अनुरक्त बनो या रक्त दो,
इसके अलावा कोई विकल्प नहीं
अद्भुत परिस्थिति में फंस गया
है देश। लोकतंत्र का इतना बुरा हाल है कि कुछ कहते नहीं बनता है। कुछ कहना-सुनना
तो तब होता है न, जब न्याय और नैतिकता की बुनियाद, नैसर्गिक
मान्यताएं और संवैधानिक मानदंडों के आधार बचे रहें! लेकिन जब लोकतांत्रिक सरकारें
और उनके विभाग इन्हें ही ध्वस्त करने पर आमादा हों, तो क्या
कहना-सुनना? बात कहने-सुनने से आगे बढ़ जाती है। हाकिम बेदर्द हो तो
फरियादी अपने पिछले दिनों को याद करे या फरियाद करे! यह अब बिल्कुल साफ है कि अब
परिस्थिति कहने-सुनने की सीमा से बाहर निकलती चली गई है।
चंडीगढ़ में मेयर के चुनाव का
मामला अभी चर्चा-परिचर्चा में ताजा है। मीडिया में खबर छन-छन कर
आ रही है, जिसके अनुसार 8 पार्षदों के मतों को चुनाव अधिकारी
ने साफ-साफ दिखने वाले बलगेंग से खारिज कर दिया। इस तरह भारतीय जनता पार्टी के
उम्मीदवार को मेयर पद के लिए ‘चुना गया’ घोषित कर मेयर बनने का रास्ता साफ कर दिया
गया।
याद किया जा सकता है कि
पार्षदों के चुनाव का परिणाम आने के बाद आम आदमी पार्टी (AAP) और
कांग्रेस पार्टी ने बहुमत हासिल कर लिया था। इसके बाद मेयर के चुनाव की तारीख टाल
दी गई थी। ऐसा बताया गया है कि भारतीय जनता पार्टी से जुड़े ‘महात्मा’ मेयर के
चुनाव अधिकारी थे। इस ‘महात्मा’ ने 8 मतों को
मनमाने तरीके से खारिज कर दिया।
जाहिर है, इस
घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी (AAP) और कांग्रेस को हाय-तौबा मचाना था,
सो मचाया। अब सवाल उठता है कि सतरू (सत्ता-रुढ़) लोगों ने मेयर जैसे चुनाव
में ऐसी हरकत क्यों की या करवायी! असल में यह एक प्रयोग किया गया है, सतरू
(सत्ता-रुढ़) लोगों की तरफ से, यह देखने के लिए यदि ऐसा किया जाता
है, तो क्या होता है! इसका राजनीतिक और न्यायिक परिणाम क्या होता
है। नियंत्रण और निगरानी करनेवाली संवैधानिक संस्थाएं ‘त्रुटि-समायोजन’ के लिए
क्या करती हैं।
यह एक तरह से संवैधानिक
संस्थाओं की आस्थाओं और सतरू (सत्ता-रुढ़) के प्रति वफादारी की जांच कर लेने की
कवायद है। यह देखने के लिए कि भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल
नेहरू ने आजादी मिलते समय, आधी रात को अपने भाषण में भारतीयों
का जिस नियति से साक्षात्कार का आह्वान किया था, उससे बाहर
निकलकर भारतीय जनता, भारतीय जनता पार्टी ‘विरचित’ अपनी
इस ‘नियति का साक्षात्कार’ मजे से कर रही या नहीं!
अपनी इस नियति को ‘सहर्ष
स्वीकार’ लीजिये; अजी बिलबिलाते हुए कहां जाइयेगा, जहां
जाइयेगा वहां यही यह नजारा दिखेगा- नो शेम, सेम टू सेम!
अभी इस मामले में नियंत्रण और निगरानी करने वाली संवैधानिक संस्थाओं की ‘वफादारी
की जांच’ का नतीजा सामने नहीं आया है। पिछला रिकॉर्ड देखते हुए लगता है, नतीजा
आयेगा तो, अच्छा ही आयेगा- पास्ड विद डिस्टिंक्सन्संस!
प्रसंगवश ही सही, किसानी
से संबंधित कानूनों के हश्र को यहां याद कर लेना जरूरी है! इन कानूनों को तो
‘सदनों’ ने अपने धर्म का पालन करते हुए उत्तीर्ण कर दिया था। किसानों के अदम्य
साहस, बलिदानों और किसान संगठनों के सुदीर्घ आंदोलन के कारण ‘राज्य
शक्ति’ के तपस्वी की तपस्या में कोई कमी दिखने लगी, नतीजतन वे
कृपापूर्वक वापस हो गई। तपस्या जारी है और सवाल भी- “कस्मै देवाय हविषा विधेम॥”
अभी लोकतंत्र प्रयोगाधीन है।
छोटे बड़े कई प्रयोग होंगे। अधिकतर मामलों में विश्वस्त और अनुरक्त विभागों की
लीला की अगुवाई और अगवानी ही नहीं, उनकी तरफ से आग्नेय अग्र-वाणी का
संप्रेषण और प्रसारण भी सतरू के ही श्रीमुख से होता है। तैतत (तैनाती, तबादला,
तरक्की) साधना में लीन साधक अपनी ओर से बोले जाने पर जरा भी नहीं कनमनाते
हैं! कनमनायेंगे भी कैसे! जिनकी सुनकर करते हैं, उनके कहने
पर तनिको कनमनायेंगे तो तैतत (तैनाती, तबादला, तरक्की)
साधना भंग!
सामाजिक न्याय और आर्थिक
न्याय जैसे चुनावी मुद्दों पर केंद्रीय चुनाव आयोग की पावन अधिसूचना जारी होने के
बाद भी बात की जा सकती है। अभी तो ईवीएम (Electronic Voting Machines) बनाने
वाली संस्था के आत्मत्यागी ‘आत्मनिर्भर निदेशकों’ के आत्मनेपद प्रत्यय के प्रयोग
पर विमर्श चल रहा है।
फिलहाल तो झारखंड के
मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ विभागीय एवं सतरू स्तर पर अभियान चल रहा है!
भ्रष्टाचार के खिलाफ! नहीं, नहीं भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं,
भ्रष्टाचारी के खिलाफ! ‘पापियों से नहीं पाप से घृणा’ का सूत्र बदलकर अब
‘पाप से नहीं, पापियों से घृणा’ हो गया है; यह नवसूत्र
पवित्र पाप का अभिनव प्रेरणा-स्रोत बन गया है!
बहरहाल, भ्रष्टाचार
को समझना या परिभाषित करना पहले बहुत मुश्किल था, अब भी है।
अब भ्रष्टाचार को रहने दीजिये, भ्रष्टाचारियों को पहचानना आसान हो
गया है। सतरू को झुक कर, यानी पद पर दृष्टि डालकर सलाम करते
हुए करबद्ध न होना ही भ्रष्टाचार है। बार-बार मौका दिये जाने पर भी मौका पर छक्का
न लगाना, न केवल भ्रष्टाचार है बल्कि दुराचार भी है!
गये जमाने में कदाचार की बात
भी होती थी, आजकल नहीं होती है; पता नहीं
क्यों! मेरा मतलब है मीडिया श्रीमुख से कदाचार की बात नहीं कही-सुनी जाती है।
आज-कल तो मीडिया ही प्रमाण है न; जो है वह मीडिया में है, जो
मीडिया में नहीं है, मानो वह है नहीं!
‘चित्त के भय शून्य होने और
माथा उठाने की सहूलियतों’ की खोज बेकार है, काम की बात
है- सबहि नचावत रामु गोसाई, सो नाचते रहिये! हम जो हैं, ‘प्राकृत
जन’ कुछ अच्छा भी कहें तो बस- सिर धुनि गिरा लगत पछिताना! इसलिए कुछ कहिये मत,
बस बेरोजगारी-महँगाई के न होने के सुर-ताल पर नाचते रहिये। हां, ध्यान
रहे सतरू कथा का पाठ अनिवार्य है। सतरू कथा का पाठ अनुरक्त बनाता है और ‘रक्त
रक्षा’ का आश्वासन देता है- यानी दोहरा लाभ, खाओ भी और
खिलाओ भी।
सुनने में आ रहा है, फिलहाल
हेमंत सोरेन भागे-भागे फिर रहे हैं- सुरपति-सुत के बायस के वेष में ‘चरन चौंच’
मारकर भागनेवाले जयंत की तरह, भागे-भागे फिर रहे हैं। कोई कोमल
चित्त संत विकल हेमंत सोरेन को भी सुझाव दें, जैसे ‘जयंत’
को विकल देखकर नारद ने दिया था, तो थोड़ी-बहुत क्षति हो तो हो,
जान बच सकती है।
सच्ची बात, गोस्वामी
तुलसीदास कह गये हैं- सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी। उस ‘जयंत’ का
तो पता नहीं, कहते हैं जिसका वेष धरा था ‘जयंत’ ने, यानी
कौआ, उसकी तो पूरी प्रजाति ही तभी से एक आंख की बनकर रह गयी! इसे
कहते हैं, ‘कृपाल’ का एक प्रकार का न्याय!
विप्र रूप धर कर गया होता
‘जयंत’ तो कम-से-कम प्रजाति तो बच ही जाती, नहीं क्या?
यह सब कयास की बात है, देखिये आगे क्या होता है। कयासों के
बाहर, ध्यान रहे राजा को ‘अनुरक्त’ प्रिय होता है या फिर ‘अप्रिय का
रक्त’- अनुरक्त बनो या रक्त दो! इसके अलावा कोई विकल्प नहीं हैं!
हे भारत जोड़ो न्याय यात्रा
के न्याय योद्धा आप दुर्बल दल-बल के साथ किस प्रकार के न्याय की खोज में निकले
हैं!
फिलहाल साभार गुनगुनाइये,
राम धारी सिंह दिनकर की कुछ पंक्तियां, ‘रश्मिरथी’
से-
“दो न्याय अगर, तो
आधा दो,
पर, इसमें भी
यदि बाधा हो, तो
दे दो केवल पांच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वही खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे।
दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को
बांधने चला,
जो था असाध्य, साधने
चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।”
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