखिम उठा लेंगे। मुझे लगता है, हम ऐसा जोखिम नहीं उठाना चाहेंगे! गर्भवती महिला के लिए स्थान छोड़ना या जिसके माथे पर अधिक बोझ है उसे पहले राह देना एक नैतिक प्रसंग है इस नैतिक प्रसंग के अनुकूल आचरण राजकीय प्रक्रिया से विनिर्मित और स्वीकृत विधि का नहीं, सांस्कृतिक प्रक्रिया से विनिर्मित और अर्जित विवेक का मामला है। अधिकतम परिगणित समानता के आधार पर विभिन्न लाभार्थी समूह बनता है, गौर से देखिये तो इस समूह के सदस्यों में भी असमानता दिखना बहुत मुश्किल नहीं होगा।

समान और असमान का निर्धारण तुलनात्मक निर्णय है। असमान और समान की तुलना गफलत में डाल सकता है एक गर्भवती महिला की तुलना दूसरी गर्भवती महिला से करने पर नैतिक दुविधा खड़ी होगी! मान लीजिए सीट एक है और दो गर्भवती महिलाएँ हैं! इनके बीच तुलना करने के बाद सीट प्रदाता को अपना फैसला करना पड़ेगा। क्या समान के बीच असमान का आधार तलाशना उचित नहीं होगा! यह ‘असमान लोगों के साथ समान व्यवहार’ का उदाहरण हो सकता है! ‘समान के प्रति समान व्यवहार’ एक नैतिक प्रसंग है जो विवेक का विषय है, ‘सभी के प्रति समान व्यवहार’ एक विधिक प्रसंग है ध्यान रहे विधिक प्रसंग का मूल रूप नकारात्मक होता है और नैतिक प्रसंग का मूल रूप सकारात्मक होता है कानून कहता है क्या-क्या नहीं करना है, विवेक कहता है क्या-क्या करना है! यह थोड़ा जटिल है, समझने की कोशिश जारी है। क्या कहते हैं!  

सुधार के लिए कृपया, सुझाव देते रहिए।

जाति सर्नेक्षण का नतीजा

जाति सर्वेक्षण का नतीजा

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बिहार में जाति सर्वेक्षण का नतीजा प्रकाश में आ गया है। इस पर तरह-तरह से चर्चा की जायेगी लेकिन यह तय है कि इससे भारतीय राजनीति में तात्त्विक और गुणात्मक अंतर आयेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस अंतर का प्रभाव सिर्फ राजनीति तक सीमित नहीं रहेगा सामाजिक न्याय के साथ-साथ सामाजिक सचेतनता, सिद्धांतिकी और आर्थिकी पर भी अनिवार्यतः पड़ेगा जीवन-स्तर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा सामाजिक न्याय और व्यक्ति न्याय को आमने-सामने न कर दिया जाये। उम्मीद की जानी चाहिए वोटों की गोलबंदी से सीमित नहीं होगी और स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होनेवाली नकारात्मक ऊर्जा को शून्य नहीं भी तो, न्यूनतम स्तर पर बनाये रखने में कामयाब रहेगी; अमीरी गरीबी की बढ़ती खाई की विभिन्न कुप्रवृत्तियों की वृद्धियों को भी रोकने में कामयाब रहेगी। जाति सर्वेक्षण के नतीजे का उम्मीद से स्वागत किया जाना चाहिए।

प्रसंगवश, इधर एक प्रवृत्ति देखने में आ रही है सामुदायिक मुद्दों पर समुदाय के सदस्यों को ही चर्चा करनी चाहिए समुदाय से बाहर का कोई इस के पक्ष में भी चर्चा न करे! अभी सत्य हिंदी पर अंबरीश कुमार अपने जनादेश कार्यक्रम में जाति सर्वेक्षण के नतीजों पर चर्चा कर रहे थे उस पर 37 दर्शक देखते हुए दिख रहे थे, किसी ने पैनल के समुदाय का सवाल उठा ही दिया। यह अपवाद हो सकता है उम्मीद की जानी यह प्रवृत्तिजन्य लक्षण नहीं है!