आक्रमण और अतिक्रमण के बीच लोकतंत्र
का संक्रमण
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प्रफुल्ल कोलख्यान
शुभकरण सिंह की शहादत और सौ-दो-सौ अधिक
आंदोलनकारियों के आहत होने के बाद परेशान किसान आंदोलन अपना अगला कार्य-क्रम बना
रहा है। मुआवजा, हर्जाना, घेराव, प्रदर्शन आदि के अलावा लोकतंत्र में और क्या उपाय
होता है! किसान आंदोलन अहिंसा और शांति के साथ अपना कदम बढ़ाने और आंदोलन में अहिंसा के प्रति वचनबद्ध है। दुखद है कि
किसान आंदोलन की माँग को समझने और रोकने के लिए सरकार के मन में न कोई सम्मान दिखता
है और न ही कोई निष्कपट समझदारी दिखती है। हो सकता है सरकार किसी अंतर्राष्ट्रीय
करार से बंधी हो, या कोई अन्य बाध्यता हो। सरकार को अपनी स्थिति और अपना पक्ष साफ
लहजे में सार्वजनिक करना चाहिए। जो लोग सीधे और सक्रिय रूप से किसान आंदोलन में शामिल
हैं, उनके अलावा भी देश के लोगों का गहरा सरोकार किसान आंदोलन से जुड़ा हुआ है।
असल में यह उत्पादन की समस्या और
व्यवसाय की जटिलता से जुड़ा मामला है। खेतीबारी आजीविका का साधन होती है। खेतीबारी
को रोजगार से जुड़ने के कारण भी एक समस्या है। आजीविका और रोजगार में अंतर है।
आजीविका मूलतः जीने के लिए किए गये उपायों से संबंधित होती है, इस में धन का
आदान-प्रदान न के बराबर होता है। आजीविका केंद्रित उत्पादनों में वस्तु-विनिमय या
लेन-देन का प्रचलन था। वस्तु से वस्तु का अदल-बदल होता था, वस्तु को धन और फिर धन
को वस्तु में बदलने का चलन कम था। यह विनिमय या लेन-देन परिभाषित नहीं था। सभ्यता
के विकास के साथ लेन-देन की लगभग सभी गतिविधियों में धन की अनिवार्य मध्यस्थता बन
गई। आरंभ में धन की मध्यस्थता से लेन-देन में बहुत सुविधा हो गई। लेन-देन के
परिभाषित हो जाने के कारण आर्थिक व्यवहार में कई तरह की स्पष्टता आ गई। स्पष्टता आ
तो गई, लेकिन इस के साथ ही कई समस्याएँ भी खड़ी हो गई। जीवन के लिए मनुष्यों के
द्वारा किये गये उत्पादनों में अन्न का मौलिक महत्व है। आदमी बिना सोना-चाँदी,
शाही सवारी के जी सकता है, अन्न के बिना नहीं जी सकता है। पहले अन्न-धन का मुहावरा
चलता था। अन्न ही धन था। बदली हुई परिस्थिति में वस्तु (सोना) धन का मानक हो गया,
फिर लेन-देन के लिए वस्तु (सोना) को विस्थापित किये बिना मुद्रा (पाउंड, डॉलर आदि)
धन का अंतर्राष्ट्रीय मानक हो गया। कृषि की तुलना में उद्योग अधिक संगठित होता है।
औद्योगिक उत्पादों का प्रबंधन भी कृषि उत्पादों की तुलना में अधिक संगठित,
सुरक्षित, संरक्षित और आसानी से व्यापारिक काबू में रखे जाने के अनुकूल होता है।
कृषि उत्पादों की तुलना में औद्योगिक
उत्पादों का विपणन भी आसान और मुनाफे की संभावनाओं से भरा होता है। यह मुनाफा सभी
लेन-देन और व्यापार का ब्रह्म है। निराकार, अदृश्य और सर्वशक्तिमान ब्रह्म। मुनाफे
के लिए औद्योगिक उत्पादों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि (ज्यामितिक अनुक्रम से) और
कृषि उत्पादों में कीमतों में धीमी वृद्धि (समांतर क्रम से) होती रही है। इस बीच
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार को नियंत्रित करने के लिए विवस (विश्व व्यापार
संगठन-WTO) की नीतियाँ भी औद्योगिक उत्पादों के
व्यापार में मुनाफे पर केंद्रित रहते हुए कृषि उत्पादों को भी व्यापारिक मुनाफे से
जोड़ने में जोरदार दिलचस्पी लेने लगी। विवस (विश्व व्यापार संगठन-WTO)
ने किसानों को बहुत विवश कर दिया।
इस विवशता के दो कारण प्रमुख हैं। पहला
स्वाभाविक कारणों से ग्रामीण और शहरी लोगों की जीवनशैली में फर्क मिट-सा गया है,
बहुत कम हो गया है। किसानों की खपत (अधिक कीमती) का दायरा उसके उत्पादों (कम
लाभकर) से कहीं अधिक बड़ा हो गया है। दूसरा यह कि खेतीबारी में लगनेवाले औद्योगिक
उत्पादों (INPUT) की कीमतों में भी बहुत वृद्धि हो गई
है। किसान बढ़ी हुई लागत और खपत की दोहरी मार से विवश होता चला गया है। इसलिए
किसान आंदोलन बीच-बीच में विवस (विश्व व्यापार संगठन-WTO)
से बाहर निकल आने की माँग सरकार के सामने रखता है। लेकिन सरकार इससे बंधी है। इससे
बाहर नहीं निकल सकती है तो उसे खेतीबारी को लाभकर बनाने के लिए अन्य उपाय करना
चाहिए।
खेतीबारी को लाभकर बनाने का एक उपाय
स्वामीनाथन के प्रस्तावित सूत्र, C2+50%
(कंप्रिहेंसिव कॉस्ट+50%) है, लेकिन सरकार इसे मानने के लिए
तैयार नहीं है। सरकार के पास स्वीकारने योग्य कोई वैकल्पिक प्रस्ताव भी नहीं है।
वैकल्पिक प्रस्ताव न बन पाने में सबसे बड़ी बाधा मित्र कारोबारी के लाभ में सरकार
की वर्द्धित दिलचस्पी है। इस संबंध में कम-से-कम, दो बातों को ध्यान में रखना
जरूरी है। पहली बात यह कि किसान आंदोलन की माँग का संबंध संपूर्ण ग्रामीण
अर्थव्यवस्था से है। दूसरी यह है कि बहुत मुश्किल से भारत खाद्यान्न के मामले में
आत्मनिर्भर हो पाया है। कहने की जरूरत नहीं है कि इस में किसानों की भूमिका
सर्वोपरि रही है।
आम नागरिकों और सरकार को सर्वाधिक चिंता
इस बात की करनी चाहिए कि कृषि उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भरता का किसी भी तरह
से खंडित होना देश के लिए और इस आत्मनिर्भरता को मुनाफा लोभी कारोबारियों के हवाले
कर देना जनता के लिए, बहुत घातक होगा। देश को इस बात की सुस्पष्ट समझ होनी चाहिए
कि किसान समेत, ग्रामीण अर्थव्यवस्था से
जुड़े लोगों को भी सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन का हक है। इस स्पष्ट समझदारी की
बहुआयामी सक्रियता लोकतंत्र की निःशर्त प्राथमिकता और बुनियादी प्रतिबद्धता है। सभ्य
और बेहतर जीवन का हर नागरिक को है, चाहे वह किसी संवर्ग में आता हो। युवाओं,
महिलाओं, सभी नागरिकों को सभ्य और बेहतर जीवन का हक है। विडंबना है कि हर वर्ग कहीं-न-कहीं आंदोलन में
लगा हुआ है। मुश्किल यह है कि देश का हर राजनीतिक अभियान युद्ध की भाषा में
उपस्थित हो रहा है। ऐसा माहौल बनाया जा
रहा है, जैसे देश नागरिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में जरूरी है लोकतंत्र।
मुश्किल यह है कि लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता पर आये दल और उस के सहयोगी ही माहौलबंदी
के लिए बयानबाजी करते रहते हैं। ऐसे में, लोकतंत्र!
इनकार नहीं किया जा सकता है कि लोकतंत्र
पर संकट है। लोकतंत्र के संकट का असर जीवनयापन पर साफ-साफ दिखता है। अपनी हालत को
समझने के लिए गरीब लोगों को किसी बहुआयामी गरीबी सूचकांक (Multidimensional
Poverty Index) के विश्लेषणों और निष्कर्षों का इंतजार नहीं
करना पड़ता है। जैसे रात में सोये थे, वैसे ही सुबह उठते हैं, पता चलता है अब वे
गरीब नहीं रहे। जैसे थे, वैसे ही हैं – सरकारी कागज बताता है, अब वे और उनका
परिवार गरीब न रहे। आजादी के समय देश के भौगोलिक विभाजन के बाद आबादी की अदला-बदली
में पागलों की अदला-बदली की खबर पगलखाने पहुँची तो पागल लोग बड़ी उलझन में पड़ गये,
जैसा कि सआदत हसन मंटो ने अपनी कहानी “टोबा टेक” में दर्ज किया है – “वो पाकिस्तान में हैं या
हिंदोस्तान में… अगर हिंदोस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहाँ है! अगर वो पाकिस्तान
में हैं तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए भी हिंदोस्तान
में थे!” देश के आर्थिक विभाजन के दौर में गरीबों को यह पता नहीं चलता कि कल तर वे
गरीबी रेखा के नीचे थे तो कैसे, और अब ऊपर हैं तो कैसे जबकि स्थिति जस-की-तस बनी
हुई है।
संसदीय कार्रवाई में संख्याबल से
बार-बार हस्तक्षेप करना, मणिपुर जैसे उपद्रवग्रस्त इलाकों पर भी खामोश रहना, संवैधानिक संस्थाओं की तरफ से मनमाना और लक्षित
कार्रवाई, कांग्रेस के बैंक खाते से रकम निकासी, असहमतों, विपक्षियों,
आंदोलनकारियों, सोशल मीडिया सहित ट्विटर खाता पर रोक लगाने के लिए सरकारी पहल, जब-न-तब नेट सेवा रोक देना, अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता को बाधित करने के लिए उत्कट रहना आदि लोकतंत्र के संकट का लक्षण
नहीं है तो, फिर क्या है?
सामने 2024 का आम चुनाव है। बहेलियों
का झुंड तैयार है। जाल की डोरी साफ-साफ दिख रही है। अस्त्र-शस्त्र दिख रहे हैं।
लोगबाग दहशत में हैं। कब किस पर क्या कार्रवाई हो जाये, कहना मुश्किल है। अँधेरा
और गहन होता जा रहा है। अधिकतर लोग ऐसी बात को दिल पर लेते ही नहीं हैं। चाहे उस
बात का संबंध उनके निजी हित के सार्वजनिक प्रसंग से ही क्यों न हो। बस एक ही जीवन
मंत्र है, जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत
जायेंगे। लोकतंत्र के संकट के कई कारणों और लक्षणों में एक कारण और लक्षण यह भी
है। यह संकट कोई एक दिन में पैदा नहीं हुआ है। संवैधानिक आश्वासन और लोकतांत्रिक
अधिकारों का कोई मतलब नहीं रह गया है। स्वायत्त संवैधानिक संस्थाओं का साहस चुक
गया है। क्या सचमुच हम गुलाम बनने को
तैयार हैं! नहीं ऐसा नहीं है। भारत के नागरिक में इस संकट का मुकाबला करने का
हौसला बचा हुआ है।
जरा पीछे चलते हैं, यह कोई बिल्कुल नई
स्थिति नहीं है। इसकी नोक नई है। इस नोक को समझने के लिए मानव विकास रिपोर्ट-2002
के कुछ निष्कर्षों के आशयों का उल्लेख आवश्यक है। इस रिपोर्ट की चिंता का केंद्रीय
विषय था, आत्म-विभक्त दुनिया में लोकतंत्र की
दुरवस्था। इस रिपोर्ट के एक निष्कर्ष का आशय था –
आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक ज्ञान के परिणाम के
मुद्दे पर दुनिया कभी भी इतनी आजाद नहीं थी और न इतनी अन्यायपूर्ण थी। कितना
खतरनाक था यह संकेत। क्या इस निष्कर्ष का संकेत यह था कि आर्थिक, राजनीतिक
और तकनीक ज्ञान की वर्तमान प्रक्रिया के माध्यम से दुनिया अधिक आजाद और अन्यायपूर्ण होती जायेगी! क्या आजादी अन्याय का
पोषक हुआ करती है? क्या अन्यायपूर्ण दुनिया को एक ही साँस
में आजाद भी कहा जा सकता है? इस निष्कर्ष में एक विरोधाभास भी झलकता था। दुनिया के
आत्म-विभक्त होने के सच को ध्यान में रखने से इस निष्कर्ष के आशय में कहीं कोई
विरोध नहीं मिलता था विरोध का आभास भले ही दिखता हो। इस बँटी हुई दुनिया के
‘थोड़े-से लोगों’ के पास ‘बहुत कुछ’ सिमट रहा था। ‘बहुत से लोगों’ के हाथ से ‘सब
कुछ’ छिनता जा रहा था। इन थोड़े-से लोगों’
के लिए दुनिया अधिक आजाद होती गई है, ‘बहुत से लोगों’ के लिए दुनिया अन्यायपूर्ण
होती जा रही थी। उच्चतर शिक्षण संस्थान के छात्र जब ‘भारत में आजादी’ की बात कह
रहे थे या ज भी कहते हैं तो उसे ‘भारत से आजादी’ बताने की बार-बार कोशिश की जाती
है। आर्थिक, राजनीतिक और तकनीक ज्ञान ‘बहुत से
लोगों’ की आजादी और न्याय के लिए न्यूनतम मानवीय सम्मान भी नहीं रखता है।
यह कहना जरूरी है कि भारत के लोकतंत्र
का संकट सिर्फ सत्ताधारी नेताओं की तरफ से ही नहीं, बल्कि
किसी समय ‘स्टील फ्रेम’ कही, मानी गई और अब तैतत
साधना (तैनाती-तबादला-तरक्की) में लगी नौकरशाही की तरफ से भी कम नहीं आया है।
नौकरशाही इस कलंक से बच नहीं सकती है। आम आदमी ‘गोदान’ के होरी की तरह यही कहने पर
मजबूर है कि हमारी गर्दन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है, अकड़
कर निबाह नहीं हो सकता। आजाद भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह दूसरा कौन है?
विकास की चालू प्रक्रिया के जारी रहने
से दुनिया को बाँटनेवाली यह खाई बढ़ती ही चली गई है। न्याय और बराबरी की मौलिक
मानवीय आकांक्षा को सब दिन फुसलाया, बहलाया नहीं जा सकता है। ध्यान रहे, बर्बरता
का प्रति-उत्पाद बर्बरता ही होता है। युद्ध और खासकर, नागरिक
युद्ध का परिणाम बहुत घातक होता है। यह सच है कि लोभ और भय के इस द्वंद्व में
फिलहाल लोभ का पलड़ा भारी है। दुनिया हो या देश हित-हरण का केंद्र एक होने के कारण
सताये हुए लोगों में एक तरह की एकता बनने लगती है। यही कारण है कि राजनीतिक स्तर
पर भारत में इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A - इंडियन नेशनल
डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) बार-बार बिखरकर सँवर जाता है। इससे लगता है कि
चहुमुखी आक्रमण और अतिक्रमण के इस दौर में संक्रमण की पीड़कताओं और उत्पीड़कताओं
को झेलते हुए भारत के लोकतंत्र को भारत का नागरिक अंततः बचा लेगा।
किसान आंदोलन दुनिया के कई देशों में
इस समय चल रहे हैं। उनकी कोई खबर मुख्यधारा के मीडिया में दिखाई नहीं जाती है,
इसका मतलब यह नहीं कि कहीं कुछ हो ही नहीं रहा है। मुख्यधारा
के मीडिया नहीं दिखाने से आम नागरिकों की जानकारी में वह तत्काल नहीं आ पाता है।
यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि जिस तरह पर्यावरण की समस्याओं का दुष्प्रभाव हमारे
जाने बिना, हमें अपनी चपेट लेता है उसी तरह चेतना का वैश्विक प्रवाह भी अपना कमाल
दिखाता रहता है। दुनिया के उन देशों का लोकतांत्रिक अनुभव वहाँ के नागरिक के
लोकतांत्रिक संघर्ष से समृद्ध है, इसलिए वहाँ के किसान
आंदोलन पर वैसे जुल्म नहीं ढाये जाते है, कील-काँटे
नहीं लगाये जाता हैं, ड्रॉन से उन पर ‘कृपा’ नहीं बरसाई जाती
है, किसी ‘शुभ करण’ को कोई ‘अशुभ करण’ इस
तरह शहीद नहीं कर देता है।
यह सच है कि हमारे देश भारत में राजनीतिक
प्रक्रिया और सामाजिक प्रक्रिया का सचेत विकास सहमेल में नहीं हुआ। सामाजिक
आंदोलनों के गर्भ से टिकाऊ राजनीतिक आंदोलन
विकसित नहीं हुआ, बल्कि अपरिपक्व सामाजिक आंदोलन खुद ही राजनीतिक आंदोलनों में बदलकर अपने
सामाजिक सरोकार के विघटन का जवाबदेह बन गया। वोटाकर्षी कपट, जिसे ‘हिंदी का डंका
पीटनेवालों’ ने अंग्रेजी में ‘सोशल इंजिनियरिंग’ (Social Engineering)
कहा, के चलते ऐसी विषाक्त हवा चली कि ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ भी
किसी-न-किसी साँठ-गाँठ में फँस गया और
‘तिलक तराजू और तलवार’ का भी हौसला पस्त हो गया।
लगभग सभी राजनीतिक दल राजसत्ता और शासन
पर पकड़ बनाये रखने की आकांक्षा से ही नियमित और सीमित होता रह गया। ऐसे में,
`हम भारत के लोग' के जिस ‘हम’ ने
संविधान को आत्मार्पित किया था वह ‘हम’ खंडित का खंडित ही रह गया। इस ‘हम’ को
हासिल करने के लिए हमारा देश स्वतंत्रता
की अधूरी परियोजनाओं को पूरी करने के लिए नये परिप्रेक्ष्य में नये आक्रमण,
अतिक्रमण, संक्रमण की पीड़कता
और उत्पीड़कता के दलन और दोलन के सम्मुख
आज खड़ा है। इस दलन और दोलन के गर्भ से राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत के युवाओं
का एक नया आंदोलन जन्म ले रहा है। जिन्हें संवाद से समाधान पर यकीन है, उन्हें
अपने समय से संवाद करने के लिए इस आंदोलन के आगमन की पगध्वनि को कान धरकर
ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए। क्या पता कोई राह निकल ही जाये! उससे भी बड़ा सवाल यह है
कि क्या सुन पा रहे हैं हम?
हमारा लोकतांत्रिक अनुभव बताता है कि लोक को
पराभूत कर तंत्र को मजबूत करनेवाले कभी कामयाब नहीं हो सकते हैं। लोकतंत्र से
प्राप्त शक्ति का प्रयोग लोकतंत्र के विरुद्ध बहुत दिन और एक हद के बाद नहीं किया
जा सकता है। ऐसे में,आज पूरा भारतीय राष्ट्र आत्ममंथन की
तीव्र प्रक्रिया के सम्मुख खड़ा है। पुराणों के तहखानों से हथियारों को निकालकर
दुरुस्त किया जा रहा है। आज-कल संस्कृति की चर्चा राजनीतिक लोग अधिक कर रहे हैं।
राजनीतिक विकास और सांस्कृतिक विकास में एक महत्त्वपूर्ण अंतर यह भी है कि
राजनीतिक विकास की दिशा बाहर से भीतर की ओर अंतरित होती है जब कि सांस्कृतिक विकास
की दिशा भीतर से बाहर की ओर उन्मुख होती है। भीतर और बाहर का यह द्वंद्व मानव मन
में हमेशा सक्रिय रहा करता है। भीतर का उछाल बाहर को बदलता है तो बाहर का दबाव भी
भीतर को बदल देता है। कहने की जरूरत नहीं है कि आज बाहर का दबाव अधिक है।
राजनीति के राम लोगों को भयभीत करते
हैं। धर्म के राम लोगों को भयमुक्त करते हैं। संस्कृति-चक्र की गतिशीलता को ध्यान
में लाने से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि सभ्यता के त्रास से बाहर निकलने के
लिए ही सामान्यजन अपने धराधाम पर ईश्वर का आह्वान करता रहा है। सामान्यजन की आस्था
के ऐसे राम का आचरण मानवोचित होता है। धर्म के राम किसी अतिरेकी विराटता के नहीं,
समवायी लघुता के सम्मान का विवेक बन जाते हैं। नल, नील
के हाथो डाला गया रामांकित पत्थर पानी पर तैरता है, खुद
राम का डाला पत्थर नहीं तैरता है! हाँ, समकालीन
राजनीति के ‘राम भक्त’ जरूर खुद ईश्वर या उससे भी बड़े बनने की कोशिश में लगे हुए दिख जाते हैं। संदर्भ
प्रेमचंद के ‘गोदान’ से लें तो, होरी के राम और राय
साहब के राम एक ही नहीं हो सकते हैं।
सामाजिकता की गत्यात्मकाता में
सुस्पष्ट आदर्श और दृश्य नायक के होने से जन की आत्मीयता प्रसंग जुड़ता है। आदर्श
और नायक से ही लोगों के मनोजगत का तादात्मीयकरण संभव होता है। पिछले दशकों में
छलनायकों की बाढ-सी आ गई। इस बीच कुछ नायक भी उभर रहे हैं। इन नये नायकों पर
भ्रष्टाचार का बोझ नहीं है, हालाँकि अपने को
स्वयं-प्रमाण माननेवालों की तरफ से ऐसा झलकाने की पुरजोर कोशिश निरंतर की जाती है।
यह सच है कि आक्रमण, अतिक्रमण, संक्रमण
की पीड़कता और उत्पीड़कताओं का अँधेरा बहुत घना है। आशा की किरण भी तो है! जोरावरों के जोर से जितना भी अँधेरा
फैलाया जाये, भारत में लोकतंत्र की प्रकाश
यात्रा जारी रहेगी।
यात्रा जारी है, तब तक साभार, पढ़िये
जनकवि बाबा नागार्जुन की एक कविता –
“हिटलर के तंबू में
अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त
रहे थे भून
छांट रहे थे अब तक बस वे बड़े-बड़े
कानून
नहीं किसी को दिखता था दूधिया वस्त्र
पर खून
अब तक छिपे हुए थे उनके दांत और नाखून
संस्कृति की भट्ठी में कच्चा गोश्त
रहे थे भून
मायावी हैं, बड़े
घाघ हैं,उन्हें न समझो मंद
तक्षक ने सिखलाये उनको ‘सर्प-नृत्य’
के छंद
अजी, समझ
लो उनका अपना नेता था जयचंद
हिटलर के तंबू में अब वे लगा रहे पैबंद
मायावी हैं, बड़े
घाघ हैं, उन्हें न समझो मंद”
(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और
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