त्रेता का स्वर्ण मृग
और कलियुग का स्वर्ण द्वार
मीडिया में राम मंदिर का
स्वर्ण द्वार देखकर किसका मन हुलसित नहीं होगा! मीडिया में एक खबर यह भी चल रही है
कि कुछ प्रमुख धर्मगुरुओं ने 22 जनवरी 2024 को अयोध्या
के मंदिर में होने वाले भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में अपने शामिल
होने की संभावना से इनकार किया है। उनके पास अपने कारण होंगे और हैं, जिन
पर जरूर गौर किया जाना चाहिए। लेकिन मीडिया में जवाबी खबर तो यह है कि कार्यक्रम
के आयोजक कह रहे हैं, यह रामानंदी संप्रदाय का मंदिर है, इसमें
शैव मतावलंबियों (संप्रदाय के लोगों) के आने या न आने से कोई फर्क नहीं पड़ता है।
फर्क नहीं पड़ता है, तो आमंत्रित ही क्यों किया गया!
यह सच है कि तुलसीदास रामानंद
के ‘श्री संप्रदाय’ से जुड़े थे। तुलसीदास रचित रामचरितमानस में तो राम ने खुद ही
कहा है, ‘सिव द्रोही मम भगत कहावा, सो नर
सपनेहुं मोहि न पावा’ यह भी कि ‘संकर बिमुख भगति चह मोरी, सो नारकी
मूढ़ मति थोरी’ तो फिर यह किस तरह की बात ट्रस्टी श्री कर रहे हैं! क्या अब जातपात
की जटिलताओं के साथ हिंदु समाज के सोये हुए विभिन्न धार्मिक मतवादों को फिर से
जगाने की कोशिश की जा रही है!
इतने दिनों तक सत्ता ने धर्म
का इस्तेमाल अपना हित साधने के लिए किया और अब धर्म सत्ता का इस्तेमाल अपने हित के
लिए करने की कोशिश में लग गया है। इस कोशिश में जो विवाद है वह थमने का नाम ही
नहीं लेता! शांति-शांति, का जप सुनते हुए भारतीय मन कोलाहलों
में फंसता जा रहा है। इस होहल्ला का बहुत असर भारत के अन्य भाषायी इलाकों में उतना
नहीं है, जितना वृहत्तर हिंदी क्षेत्र में है।
इस पर ‘हिंदी जन’ को ठंढे
दिमाग और शांत मन से विचार करना चाहिए। यह ठीक है कि आस्थावानों में उत्साह है,
धार्मिक उत्साह। सत्तावानों में उत्तेजना है, राजनीतिक
उत्तेजना। यह सोचने-समझने की बात है कि सत्ता का अपना धर्म होता है और धर्म की
अपनी सत्ता। हिंदी साहित्य और समाज के भक्तिकाल का मकसद वैसा नहीं था, जैसा
आज राजनीति के भक्ति काल में थोपा जा रहा है। क्या कोई नई समस्या दस्तक दे रही है!
नजर रखने की जरूरत है।
धर्म और सत्ता में बहुत
नजदीकी संबंध रहा है। यह संबंध नजदीकी भले ही हो सीधा, सरल तो
बिल्कुल ही नहीं है। धर्म की सत्ता अपने आप को राजनीतिक ताकत से जोड़े रखना चाहती
है। राजनीतिक सत्ता लोगों को राजनीतिक रूप से जोड़े रखने के लिए अपने काम-काज को
‘धार्मिक आभा की पवित्रता’ में देखे जाने की तिकड़मी कोशिश में लगा रहता है। धर्म
और सत्ता में टकराव होता रहता है। आम नागरिकों को इन दोनों के टकरावों का खामियाजा
भोगना पड़ता है।
आम नागरिकों का सहकार के साथ
जीना मुश्किलों में फंस जाता है। धर्म और सत्ता दोनों की आम नागरिकों से अपेक्षा
रहती है कि वे पूरी तरह से शरणागत रहें। दोनों ही आम नागरिकों से पूर्ण और
निःशर्त्त समर्पण की मांग करते हैं। दोनों ही इस समर्पण को मनोरम और पवित्र बनाने
के सारे प्रबंध करते हैं। इस प्रबंध में प्रेम का इस्तेमाल कौशल और तत्त्व दोनों
के रूप में होता है। इस तरह समर्पण धर्म में आस्था और श्रद्धा आदि के रूप में
प्रकट होता है तो सत्ता में प्रतिबद्धता और बफादारी आदि के रूप में प्रकट होता है।
भारत का अनुभव तो इस मामले
में अद्भुत है। यहां राज और राष्ट्र एक ही अर्थ ध्वनित करने लगे हैं। राज के साथ
प्रेम की कोई गुंजाइश नहीं होती है, राज प्रेम का कहीं कोई प्रसंग नहीं
बनता था। राज धर्म और राज भक्ति के चलन का प्रसंग जरूर दिख जाता है। राजा या शासक
का प्रजा के प्रति किया जानेवाला सलूक राज धर्म से परिभाषित होता था। राजा या शासक
के प्रति प्रजा का बेहतर सलूक राज भक्ति मानी जाती थी।
लोकतंत्र की बुनियादी बात को
भुलाकर लोक-सेवक अपने को राजा मान लेने के मतिभ्रम का शिकार हो जाता है और
लोकतांत्रिक व्यवस्था में आम नागरिकों को आज्ञापालक प्रजा बनाने की राह पकड़ लेता
है।
भयावह यह कि इधर हमारे शासकों
के अंतर्मन में जनतंत्र से प्राप्त शक्तियों के बल पर राजतंत्रीय आचरण के प्रति
तीव्र आकर्षण बढ़ता ही जा रहा है। राज्य और नागरिक के संवैधानिक संबंध की आत्मीयता
में भारी गिरावट आई है।
संतों का बाना धरकर राजनीतिक
प्रदर्शन, कभी-कभी तो प्रहसन भी कर लेता है। असल में, संत
होने का स्वांग भरनेवाला संत नहीं शिकारी होता है। लोक की रक्षा के लिए लोकतंत्र
कवच का काम कर करता है, लेकिन लोकतंत्र की रक्षा तो लोक ही कर सकता है, खतरे
में दोनों हैं, लोक भी और लोकतंत्र भी। अपने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक
अधिकारों को ऐसे शिकारियों से बचाने का दायित्व आम नागरिकों का है।
आज के कठिन दौर में जयप्रकाश
नारायण की याद आती है। जयप्रकाश नारायण ने आम नागरिकों की लोकतंत्र में भागीदारी
को महत्त्वपूर्ण माना। उनका तो यह भी मानना था कि आम नागरिक का लोकतंत्र में अपने
लोकतांत्रिक अधिकारों को बचाने में अपनी भूमिका नहीं निभाना पाप है। मतलब, लोकतंत्र
के गिरते हुए स्तर के लिए पेशेवर राजनेताओं से अधिक जिम्मेदार नागरिक जमात होता
है। आज नागरिक जमात का अधिक तत्पर रहना अधिक जरूरी है, क्योंकि
लोकलुभावन राजनीति के पीछे चलते-चलते हमारा लोकतंत्र दहाड़ते झूठ के समाने हकलाते
सच के दौर में पहुंच गया है। मजबूत विपक्ष का होना संसदीय लोकतंत्र के संतुलन के
लिए बहुत जरूरी होता है। आज भारत के संसदीय लोकतंत्र में मजबूत नहीं, मजबूर
विपक्ष है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य और धर्म
पर आधारित भारतीय समाज के बीच के संबंधों की जटिलताओं को समझने के लिए इनके गठन की
ऐतिहासिक प्रक्रियाओं को भी समझना जरूरी है। इन जटिलताओं को बहुत संवेदनशील बना
दिया गया है। राजनीतिक संवाद में न संवेदनशीलता है, न संतुलन
यहां तक कि कोई नागरिक शिष्टाचार भी नहीं बचा है। रिकॉर्ड बेरोजगारी, बेसम्हार
महंगाई, महंगी शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोक
तरफदारी, अर्थनीति में सांठ-गांठ (क्रोनी कैपटलिज्म), भ्रष्टाचार,
बदहाल किसान, जूझती हुई किसानी, सपनों के
रफू में व्यस्त युवा, लैंगिक हमलों की बढ़ती घटनाएं, सत्ता-प्रशासन
के जनविमुखी मिजाज से परेशान लोगों के बीच तरह-तरह के समीकरण और सीट साधता
राजनीतिक जमात और इवीएम की संदिग्धता दूर किये जाने के लिए जूझता और इत-उत करता
नागरिक जमात इसी से तो बनता है भारत के लोकतंत्र का आम परिदृश्य।
लोकतंत्र में असली सत्ता जनता
में निहित होती है। जनता समाज बनाकर रहती है। इसलिए असली सत्ता मूल रूप से समाज के
पास होती है। समाजों के समवेत से बने राज्य में समाज की सत्ता अंतरित हो जाती है।
राज्य का यह दायित्व हो जाता है कि वह समवेत समाज से प्राप्त सत्ता का सही और
सार्थक इस्तेमाल करते हुए समवेत समाज के हितों की शांतिपूर्ण रक्षा करे। ऐसा सोचना
भी दिवा-स्वप्न हो गया है।
आज विज्ञान और मानवीय विकास
का युग है। एक तरफ देश चांद पर पहुंच रहा है तो दूसरी तरफ भारी संख्या में ‘पांच
किलो’ की बढ़ती हुई लाइन, कैसा दिखता होगा चांद से यह सब! इसके
साथ ही समाज को धर्म के जंजाल में नये सिरे से फंसाने के कूट उद्यम में लगे हुए
लोग।
हिंदु जीवन में चार
पुरुषार्थों अर्थात जीवन के चार महान लक्ष्य हैं – धर्म, अर्थ,
काम और मोक्ष। इनके पारस्परिक संबंध के बारे में बताया जाता है कि वही धर्म
है जो अर्थ के अर्जन में सहायक होता है; वही अर्थ है जो काम की
संतुष्टि में सहायक होता है; वही काम है जो मोक्ष लाभ करने में
सहायक होता है। मोक्ष परम मूल्य है, सबसे बड़ा पुरुषार्थ। धर्म सबसे
शुरुआती पुरुषार्थ है। सारी ऊर्जा धर्म को ही समर्पित हो जायेगी तो बाकी
पुरुषार्थों का क्या होगा? जो भी हो, स्वर्ण
द्वार की आभा में एक आशंका मन में घर कर गई है प्रभु कि कहीं त्रेता के स्वर्ण मृग
ने ही कलियुग में स्वर्ण द्वार का रूप न धर लिया हो!
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