सरसों
में है भूत का डेरा, छा रहा अंधेरा : तो अब क्या निदान है
13 फरवरी 2024 ‘किसानों का दिल्ली मार्च’ शुरू हो गया है। वैसे तो किसान
आंदोलन का अपना इतिहास है लेकिन, पिछले कई सालों से भारत में किसानों का संघर्ष नये
स्तर पर जारी है। दिल्ली से वास्ता रखनेवाले सभ्य लोगों को यह पसंद नहीं है। पसंद
हो भी कैसे, अंदेशा है कि ‘किसानों का दिल्ली मार्च’ उनका रास्ता कर देगा। उनका रास्ता
हर हाल में साफ रहना चाहिए। बार असोसिएशन ने सभ्य समाज की तरफ से मुख्य न्यायाधीश से
‘संकट से पहले समाधान’ के लिए लिखा। मुख्य न्यायाधीश ने सकारात्मक आश्वासन देते
हुए कहा है कि समस्या होने पर उन्हें बताया जाये।
‘किसानों का दिल्ली मार्च’ खुद किसानों के लिए चुनौती भरा और कष्टकर है,
इसका एहसास सभ्य समाज को है, मगर आराम से। सभ्य समाज के लोग बात-चीत पर जोर देना
चाह रहे हैं, इस वक्त जब ‘किसानों का दिल्ली मार्च’ शुरू हो गया है। ‘किसानों के
दिल्ली मार्च’ के शुरू होने से पहले उन्होंने बात-चीत की जरूरत का एहसास किसी पक्ष
को कराने की कोशिश की या नहीं इसकी जानकारी नहीं है। आखिर देश में लोकतंत्र है।
किसी को अधिकार नहीं है कि वह ‘अन्य’ को कष्ट दे। ‘अन्य’ बना दिये गये किसान को भी
यह अधिकार नहीं है।
सभ्य लोग दृढ़ता से जानते और मानते हैं किसी भी समस्या का बात-चीत से
समाधान किया जा सकता है। ‘समस्या’ हो तो निश्चित ही बात-चीत से समाधान हो सकता है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय जनतांत्रिक
गठबंधन (एनडीए) और जनता दल (यु) के नेता नीतीश कुमार के बीच समस्याओं का समाधान बात-चीत
से निकल आया और जनता दल (यु) के नेता नीतीश कुमार समाधान मिलते ही ‘पुनर्मुषको
होकर’ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में घुस गये हैं। ऐसे ही कई लोगों की समस्याओं
का समाधान ‘बात-चीत’ से निकालने की कोशिश कर रहे हैं। वे बड़े दयालु हैं, बात-चीत
से समाधान निकाल लेते हैं। समस्याएँ कई हैं, समाधान ‘एक ही है’ — मामेकं शरणं
व्रज।
निश्चित ही समस्याओं का समाधान बात-चीत से निकल जाता है, लेकिन शोषण का
समापन बात-चीत से नहीं होता है! ड्रॉन, ड्रॉन! शंभु, शंभु! शंभू बॉर्डर ड्रॉन से आँसू के गोले!
हे, बम भोले! यह हवाई हमला नहीं है तो भी हवाई बाधा तो जरूर है न! आँख का पानी ही मर
गया! किसानों के आँख के आँसू तो पहले से सूखे हैं, साहिब! गोलों ने उनकी आँख में
आँसू लौटा लाया है, आँसू! अब आँख का पानी कौन लौटाये। एक तरफ गोलों के बल पर निकल
आये आँसू से भरी आँख है। दूसरी तरफ मरे हुए पानी की आँख है। बात-चीत कैसे हो? सभ्य
समाज के पास जरूर कोई-न-कोई नुस्खा जरूर होगा। पिछली बात तो ‘आंदोलन जीवी’ कह कर संबोधित
किया गया था। इस बार किसी बेहतर संबोधन की उम्मीद की जा सकती है क्या! जरूर की जा
सकती है! पिछली बार उत्तर प्रदेश का चुनाव सिर पर खड़ा हो गया था और ‘तपस्या में
कमी’ भी समझ में आ गई थी। आश्वासन मिला और इस माहौल में दोनों तरफ समझदारी विकसित
हो गई थी। इस समझदारी ने मतपेटी तक पहुँचने के पहले ही दम तोड़ दिया था! इस बार
लगता है भरपूर ‘तपोबल’ के साथ समझदारी विकसित कर लेने की पूरी तैयारी है। तैयारी तो
यह भी होगी ही कि इस बार जो समझदारी विकसित होगी, अगर होगी तो, वह ‘समझदारी’ मतपेटी
के आस-पास भी न फटकने पाये!
किसानों की समस्या के मूल में शोषण है। इन शोषणों के अनेक प्रकार हैं। भारत
में किसानों के शोषण और शोषण के विरोध में आंदोलनों का इतिहास भी काफी पुराना है। किसानों
के संघर्ष में दमन और उनके शहादतों की दुखद घटनाओं की भी कोई कमी नहीं है। आजादी की
राजनीतिक लड़ाई के पहले किसानों का आंदोलन शुरू हो गया था। कम-से-कम 1858 के आस-पास
से आंदोलनों की शुरुआत हो चुकी थी। कुल मिलाकर आंदोलन के मुद्दे लगातार बने हुए हैं।
इन मुद्दों का सारांश यह है कि किसानी का लाभकर न होना, लागत का अधिक होना,
उससे होने
के आय का लगातार कम होते जाना। पंजाब के किसानों का विद्रोह , पबना (अब
बांग्लादेश), असम में किसानों का विद्रोह, मोपला किसानों का विद्रोह, पूना और अहमदनगर
जिलों में आन्दोलन, मराठा किसानों का विद्रोह, पंजाब का कूका आंदोलन आदि के अलावा चंपराण
का निलहा आंदोलन और बारदोली को इतिहास के पन्नों से खोजकर याद कर लिया जाना चाहिए।
आजादी के बाद भी किसान लगातार आंदोलन करते रहे हैं। लेकिन किसान नेता के रूप में
कम ही लोगों को पहचान मिली है।
अभी 2024 में कर्पूरी ठाकुर, लालकृष्ण आडवाणी, पी. वी. नरसिम्हा राव, चौधरी
चरण सिंह और हरित क्रांति के लिए प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन को भारत
का सब से बड़ा नागरिक सम्मान, भारत रत्न प्रदान किया गया है। इन में चौधरी चरण
सिंह की पहचान किसान नेता की थी। एम एस (मनकोंबु संबासिवन) स्वामीनाथन ने भुखमरी
पर काबू पाने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम
रजगजीवन राम के साथ मिलकर भारत में हरित क्रांति को 1966 में शुरू कर 25 सालों के
निरंतर प्रयास से संभव किया था। उस समय भारत की प्रधानमंत्री, श्रीमती
इंदिरा गांधी थी। सब की भूमिका याद है, याद नहीं है तो, बस किसानों और खेतिहर
मजदूरों की भूमिका याद नहीं है! यह सुखद संयोग है कि किसान नेता और कृषक वैज्ञानिक
को एक साथ देश का सब से बड़ा नागरिक सम्मान प्रदान किया गया। किसान नेता और कृषि
वैज्ञानिक को सबसे बड़ा नागरिक सम्मान किया और किसान अपनी माँग को लेकर बड़े स्तर
पर आंदोलन कर रहे हैं।
किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के निर्धारण के लिए कृषि वैज्ञानिक के
प्रस्ताव को लागू करने की माँग कर रहे हैं। किसानी को लाभकर बनाने के लिए एम एस स्वामीनाथन
ने एक प्रस्ताव दिया था जो जिंदा बना हुआ है। इस प्रस्ताव के अनुसार किसानों के द्वारा
किये गये सीधे एवं वास्तविक खर्च, परिवार के लोगों के द्वारा किया गया पारिवारिक श्रम, खेती के काम
में लगाई गई पूँजी का व्याज और किसानों की अपनी जमीन के भाड़े यानी, सी2 (Comprehensive
Cost) को जोड़कर बननेवाली कुल राशि का ड्योढ़ा। अर्थात सब मिलाकर जिस फसल को उगाने
में लागत (सी2) ₹1000 हो, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) ₹1000+₹500 यानी
₹1500 निर्धारित किया जाये। अभी तो आंदोलनकारी किसानों की माँग है न्यूनतम
समर्थन मूल्य (MSP) को कानूनी दर्जा दिलाने की है। इनकी मुख्य माँग न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को ‘कृपा
के दायरे से बाहर’ बिल्कुल ‘कानूनी दायरे’ में लाने की है। एक तरह से यह आधिकारिकता की
माँग है।
किसानों की समस्या के मूल में शोषण है। इन शोषणों के अनेक प्रकार हैं। भारत
में किसानों के शोषण का इतिहास बहुत पुराना है। आंदोलनों का इतिहास भी काफी पुराना
है। किसानों का संघर्ष के दमन और उनके शहादतों की दुखद घटनाओं की भी कोई कमी नहीं है।
आजादी की राजनीतिक लड़ाई के पहले किसानों का आंदोलन शुरू हो गया था। कम-से-कम 1858
के आस-पास से आंदोलनों की शुरुआत हो चुकी थी। कुल मिलाकर ‘आंदोलन जीवी’ के मुद्दे लगातार बने हुए हैं। इन मुद्दों का सारांश
है किसानी का लाभकर न होना, लागत का अधिक होना, उससे होने के आय का लगातार कम होते जाना। प्रसंगवश, राजनीतिक कारणों से अन्य
सामाजिक आंदोलन की तरह ही किसान आंदोलन पर राजनीति भारी पड़ती चली गई।
भारत में एक तरफ तो राजनीति ही सब बातों पर भारी है और दूसरी तरफ इस समय राजनीतिक
संरचना का मूल्य-बोध अपनी बुनावट-बनावट के ऐतिहासिक गिरावट के दौर में है। किसी संरचना
की बुनियादी बनावट के बिगड़ जाने पर उसे उसी के नजरिये से ठीक नहीं किया जा सकता है।
जितना बड़ा हो डॉक्टर, बीमार पड़ जाने पर वह अपना इलाज खुद नहीं कर सकता है। भारत
के सार्वजनिक जीवन में किसी भी समस्या के निदान के लिए हमें बार-बार मुड़कर अपने
आजादी के आंदोलन के दौरान मिले अनुभवों और मूल्यों को समझने और आजमाने की जरूरत होती
है। आजादी के दौरान मिले मूल्यों को पहचानने और जगाने के लिए भारत को बार-बार समझने
की जरूरत है।
भारत को समझना आसान नहीं है। हर किसी को अपने-अपने भारत की समझ खुद अर्जित
करनी पड़ती है, जैसे अपने-अपने राम को खुद अपने-अपने हृदय में ढूढ़ना होता है।
क्या यह कोई अमूर्त्त या आत्मनिष्ठ प्रसंग
है? अगर अमूर्त्तता का आशय, निराकार या निरगुन से है तो, इसका जवाब, हाँ ही हो
सकता है। आत्मनिष्ठ का तात्पर्य बाह्य के आभ्यंतरीकरण या अन-आत्म के आत्मीयकरण से
है तो, इनकार नहीं किया जा सकता है। यह सब स्वीकारते हुए, इस संदर्भ में एक बात
हमेशा याद रखनी चाहिए की भारत की दार्शनिक और साधना परंपरा अंततः व्यक्ति के स्वयं
के आत्म-निषेध की उच्चतर अवस्था की तरफ बढ़ने की कोशिश करती है।
‘स्वयं’ के ‘वह’ (सोऽहं) और ‘वह’
(सोऽहं) के ‘स्वयं’ होने की निरंतरता की कोशिश ही तो साधना का साध्य है। यह सच हो भी
सकता है, लेकिन इतना ही सच नहीं हो सकता है, इसके अलावा ‘नेति-नेति’ का तात्पर्य और
क्या हो सकता है! वाक-सिद्धि की आत्यंतिक अवस्था उसे ‘बिन वाणी वक्ता बड़ योगी’
बनने की प्रेरणा से जोड़ देती है। ‘स्वयं’ के ‘वह’
(सोऽहं) और ‘वह’ (सोऽहं) के ‘स्वयं’ होने के कारोबार में लगे रहिए प्रभु, थोड़ी
देर के लिए इधर भी नजर डालिए अन्नदाता की सेवा अन्य तरीके से की जा रही है! जनता
का प्रतिनिधि जनता की नहीं सुनता, आप के इशारे पर नाचता है! सामने आम चुनाव है,
प्रतिनिधि चुनने का उत्सव। प्रतिनिधि सुनता तो ‘किसानों का दिल्ली मार्च’ क्यों
होता, आप ही सुन लीजिये! इस तरह ‘तपस्या’ में लीन रहेंगे तो हम लुट ही जायेंगे! हाँ,
तपने और तपाने का ‘तपाधिकार’ तो हर किसी को है, आप को तो है ही!
भारत की ऐतिहासिक अनंतता में विकसित बहुमुखी चिंता-धारा और प्रकृति से नीरव
संवाद तथा धार्मिक परंपराओं और सामाजिक परंपराओं की बहुलताओं से निकली जीवनयापन की
जटिलताओं की संवेदनशीलता को समझना आसान नहीं है। जीवनयापन का प्रमुख साधन किसानी है।
करोना जैसे संकटकाल में भी इसी किसानी का कमाल था कि आर्थिक स्थिति एकदम से उलार
ही नहीं हो गई, बहुत बड़ी आबादी भुखमरी की चपेट में आने से बच गई। इतना ही नहीं,
आज भी ‘पंचकेजीया मोटरी’ की साँठ -गाँठ तो निरंतर चल ही रही है, न!
जनता का विश्वासमत प्राप्त है। भारत जोड़ो न्याय यात्रा चल रही है। राजनीतिक
नेताओं के हलकों में ‘इस घर, उस घर’ की आवाजाही
भी मंथरा सम्मतियों के अनुनय-विनय के आलोक में तेज-मंद गति से जारी है। बेरोजगारी से
तो युवा भी जूझ रहे हैं। महँगाई से रोजगारवाले भी जूझ रहे हैं। फिलहाल, वे लोग किसी-न-किसी
जरूरी मसले को लेकर अस्त-व्यस्त होंगे, क्या पता। माने, उनका पता नहीं! वैसे उनका पता
उनको भी कहाँ होगी, अस्त-व्यस्तता में! किसान आंदोलन कर रहे हैं। शहरी सभ्य लोगों
के जीवन में जाम और दूषण से बड़ा संकट कोई दूसरा नहीं होता। क्या पता होता भी हो!
फिलहाल, सभ्य समाज के लोगों को मुख्य न्यायाधीश का आश्वासन मिल गया है। आगे जो
होगा सो देखा जायेगा, तब तक साभार पढ़िये, अमर साहित्यकार और पत्रकार प्रेमचंद के
उपन्यास “गोदान” का एक अंश —
“मैं (राय साहब) उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर
है और जमींदार ईश्वर का मंत्री। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते
थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से
अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में
मदद देते थे, मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना
देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन
अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण
में पला हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों
में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को यह रियायतें
अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती।”
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)
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