लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

लोकतंत्र से खेल में खून, खतरा और कानून का ककहरा

हिमाचल प्रदेश सत्तारूढ़ कांग्रेस ने 15 भाजपा के विपक्षी विधायकों को निलंबित कर बजट पास करवा लिया है। प्राथमिक तौर पर माना जा सकता है कि सुखविंदर सिंह सुक्खू की सरकार पर से खतरा टल गया है। हमारे देश की राजनीति में इस तरह की घटनाएं बहुत बढ़ गई है। सरकारें और राजनीतिक दल तो जीत जाती है, लोकतंत्र हार जाता है। निश्चित रूप से आज के नैतिकता विमुख राजनीतिक परिदृश्य में यह एक नैतिक सवाल उठता है। नैतिक सवाल उठना ही चाहिए। विचारधारा के लिए संघर्ष हो या किसी अन्याय के विरुद्ध, एक खतरा हमेशा बना रहता है। खतरा यह कि जीतनेवाला जीतकर कुछ-न-कुछ तो वैसा ही हो जाता है, जैसा होने के खिलाफ वह अपनी जीत दर्ज करवाने की खुशी में जश्न मनाता है।

यही वह खतरा है — हारनेवाला असल में जीत जाता है और जीतनेवाला असल में हार जाता है। विडंबना है कि इस तरह न्याय और अन्याय या उचित-अनुचित की लड़ाई में अन्याय और अनुचित ही जीतता है। इतिहास के अनुभवों का निष्कर्ष तो यही निकलता है कि नीति विहीनता और अनैतिकता जीत की ‘आभा’ को कम नहीं करती है। पहलू बदल जाता है, सिक्का तो वही रह जाता है। लोकतंत्र की लड़ाई पहलू बदलने की नहीं, सिक्का बदलने की लड़ाई है। नीति विहीनता और अनैतिकता के बाहर निकलने की लड़ाई है।

फिलहाल, हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सरकार जीती क्या, कहना चाहिए बच गई है। यह संतोष की बात है क्योंकि वह अभी-अभी राज्य सभा के चुनाव में नीति विहीनता और अनैतिकता के कारण हार गई थी, इस लिए सरकार का बचना फिलहाल संतोष की बात है।

डेढ़ सौ के करीब सांसदों को सदन से बाहर निकाले जाने का नजारा अभी इतिहास के खाते में दर्ज नहीं हुआ है, वर्तमान की आंख का कांटा बना हुआ है। व्यावहारिक समझ कहती है, नैतिकता या न्याय-निष्ठता को उसकी पूर्णता में नहीं सापेक्षता में ही देखा जा सकता है। बाजार से गुजरते हुए आदमी कभी-न-कभी खरीददार हो ही जाता है, दुनिया में रहते हुए दुनिया का तलबगार भी होना ही होता है। मनुष्य के मन में पूर्णता के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है, इस आकर्षण में छिपे छलावा से बचना जरूरी होता है। लोकतंत्र में आम नागरिक राजनीतिक दलों की हार-जीत के जल-थल प्रभाव से खुद को अलग-थलग नहीं रख सकता है।

महात्मा गांधी होते तो इस प्रसंग पर क्या सोचते! मारनेवालों ने महात्मा गांधी को मार दिया, लेकिन अपने विचारों में, कर्म और चिंतन की प्रेरणा के रूप में जिंदा हैं और रहेंगे। महात्मा गांधी को यंत्रों का विरोधी माना जाता है। कुछ हद तक वे यंत्र विरोधी थे भी। लेकिन, कारखानों के मामले में वे इस हद तक अपने को समाजवादी भी मानते थे कि बड़े कारखानों का मालिक व्यक्ति को नहीं, राष्ट्र को होना चाहिए और उसे सिर्फ मुनाफा के लिए नहीं होना चाहिए। लोगों की भलाई के लिए होना चाहिए। कारखानों को लोभ से जुदा और प्रेम से जुड़ा होना चाहिए। महात्मा गांधी बाग-बगीचों को ही नहीं कारखानों को भी प्रेम से जोड़कर देखते थे। महात्मा गांधी कारखानों को कायम करने का उद्देश्य जन-हित को मानते थे। महात्मा गांधी के सामने सोवियत का उदाहरण रहा होगा, उन्होंने अपने को किसी हद तक पूंजीवादी नहीं कहा, समाजवादी कहा तो इसका मतलब साफ है।

महात्मा गांधी का यंत्र विरोध यांत्रिक नहीं, नैतिक था, व्यावहारिक था। यहां से यह सीखा जा सकता है कि अनैतिकता के विरोध की नैतिकता को यांत्रिकता से बचाने की जरूरत है। ध्यान रहे, साधन-साध्य की शुचिता के मुद्दे पर भी गांधी नीति में कोई यांत्रिकता नहीं थी, इसे किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से व्याख्यायित करना भूल होगी। आज के राजनीतिक प्रसंग में भी पूर्ण-नैतिकता की किसी हठधर्मी सैद्धांतिक मिजाज से काम नहीं चलेगा — किसी भी तरह की पूर्णता के छलावा से बाहर रहना ही उचित है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। सामने तो, पिछली जीत का दंभ और अगली जीत की हवस का भयानक परिदृश्य भी है। अपने कहे को स्व-प्रमाणित मानकर चलना लोकतंत्र में सरकार के निकृष्ट व्यवहार के अलावा और क्या हो सकता है। किसान आंदोलन के दौरान शहीद आंदोलनकारी शुभकरण सिंह की हत्या की जांच तक करवाने की सामान्य संवेदनशीलता तक इस सरकार में नहीं दिखी है!

जिस आंदोलन  में शुभकरण शहीद हो गया, उस आंदोलन  की मांगें जायज है, नाजायज है यह अलग मसला है, लेकिन जिंदा रहने का हक शुभकरण को था, इससे कोई इनकार कर सकता है क्या? यह सरकार कर सकती है। एक क्षण के लिए मान लिया जा सकता है कि सरकार के न चाहते हुए यह दुर्भाग्यजनक घटना गई, लेकिन उसके बाद का रवैया! पूर्व राज्यपाल, सत्यपाल मलिक ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि प्रधानमंत्री के सामने जब उन्होंने पिछले किसान आंदोलन में सैकड़ों किसानों की शहादत के मामले की चर्चा करनी चाही तो जवाब आया — क्या वे लोग मेरे लिए मरे! ऐसा जवाब देनेवालों से किस संवेदनशीलता की उम्मीद की जाये? संसदीय लोकतंत्र में सरकार के किसी निर्णय का सामूहिक उत्तरदायित्व मंत्री परिषद का होता है। भारत के संविधान के 75(3) की याद, पता नहीं मंत्री परिषद  के सदस्यों का है या नहीं  The Council of Ministers shall be collectively responsible to the House of the People — शाह आयोग के सामने व्यक्तिगत आरोप के जवाब में इंदिरा गांधी की तरफ से यही कहा गया था न! कल को अगर कोई जांच होगी, तो ‘राज भोगने की विवशता’ में खामोश मंत्री संवैधानिक रूप से अपनी सामूहिक जिम्मेवारी से बच नहीं पायेंगे। तब सिर्फ मैथिली शरण गुप्त के जयद्रथ-वध की पंक्ति ही याद नहीं आयेगी — ले डूबता है, नाव को मझधार में; तब दिनकर की भी कविता की याद आयेगी कि ‘समर शेष है’ और समय तटस्थ रहनेवालों का भी अपराध लिखता है। विडंबना है कि ऐसी किसी जांच की नौबत न आये, इस लिए खामोश हैं। यह खामोशी आपराधिक है। उस देश में लोकतंत्र का क्या हो सकता है, जिस देश के मंत्री ही अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति इतने मंदोत्साह और लापरवाह हों। यह नहीं भूलना चाहिए कि जो नेत्र-जल सफलता की सीढ़ी चढ़ते समय आनंददायक होता है, सीढ़ी से उतरते समय वही नेत्र-जल तेजाबी हो जाता है।

राहुल गांधी की संसद सदस्यता को खत्म करने के लिए क्या-क्या न किया गया। चुनाव के समय ‘अपलम, चपलम की चपलाई’ के साथ छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के ‘आंगन आनेवाली’ एजेंसियों की ‘उत्तम कार्रवाइयों’ की याद तो होगी ही न!  कहां गया महादेव एप्प, अब चुप्प! झारखंड का मुख्यमंत्री रखते हुए हेमंत सोरेन जेल भेजे जा चुके हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को आठ बार सम्मन भेजा जा चुका है। अखिलेश यादव को सबीआई (Central Bureau of Investigation) ने वर्ष ‘एकादशी’ पर ‘आदर’ के साथ आमंत्रित किया है। लोग कहते हैं, अवैध खनन के मामले में ‘सत्यान्वेषण’ के लिए अवैध पुरातात्विक खनन हो रहा है।  बार-बार के बुलावे से परेशान तेजस्वी यादव ने तो ‘बिन पानी साबुन बिना’ निर्मल बनने के लिए अपने आंगन में ही ‘विभागी सत्यान्वेषियों’ की कुटिया बनवा देने की बात कह दी थी। एकनाथ शिंदे, अजीत पवार, शुभेंदु अधिकारी, हिमंत विश्व शर्मा जैसे कई लोग ‘पॉवर लोक’ में स्वच्छंद और सानंद विहार कर रहे हैं।

मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना हो, भ्रष्टाचारियों के ऊपर कार्रवाई करना हो तो निश्चित ही इस से अधिक लोकतांत्रिक काम दूसरा क्या हो सकता है ? कुछ नहीं। साफ-साफ दिखता है कि मकसद भ्रष्टाचार को समाप्त करना नहीं है। ठीक चुनाव के समय विभाग अपनी ‘शीत-निष्क्रियता’ से बाहर क्यों निकलते हैं! कहते हैं कि असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर साइकिया के हारने के बाद जब छात्रों के हॉस्टल से निकलकर सीधे सचिवालय पहुंचने की नौबत आ जाने पर अधिकतर वरिष्ठ अधिकारी गुवाहाटी से पहली उड़ान पकड़ने के फिराक में लग गये थे। बदले की कार्रवाई न होने के निश्चित आश्वासन पर डरते-डरते अधिकारी वापस आये थे। इस अनुभव से भी कुछ सीखा जा सकता है।

पाप में शामिल बाल-बच्चेदार अधिकारी भी सत्ता बदल से बहुत डरे हुए होते हैं, और जी जान से सत्ता बदलाव के विरोध में सक्रिय रहते हैं। ध्यान रहे लोकतंत्र बदलाव को स्वीकारता है, बदला लेने की प्रवृत्ति को धिक्कारता है। इतिहास से सीखें तो जनता पार्टी की सरकार ने बदलाव को बदला लेने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहा था, उस सरकार की कई गलतियों में से एक प्रमुख गलती यह भी साबित हुई थी। 

दुखद है कि बाल-बच्चेदार लोगों ने महात्मा गांधी की इस बात को नजरंदाज कर दिया कि सच्चे अर्थ में निष्पाप रहने के लिए सुख और सुविधा के लालच को नियम-भंग नहीं करने देना चाहिए। लोभ को मर्यादा में रखना चाहिए। वे ऐसा न कर सके होंगे या अन्य कारणों न सिर्फ सेवा शर्तों का उल्लंघन कर बैठे होंगे और न निकल पाने की बुरी स्थिति में फंसते चले गये होंगे। विपक्षी गठबंधन को कम-से-कम ऐसे अधिकारियों के लिए, उनकी आत्म घोषणा (Self-Disclosure) के आधार पर, आम माफी के किसी-न-किसी रास्ते की घोषणा या इशारा करना चाहिए। कहते हैं हम्माम में सभी नंगे होते हैं। नेताओं के हम्माम में कोई दीवार नहीं होती है। उनका इधर-उधर होना आम लोगों को भी दिखता रहता है। कुर्सीबद्ध नौकरशाहों के हम्माम की दीवारें बहुत अपारदर्शी होती हैं, उनका इधर-उधर होना, निष्ठा बदलना किसी आम आदमी को नहीं दिखता है।   

भ्रष्टाचारी बिल्कुल आश्वस्त हैं। सरकार भ्रष्टाचारियों या भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं है, उनके अपने दल से बाहर रहने से खफा रहती है। संस्कृति और संस्कार की बड़ी-बड़ी बातें अपनी जगह ‘शीरीमानों’ के तो मुहं तक नहीं खुलते, जुबान हिलती तक नहीं। क्या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भारतीय जनता पार्टी को दुनिया के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी राजनीतिक दल में के रूप में विकसित होने की खुली छूट दे रखी है? कहाँ हवा में उड़ गया चाल-चरित्र-चेहरा से महिमा-मंडित संकल्प जो भय-भूख-भ्रष्टाचार से संघर्ष करने चला था! सुख और सुविधा की सीढ़ी का हत्था पकड़ते ही श्रीमान श्रीहीन हो गये! अचरज होता है, नियमित रूप से मातृ-वंदना करनेवालों की मातृ-भक्ति की अपराजेय खामोशी के उदाहरणों को देखकर।    

यह लोकतंत्र है। लोकतंत्र नर को नारा लगाते-लगाते नारायण होने का रास्ता देता है, नराधम हो जाने को बरदाश्त नहीं करता है। सागर में गोता लगाइये या शिखर पर चढ़कर सूरज को पकड़ लीजिये, लोकतंत्र सागर से शिखर तक आवाजाही की अपरंपार सुविधा देता है। लोकतंत्र जनविरोधी रुझानों की निरंतरता को एक हद के बाद कभी बरदाश्त नहीं करता है। तीन तेरह का तिकड़म ताल बहुत दिन तक साथ नहीं देता है।                

राजनीतिक लाभ बटोरने के लिए सामाजिक ही नहीं हर तरह के अन्याय और संसाधनिक असंतुलन को बढ़ाने और सामाजिक शांति को बिगाड़ने से, यह सरकार कभी परहेज नहीं करती है। लगता है इसके मिजाज में किसी भी लोकतांत्रिक मूल्य के लिए कोई सम्मान नहीं है। अराजकीय कारक और कारण (Non State Actor And Factor) पर कोई रोक नहीं लगाती है। अधिकार की बात करनेवालों के विरुद्ध तरह-तरह के हथकंडे आजमाती रहती है। जो सरकार रोजी-रोजगार का महत्व न समझे, उस से किसी भी प्रकार के न्याय की उम्मीद अपने को धोखा में रखना है। ‘धोखा बाजार’ किसी-न-किसी  दिन उठेगा जरूर। 

लोकलुभावन राजनीति के अनुरूप  बार-बार अपने को ‘तीसरे के रूप’ में पेश करते हुए अपने नाम की गारंटी देना क्या दर्शाता है? यह खतरनाक प्रवृत्ति है। अपनी बात को ‘किसी तीसरे की बात’ के रूप में पेश करने या दिखाने की प्रवृत्ति में आत्म-विच्छिन्नता का (Dissociative Identity Disorder — DID) व्यक्तित्वगत दोष (Illeism) होता है। इस दोष को उच्च स्तर की भाषण कला,  शब्द-निपुणता समझना भूल है। इस देश में संविधान की गारंटी नहीं बची है क्या! अगर हिफाजत हो तो, देश के नागरिकों के लिए संविधान की गारंटी ही काफी है। कहते हैं, उम्मीद पर दुनिया कायम है। उम्मीद की जानी चाहिए, संवैधानिक गारंटी की हिफाजत होगी, अन्याय को चुनौती देने के लिए इस कठिन काल में न्याय यात्रा जारी है।  

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

 

      

 

कोई टिप्पणी नहीं: