अतिरेकी विराटता का नहीं, समवायी लघुता के सम्मान का विवेक हैं राम

अतिरेकी विराटता का नहीं, समवायी लघुता के सम्मान का विवेक हैं राम

22 जनवरी 2024, हिंदु चित्त में चिर प्रतिष्ठित भगवान राम की अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा का दिन। ईश्वर के मनुष्य रूप में अवतरित होने की प्रतिष्ठा का दिन है। चित्त में चिर प्रतिष्ठित भगवान के मनभावन मानव चरित की आराधना करता है और स्वयं मनुष्य से ईश्वर बन जाना चाहता है। राम को जानना मनुष्य को जानना है। मनुष्य को जानना राम को जानना है। मनुष्य का जीवन बहुत विचित्र है! मनुष्य होने के रहस्य को समझना बहुत मुश्किल है। मनुष्य विरुद्धों के युग्म को साधकर उनकी एकमयता में जीता है। उसे दोस्त भी चाहिए। दुश्मन भी चाहिए। उसे आग भी चाहिए। पानी भी चाहिए। उसे ठंढा भी चाहिए। गर्मी भी चाहिए। उसे जीतने में भी आनंद मिलता है। हारने में भी खुशी होती है। उसे आजादी प्रिय है। उसे गुलामी में भी आनंद की अनुभूति होती है। उसे किसी तरह का अतिरेक नहीं चाहिए।

असीम आकाश का पंछी एक दिन पिंजरा में बंद हो गया। सोच में पड़ गया, आकाश इतना छोटा कैसे हो सकता है! आकाश और पिंजरा का फर्क समझ में आया। पंछी ने पिंजरा को ही अपना आकाश बना लिया। एक दिन पिंजरा खुल गया। पंछी आकाश में पहुंचकर सोच में पड़ गया, कोई पिंजरा इतना बड़ा कैसे हो सकता है! पंछी जानता है, बहेलियों को क्या खबर कि कब आकाश पिंजरा बन जाता है और कब पिंजरा आकाश बन जाता है!

गुलाम को पता ही नहीं होता कि वह गुलाम है तो कैसे है? आजाद को पता नहीं होता कि वह आजाद है तो, कैसे है? अच्छा मालिक गुलामों को एहसास नहीं होने देता कि वह गुलाम है। बुरा लोकतंत्र नागरिकों को एहसास नहीं होने देता कि वह आजाद है। गुलाम के अच्छे मालिक और आजाद मुल्क की बुरी सरकार में बहुत थोड़ा का अंतर होता है। इतना थोड़ा अंतर कि आदमी दोनों ही स्थितियों में हंसता, मुसकुराता और  रोता बिसूरता है। बहुत ध्यान से देखने, सुनने और समझने पर ही थोड़ा-बहुत पता चल सकता है।

देखने के लिए प्रकाश, सुनने के लिए ध्वनि और समझने के लिए दिमाग की जरूरत होती है। देखना और सुनना इंद्रियाश्रित होता है – देखने के लिए आंख और सुनने के लिए कान है। समझ इंद्रियातीत होती है। देखने के लिए आंख और सुनने के लिए कान की अनिवार्यता से मुक्त होना यानी, आंखों देखी, कानों सुनी को अंतिम सत्य न मानना, आदमी को समझ के करीब ले जाता है। कोई ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जिसे आंख कान न हो लेकिन ऐसा कोई हो नहीं सकता जिसके पास मन न हो। मन सब के पास होता है – कहते हैं आंख-कान के ठीक से काम करने के लिए मन का होना बहुत जरूरी होता है।

अक्सर लोग कहते हैं, मन लगाकर देखिये-सुनिये और गुनिये। ये गुनना क्या होता है! गुनना मिलाने और अलग करने की मानसिक प्रक्रिया है। आंखों देखी और कानों सुनी को मिलाना और फिर उन्हें अलग करना, तब तक मिलाते और अलग करते रहना जब तक समझ साफ न हो जाये। इन सब में, स्पर्श और गति की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जिस तरह से आंख-कान जैसी इंद्रियां दूसरों को भी दिखती हैं, उस तरह से मन नहीं दिखता है। मन इंद्रियों का राजा कहलाता है – जैसे वन में शेर, वैसे तन में मन। राजा, वैसे भी कम ही दिखते हैं। वे जब चाहें तब दिखते है, न चाहें तो नहीं दिखते हैं! जब जैसा चाहें तब वैसा दिखते हैं। अद्भुत है, न गुलाम को अपने गुलाम होने का पता चलता है, न राजा को अपने नंगा होने का!

विज्ञान कहता है, प्रकाश की गति सबसे तेज होती है, उसके पीछे ध्वनि – सब से तेज गति मन की होती है। जो आंख से दिखता है, उसे कान से सुनना पड़ता है। आंख से दिखे का मन से मिलान होने पर दर्शन का जन्म हुआ; कान से सुने का मिलान होने पर श्रुति का जन्म हुआ। दर्शन और श्रुति के विस्तार से निकले भारत में रामायण और महाभारत दो सबसे बड़े कथानक हैं।

रामायण और महाभारत कथानकों के मूल में देखने और सुनने की गड़बड़ी है। कई बार लोग श्रवण कुमार के मां-बाप का नाम जानना चाहते हैं। पिता का ही नाम श्रवण है! कुमार यानी पुत्र का नाम पता करने की जरूरत है। बहरहाल, मुद्दे की बात यह है कि श्रवण सुनते तो बहुत तेज थे, लेकिन देख नहीं पाते थे। दशरथ को देखने-सुनने में यों तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन देखे बिना सुनने की हड़बड़ी से सारी गड़बड़ी हो गई। अपने दृष्टि-अक्षम मां-बाप की प्यास मिटाने के लिए कुमार के पानी भरने से निकली गुड़गुड़ी आवाज को मृग से जोड़कर वाण चला दिया और कुमार की हत्या हो गई।

ध्यान देने की बात है कि दृष्टि-अन्यमनस्कता और श्रुति-अन्यमनस्कता के बीच मृग, पशु की उपस्थिति की भूमिका कितनी बड़ी हो जाती है। रामकथा में एक बार फिर मृग उपस्थित हुआ। स्वर्ण मृग सीता का दृष्टि-भ्रम था, फिर मृग का सीता, लक्ष्मण को पुकारे जाने से सीता को श्रुति-भ्रम हुआ। तुरत-तुरत, लगभग साथ-साथ दृष्टि-भ्रम क श्रुति-भ्रम!

महाभारत को देखें। श्रुति-भ्रम की शिकार हुई कुंती – एक द्रौपदी पांच भाइयों से बंध गई। धृतराषट्र खुद दृष्टि-अक्षम थे। इंद्रप्रस्थ के राजमहल में जल-थल के दृष्टि-भ्रम और द्रौपदी की टिप्पणी पर श्रुति-भ्रम की चपेट में साथ-साथ पड़ गये, दुर्योधन। शंख ध्वनि के बीच गुरु द्रोणाचार्य तो नरो-वा-कुंजरो के श्रुति-भ्रम में पड़कर प्राण ही गंवा बैठे! सभी तरह के भ्रमों, माया के स्वामी तो स्वयं कृष्ण थे।

राम विराट रूप में प्रकट हुए। मां के बरजने पर अपना विराट रूप छोड़ दिया। न सिर्फ छोड़ दिया, बल्कि अपना विराट रूप फिर कभी किसी के सामने प्रकट नहीं किया। न किसी प्रकार का कोई दृष्टि-भ्रम पैदा किया न श्रुति-भ्रम। हां उसके शिकार एक दो बार वे जरूर हुए – बाली, सुग्रीव प्रसंग में दृष्टि-भ्रम का हल्का संदर्भ जरूर है, रावण का दशानन रूप भी एक नैसर्गिक-भ्रम था, आकाश-धरती या दो समानांतर रेखाओं के मिलते हुए देखे जाने की तरह।

जिस तरह से महाभारत में चमत्कारी पुरुष और महिला चरित्रों की आकाश गंगा है, रामकथा में नहीं है। पहले महाभारत हुआ कि पहले रामकथा इस झमेले में पड़े बिना इन दो महत्त्वपूर्ण और समानांतर भारतीय वृहदकथाओं में विराटता और लघुता के प्रति दो भिन्न दृष्टियां हैं। महाभारत की तरह रामकथा में विराटता के दृष्टि-भ्रम का आग्रह नहीं है। बल्कि, रामकथा में विराटता की नहीं लघुता का आग्रह है। राम या तो विराटता को नष्ट कर देते हैं या भक्त बना लेते हैं। विराट शिवधनु का क्या हुआ! टूट गया। रावण, कुंभकर्ण नष्ट हो गये और हनुमान भक्त हो गये। हनुमान का विराट रूप सुरसा और सीता के समक्ष केवल एक-एक  बार प्रकट हुआ था।

विनम्रतापूर्वक, स्वीकारना चाहिए कि दृष्टि-भ्रम और श्रुति-भ्रम पर बात करने में भी भ्रम का खतरा बराबर बना रहता है। इसलिए, ठीक-ठीक कहना मुश्किल है, क्योंकि महाभारत भी बहुत व्यापक है और रामकथा भी बहुत व्यापक है। गलत प्रमाणित होने का जोखिम उठाते हुए भी संक्षेप में यह कि दृष्टि-भ्रम और श्रुति-भ्रम के साथ मन की अनुपस्थिति या अन्यमनस्कता में मृग की उपस्थिति कथाओं में ही नहीं, जीवन में भी महत्त्वपूर्ण होती है – सावधानी में खलल जीवन में गुलामी का दखल! सावधानी में खलल और गुलामी के दखल का दायरा बढ़ रहा है! आज रामकथा में भी विराटता का महात्म्य घुसाया जा रहा है, यह भूलकर कि रामकथा के मूल्य-बोध के अनुसार जीवन में विराटता में रावणत्व और लघुता में रामत्व है!

मनुष्य के जीवन में दृष्टि-भ्रम और श्रुति-भ्रम के बहुत सारे इंतजाम हैं। आज विज्ञान और तकनीक के माध्यम से आम नागरिकों के दृष्टि-भ्रम और श्रुति-भ्रम को समाप्त नहीं भी तो, कम किये जाने की उम्मीद मानव सभ्यता को रही है। यह काम मीडिया का है। पूंजी संपोषित मीडिया ने पूंजीपतियों के हित-साधन की क्षमताओं को बढ़ाते रहने के लिए विज्ञान और तकनीक का सहारा लिया। विशेषज्ञ लोग बता रहे हैं मुख्य-धारा की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आज अपनी तीसरी उठान पर है, उठान अभी और भी होंगे! फिलहाल, तो यह कि पत्रकारिता की जनपक्षधरता लगभग समाप्त हो चुकी है, या कह लें कि पत्रकारिता का समय ही समाप्त हो गया है; अब जो सामने है वह मीडिया है। अब पत्रकार नहीं, मीडियाकर्मी हैं।

कहते हैं कि विज्ञान और तकनीक के बल पर इमर्सिव मीडिया का वर्चस्व भयानक है। विडंबना यह कि इमर्सिव मीडिया सम्मोहक भी बहुत है। दृष्टि-भ्रम और श्रुति-भ्रम का ऐसा वितान और बवंडर खड़ा होता जा रहा है। इस वितान और बवंडर के बीच गर्दन भले कट जाये आदमी की पुतली इमर्सिव मीडिया के इशारे पर नाचती रहेगी, मुखड़ा मुसकुराता रहेगा!

जानना मनुष्य की मूल प्रवृति है। जाने हुए को बताना और छिपाना भी मूल प्रवृत्ति ही है। ऐसे में मनुष्य जानने की अपनी मूल प्रवृत्ति को कैसे संतुष्ट करेगा! दूसरों को क्या बतायेगा! क्या छिपायेगा! कहते हैं आज निजता या गोपनीयता सबसे अधिक संकट में है। बहुतों की धारणा होगी, मेरी तो है ही, कि ऐसे में भी मनुष्य अपने उद्यम से जानना और जाने हुए को बताना भी जारी रखना चाहेगा, छिपाना भी। इसलिए कि मीडिया का जैसा भी बवंडर हो, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का जैसा भी कमाल हो, है तो उसके पीछे मनुष्य ही।  मनुष्य के जानने, बताने और छिपाने की प्रवृत्ति के कारण सभ्यता, संस्कृति और व्यवस्था के बहुत सारे तत्त्व और रूप बनते हैं।

आजकल सभ्यता की तुला में संस्कृति की बात बहुत जोर-शोर से की जाती है। बहुत संक्षेप में सभ्यता और संस्कृति पर बात करना जरूरी है। प्रेमचंद ने एक लेख लिखा था – महाजनी सभ्यता। रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक लेख लिखा था – सभ्यता का संकट। इधर पी सैमुअल हटिंगटन ने भी सभ्यता के संघात की बात अपने ढंग से उठायी है। सभ्यता और संस्कृति में अंतर को समझने का छोटा प्रयास एक रूपक के माध्यम से किया जा सकता है।

किसी विवाह कार्यक्रम में पोशाक के रंग-ढंग, रीति-रिवाजों आदि को देखकर हिंदु या मुसलमान परिवार में शादी का कार्यक्रम है हिंदु परिवार में विवाह का कार्यक्रम है। ये सब संस्कृति के अंग हैं। ध्यान इधर भी जाना चाहिए कि शादी मुसलमान परिवार की हो या विवाह हिंदु परिवार का हो उसमें बिजली के उपकरण, मोबाइल, गाड़ी आदि एक ही तरह के ताम-झाम व्यवहार में आते हैं। ये सभ्यता के अंग हैं।

संस्कृति हमें भिन्न करती है, सभ्यता हमें अभिन्न करती है। संस्कृति पीछे से चिपके रहना चाहती है, सभ्यता आगे बढ़ने के लिए अपने को निरंतर अपडेट करने के लिए मचलती रहती है। संस्कृति और सभ्यता दोनों घुलमिलकर जीवन को आसान बनाते हैं। दोनों में टकराव जीवन को मुश्किल में डाल देता है। टकराव न सुलझने की स्थिति में आदमी सहज रूप से सभ्यता के साथ हो लेता है। जिद या कट्टरता संस्कृति के साथ बने रहने की पैरवी करती है।

सभ्यता के साथ जानेवाले बुद्धिमत्ता का सहारा लेकर अभिन्नता होने की तरफ बढ़ते हैं और भावुकता के सारे संस्कृति के साथ बने रहनेवाले भिन्नता पर कायम रहते हैं। सभ्यता और संस्कृति का टकराव असल में बुद्धिमत्ता और भावुकता का टकराव तो होता ही है, भिन्नता और अभिन्नता का भी टकराव होता है। विभिन्न सभ्यताओं में भी आंतरिक टकराव होता है और विभिन्न संस्कृतियों में भी आंतरिक टकराव होता है। न सिर्फ टकराव होता है, बल्कि मेलमिलाप भी होता है। जीवन में मेलमिलानी अधिक उपयोगी होती है।

मनुष्य की सामाजिकता इस जानने और जाने हुए में कुछ को छिपाने, कुछ को बताने तथा बताये हुए को मनवाने की प्रवृत्ति में है। इस प्रवृत्ति के मनुष्य की भाव और ज्ञान परंपरा की बुनियाद में होने को नकारा नहीं जा सकता है। यह ठीक है कि मनुष्य धन गुलाम होता गया है, जो जितना बड़ा है वह उतना ही बड़ा धन गुलाम है। फिर भी विश्वास किया जाना चाहिए कि मनुष्य किसी भी कीमत पर स्वतंत्रता की चाह को कायम रखेगा। धन भी तो अंततः धन गुलामों को निरंकुश स्वतंत्रता और आधिकारिकता का ही भरोसा दिलाता है। यह भरोसा धन का बहुत बड़ा धोखा है, यह समझने में धन गुलामों को थोड़ा वक्त लग सकता है, अभी। तब तक बहुत देर हो चुकी होगी शायद!

भारत में शासन किसी का हो, जनता के लिए ‘अपना राजा’ ही सब कुछ होता था। राजा भले ही किसी शासक की अधनीनस्थता स्वीकार कर लेता हो। आक्रांताओं से पराभूत राजा परंपरा से प्राप्त अपना ‘नैसर्गिक’ अधिकार भले ही विजेता और नये शासक को सौंप देता हो, बाहरी-भीतरी आक्रांताओं से अपने राजा के पराभूत होने के बावजूद, भारत के प्रजा-जन के मन में राजा के प्रति सम्मान और राजा के राजा होने का भाव हमेशा जिंदा रहता था। आम जनता के पहनावे से इतर राजाओं का अपना भिन्न-भिन्न प्रकार का परिधान हुआ करता था।

अवचेतन में बसे विगत राजा का बाना धारण कर लोकतांत्रिक नेता उनके नये इलाकों में जनता को संबोधित करते हैं। मुराद यह कि जनता के अवचेतन मन में राजा के प्रति सुषुप्त सम्मान और समर्पण का वही भाव संबोधित कर रहे लोकतांत्रिक नेता के प्रति जागे। भारत का आम प्रजा-जन शासक और राजा के अंतर को जानता था। अधिकार राजा में निहित होता था। प्रजा-जन कर्तव्य से बंधा होता था। राजा पालनहार था। प्रजा-जन राजा का सेवक। आज्ञा देना, राजा का दैवीय अधिकार। आज्ञा का पालन, प्रजा-जन का पावन कर्तव्य। दोनों के बीच सवाल-जवाब के लिए कोई जगह नहीं थी। हमारे अधिकतर ‘लोकतांत्रिक नेताओं’ की अतृप्त और दमित वासना की यही चाह रहती है कि शासन का बाहरी ताम-झाम भले ही लोकतंत्र का हो, भीतर में राजतंत्र का पूरा इंतजाम हो।

आजादी के आंदोलन के अंतिम दौर तक, ‘बड़े-बड़े लोग’ मानते थे, जिनके राज में सूरज नहीं डूबता उनका राज भारत में हमेशा कायम रहेगा। ब्रिटिश हुकूमत के जाने का दिन जब सामने आया तो, वे ‘बड़े-बड़े लोग’ यह चाहते थे कि ब्रिटिश हुकूमत उनको राज-पाट सौंप दे। लोकतंत्र के जिस बयार से ब्रिटिश हुकूमत का दाना-पानी इस मुल्क से उठ रहा था, उस बयार में अपना राज-पाट सम्हालना कितना असंभव है, इसका अनुमान उन ‘बड़े-बड़े लोगों’ में से कुछ को ही था।

भारत में लोकतंत्र स्थापित हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के बड़े-बड़े चिंतक सोचते थे, कुछ ही दिन की बात है, भारत में लोकतंत्र का नामो-निशान भारत के लोगों के हाथों ही मिट जायेगा। महात्मा गांधी की हत्या से यह आशंका अधिक गहरी हो भी गई थी। आशंकाओं की गहरी घाटियों के बीच से भारत में लोकतंत्र की यात्रा जारी रही। हमारे पुरखों ने यह लोकतंत्र हमें विरासत में सौंपा और हाथ में वह संविधान दिया जो हमारे लोकतंत्र का प्राण-पुंज और प्रकाश-स्तंभ है। भारत में लोकतंत्र कायम है। इसका श्रेय नेताओं से अधिक इसकी जनता को है। नेताओं को राजनीति से सत्ता चाहिए। जनता को राजनीति से लोकतंत्र चाहिए। भय-भूख-भ्रष्टाचार की चकरघिन्नी में फँसे भारतीय लोकतंत्र को बीच-बीच में छोटे-मोटे झटके लगते रहते हैं; ध्यान रहे, राजतंत्र से लोकतंत्र में उन्नत होना भारत के लिए कोई कम बड़ी उपलब्धि नहीं है।

समस्याएँ और भी हैं, भारत विविधताओं से भरा देश है। विविधताओं की कसमसाहट में एकता की सामासिकता को साधने के लिए समुचित जन-शिक्षा जरूरी होती है। समुचित शिक्षा के अभाव में लोकतांत्रिक मुराद के पूरी न होने की भर-पूर गुंजाइश बनी रहती है। समुचित शिक्षा का महत्त्व किसी को कुछ सिखाने में नहीं, बल्कि शिक्षार्थियों को सीखने में स्वयं-सक्षम बनाने में है। समुचित शिक्षा के अभाव में जनता विवेक-पंगु हो जाती है। बुद्धिमत्ता को विस्थापित कर ज्ञानहीन भावुकता विवेक-पंगु जनता के मन और जीवन पर राज करने लगती है। राजतंत्र में राजा पंगु हो तो, शासक संप्रभु हो जाया करता था।

लोकतंत्र में जनता विवेक-पंगु हो जाये तो लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता-अधिकार प्राप्त करनेवाला नेता तानाशाही की तरफ बढ़ने लगता है। ऐसे में अतिरेकी विराटता नहीं, समवायी लघुता के सम्मान का विवेक ही काम आता है। अतिरेकी विराटता का नहीं, समवायी लघुता के सम्मान का विवेक हैं शील, शक्ति सौंदर्य की मर्यादा के प्रेरणा-स्रोत भगवान राम –  “सो सुख धाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा।।” इसी प्रेरणा की याद दिलाता है सर्वोच्च अभिवादन — राम राम और प्रत्युत्तर जय सिया राम! तुलसीदास के रामचरितमानस के अनुसार —

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।। मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।। अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।

कोई टिप्पणी नहीं: