पुरानी बातों को याद करूँ!

पुरानी बातों को याद करूँ!

राँची विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग। सहपाठियों से जुड़े अनुभव को सिलसिलेवार ढंग से याद करना मुश्किल है।  मुश्किल इसलिए है कि स्मृतियों ठीक से सहेजना हमेशा मुश्किल होता है। बाद में उसे भाषा दो तो कुछ-न-कुछ ऐसा होता है, जो भाषा में समा नहीं पाता है, किसी तरह समा भी जाये तो , कुछ-न-कुछ जरूरी रह जाता है, कुछ-न-कुछ असत्य नहीं भी तो, मिथ्या और अक्सर अवांछित जुड़ ही जाता है। आत्मश्लाघा या आत्म-श्रेष्ठता का मोह अक्सर भारी पड़ जाता है।  मुश्किलें और भी हैं। मुश्किलें जितनी भी हों, यह काम तो करना ही होगा। साथी श्याम किशोर चौबे ने आत्मीयता से अधिकार से कहा है।  मित्र की आत्मीयता से तो फिर भी अपनी आत्मीयता के सहारे ‘कुछ हद तक’ बचा जा सकता है। मित्र के अधिकार को किसी भी सूरत में टालना बहुत कठिन होता है।  

विभाग में पहुँचने के पहले, दो-तीन टुकड़ों में, विभाग के अनुभव जितने में हो जाये, विभाग के बाद दो-तीन टुकड़ों में कह जाने की कोशिश करूंगा, कहना न होगा कि आपकी (तुम लोगों की) राय का महत्व मेरे लिखे से कहीं अधिक है। ये बातें उस वक्त की है जब आँख ने फुरसत नहीं दी कि जुबान हिलती। अब जुबान हिलने की कोशिश कर रही है तब आँख का पावर बढ़ गया है। आँख भी गजब है, जब कमजोर होती है तब कहा जाता है, पावर बढ़ गया है।  एक बात और! यहाँ सभी हिंदी भाषा के बड़े जानकार हैं, मन में अपनी हिंदी के थोड़ा-बहुत साफ होने के लोभ से इनकार नहीं कर सकता!      

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