तानाशाही की ओर बढ़ते पैर की शोभा बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ‘पैजनिया’

तानाशाही की ओर बढ़ते पैर की शोभा बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ‘पैजनिया’

इस समय भारत की राजनीतिक गतिविधि ‘राम मंदिर के संदर्भ’ और ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की दो लहरों के बीच जारी है। सामने 2024 का आम चुनाव है। राजनीतिक दल अपने-अपने चुनावी नफा-नुकसान का अनुमान लगाते हुए अपनी-अपनी रणनीतियां तय कर रहे हैं। अधिकतर पत्रकार भी चुनावी गणित के विश्लेषण और रासायनिक परिपाक का हिसाब लगा रहे हैं।

जरूरत वृहत्तर अर्थ में देश हित और नागरिक सुविधा की दृष्टि से देखे जाने की भी है। इतना तो सभी मानते हैं कि 2024 का आम चुनाव चारित्रिक दृष्टि से भी पिछले सभी आम चुनावों से भिन्न महत्व का है। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि इस बीच कांग्रेस पार्टी अपने को नये सिरे से पुनर्गठित करने की कोशिश कर रही है। उसके लिए यह जरूरी भी है।

यह सच है कि कांग्रेस आजादी के बाद धीरे-धीरे, कभी-कभी तेजी से भी चुनावी नफा-नुकसान के हिसाब से प्रयत्न-लाघव (Shortcut) की शिकार होती गई। आजादी के आंदोलन के संकल्पों को पूरा करने की तन्मयता में कमी आती गई। सत्ता के सुख-भोग से निर्लिप्त रहना वैसे भी मुश्किल होता है। सत्ता विहीनता के कारण वह पिछले दिनों किंकर्त्तव्य विमूढ़ता में भी पड़ी रही।

मानना होगा कि सत्ता की उत्पीड़कताओं से अंततः उसकी किंकर्त्तव्य विमूढ़ता को तोड़ दिया है। वह इस बात की तफतीश में लग गई कि राह भूली कहां से वह! तफतीश के नतीजों ने उसे पता चला होगा कि आज जिन ताकतों के सम्मुख वह श्रीहीन और विपन्न बनी खड़ी है, उन ताकतों से उसका मुकाबला बहुत पुराना है। इस मुकाबला में वह जीतती भी रही है, तब भी जब हाथ में संविधान की ताकत नहीं थी।

कांग्रेस पार्टी के पुनर्गठन का मतलब बहुत आसान नहीं है। हारती हुई सेना के बहुत सारे ‘जांबाज’ सिपाही कभी-कभी हार के दुख से बचने के लिए जीतती हुई सेना में अपनी जगह तलाशने लगते हैं, पुनर्गठन में बहुत सारे ‘कांग्रेस जन’ के इधर होने का जोखिम तो है ही। ऐसा लगता है कांग्रेस पार्टी चुनावी नफा-नुकसान के साथ ही इस आवाजाही के जोखिम का भी हिसाब लगा चुकी है। कांग्रेस जोखिम उठाने के लिए तैयार है।

राजनीतिक बातों और संदर्भों पर तो राजनेता लोग ही बात करें तो बेहतर। चुनावी राजनीति से किसी-न-किसी राजनीतिक दल या दलों के गठबंधन को तो ‘गुणवत्ता संपन्न सत्ता’ मिल ही जाती है, आम नागरिकों को मिलनेवाले लोकतंत्र की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आती रही है।

इस समय नागरिक जमात को दलों के चुनावी नफा-नुकसान की चिंता को छोड़कर इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि तानाशाही की ओर बढ़ते कदम की शोभा बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ‘पैजनिया’ कैसे डाली जाये। स्वतंत्र होने का मतलब लोगों के लिए क्या था! यह जानने के लिए मोटे तौर पर स्वतंत्रता आंदोलन को समझना होगा।    

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में राजनीतिक ताप के साथ ही वैचारिक विमर्श की तीव्र और अर्थपूर्ण धाराएं भी थी। सभी महत्त्वपूर्ण लोग एकमत थे कि सिर्फ अंग्रेजों का राजपाट छोड़कर चला जाना या देशी लोगों के हाथ में शासन की बागडोर का आ जाना भारतीयों की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं है। प्रेमचंद और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के कुछ उद्धरणों से बात शुरू की जा सकती है।

1930 में प्रेमचंद की कहानी ‘आहुति’ की मुख्य पात्र कहती है- ‘अगर स्वराज आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यों ही स्वार्थांध बना रहे, मैं कहूंगी कि ऐसे स्वराज का न आना ही अच्छा है। कम-से-कम मेरे लिए तो स्वराज का यह अर्थ नहीं है कि जॉन की जगह गोविंद बैठ जाये। मैं ऐसी व्यवस्था देखना चाहती हूं, जहां कम-से-कम, विषमता को आश्रय न मिल सके।’

1939-40 में किये गये डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विभिन्न भाषणों के तीन वाक्यों का उल्लेख यहां जरूरी है-

1- ‘स्वतंत्रता का यह आशय नहीं हो सकता कि उच्च जातियां दलित वर्गों पर शासन करें।’

2- ‘यह भ्रामक है कि महज राजनीतिक स्वतंत्रता लोगों का कल्याण करेगी।’।

3- ‘पूर्ण स्वतंत्रता का अर्थ है साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों के शिकंजे से देश की मुक्ति।’।

ऐसे ही मिलते-जुलते विचार कई लोगों ने प्रकट किया था, शब्द और वाक्य विन्यास या भाषा भले ही भिन्न हो आशयों कोई तात्विक भिन्नता नहीं थी। यह मुख्य रूप से तार्किक और प्रभावशाली बात यही थी। इन वाक्यों पर गौर करने से आज के संदर्भ में निम्नलिखित परिदृश्य हमारे सामने उभरता है-

1- पढ़ा-लिखा समाज आज पहले से अधिक स्वार्थांध है।

2- जॉन की जगह गोविंद बैठ गया और स्वराज सार्थक न हो सका है।

3- आजादी के बाद भी विषमता ज्यामितिक गति से बढ़ती रही है।

4- स्वतंत्रता का आशय अधूरा है, उच्च जातियों का दलितों पर शासन बदस्तूर जारी है।

5- राजनीतिक स्वतंत्रता से लोगों का कल्याण थोड़ा-बहुत ही हुआ है, पूरा नहीं हुआ।

6- साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों के शिकंजे से देश को संभाव्य मुक्ति भी नहीं मिली, उनके शिकंजे से पूर्ण स्वतंत्रता अभी प्रतीक्षित ही है।

अधिक दूर जाने या बहुत मगजमारी की जरूरत नहीं है। पढ़े-लिखे होने का दावा करने वालों को अपने स्वार्थ का ध्यान तो रखना ही चाहिए लेकिन इस ध्यान मग्नता में आंख बंद करते-करते अंधा हो जाने से बचना चाहिए। लोकतंत्र के हित में ‘जॉन की जगह गोविंद’ को बैठाने की प्रक्रिया को जारी रखनी चाहिए। ‘गोविंद’ की जगह फिर से ‘जॉन’ को राजनीतिक या आर्थिक आसन पर बैठाये जाने की परिस्थितियों पर कड़ी नजर रखने के लिए नागरिक जमात को हर संभव उपाय करना चाहिए।

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की चेतावनी को याद रखनी चाहिए कि संविधान की पवित्रता इसे लागू करने वालों की पवित्रता पर निर्भर करेगा। संविधान की पवित्रता को कायम रखते हुए शासन को किसी भी प्रकार के जाति वर्चस्व से बचाने के लिए जाति निरपेक्ष नीतियां बननी चाहिए। जाति के आधार पर शोषण और विषमता की प्रक्रिया को समाप्त करने या कम-से-कम रोकने के लिए नागरिक जमात को समकारक (ईक्वलाइजर) उपायों के सच्चे अर्थों में लागू होने पर जोर देते रहना चाहिए। राजनीतिक स्वतंत्रता से लोगों का थोड़ा-बहुत कल्याण तो जरूर हुआ है, इसे दृढ़तापूर्वक मानना चाहिए, संसदीय लोकतंत्र और राजनीतिक स्वतंत्रता के प्रति हर हाल में आशावान बने रहना चाहिए।

कहना न होगा कि भारत दुर्दशा की स्थिति में है, भारतेंदु की भारत दुर्दशा कम-से-कम इस अंश को जरूर पढ़ना चाहिए- हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई। अंग्रेजराज सुख साज सजे सब भारी। पै धन बिदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी। ताहू पै महंगी काल रोग बिस्तारी। देश के धन, काला, गोरा किसी रंग-ढंग हो, का विदेश जाने को विदेशी शासन की वापसी के लक्षण से कम नहीं मानना चाहिए। निर्यात से अधिक आयात का होना भी धन का विदेश जाना है। आयात-निर्यात में व्यापारिक संतुलन के साथ ही नीतिगत संतुलन पर जोर दिया जाना चाहिए।..

.. राजनीतिक दलों को चाहिए कि साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों के शिकंजे से देश की मुक्ति के राजनीतिक आशय से आम नागरिकों के साथ-साथ पूंजीवादियों और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों को अवगत और आश्वस्त कराते रहें। राष्ट्रवाद के असली मकसद और उसमें सभी लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझते-समझाते रहना चाहिए। यही किसी भी आशंकित अंतर्ध्वंस से बचाव का रास्ता है। देश हित के साथ जुड़ने से पूंजीवादियों और मध्यवर्गीय भारतीय व्यापारियों को तो लाभ होगा ही और देश का भी शुभ होगा- पहले लाभ या पहले शुभ के पचड़े में न पड़कर, भारत में प्रचलित ‘शुभ-लाभ’ की व्यावसायिक भावना के संतुलनकारी महत्त्व  के प्रति सचेत रहना चाहिए। 

असल में अन्याय और असंतुलन के बीच पारस्परिक कारण-कार्य का संबंध होता है। अन्याय असंतुलन को बढ़ाता है और फिर असंतुलन अन्याय को बढ़ाता है। यह श्रृंखला ‘अटूट’ बनी रहती है। इस ‘अटूट श्रृंखला’ को सुनिश्चित न्याय से ही तोड़ा जा सकता है। अन्याय को दूर करने का सबसे अधिक कारगर, तार्किक और प्रभावशाली उपाय होने के कारण ही लोकतंत्र महत्त्वपूर्ण होता है। अन्याय को दूर करने में दिलचस्पी खो देनेवाली व्यवस्था को लोकतांत्रिक मानना भारी भूल है।

अन्याय के कारणों को दूर किये बिना संतुलन की समन्वयकारी चेष्टा से कामचलाऊ संतुलन का माया-जाल बनता है। इस माया-जाल में तात्कालिक आकर्षण बहुत होता है। इस समन्वयकारी प्रक्रिया से इतिहास को महान व्यक्ति और महात्मा तो मिल जाते हैं, लेकिन जनता की दुर्दशा के समाप्त होने का स्थायी प्रबंध नहीं हो पाता है। ‘महान व्यक्ति और महात्मा’ के जाते ही अन्याय और असंतुलन की कारण-कार्य श्रृंखला तेज, कभी-कभी तो बहुत तेज गति पकड़ लेती है।  

आज के हाहाकार का वैश्विक संदर्भ हो या घरेलू, सब के मूल में निर्विशिष्ट न्याय का अभाव जरूर है। रोजी-रोटी के उपार्जन के सम्यक इंतजाम में भागीदारी के भेद-भाव मुक्त अवसर, न्यूनतम मानवीय आधिकारिकता और सम्मान का समतामूलक व्यवहार का अभाव समाज के सद्गुण को कुतरता रहता है। मनुष्य ‘वस्तु’ के अभाव से जितना पीड़ित नहीं होता है, उससे कहीं अधिक ‘भाव’ में ‘अ-भाव’ से उत्पन्न अन्याय से पीड़ित होता है।

अन्याय मनुष्य की गरिमा पर मनुष्य का असहनीय आघात होता है; असहनीय होता है, लोहा पर लोहा का आघात। अन्याय के बहुत सारे रूप हैं। सामाजिक अन्याय, आर्थिक अन्याय, किसी भी कारण से होनेवाले असंगत व्यवहार का अन्याय आदि। सभ्यता में सबसे बड़ा विस्फोटक और विध्वंसक अन्याय है- प्रत्येक नकारात्मक विचार अन्याय से शुरू होता है और अपने पीछे अन्याय के बीज की सघन बुआई करता जाता है। अन्याय का अशुभ चक्र सभ्यता के माथे पर कहर ढाता चलता है। सभ्यता में निर्विशिष्ट न्याय की स्थिति के बनने या बने रहने के अटूट विचार को बहाल रखने का हर संभव उपाय जारी रखना चाहिए।

संपूर्ण रूप से न्याय निष्ठ विश्व, राष्ट्र या समाज को वास्तव में हासिल करना कभी संभव है या नहीं है, इस बकझोंझो में न पड़कर, आस-पास घट रहे छोटे-बड़े अन्याय के निराकरण के लिए सतत प्रयत्नशीलता का महत्व है। इस तरह की प्रयत्नशीलता को शासकीय स्तर पर कानून से, सामाजिक स्तर पर परंपराओं में प्रगति तत्त्वों के समावेशन से, व्यक्तिगत स्तर पर विवेकपूर्ण आचरण से निरंतर जारी रहना चाहिए।

मुश्किल यह है कि हमारे समय में विवेक ही विक्षिप्त हो गया है। जीवन में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा नहीं भी तो, बहुत बड़ा सोता विवेकाधिकार की ‘पवित्र जमीन’ से फूटता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था और सत्ता ने विवेक पर भरोसा किया और इधर विवेक ही विक्षिप्त हो गया! भ्रष्टाचार का ज्वालामुखी भड़क गया! सत्ता का भ्रष्ट होना मनुष्य जीवन और सार्वजनिक व्यवस्था के अपार दुख का कारण होता है। सत्ता के भ्रष्टाचार को समझना जरूरी होता है। इसके विभिन्न रूपों को पहचानना मुश्किल और उससे पार पाना लगभग असंभव होता है। इससे बचने का यही एक उपाय है, व्यवस्था में सम्यक संतुलन बनाये रखने के लिए आशंकित त्रुटियों की पहचान और निवारण के लिए कारगर तंत्र को सतत सक्रिय बनाये रखना।

पोसुआ पूंजीवाद (क्रोनी कैपटलिज्म) राजसत्ता को समाज विमुख बना देता है। परम न्याय और नैसर्गिक न्याय की बात तो अपनी जगह, आम नागरिकों के लिए सापेक्षिक न्याय के मिलने का भी रास्ता निरापद नहीं रह जाता है। हालात ये हैं कि विज्ञान और तकनीक के विकास का लाभ पूंजी और मुनाफा को जितना मिलता है उसका हजार-सौवां हिस्सा भी रोजी-रोजगार और श्रमिकों या आम नागरिकों को नहीं मिल रहा है।

बीसवीं सदी का बीज शब्द था राजनीतिक स्वतंत्रता उसी तरह इक्कीसवीं सदी का बीज शब्द है रोजगार। गुणवत्तापूर्ण रोजगार के साथ आर्थिक उन्नति का लाभप्रद शुभ अवसर मिलता है। गुणवत्तापूर्ण रोजगार के अवसर उपलब्ध होने की विपुल संभावनाएं ही विकास को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं। आज अधिक स्पष्टता से यह भी समझना होगा कि नई भूमंडलीय व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्रों के आम नागरिकों के लिए  राजनीतिक सत्ता में हक और हिस्सेदारी का सवाल गौण हो गया है। वस्तुतः राजनीतिक स्वतंत्रता के आनंद और आर्थिक उन्नति के मजा को आमने-सामने भिड़ा दिया गया है।

रोजगार का अभाव आर्थिक और सामाजिक न्याय का बहुत बड़ा अवरोधक है। आज तो यह अवरोधक विपत्ति का पहाड़ बन गया है। इस पहाड़ की कोख में विषमताओं के भयानक रोगाणु पलते हैं। विपत्ति के इस पहाड़ के उठान और ढलान, दोनों ही  जीवन के पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र (इको सिस्टम) को अपूरणीय क्षति के सर्वग्रासी चक्रव्यूह में धकेल देते हैं।

सम्यक रोजगार का अभाव मनुष्य के सारे सदगुणों को नष्ट कर देता है और मनुष्यता की सभी शर्तों को तोड़ देता है। सम्यक रोजगार के अभाव में मनुष्य न तो अपनी योग्यताओं और संभावनाओं का विकास कर पाता है और न ही आत्म-सम्मान की रक्षा कर पाता है। जाहिर है, अन्याय के असहनीय आघात से टूटा हुआ आत्म-सम्मान जीवन को असंतुलित और व्यक्ति के विवेक को नष्ट कर देता है।  

जहां इच्छा स्वातंत्र्य नहीं, वहां नैतिकता नहीं। जहां नैतिकता नहीं, वहां न्याय निष्ठता नहीं। न्याय होने के साथ-साथ दिखने की भी बात अक्सर कही जाती है। पत्रकार के रूप में कार्य कर चुके महत्वपूर्ण अंग्रेज न्यायाधीश लॉर्ड हेवर्ट ने न्याय-नामाकूल वातावरण में दोष सिद्धि को रद्द करते हुए 9 नवंबर 1923 के अपने फैसले में ऐतिहासिक महत्व का कथन दर्ज किया- ‘यह केवल कुछ महत्व का नहीं है, बल्कि मौलिक महत्व का है कि न्याय न केवल किया जाना चाहिए, बल्कि स्पष्ट रूप से और निस्संदेह किया हुआ दिखना भी चाहिए।’

न्याय के होते हुए दिखने का नकारात्मक मतलब निकालकर कई बार, बहुसंख्यकवादी वितंडी न्याय को उत्तेजना और उन्माद के भीड़िया दबाव में डाल देता है। न्याय के होते हुए दिखने जैसी अच्छी स्थिति के व्यापक महत्त्व का भावनात्मक दुरुपयोग होता है। मुश्किल यह कि अमूर्त्त समानता और अगोचर न्याय से लोकतंत्र क्षतिग्रस्त हो जाता है।

दुनिया भर के विद्वान लोकतंत्र के स्वरूप में आ रहे बदलावों का अध्ययन करते रहे हैं। लोकतंत्र की पहली दूसरी, तीसरी न जाने कितनी लहर! यानी विभिन्न लहरों में लोकतांत्रिक मूल्यों, आस्थाओं, निष्ठाओं की गुणात्मकताओं में छीजन या समृद्धि की जो भी स्थिति रहे, लेकिन न्याय और सापेक्षिक समानता के अभाव में वास्तविक लोकतंत्र का बचना मुश्किल है।

यह सच है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र दबाव और संकोचन से जूझ रहा है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जो भी स्थिति रहे, चुनाव-दर-चुनाव भटकनेवाला लोकतंत्र पर्याप्त नहीं होता है। लोकतंत्र के ढांचा में बने रहकर लोकतंत्र विरोधी रुझान के होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।

जीवन में शांति चाहिए। शांति के लिए संतोष चाहिए। संतोष के लिए संतुलन चाहिए। इसलिए, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संतुलन की जरूरत होती है। लोभ और मोह मन के दो प्रमुख दुश्मन हैं। मन को दूषित करनेवाले दुश्मन- जो दूसरों ने पा लिया है उसे चाहे जैसे पा लेने का लोभ और जो हम ने पा लिया है उसे किसी भी तरह से नहीं छोड़ने का मोह।

लोभ-मोह के चलते हमारे दैनंदिन के व्यवहार से जीवन में नित-नित नये-नये असंतुलन उत्पन्न होते रहते हैं। असंतुलन से असंतोष। असंतोष और असंतुलन के अत्यधिक जटिल होने से मानव जीवन का आनंद पक्ष तहस-नहस हो जाता है। संतोष एवं संतुलन को सुनिश्चित करने के लिहाज से लोकतांत्रिक व्यवस्था में निर्विशिष्ट न्याय और सापेक्षिक समानता के व्यवहार के नैतिक युग्म का महत्व है।

राजनीति में सक्रिय व्यक्ति के प्रत्येक काम को राजनीति के व्यापक परिप्रेक्ष्य में न देखकर महज चुनावी लाभ-हानि की नजर से आंकने के हम अभ्यासी हो गये हैं। हम भूल गये हैं कि संसदीय लोकतंत्र में भी राजनीति का ‘संसदवाद’ में सिमट जाना शुभ नहीं हो सकता। न तो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का और ना ही अब होनेवाली ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ का मूल्यांकन चुनावी लाभ-हानि के आधार पर किया जाना चाहिए।

2024 के आम चुनाव में इंडिया (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) को लाभ हो न हो, उनका लक्ष्य कुछ भी हो, वस्तुतः इसे सफल तो तभी माना जायेगा जब इस ‘न्याय यात्रा’ से लोकतांत्रिक शासकों और आम नागरिकों के भी चाल-चरित्र में न्याय-निष्ठता के प्रति आग्रह और आस्था में जनहितकारी गुणात्मक बढ़ोत्तरी हो। पूरा देश उम्मीद से है कि 2024 के आम चुनाव का नतीजा जो भी हो राहुल गांधी के नेतृत्व में ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ तानाशाही की ओर बढ़ते पैर की शोभा बढ़ाने के लिए लोकतंत्र की ‘पैजनिया’ का इंतजाम करने में जरूर सफल होगी।

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