सत्ता-अधिकार, जनाकांक्षा
और जनादेश
भारत में आजादी के स्वरूप के
बारे में जानने के लिए धर्म और भक्ति के स्वरूप को जानना दिलचस्प ही नहीं जरूरी भी
है। भक्ति धर्म का विस्तार नहीं, धर्म के परिसर से बाहर खड़ी बड़ी
आबादी के लिए विकल्प बनकर दक्षिण में प्रकट हुई, उत्तर में
लाये रामानंद। अलवार, नयनार सहित संपूर्ण सूफी, संत,
की लोक अभिव्यक्ति में हमारे देश का लोकतांत्रिक मूल्य-बोध पल रहा था,
जिनके अधिक परिष्कृत और औपचारिक प्रतिफलन बाद में चलकर हमारे संविधान में
हुआ।
भारत की आजादी के आंदोलन का
चरित्र सिर्फ राजनीतिक नहीं था। पिछली सदियों की भक्ति-परंपरा के संत कवियों,
आर्ष-परंपरा आदि की विभिन्न भावधाराओं में विकसित बहुआयामी जीवन-मूल्य में
निहित सकारात्मकता आजादी के आंदोलन के दौरान सिमट-सिमटकर एक नये सामाजिक यथार्थ को
आकार दे रही थी, जैसे तुलसीदास के शब्दों में, ‘सरिता जल,
जलनिधि महुं जाई।’
महात्मा गांधी की सांध्य
प्रार्थनाओं के स्वर लोकमत के प्रवाह से छनकर आते थे, वे
शास्त्र-सिद्ध से अधिक, लोक-सिद्ध थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार
यह वही लोक है जिसमें बौद्धमत घुल-मिलकर विलुप्त हो गया था। प्रसंगवश, घुलने-मिलने
से कोई विलुप्त नहीं होता बल्कि, जिसमें घुलता है उसका चरित्र बदल
देता है। निरंतरता में नव्यता की नैसर्गिक भारतीय प्रवृत्ति ने परंपरा के प्रवाह
के साथ आधुनिकता के मूल्य-बोध के समाविष्ट एवं समायोजित होने की प्रक्रिया को जारी
रखा।
परंपरा के निर्जीव अंश को
सजीव अंश से विच्छिन्न और सजीव अंश को जाग्रत एवं संरक्षित करने का काम भारतीय
मनीषियों ने चतुर किसान की तरह किया। तुलसीदास को याद करें, ‘कृषी
निरावहिं चतुर किसाना।’ भारतीय मनीषियों के किसान-मन में बसी नव्यता की प्रवृत्ति
ने बहु-सांस्कृतिक सद्भाव के सातत्य को बनाये रखा। 1215 के
मैग्नाकार्टा समेत विश्व की हर विचार-क्रांति को भारतीय मनीषियों ने अपनी चिंतन
परंपरा की आंख से देखा। भारत की आजादी आंदोलन के दौरान सामाजिक चिंतकों की पूरी
आकाश-गंगा सक्रिय थी। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भारत के खुले आकाश के
गहन अंधकार के बीच चांद महात्मा गांधी हैं, तो चमकता
ध्रुवतारा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर हैं।
महात्मा गांधी के नेतृत्व का
प्रभाव था कि लोगों में पुनर्निर्मित भारतीय सामाजिकता को हासिल करने का उत्साह था,
उत्तेजना नहीं थी। स्वार्थ के अवगुंठनों की क्रूरता कम होने के बदले बढ़ती
ही गई है, शायद ऐसे लक्षण देखकर ही निराला ने कहा होगा ‘इस गगन में नहीं
शशधर नहीं तारा’! आज भारत के सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में उत्साहहीन उत्तेजना
और आक्रामक उन्माद का बोलबाला है। आजादी के आंदोलन दौरान हमारे मनीषियों ने जो
मूल्य-बोध संविधान में संरक्षित कर हमारे हाथ में दिया, उसे बचाना
आज की मुख्य जनाकांक्षा है। विडंबना है कि ‘आज के चतुर किसान’ निकौनी या निराई के
नाम पर कृषि को ही उखाड़ फेक रहे हैं।
पत्रकारिता की दुनिया में
एसपी के नाम से विख्यात सुरेंद्र प्रताप सिंह और विभिन्न मुद्दों पर उनके मिजाज की
याद आ रही है! 21 मई 1995, गणेश चतुर्थी, के दिन गणेश
जी के दूध पीने की अफवाह को मीडिया ने खबर की तरह चलाया। अटल विहारी बाजपेयी समेत
बड़े-बड़े नेता गणेश भगवान को दूध पिलाने लगे। अधिकतर नेताओं के भाग सुधर गये। आम
नागरिकों का बड़ा समूह भी पीछे नहीं रहा, उनका क्या हुआ, इसकी
कोई खबर मीडिया के पास नहीं है!
देशी ही नहीं बड़े-बड़े और
प्रतिष्ठित विदेशी मीडिया ने भी इसे अफवाह की तरह नहीं, खबर की तरह
पेश किया। ‘मास हाइपनोसिस’ या ‘साइको मैकेनिक रिएक्शन’ जैसे ‘वैज्ञानिक
सिद्धांतों’ की बात मीडिया में मुंह चुराती दिखी। बाकी इतिहास है। मुख्य बात यह कि
नये माहौल में राजनीति के बाजार ने मीडिया का परीक्षण सफल रहा। बीच-बीच में ऐसे
सफल परीक्षण होते ही रहते हैं।
अपवादों की बात छोड़ दें,
मीडिया में बड़े पदों पर पहुंचकर कुछ लोग अपने ‘बड़ा’ पत्रकार होने के भ्रम
में पड़ गये। पूरे प्रकरण में पढ़ने-लिखने वाले या समाज के समझदार लोगों के
अधिकांश की मनोदशा तो और भी निराश करने वाला रहा है। इनमें नामी गिरामी लोग भी
शामिल हैं। अपने-आप को लेकर भ्रम किसे नहीं होता! उन्हें लग रहा था कि वे न सिर्फ
अति-विशिष्ट हैं, बल्कि यह भी कि वे निर्विकल्प हैं। उन्हें पता ही नहीं
चला कि मीडिया व्यवसाय बन चुका है और वे मीडिया कर्मी बन चुके हैं। जिन्हें
स्थितियों का थोड़ा-बहुत अंदाजा था, जो हवा का रुख कुछ-कुछ भांप चुके थे
उन्होंने बदली हुई हवा के अनुसार अपने को ढाल लिया। संकेत शुरुआती दिनों में ही
मिल गये थे। जब वे इस भ्रम को जीने लगे कि उनका कोई विकल्प नहीं है, एक
दिन मीडिया से बाहर हो गये।
बाहर हो गये लोगों ने ‘सत्य
का दामन’ नहीं छोड़ा। ‘पराजित नहीं, सिर्फ परेशान’ होने जैसे मुहावरों से
बाहर निकलकर सत्य खुद ही अपने को बदलने के चमत्कारी रास्ते पर चल पड़ा! सत्य बदला,
तो शब्द बदले, मीडिया का मुख और मुहावरा बदला! याद करें कबीरदास को,
‘झूठनि झूठ सांच करि जानां। झूठनि मैं सब सांच लुकानां॥’
यही चुनौती है मीडिया की,
आम नागरिकों की भी कि झूठ में छिपे सच को कैसे उपलब्ध किया जाये! मुख्य-धारा
की मीडिया की बात तो रहने ही दें, वैकल्पिक मीडिया पर सक्रिय पत्रकारों
की चुटकियों में विपक्षी गठबंधन इंडी के लिए और खासकर कांग्रेस के लिए सलाहों का
पुलिंदा मचलता रहता है। नागरिकों और ‘पराई पीर से अनजान वैष्णव जनों’ से कहने के
लिए कुछ नहीं होता है, न साँच, न झूठ!
‘पराधीन सपनेहुं सुखु नाहीं
बदलकर’ अब ‘पराधीनता में परमानंद’ हमारी चेतना का हिस्सा बनता गया है। यह सच है कि
भारत की आजादी के आंदोलन का चरित्र सिर्फ राजनीतिक नहीं था और अब यह सच भी मान
लिया जाना चाहिए कि पराधीनता की पटकथा का भी चरित्र सिर्फ राजनीतिक नहीं है।
विषाक्त हितैषियों की भी भूमिका है।
भारत संक्रमण के त्रासद दौर
में है। संक्रमण काल में सोई हुई रसौलियां टीसने लगती हैं, पुरानी
जटिलताओं से जुड़े अंतर्विरोधों का तीखापन बढ़ने लगता है और इतिहास का बोझ विवेक
के माथे लद जाता है। संक्रमण की पीड़ा को झेलते हुए, अब आम
नागरिकों को ही तय करना है कि भारतीय लोकतंत्र में सत्ता-अधिकार ही सबकुछ है या
जनाकांक्षाओं की अनुरूपता में जनादेश का भी कोई महत्त्व है!
लोकतंत्र में मतदान का अधिकार
मतदाता सूची में शामिल हर किसी के पास होता है। सत्ता-अधिकार उन्हें मिलता है,
जिन्हें नियमानुसार बहुमत का समर्थन हासिल होता है। बहुमत के समर्थन के पीछे
जनाकांक्षा रहती है। उन जनाकांक्षाओं के अनुरूप संवैधानिक भावनाओं के मेल में
राजकाज को सुचारु रूप से चलाने का जनादेश हासिल रहता है। आम नागरिकों के बहुमत से
जो सत्ता-अधिकार मिलता है वह जनादेश में तभी बदलता है जब जनाकांक्षाओं के अनुरूप
राजकाज होता है।
जनाकांक्षाओं के विपरीत
जनादेश हो नहीं सकता है। सामान्य लोकतांत्रिक परिस्थितियों में सत्ता-अधिकार,
जनाकांक्षा और जनादेश के परिप्रेक्ष्य पर सोचने या इनकी अर्थ-भिन्नताओं पर
गौर करने की जरूरत नहीं होती है। भारत में इस समय सामान्य लोकतांत्रिक परिस्थिति
नहीं है, इसलिए सत्ता-अधिकार, जनाकांक्षा और जनादेश के फर्क
पर आम नागरिकों का बात करना प्रासंगिक भी है, जरूरी भी
है।
‘पाँच किलो’ का वजन कितना होता
है! क्या नहीं, क्या-क्या खोकर कितनी-कितनी रियायतें मिला करती हैं!
लैंगिक हमला सहती महिलाएं, क्षुब्ध किसान, हड़ताली
चालक, सपनों के रफू में व्यस्त युवा, सामाजिक,
राजनीतिक, आर्थिक अन्याय, बेरोजगारी, निरंतर
महंगी होती शिक्षा, दुर्लभ होती समुचित चिकित्सा से परेशान लोग अंततः अपनी
तर्जनी से जो दिशा दिखायेंगे, उस पर सबकुछ तो नहीं, लेकिन
बहुत कुछ जरूर निर्भर करेगा। कह गये कबीर, ‘मन रे जागत
रहिये भाई।‘
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