हक और अधिकार का सवाल: लोकलुभावन राजनीति के फांस में लोकतंत्र और लोकदेव

हक और अधिकार का सवाल: लोकलुभावन राजनीति के फांस में लोकतंत्र और लोकदेव

याद करें लंदन की संसद में 5 मई, 1789 की तारीख को। ‘न्याय के शाश्वत नियमों’ के उल्लंघन, संसदीय विश्वास के साथ दुराचार और भारतवासियों पर अत्याचार के आरोपों के चलते वारेन हेस्टिंग्ज पर एडमंड बर्क ने महाभियोग लगाया था। महत्त्वपूर्ण यह है कि 32 साल से चले आ रहे इस्ट इंडिया कंपनी के औपनिवेशिक शासन के दौरान, शासकों के दमनकारी कार्यों के आरोपों का हवाला देकर, शासन प्रमुख पर महाभियोग लगाया गया था और अनुमोदित भी हुआ था।

आज, लोकतंत्रात्मक शासन में भी शासकों के द्वारा किये गये कतिपय फैसलों और उनके कार्यान्वयन पर इस तरह की किसी सुनवाई के संकेत नहीं मिलते हैं। हाल के वर्षों से कुछ उदाहरण चुनना हो तो नोटबंदी, नागरिकता संशोधन कानून, हाथरस बलात्कार एवं हत्या, वापस लिये जा चुके तीन कृषि कानून, किसानों को मोटर से रौंदे जाने, अडानी समूह पर हिंडनवर्ग और ओसीसीआरपी (Organized Crime and Corruption Reporting Project) रिपोर्ट, मणिपुर की घटना, ऑलंपिक विजेता महिला पहलवानों के साथ यौन दुर्व्यवहार, आदि की तरफ सहज ही ध्यान चला जाता है।

बहुमत प्राप्त बहुमुखी सांसदों के असंसदीय आचरण और भाषा व्यवहार का बोलबाला बढ़ता गया है। भारत के संसदीय इतिहास में एक सत्र में 150 के आसपास सांसदों का निलंबन! इतना ही नहीं अकाट्य या अनअस्वीकार्य (incontrovertible इनकनट्रोवर्टिबल) तर्क को संसद से समाज तक में फूंक मारकर उड़ा देने की बहुसंख्यकवादी प्रवृत्ति की वाह-वाही करती मुख्य-धारा के मीडिया का सकल रवैया! बहुमत और बहुसंख्यक में अंतर तो होता है न, जैसा अंतर पुष्पांजलि और श्रद्धांजलि में होता है!

असंगठित विशाल आबादी को उनके बहुमत प्राप्त प्रतिनिधि नियंत्रित, शासित करते हैं। जन प्रतिनिधियों का बहुमत जब अपने को जनता का प्रतिनिधि न मानकर जनता को विलोपित करते हुए खुद को जनता का एवजी मान लेता है, तब लोकलाज-हीन संसदीय बहुमत असंसदीय बहुसंख्यकवाद में बदल जाता है। लोकतंत्र के दो प्रमुख विनाशक- नीति समर्थित अनैतिकता और विधि-विधायी अन्याय के वर्चस्व का दौर शुरू होता है।

अनैतिकता और अन्याय के वर्चस्व के ऐसे दौर में राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा के महत्त्व और जरूरत को समझना चाहिए। 2024 के आम चुनाव को केवल राजनीतिक दलों या गठबंधनों के बीच का सत्ता संघर्ष मानना भूल है; सही है 2024 का आम चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से राजनीतिक दलों या गठबंधनों के सत्ता हासिल करने के लिए नहीं, लोकतंत्र के बचे रहने का आत्म-संघर्ष है।

उम्मीद है, लोक अपने को बचाने के लिए लोकतंत्र के परिप्रेक्ष्य को सही करने की आप्राण कोशिश करेगा। भगवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ-साथ रामत्व की भी प्राण-प्रतिष्ठा के लिए सिर्फ कामना ही नहीं, कर्म भी करना होगा! क्या है, रामत्व! रामत्व है- प्रपंचों और षड़यंत्र कथाओं के दंश से उबरते हुए शील, शक्ति और सौंदर्य के सामग्रिक संतुलन का आत्म-समावेशी गुण! 

सवाल उठता है, लोकतंत्र में ऐसा भीतर-घात हुआ कैसे! सपने हर किसी को अच्छे लगते हैं। आभासी और वास्तविक दुनिया इतने पास-पास पहले कभी नहीं थे। सपनों में लोभ-लाभ की पोटली झूलती रहती है। बेहतरी का वादा और लोकलुभावन लफ्फाजी में अंतर होता है। लोकलुभावन राजनीति की लफ्फाजी की शुरुआत हुई तो ‘अच्छे दिन आयेंगे’ के साथ सपनों में नये-नये उछाल आने लगे, सपनों के बड़े-छोटे गुब्बारे फिजा में उतराने लगे।

दुनिया भर में लोकलुभावन राजनीति का अपना ढर्रा है। इतिहास के साथ इसका व्यवहार भिन्न चरित्र की गवाही देता है। हिंदु धर्म में पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धांत सामाजिक न्याय और हक के मामलों में बहुत बड़ी बाधा है। लोग अपने दुर्भाग्य को ही नहीं अपनी सामाजिक वंचनाओं के लिए किसी और को नहीं, खुद को ही दोष देते हैं। पूर्व जन्म में अपने किये पाप को कोसते रहते हैं।

भारतीयों के मन में प्राकृतिक और ईश्वरीय न्याय पर इतना भरोसा है कि वे अपने अंतरमन में अपनी बुरी दशा के लिए खुद को ही दोषी मानते हैं। इतना ही नहीं अपनी स्थिति की बेहतरी के लिए अगले जन्म का इंतजार करते हैं। अगले जन्म में स्थिति बेहतर हो इसलिए इस जन्म में समाज के बड़े लोगों के सारे अत्याचार सहते हैं। उन्हें भीतर-भीतर यह भी लगता रहता है उनका शोषण पिछले जन्म के ऋणशोधन का एक तरीका हैशोषण नहीं है।

पिछले जन्म के अतीत और अगले जन्म के भविष्य के बीच उस के जीवन का झूलता हुआ वर्तमान हर हाल में अपने लिए संतोष का कोई-न-कोई लाजवाब नुस्खा जरूर खोज लेता है। अनंत काल से चली आ रही भेद-भाव से भरी सामाजिक व्यवस्था के जारी रहने के पीछे यह एक प्रमुख कारण है।

हिंदु धर्म के सारे प्रपंच, वर्तमान से काटकर हिंदु मन को अनजाने व्यक्तिगत भावात्मक अतीत और नितांत भ्रमात्मक भविष्य के सुनहरे सपनों के बीच की आवाजाही कराता रहता है। लोकलुभावन राजनीति के लिए यह मानसिक स्थिति बहुत उपयुक्त होती है। आदमी, अपने वर्तमान पर टिकता ही नहीं है। टिकता भी है तो तरह-तरह के अंधविश्वासों में उलझ-पुलझकर रह जाता है।

लोकलुभावन राजनीति इतिहास के अस्तित्व को नहीं मानती, सिर्फ अतीत को जानती है। अतीत की सभी घटनाओं को एक साथ न तो याद किया जा सकता है, न लोकलुभावन राजनीति का ऐसा इरादा होता है। लोकलुभावन राजनीति अतीत के कुछ संदर्भों को चुन लेती है। पौराणिक छायाभास से मनगढ़ंत मिथकथाओं का हवाला देती है।

उसके इतिहास का यही पाठ्यक्रम उसका वृहदारण्य होता है। इस वृहदारण्य से छोटे-छोटे गल्प, नैरेटिव्स निकलते रहते हैं। मीडिया साथ दे तो यह सब तेजी से घटित होता है। इतनी तेजी से कि लोक के सच के संभलने के पहले, लोक का बुद्धि-विवेक सत्योपरांत, पोस्ट ट्रूथ इरा, की माया के कब्जा में हो जाता है।

यह सच है कि जीवन में सिर्फ तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता नहीं, भावुक सांद्रता भी उपयोगी होती है। लेकिन, लोकलुभावन राजनीति, बुद्धिमत्ता के न्यूनतम महत्व को नकारते हुए भावुक सांद्रता के निष्कर्षों को जीवन मूल्यों में बदल देती है। तरह अतीत के निष्कर्षों की मूल्य-मालाओं में सपनीली चमक होती है। मूल्य-मालाओं की चमक में आदमी अतीत की मनोहारी समृद्धि की कल्पित सम्मोहक दुनिया में मुग्ध मन खो जाता है।

अगला चरण उस मोहक दुनिया के खो जाने के अफसोस का होता है। यह अफसोस जनोन्माद में बदलता जाता है। लोकलुभावन राजनीति का नेता इतिहास के नायकों और शासकों की शैतानियों के मगढ़ंत किस्से को फैलाकर जनोत्तेजना और जनोन्माद की आंच बढ़ाता रहता है। जनोत्तेजना और जनोन्माद की चपेट में बहुत बड़ी आबादी पड़ जाती है। जनोत्तेजना और जनोन्माद, लोकतंत्र में ध्रुवीकरण का सबसे बड़ा हथियार होता है।

समझा जा सकता है कि इस प्रक्रिया में भूत के छल से उछलके सीधे भविष्य के स्वप्न में पहुंचाने की अचूक और शक्तिशाली प्रविधि होती है। वर्तमान में घट रही घटनाओं की पारस्परिकताएं विचार-दृष्टि से ओझल कर दी जाती हैं। ऐसा होता है! असल में, लोकतंत्र तटस्थों का कारोबार नहीं है, यह पक्षकारों का उलटा रार भी नहीं है।

भक्तिकाल के बड़े कवि सूरदास से सीखकर, ‘मैं नहीं माखन खायो’ और ‘मैं ने ही माखन खायो’ की तरह राजनीतिक चालाकी कभी कहती है, ‘हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा’ तो, कभी कहती है ‘रार नई ठानूंगा’! वोटबाजी के चक्कर में लोकतंत्र की छाती पर नित नये रार ठनते ही रहते हैं। इस रार में ध्रुवीकरण का शिकार मतदाता सामूहिक या व्यक्तिगत स्तर पर तटस्थ दिखता है, लेकिन होता नहीं है।

मतदाताओं के सत्ता में आकांक्षित हिस्सेदारी का मतलब संवैधानिक प्रावधानों के हाथ में हासिल रहने का आश्वासन, न्याय सम्मत व्यवहार, बेहतर जीवन-स्थिति, गरिमापूर्ण रोजी-रोजगार के अवसरों की उपलब्धता से अधिक क्या हो सकता है! लोकतंत्र का सारा दारोमदार मतदाताओं पर निर्भर करता है। भारत में लोकलुभावन राजनीति की सफलता के रहस्य को समझने के लिए मतदाता सूची की बनावट को देखा जा सकता है।

मोटे तौर पर इसे उम्र के लिहाज से तीन वर्गों में बांटकर देखा जा सकता है। एक वर्ग में 18-35 वर्ष की उम्र के मतदाताओं को रखा जा सकता है। इनका वर्तमान का ठीक से सक्रिय होना अभी बाकी रहता है। एक वर्ग में 60 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाताओं को रखा जा सकता है। इनका लौकिक वर्तमान निष्क्रिय और भविष्य इहलौकिक हो चुका होता है।

18-35 वर्ष की उम्र के मतदाताओं के पास सम्मोहक भविष्य का सपना तो होता है। 60 वर्ष से अधिक उम्र के मतदाताओं पास कल्पित अतीत की समृद्धि के खो जाने का अफसोस होता है। ये दोनों समूह अतीत और भविष्य में निर्बाध आवागमन के लिए सब से उपयुक्त यात्री होते हैं। वर्तमान की खौलती नदी को मनचाहे बार आर-पार करने के लिए काल्पनिक पुल 18-35 और 60 पार के मतदाताओं के लिए सहज उपलब्ध रहता है।

इस काल्पनिक पुल को सरलता से उपलब्ध करवाने में लोकलुभावन राजनीति के अलावा कल्पना प्रसूत साहित्य, धर्म-कथाओं, नीति कथाओं, कलाओं, बौद्धिकों के भावुक व्यायाम आदि के कतिपय रूपों की सहयोगी उपयोगी भूमिका होती है। इनकी गढ़ी हुई विश्वसनीयता और विषाक्त हितैषिता के प्रचार-प्रसार और स्वीकार के लिए जन हित के मिशन से नहीं, स्वहित के कमीशन से प्रतिबद्ध संचार माध्यम तो होते ही हैं। साधन अमित, साधना थोड़े!

35-59 के मतदाताओं के सम्मोहक सपनों में जीवन यथार्थ की खौलती हुई नदी भी होती है, जिससे पार पाने का उसके पास आत्म-छल के अलावा कोई उपाय नहीं बचता है, किसी तरह की पुल सेवा उपलब्ध नहीं होती है। जन-सांख्यकी से पता चलता है, चुनावी राजनीति के लिहाज से इनकी संख्या बहुत कम होती है।

आय के आधार पर भी मतदाताओं के वर्गीकरण से निष्कर्ष निकाले जायें तो, मध्यवर्ग की यही स्थिति सामने आती है। सब पर भारी है लाभार्थी-योजकताओं से किसी-न-किसी स्तर पर जुड़े मतदाता समूह। महिला मतदाताओं के समूह को देखें- कहते हैं महिला मत ही सत्ता का भरोसेमंद औजार बन गया है। यह सब गहरे सामाजिक विश्लेषण और निर्मम आत्मावलोकन का विषय है। कोई पारंगत ही इस काम को कर सकता है।

कोई बता सकता है कि ‘लाडली बहनें’ मतदान का मन बनाते समय स्त्री पर होनेवाले भांति-भांति के दुर्व्यवहारों और अत्याचारों की रोक-थाम के लिए सत्ता के उत्तुंग शिखर पर बैठे ‘लाडले भाई आदि’ क्या नजरिया रखते हैं!

ओलंपिक पदक जीतकर देश का नाम रोशन करने वाली बहन-बेटियों के पुरुष अत्याचार झेलने, विवशता पर ‘लाडले भाइयों आदि’ के खामोश तथा निष्क्रिय रह जाने पर जरा भी नहीं सोचती हैं! सोचती हैं तो, क्या सोचती हैं? हाथरस से लेकर बनारस तक, यहां से लेकर वहां तक कोई जगह नहीं है, त्रेता से लेकर कलियुग तक ऐसा कोई समय नहीं है जो स्त्री पर अत्याचार के मामले में अपवाद हो। वे सोचती हैं तो, सोचती हैं तो क्या सोचती हैं?

लोकलुभावन राजनीति की एक अन्य खासियत है। सत्ता की पीरामिडीय संरचना के उत्तुंग शिखर पर शिला की शीतल छांव में एक ही नेता के लिए आसन होता है। बाकी करबद्ध अनुयायी! इस एक नेता में सामूहिक नेतृत्व या जनतांत्रिक निर्णय पद्धति को अप्रासंगिक बना देने की व्यक्तिवादी, सर्वसत्तावादी रुझान बहुत तेज होता है।

असल में इस एक पूंजीभूत नेता का कारनामा ‘अतीत की खोयी समृद्धि’ को भविष्य में हासिल करने की राजनीतिक उत्तेजना का हड़बोंग मचाकर अपने निकटतम साथियों को अनुयायी बनाकर और बाकी को भक्त की तरह व्यवहार करने की बाध्यकर स्थिति में डालकर, खुद को उनका भगवान बना लेता है- सर्वशक्तिमान, तकदीर बदल देनेवाला, राजा को रंक तथा रंक को राजा बना देने वाला, प्रजा-वत्सल भगवान।

अपनी हनक में लोकतंत्र के अधिकार संपन्न नागरिक के साथ आज्ञापालक प्रजा सरीखे व्यवहार को सहर्ष स्वीकार करने की उम्मीद करने लगता है। आम नागरिकों को उम्मीद लोकतांत्रिक संस्थाओं, सरकारी दफ्तरों से होती है! सरकारी दफ्तर अफसर चलाते हैं। तैतत (तैनाती, तबादला, तरक्की) साधना में लगे अफसर से क्या उम्मीद की जा सकती है।

वैसे भी, सरकार में बैठे जन प्रतिनिधि राजनीतिक आका (पॉलिटिकल बॉस) की तरह आचरण करने लगें तो अफसरों के राजनीतिक कार्यकर्ता बन जाने की होड़ में लग जाने में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है! लोकतंत्र संस्थाओं को बचाता है और संस्थाएं भी लोकतंत्र को बचाती हैं- लोकतंत्र के बचे रहने का यहां सीमित और व्यावहारिक मतलब बस इतना ही है कि किसी तरह की हील-हुज्जत के बिना मान्य नियम कानून की अनुकूलता में सम्मान और बिना भेद-भाव के नागरिक सुविधा और सेवा का मिलते रहना।

सार्वजनिक नागरिक अनुभव और अध्ययन के निष्कर्ष संतोषजनक नहीं है। सरकारी विभागों में मनमानी कार्यनीति का बेधड़क इस्तेमाल होता है। सरकारें विभागों के काम में न केवल सीधे हस्तक्षेप करती हैं, बल्कि उन्हें आज्ञापालकों के प्रति आपराधिक उदारता और आज्ञापालकों की जमात से बाहर के लोगों के प्रति अधिकाधिक शत्रुतापूर्ण रुख-रवैया अपनाने के लिए प्रेरित और पुरस्कृत करती हैं।

आम नागरिकों को ही नहीं किसी को अच्छा-बुरा जो कुछ भी मिलता है, हक और अधिकार से नहीं, कृपा या कोप के प्रसार से मिलता है। लोकतंत्र में सबसे बड़ा सवाल हक और अधिकार का ही होता है। हक और अधिकार के सवाल को लोकलुभावन राजनीति का सामंती मिजाज किसी तरह की वैधता नहीं देता है। लोकलुभावन राजनीति के फांस से लोकतंत्र को निकलना ही होगा, लोकतंत्र में लोक ही देव है!

एक प्रसंग महान साहित्यकार और पत्रकार प्रेमचंद के विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ से साभार—

मेहता- मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।

रायसाहब-  मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे, मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दांत भी फोड़ कर देना न चाहते थे।”

कोई टिप्पणी नहीं: