सामाजिक अन्याय और आर्थिक अन्याय के द्वंद्व विकार और सामाजिक लोकतंत्र की व्यथा कथा-प्रफुल्ल कोलख्यान
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अभी-अभी अयोध्या
के भव्य और दिव्य मंदिर में राम लला की प्रण-प्रतिष्ठा का आयोजन शांतिपूर्वक
संपन्न हुआ है। और अब किसान आंदोलन चल रहा है। कुरुक्षेत्र दहाड़ रहा है। ‘सुंदर
कांड’ के बाहर अशांति की आशंकाओं के बीच महाभारत के शांति पर्व की याद आ रही है!
कैसे हो शांति? यह राजनीतिक सवाल तो है ही, सांस्कृतिक और सभ्यता का सवाल भी है। भारत
के इतिहास में कभी वह दौर नहीं था, जब सामाजिक अन्याय का सवाल उसे भीतर से मथता न
रहा हो।
पहले सामाजिक
अन्याय का संदर्भ भावुक सांद्रता की करुणा से लिपटकर ईश्वरीय न्याय या प्राकृतिक
न्याय की उम्मीदों से जुड़ता था। हिंदु
धर्म में न्याय और अन्याय को पुनर्जन्म चक्र के अतार्किक और कुत्सित सिद्धांत के
षड़यंत्र को लोकमानस में बैठा दिया गया। इससे
बहुत बड़ी आबादी मन-ही-मन अपनी दुरवस्था को कर्म-फल से जोड़कर संतुष्ट हो लेता था। आज भी, अधिकतर
आस्थावान इस अतार्किक और कुत्सित कर्म-फल सिद्धांत से बाहर नहीं निकल पाये हैं और
प्रपंच में फँसे हुए हैं। इनमें से कुछ आस्थावान लोग आस्था और न्याय के द्वैत को
सचेतन रूप से अलग-अलग रखकर देखने की कोशिश करते हैं। अवचेतन में क्या पनपता और
पलता रहता है, यह अलग बात है।
आज-कल जब सामाजिक
अन्याय की बात की जाती है तो वह सामाजिक स्तर पर कम, राजनीतिक स्तर पर अधिक होती
है। यहाँ एक द्वंद्व और दुविधा का सामना होता है। द्वंद्व यह कि सामाजिक अन्याय के
सवाल का समाधान सामाजिक पहल से निकलेगा या राजनीतिक पहल से? सामाजिक आग्रह से
निकलेगा या राजनीतिक आंदोलन से? आंदोलन का जन्म किसी-न-किसी उत्पीड़न और आघात से
होता है। सामाजिक आंदोलन का जन्म भी सामाजिक उत्पीड़न और आघात से होता है। जाहिर है जिसका उत्पीड़न होता है, जिसे आघात
लगता है, आंदोलन का मिजाज भी उसी का बनता
है। उत्पीड़न और आघात की सामाजिक परिधि से बाहर निकल आये सदस्य उत्पीड़न और आघात
की खबर पर कसमसाते तो हैं, लेकिन किसी-न-किसी
तरीके से आत्महीनता के दलदल और आत्मलीनता के सुरक्षित सम्मोहन से बहुत
मुश्किल से बाहर निकल पाते हैं। तथाकथित उच्च जाति के सदस्य जो स्वाभाविक रूप से
उत्पीड़न और आघात की परिधि से बाहर होते हैं उनके आगे आने पर भी समझ और सहानुभूति
के बावजूद सोच में एक अपूरणीय (Unbridgeable)
अंतर तो होता ही है — विस्तार और
संवेदनशील ढंग से समझने के लिए इन मुद्दों पर महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर के
भिन्न नजरिये का विश्लेषण किया जा सकता है।
जन्म आधारित
अपरिवर्तनीय श्रेष्ठ-हीन के पूर्वाग्रहग्र्सत पदानुक्रमिक जातिवाद के लबरघोंघो से
निकलने का कोई रास्ता मिलना कठिन होता है। प्रसंगवश, भारत की सामुदायिक संस्थाएँ
अपने-आप में स्वायत्त और स्वशासी रही हैं। भीतर से बंद और बाहर से खुली दिखनेवाली मिजाज
की रही हैं। खुलापन आ रहा है, धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे। याद किया जो सकता है कि
लगभग सभी समुदायों के अपने-अपने देवी-देवता
रहे हैं, देवस्थान रहे हैं। जहाँ अमूमन
अन्य समुदाय के सदस्यों की पहुँच निषिद्ध रही है। देवता और कुल देवी का प्रसंग भी
विवेचनीय है। समुदाय, कुलों, खानदानों से जुड़ी अपनी-अपनी परंपराएँ और वर्जनाएँ भी
रही हैं। आस्था, विश्वास, पूजा, भक्ति और साधना पद्धतियाँ रही हैं। अपना-अपना पंथ
रहा है। उस समय धर्म का अर्थ कर्तव्य, लक्षण और गुण आदि होता था – राज का धर्म,
शिक्षक का धर्म, किसान का धर्म, पत्रकार का धर्म, पानी का धर्म , आग का धर्म आदि
कहने में ‘धर्म’ का वह अर्थ आज भी प्रचलन में है। ‘धर्म’ के इसी प्राचीन अर्थ में मनुष्य
सहित सभी जीव-जंतु, पदार्थ सभी का अपना-अपना धर्म होता था, जिसकी नियामक प्रकृति
थी। दृश्य-अदृश्य प्रकृति ईश्वर बना साकार और निराकर; सगुन और निरगुन। प्रकृति
बहुरूप और ईश्वर भी बहु रूप। यह सब प्राकृतिक न्याय का लोक स्वीकृत पूर्वाधार होता था, इसमें
अनिवार्य रूप से मनुष्य निर्मित नीति नैतिकता के लिए तो जगह कम थी, लेकिन अनीति और अनैतिकता के प्रवेश की गुंजाइश
भरपूर थी। इस गुंजाइश ने समय-समय पर अपना ‘कमाल’ दिखाया। कुल मिलाकर अभिन्नताओं, भिन्नताओं, श्रेष्ठताओं और
हीनताओं के अपने-अपने व्याकरण थे। अपनी-अपनी पंचायतें, अपना-अपना न्याय-बोध,
न्याय-तंत्र और संतोष-बोध रहा था –– नदी, पहाड़, झरनों, वनस्पतियों के वैविध्य की
तरह एक ही साथ, स्वतंत्र , बैर-केर की तरह सह-अस्तित्व (कहू रहीम कैसे निभै, बेर
केर के संग के बावजूद) निभता था और जीवन
था प्रकृति-पोषित एवं प्रकृतस्थ। अंतःकरण के उदार आयतन में साथ-साथ, स्वतंत्र, प्रकृति-पोषित
एवं प्रकृतस्थ सहजीवन भाव ही सनातन धर्म है
—— कर्तव्य, लक्षण और गुण आदि के अर्थ में धर्म। महाभारत के शांतिपर्व में कहा गया
है, “न यस्य कूटं कपटं न माया न च मत्सरः। विषये भूमिपालस्य तस्य धर्मः सनातनः।।” कूटनीति, कपट, माया
तथा ईर्ष्या से सर्वथा मुक्त रहकर जीवनयापन ही सनातन धर्म का पालन होता है। अनीति
और अनैतिकता की डोर पकड़कर कूटनीति, कपट, माया तथा ईर्ष्या
के प्रवेश से सनातन धर्म की मर्यादा टूट गई!
महाभारत के शांति पर्व में उक्त सनातन धर्म (गुण, लक्षण, कर्तव्य) का पालन
न होने के कारण ‘महाभारत का युद्ध हुआ’।
‘महाभारत का युद्ध’ तो रुक गया, लेकिन भारत के समुदायों में बाहरी-भीतरी महाभारत निरंतर
जारी रहा है। आदिकाल से अतार्किक और कुत्सित आधारों पर संगठित सामाजिक अन्याय का
वातावरण बना रहा है। डॉ. आंबेडकर के
विस्तृत विश्लेषण, नैतिक आयामों के आग्रहों और बौद्धिक संयोजन से सामाजिक न्याय की
माँग नई बौद्धिक त्वरा और राजनीतिक गतिमयता से जुड़ गई। आज-कल सामाजिक अन्याय को
कर्म-फल सिद्धांत के न्याय, ईश्वरीय न्याय
और प्राकृतिक न्याय से बाहर न्याय के सार्वभौम नैतिक मानदंडों एवं मानवाधिकारों से
संबंधित मूल्यों से जोड़कर देखा जा रहा है।
सामाजिक अन्याय का यह अगला चरण, समकालीन और आधुनिक प्रसंग है। डॉ. आंबेडकर के विचारों का तात्पर्य सामाजिक
अन्याय को समाप्त करने के लिए न्याय के इसी स्वरूप को अपनाने का था। आजादी के पहले
और बाद में भी राजनीतिक दलों ने अपने-अपने
ढंग से सामाजिक न्याय को राजनीतिक गतिमयता से जोड़ना शुरू किया। मुश्किल यह
है कि अपने-अपने-अपने राजनीतिक कार्य-क्रम और कार्य-सूची (एजेंडा) से
तो इसे जोड़ लिया, लेकिन सामाजिक न्याय के लिए सामाजिक वातावरण बनाने की दिशा में
आगे नहीं बढ़ पाये। सामाजिक उत्पीड़न और आघात को सामान्य कानून व्यवस्था से न
जोड़कर उसे स्थानीय प्रशासन सामाजिक समस्या मानकर, अधिकतर मामलों में, वर्चस्वशाली
लोगों के हाथो सौंपकर निश्चिंत हो जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि जिन
समुदायों का समाज में वर्चस्व है, उन्हीं का प्रशासन में भी वर्चस्व रहता है। यहाँ
तक कि राजनीतिक दलों में भी वर्चस्वशाली समुदाय के सदस्यों का या फिर उत्पीड़ित
समुदाय के वर्चस्वशाली तबकों का कब्जा हो गया है। सामाजिक अन्याय को दूर करने के
लिए, समुदायों की समस्याओं के बारे में राजनीतिक समझ और राष्ट्रीय सहानुभूति के
साथ संवैधानिक दायरे में ही सोचना होगा। सोच को संवैधानिक दायरे में रखने का उपाय
लोकतंत्र है। लेकिन जब लोकतंत्र के रक्षक ही लोकतंत्र के अंतर्निहित अनिवार्य
मूल्यों और संवैधानिक विचारों की भावनाओं के विरुद्ध आचरण करने लगें तो, मुश्किल
का अंदाजा लगाया जा सकता है।
यह मानना भूल होगी कि लोकतंत्र की रक्षक सरकार होती है। डॉ. आंबेडकर ने बार-बार कहा है कि लोकतंत्र साथ-साथ जीने की
प्रणाली है जिसके लिए सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का वातावरण आवश्यक और
अनिवार्य होता है। लोकतंत्र के शत्रुओं को स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे लोकतंत्र के आधार स्तंभों को
हानि पहुँचाने से रोकना होगा, लोकतंत्र को सुरक्षित रखना होगा। यह आम नागरिकों का
परम कर्तव्य है। यानी जनता ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकती है। संसदीय लोकतंत्र में
जनता लोकतंत्र की रक्षा अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से ही कर सकती है। मुश्किल इस
माध्यम में ही है। प्रतिनिधियों को चुनने,
बदलने का मौका चुनाव में मिलता है। स्वतंत्र और निष्पक्ष वातावरण में चुनाव संपन्न
करवाने के लिए भारत में केंद्रीय चुनाव आयोग की संवैधानिक व्यवस्था है। संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद केंद्रीय
चुनाव आयोग की अपनी स्वतंत्रता और निष्पक्षता संदेह के घेरे में है। संदेह का एक
कारण तो चुनाव आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर है, दूसरा कारण
सत्ता पक्ष के प्रति अतिरिक्त झुकाव और विपक्ष के प्रति हिकारती दुराव को लेकर है।
एक अलग कारण, दायित्व के निभाव में अन्य-निदेशन के अनुपालन के प्रति झुकाव के
खतरनाक रुझान को लेकर है। मिली-भगत (Quid Pro Quo) का भूत लोकतंत्र के सरसों में ही सर्वत्र बस गया है।
मामला इतना जटिल है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट को इसका संज्ञान लेना पड़ रहा है। चुनावी
दान (Electoral Bonds) के मामले
में फैसला आ चुका है। चंडीगढ़ मेयर पद के लिए हुए चुनाव में निर्वाचन अधिकारी (Returning
Officer) के कारनामे पर विचार प्रक्रिया
चल रही है और आम चुनाव में ईवीएम (EVM) का उपयोग जारी रखने पर भी न्यायिक
सोच-विचार भी तो चल ही रहा है। फैसला प्रतीक्षित है।
सामाजिक अन्याय
और आर्थिक अन्याय एक दूसरे को बल पहुँचाते हैं। सवाल यह है कि क्या आर्थिक अन्याय
के समाप्त होने से सामाजिक अन्याय अपने-आप दूर हो जायेंगे? इसी से जुड़ा सवाल यह
भी है कि सामाजिक अन्याय दूर होने से आर्थिक अन्याय क्या अपने-आप समाप्त हो
जायेंगे? क्या दोनों मोर्चों पर एक साथ कोशिश करनी होगी? सभी मोर्चों पर एक साथ
कोशिश करनी होगी। वोट डालने के अधिकार या कुछ नौकरियों में आरक्षण के प्रावधानों से
संतुष्ट होने की बात नहीं है, सत्ता में संवैधानिक भागीदारी और सम्मान के साथ सामाजिक
हिस्सेदारी का भी सवाल है। देश में रोजी-रोजगार के मामले में सुव्यवस्थित और
सुचिंतित अराजकता का माहौल बन गया है। वरिष्ठ नागरिकों को मिलनेवाली सहूलियतों और
रियायतों के कानून अपनी जगह, व्यवहार में क्या स्थिति है कहने की जरूरत नहीं है। सामाजिक न्याय का मसला तो है ही, सामाजिक
सुरक्षा का मसला भी है। स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पुरानी पेंशन
के हक के लिए पात्र और दावेदार परेशान हैं, आंदोलन पर हैं – न अगली पीढ़ी को रोजी-रोजगार है, न
अपने पास समुचित सामाजिक सुरक्षा का आधार है। स्वास्थ्य सेवा और सुविधा की
अनुपलब्धता पर, खाद्य सामग्रियों के साथ ही दवाइयों, जीवन रक्षक व्यवस्थाओं के हाल
पर, कुछ कहने की जरूरत है क्या? कर-दाता तो हर कोई है! ‘वैसेवाले’ कर-दाता और ‘ऐसेवाले’
डर-दाता में ऐसी मिली-भगत है कि पचकेजिया मोटरी-गठरी ढोनेवाले क्षुब्ध मत-दाता और
आंदोलित अन्न-दाता क्या करें! क्या न करें! क्या तमाशबीन बनकर रह जायें? जनता
तमाशबीन बनी रहे तो, जीवन पर अधिक-से-अधिक और धिक-धिक “तमस” के आने-छाने में क्या
देर लगती है!
प्रवक्ताओं के
प्रवचन अपनी जगह, नेताओं के आश्वासन अपनी जगह, लोकतंत्र को बचाने के लिए हर हाल
में आम नागरिकों और नागरिक जमात का अपने-अपने
स्तर पर चौकस रहना ही एक मात्र उपाय है।
यह उपाय कैसे होगा, कब होगा यह देखने का इंतजार रहेगा। सुरक्षित भविष्य और
सुनिश्चित हित को बचाने के लिए, लोकतंत्र की व्यथा कथा पढ़ते रहिए। सामाजिक अन्याय
और आर्थिक अन्याय के द्वंद्व विकार के सुरंग के मुहाने पर खड़े होकर, तब तक
पढ़िये, ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी “घुसपैठिये” का एक अंश, साभार ———
“इन्दु
घुमा–फिराकर यही कहती है : “...तुम चाहे जितने बड़े अफसर बन जाओ, मेल–जोल इन लोगों से ही रखोगे, जिन्हें यह तमीज भी नहीं है कि सोफे पर बैठा
कैसे जाता है...तुम्हें इनसे यारी–दोस्ती करना है तो घर से बाहर ही रखो...आस–पड़ोस
में जो थोड़ी–बहुत इज्जत है, उसे
भी क्यों खत्म करने पर तुले हो...गले में ढोल बाँधकर मत घूमो...यह जो सरनेम लगा
रखा है...यही क्या कम है...कितनी बार कहा है कि इसे बदलकर कुछ अच्छा–सा सरनेम
लगाओ...बच्चे बड़े हो रहे हैं...इन्हें कितना सहना पड़ता है। कल पिंकी की सहेली कह
रही थी...रैदास तो जूते बनाता था...तुम लोग भी जूते बनाते हो...पिंकी रोते हुए घर
आई थी...मेरा तो जी करता है बच्चों को लेकर कहीं चली जाऊँ...”इन्दु की यह तानाकशी
राकेश को बौना बना देती है। वह खुद अपराध बोध से भर जाता है। बस अखबार खोलकर बैठ
जाता है। ऐसे में अखबार की सुर्खियाँ गड्डमड्ड होकर काले धब्बों में बदल जाती हैं।
और राकेश को लगने लगता है जैसे वह सुरक्षित है।”
(प्रफुल्ल
कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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