राजनीतिक दुविधा-सुविधा
की खींच-तान में ताना-बाना को उलझावों से बचाने की चिंता
हम भारी उथल-पुथल के दौर से
गुजर रहे हैं। इस दौर में आंख-कान को खुला रखने की जरूरत है। दृष्टि-भ्रम और
श्रुति-भ्रम के इस दौर में आंख-कान खुले रखकर भी सही-सही देख पाना कितना संभव होगा
कहना मुश्किल ही है। अन्य कोई उपाय भी तो नहीं है! देनेवाला जब कुछ देता है तो वह
साफ-साफ दिखता है, देकर क्या ले लेता है, लेते समय
इसका ध्यान भी नहीं रहता है। ‘पांच किलो’ पाने वाले को क्या खबर नहीं कि ‘पांच
किलो’ देकर उन से क्या ले लिया जाता है! ये कैसा अदल-बदल है? अदल-बदल
का पता तो कृष्ण ने अर्जुन को ही कहां चलने दिया था।
भारतीय मन को जीवन के
उथल-पुथल में रामकथा और महाभारत कथा के विभिन्न प्रसंगों की याद स्वाभाविक रूप से
आ जाती है। रामकथा हो या महाभारत कथा केवल युद्ध कथाएं नहीं हैं, न
ही सिर्फ धर्म कथाएं हैं, इसके साथ-साथ और इतर भी ये सभ्यता और
संस्कृति की वृहत्कथा होने के कारण ही महत्त्वपूर्ण हैं। महाभारत के समय धर्म का
अर्थ कर्त्तव्य था। उपासना पद्धति के लिए पंथ शब्द का व्यवहार होता था।
प्यासे पांडव भाई एक-एक कर
पानी की तलाश में निकले थे। पानी यक्ष के कब्जे में था। यक्ष के पास कठिन सवालों
की श्रृंखला थी। जिसका जवाब दिये बिना पानी लेने पर शाप लगने की शर्त थी। हिंदू
लोकोक्ति में कठिन सवाल को आज भी यक्ष-प्रश्न कहा जाता है। यक्ष-प्रश्न की श्रृंखला
में एक प्रश्न था- कौन-सा पंथ अपनाये जाने योग्य है? जवाब था-
“धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः”।
युद्ध के मैदान में
विषाद-ग्रस्त अर्जुन कृष्ण के युद्ध विचार से सहमत नहीं हो पा रहे थे। अर्जुन
युद्ध को वैसा नहीं देख पा रहे थे जैसा कृष्ण दिखलाना चाह रहे थे। तब कृष्ण ने
अर्जुन से कहा कि तुम अपनी आंख से नहीं देख पा रहे हो, मैं तुम्हें
अपनी आंख देता हूं- ‘न तु मां शक्यसे द्रष्टुमननैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते
चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम।’ कृष्ण ने अर्जुन को आंख दी यही सकारात्मक ‘उपदेश’
हमें बताया गया है। उपदेश हमेशा सकारात्मक ही होता है।
‘उपदेश’ के किसी भी प्रकार के
विवेचन को नकारात्मक ही कहा जाता है, यह मजे की बात है। यह सांस्कृतिक
वर्चस्व का उदाहरण है, क्योंकि ‘उपदेश’ अनिवार्य रूप से वर्चस्वशाली का ही
पक्ष-पोषण करता है। यह स्वीकार लेना कि ‘कृष्ण ने अर्जुन को अपनी आंख दी’
सकारात्मक, लेकिन यह कहना कि ‘कृष्ण ने अर्जुन की आंख छीन ली’
नकारात्मक! क्या देकर, क्या छीन लिया गया, इसका ज्ञान
वर्चस्व संस्कृति के अधीनस्थ को नहीं हो पाता है, हो भी जाये
तो वह लोथ ही होता है, उसके पांव नहीं होते कि वह खुद एक दिमाग से चलकर दूसरे
दिमाग तक पहुंच सके।
बहुत मुश्किल से
घुसकते-फुसकते पहुंच जाए भी, तो वर्चस्व की संस्कृति के पास बहुत
सारे ऐसे ‘सांस्कृतिक’ उपाय होते हैं, जिनका प्रयोग कर ‘क्या पाकर,
क्या के छिन जाने के ज्ञान’ के पांव फिर तोड़ दिये जाते हैं। ‘क्या पाकर,
क्या छिन जाने का ज्ञान’ तर्क-वितर्क से होता है, लेकिन
तर्क-वितर्क की पद्धति को अच्छी नजर से वर्चस्व की संस्कृति नहीं देखती है।
महाभारत के यक्ष-प्रश्न
श्रृंखला को फिर एक बार याद करते हैं, “तर्क की कहीं स्थिति नहीं है,
वेद भी कई हैं। ऋषि भी एक नहीं हैं, कि उनके मत को ही सही मान
लिया जाये। धर्म गूढ़ और रहस्य है। इसलिए जिस पंथ का अनुसरण महाजनों ने किया है,
वही पंथ या पथ है- ‘धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स
पन्थाः’।”
वर्चस्व की राजनीति अपनी बात
मनवाने के लिए तर्क करते हुए, सामने वाले को तर्क के निषेध तक ले
जाती है। तर्कहीनता वर्चस्व की वह डोरी है जिस से अधीनस्थ को बांध कर रखा जाता है।
तर्कहीनता की डोरी से बांध कर रखे जाने की प्रक्रिया ही
ध्रुवीकरण की प्रक्रिया है। तर्कहीनता की रसद धर्म मुहैय्या कराता है। तुलसीदास भी
कह गये हैं- “होइहि सो जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ाबै साखा।” तर्क का
विस्तार करने से कुछ नहीं होगा।
जब नजर ही बदल जाये तो नजरिया
के बदलते क्या देर लगती है। ऐसा लगता है कि वर्चस्व की राजनीति ने भारत की जनता की
राजनीतिक चेतना की आंख ही बदल दी है। किसी भी विवेचन के लिए जाग्रत विवेक और संवाद
की जरूरत होती है। भय-भूख-भ्रष्टाचार से परेशान जनता का विवेक वैसे ही विक्षिप्त
हो गया है और ऐसे में संवाद की सारी प्रक्रिया भी बंद कर दी गई है- प्रेस से मिलना
सरकार के लिए जरूरी नहीं रह गया है। कोई सवाल नहीं, कोई संवाद
नहीं। ऐसे में क्या तो विवेचन और क्या तो विमर्श।
घर से बाहर जाने के लिए कदम
उठाने के साथ ही मां-बाप की ओर से बच्चों को, दंपति की ओर
से परस्पर को हिदायत के रूप में दो ‘नेक सलाह’ अनिवार्य रूप से दी जा रही है- पहली,
‘ठीक से जाना’, दूसरी ‘किसी से कोई बात मत करना, जाने किस के
मन में क्या हो’! ऐसे में, क्या संवाद, क्या
विवेचन।
स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालयों
में डिबेट या वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के आयोजनों की दशा-दिशा की स्थिति के बारे
में अध्यापक लोग ही बता सकते हैं। सुना है, विश्वविद्यालय
अनुदान आयोग ने ‘कहने पर’ निर्देश जारी कर अनुदान पानेवाले शिक्षण-संस्थानों को
कहा है कि अध्यापक छात्रों को प्रधानमंत्री का भाषण सुनने के लिए ‘प्रोत्साहित’
करें। ‘प्रोत्साहित’ करने का मतलब समझना क्या बहुत मुश्किल है।
राहुल गांधी देश के एक नेता
हैं, सांसद हैं। वे भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान 23 जनवरी
2024 को यदि छात्रों से बात कर लेते या अपनी बात कह लेते तो
मुख्यमंत्री के वर्चस्व का क्या बिगड़ जाता? बिगड़ यह
जाता कि राहुल गांधी छात्रों के साथ तर्क-वितर्क करते! तर्क-वितर्क ही तो वह उपकरण
है जो वर्चस्व को तोड़ता है और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया के मुंह में लगाम डालता है।
ध्रुवीकरण की राजनीति करनेवाले तर्क-वितर्क का कोई अवसर नहीं दे सकते।
लोकतंत्र के महत्वपूर्ण
आधारों में से एक संवाद है तो तर्क-वितर्क उस संवाद की शैली है। तर्क-वितर्क का
निषेध, संवाद का निषेध है। तर्क-वितर्क का ही निषेध होना है तो फिर
संसद का क्या होगा? इतने विशाल नवनिर्मित संसद परिसर में क्या होगा? संसदीय
लोकतंत्र का क्या होगा? ध्रुवीकरण की राजनीति तर्क-वितर्क के प्रति निषेध की
प्रवृत्ति संसदीय ही नहीं किसी भी तरह के लोकतंत्र के लिए घातक है।
अपने मन की बात कहने का अपना
तर्क हो सकता है, लेकिन दूसरे के मन की बात सुनने-गुनने के निषेध का कोई
तर्क नहीं हो सकता है। यह कैसा लोकतंत्र है जो केवल प्रधानमंत्री को ही अपनी बात
कहने का सुयोग देता है। सही अर्थों में जनता के ‘त्राहिमाम’ को सुनने का कोई
अनुरोध नहीं करता है। भारत में पहले भी प्रधानमंत्री हुए हैं, आगे
भी होंगे या नहीं?
राहुल गांधी यदि 23 जनवरी
2024 को असम के छात्रों के बीच पहुंच जाते तो अध्यापकों के कान तक भी
उनकी बात पहुंच जाती। अध्यापक तो बेचारे ठहरे वेतन जीवी! वे ‘पुस्तकों’ को पढ़ने
से अधिक ‘परिस्थितियों’ को पढ़ने में सक्षम होते हैं। उनको तो रुकना ही था। लेकिन
छात्र? असम के छात्र!
राजनीति को असम के छात्रों का
इतिहास नहीं भूलना चाहिए। दुनिया में संभवतः एक मात्र घटना है कि छात्र कॉलेज के
हॉस्टल से सीधे राज्य सरकार का कैबिनेट बनाने पहुंच गये थे। राहुल गांधी को
छात्रों तक जाने से रोक दिया गया तो छात्रों का समूह खुद राहुल गांधी के पास पहुंच
गया। छात्रों को ‘विचार बंदी’ बनाये रखना मुमकिन नहीं हुआ, वे
खुद चले गये राहुल गांधी को सुनने।
प्रशासन को किस बात की आशंका
रही होगी। छात्रों के अंदर तर्क-वितर्क शुरू हो जाने से नकारात्मकता भर जाने की?
क्या सकारात्मकता के लिए लोगों को ‘विचार बंदी’ बनाने के
प्रयास को सकारात्मक कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक व्यवस्था में ‘विचार
बंदी’ अधिक अनैतिक है या ‘नजर बंदी’ अधिक त्रासद, कहना
मुश्किल है; समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि सामने ‘विचार बंदी’ और
‘नजर बंदी’ का जोरदार सिलसिला शुरू होनेवाला है। क्या ‘विचार बंदी’ को
‘मत बंदी’ यानी ध्रुवीकरण के उद्देश्यों को साधने का ही उपाय माना जा सकता है!
माना जा सकता है।
ध्रुवीकरण को रोकना
है तो ‘मत बंदी’ को अपने-अपने स्तर पर हर किसी को समझना होगा। दुहराव के जोखिम पर
भी कहना होगा, ध्रुवीकरण का अर्थ है ‘निश्चित’ करना। यहां राजनीतिक
संदर्भ में, ध्रुवीकरण का सीधा-सरल तात्पर्य, मतदाताओं के
मन को विभ्रम में डालकर इस तरह से पूर्वाग्रह-ग्रस्त बना देना कि वह अपने
पूर्वाग्रहों के इतर कुछ और सोच ही न सके।
कुछ सोचने के लिए उकसाने की,
अर्थात तर्क-वितर्क की, किसी भी संभावना को सिरे से समाप्त
रोक देना ध्रुवीकरण का मकसद होता है। भारत में मतदाताओं के ध्रुवीकरण के बारे में
जानना हो तो समाज में वर्चस्व की प्रवृत्ति को समझना होगा। समाज में वर्चस्व के कई
स्तर हैं। ध्रुवीकरण को समझने के लिए वर्चस्व के विभिन्न स्तरों की बात करनी
चाहिए। वर्चस्व के विभिन्न आधार हैं, जैसे जातपात,
धर्म, मजहब, दलीय राजनीति आदि।
जरा पीछे मुड़कर देखने की
कोशिश की जा सकती है। भारत में अंग्रेजों का शासन कैसे शुरू हुआ! वे बस मुट्ठी भर
थे! व्यापार करने आये थे। शासक कैसे बन गये? इसके पीछे 1757
के पलासी युद्ध में अंग्रेजों की जीत की बात कही जाती है। वे जीत कैसे गये?
इतिहास की जिल्दों में कई कहानियां सिसक रही हैं।
कहा जाता है कि 1757 के
जिस युद्ध में अंग्रेजों के जीतने की बात कही जाती है, वह तो युद्ध
ही नहीं था! वह विश्वासघात था, शुद्ध रूप से विश्वासघात। हम
भारतीयों में अपना-पराया का कोई बोध नहीं था। भारत के विभिन्न शासकों में जैसा
युद्ध होता रहता था, 1757 को भी वैसा ही एक युद्ध मान लिया
विश्वासघातियों ने।
विश्वासघात करनेवालों के
समक्ष उनकी अपनी महत्वाकांक्षाएं थीं। अंग्रेज फौज लेकर हमारी सीमाओं को लांघकर
नहीं आये थे, न सही अर्थ में घुसपैठिया थे। वे भारत की सीमा में अपना
व्यापार कर रहे थे, प्रभाव का विस्तार कर रहे थे। फिर हमारे विश्वासघात की
डोर ने अंग्रेजों को भारत का शासक बनने का अवसर दे दिया। विश्वासघात का सिलसिला
कभी रुका नहीं, गवाह 1857 का स्वतंत्रता समर है।
हमारी आजादी की कहानी को भी
गौर से देखें तो गुलामी की सिसकती हुई कहानियों के भीतर से ही कोई-न-कोई आवाज
सुननी होगी। संक्षेप में ये कि ‘वे आये, वे गये’! 1857 के 28
साल बाद 1885 में कांग्रेस की स्थापना हुई, पहल की एलेन
ओक्टाविएन ह्यूम ने (A O Hume 1829-1912)।
ह्यूम 28 साल
की उम्र में उत्तर प्रदेश के एटावा का जिला कलेक्टर रहते हुए 1857 का
स्वतंत्रता समर देखा था। न केवल देखा था, ब-मुश्किल अपनी जान बचाई थी।
जिला कलेक्टर रहते हुए उन्होंने एटावा के लिए बहुत कुछ किया। खैर, असल
मुद्दे की बात यह है कि वे इंगलैंड के अंग्रेज शासकों के साथ लगातार संवाद करते
हुए कांग्रेस पार्टी जैसी संस्था के गठन के लिए उनको सहमत करवा लिया।
बालगंगाधर तिलक, दादाभाई
नौरोजी, गोपाल कृष्ण गोखले, फिरोज शाह मेहता आदि के
घनिष्ठ ह्यूम ने भारतीय नेताओं की कान्फ्रेंस बुलाने की व्यवस्था की और दिसंबर 1885
में विशिष्ट क्रिसचिअन वकील उमेश चंद्र की
अध्यक्षता में “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस” की स्थापना हो गई। भारतीय मामलों को
कांग्रेस अंग्रेज शासकों के समक्ष उठाती रही। एक राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हो गई।
कांग्रेस पार्टी का असली
राजनीतिक काम 1901 में महात्मा गांधी के कांग्रेस में शामिल होने के बाद
धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा जो दिन-ब-दिन खट-मधुर अनुभवों के साथ जोर पकड़ता गया।
जुलाई 1933 में कांग्रेस का कार्यकर्ता सम्मेलन पूना में हुआ। इस
कार्यकर्ता सम्मेलन में कांग्रेस जनों की हताशा ने महात्मा गांधी को चिंतित कर
दिया।
नवंबर 1933 से
जुलाई 1934 के बीच महात्मा गांधी ने 20000 किलो मीटर
(बीस हजार किलो मीटर!) लंबी हरिजन यात्रा पूरी की। लगभग नौ महीने की लंबी ‘हरिजन
यात्रा’ से लौटकर महात्मा गांधी कांग्रेस से अलग होने का मन बना चुके थे। अक्टूबर 1934
में महात्मा गांधी ने कांग्रेस की कार्यसमिति और प्रारंभिक सदस्यता से खुद
को मुक्त कर लिया।
अब तक कांग्रेस पूर्ण रूप से
एक राजनीतिक दल बन चुकी थी। महात्मा गांधी जिस “नैतिक और आध्यात्मिक” स्वतंत्रता
की चाह रखते थे उनकी राह कांग्रेस की ‘राजनीतिक’ स्वतंत्रता की राह से सूक्ष्म
तरीके से भिन्न थी। ऊपर से, राजनीतिक दलों में जिस तरह का आंतरिक
संघर्ष और महत्वाकांक्षाओं का टकराव होता है, वह सब तो
कारण रहा ही होगा। एक हकीकत यह भी है कि महात्मा गांधी ने भले ही खुद को कांग्रेस
से मुक्त कर लिया था लेकिन कांग्रेस पार्टी कभी खुद को महात्मा गांधी से अलग नहीं
कर पाई।
इन सब के आज जिक्र का प्रसंग
इतना भर है कि राहुल गांधी इन दिनों लगभग 7000 किलो मीटर
की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ पर हैं। न्याय के पीछे और साथ नीति और नैतिकता का
संदर्भ तो होता ही है न। कम-से-कम मुझे इस वक्त तक राहुल गांधी के राजनीतिक
व्यक्तित्व या चुनावी रणनीति में कोई छे-पांच (लोक मुहावरा है, छे
यानी बड़ी संख्या बाएं रही तो 65 अन्यथा 56) नहीं दिखता
है।
यही बात पूरी कांग्रेस पार्टी
और इंडिया गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव
अलायंस) के अन्य घटक दलों के बारे में नहीं कही जा सकती है। वहां राजनीतिक स्वार्थ
(स्वार्थ में सत्ता सुख और भ्रष्टाचार के आरोपों और दोष-सिद्धि से बचना शामिल है),
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की कोई कमी नहीं है, हां कुछ
अ-स्थिर अपवाद भी हैं।
इनकी राजनीतिक दुविधा-सुविधा
की खींच-तान में लोकतंत्र और जनहित के परिप्रेक्ष्य के ताना-बाना को उलझावों से
बचाने की चिंता मुख्य जगह नहीं घेरती है। इसलिए, इंडिया
गठबंधन (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) इस खींच-तान
में किस तरह टिकेगा, चुनाव लड़ेगा, चुनाव नतीजों के बाद क्या
रुख-रवैया अपनायेगा, कौन किधर जायेगा कुछ भी कहना मुश्किल
है।
सवाल यह भी है कि कांग्रेस और
राहुल गांधी का क्या रुख-रवैया होगा। आम नागरिकों के हतोत्साह होने के लिए ईवीएम (Electronic
Voting Machines) को लेकर टाल-म-टोल और ताल-मेल का मसला तो अलग से है ही।
भारत जोड़ो न्याय यात्रा और
उसके न्याय योद्धाओं के साथ भारत में अंततः क्या राजनीतिक सलूक होगा कहना मुश्किल
है। प्रसंगवश, अपनी तमाम कमजोरियों और फजीहतों के बावजूद भारत के
पढ़े-लिखे लोगों को अगर संसदीय लोकतंत्र में आस्था है तो उसका कारण उनके मन में
बसी स्वाभाविक बदलाव-भीति नहीं, कुछ वास्तविक और ठोस कारण हैं।
भारत के स्वतंत्र होने के
पहले 1943 में डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने ‘श्रमिक एवं संसदीय लोकतंत्र’ पर
भाषण में बताया कि राजनीतिक लोकतंत्र में भी सामाजिक एवं राजनीतिक भेद-भाव होता
है। साथ ही उन्होंने चेताया भी कि संसदीय लोकतंत्र की विफलता का परिणाम विद्रोह,
अराजकता एवं साम्यवाद हो सकता है।
भारत में संसदीय लोकतंत्र के
विफल होने पर इस समय साम्यवादी संगठन और चेतना किसी भी स्तर पर संसदीय लोकतंत्र की
कमी की किसी भी मात्रा में भरपाई करने में सक्षम नहीं हैं। भारत के लोगों के लिए
वांछित कितना है, यह अलग सवाल है। थोड़ी-थोड़ी देर के लिए सही, लेकिन
कानून-व्यवस्था के बेकाबू होने की बारंबारिता में अराजकता की झलकियां दिख जाती
हैं। विद्रोह की स्थिति अभी दूर है। कितनी दूर? कहना
मुश्किल है।
लेकिन आशंका की छायाएं तो मन
को घेरती रहती है। मणिपुर की घटनाएं! मणिपुर में विद्रोह की कोई स्थिति नहीं है।
मणिपुर में नस्ली और धर्मीय आधार पर घात-प्रतिघात की स्थिति है। हां, बहुत
भयावह स्थिति जरूर है। विद्रोह तो राजसत्ता के प्रति होता है, वह
भी तब जब वह हिंसक हो, अन्यथा बात विरोध-प्रतिरोध तक ही सीमित रहती है।
विरोध-प्रतिरोध की दो प्रवृत्तियां देखने में आती हैं संसदीय विरोध-प्रतिरोध और
सड़क पर प्रकट होकर दिखनेवाला जनविरोध-प्रतिरोध।
संसदीय लोकतंत्र का अपना सवाल
है तो जनता के अपने सवाल!
फिलहाल, भारत
में सिविल सेवकों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम के संदर्भ में जर्मन विद्वान मैक्स
मूलर के 1882 में कहे शब्दों को ‘भारत हमें क्या सिखा सकता है’ से
साभार याद करें —
“निष्ठा किसी भी विद्वान
(विद्वान को व्यक्ति भी पढ़ा जा सकता है) को ऐसे मजबूत कवच से मंडित कर देती है कि
प्रशंसा या निंदा का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह उसे ऐसा पारदर्शी मुखरक्षक
भी देती है जो किसी भी दिशा से आने वाले प्रकाश की किसी भी किरण को नहीं रोकती।
उसका लक्ष्य होता है अधिक प्रकाश, अधिक सत्य, अधिक तथ्य
और तथ्यों का अधिक संयोग।
यदि उस लक्ष्य (की) प्राप्ति
में वह असफल होता है, जैसा कि उसके पहले कई विद्वान (विद्वान को व्यक्ति भी
पढ़ा जा सकता है) असफल हुए हैं, तो वह यह जानता है कि सत्य की खोज
में असफलताएँ कभी-कभी विजय और सच्चे विजेता की शर्त बन जाती हैं, चाहे
उसे संसार पराजित कहता है।”
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